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Saturday 19 April 2014

प्रोफेसर (डॉ) राम लखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बान्दर सिंदरी, किशनगड़, अजमेर- 9413300222

भारत में नदियों के किनारे बसी वैदिक बस्तियों ने सबसे पहले इनके प्रति अपनी जवाबदेही जाहिर करते हुए पर्यावरण को लेकर शांति मंत्र तैयार कियाजिसे धर्म यानि कर्तव्य पालन की बात के रूप में  घर-घर तक पहुंचायाजिसमें जलअग्निपृथ्वी,प्रकृतिवायू और आकाश को कल्याणकारी बनाने के लिए यज्ञों का आयोजन शुरू हुआ ताकि पूरी प्रकृति को प्रदुषण मुक्त किया जा सके। इस सबके लिए उन्होंने अपनी-अपनी लोकभाषाओं में कहावतें भी गढ़ी। किन्तुयही कर्तव्यपरायणता भारतीय मीडिया से लगभग गायब है। मीडिया और समाज के रिश्ते में दो पक्ष चिंताजनक हैंएकमीडिया और  मीडियाकर्मी महानगरों के उपभोक्तावादी वर्ग की चिंताओं से ग्रस्त हैं। देश के आम नागरिक के दुख-सुख की खबरें कमोबेश गायब हैं। दूसरा चिंताजनक पक्ष मीडिया कर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है।
 एक सर्वे के अनुसार देश की ख़बरें तय करने वालों में 83 फ़ीसद पुरुष हैं और 86 फ़ीसद हिन्दू द्विज जातियों से। मुसलमान व पिछड़ी जातियां सिर्फ़ चार फ़ीसद और दलित-आदिवासी शून्य... शोध से पता चला कि हिंदी मीडिया में 87 फ़ीसद मीडिया कर्मी ब्राह्मण परिवार से हैं किन्तु उन्होंने अपनी पहचान छुपाने के लिए उनके नामों से जातिसूचक शब्द हटा लिये हैं । हर किसी का विचार अपनी जाति-समुदाय से बंधा नहीं होतालेकिन अगर मीडिया समाज के चरित्र से इतना अलग हो तो इसका खबरों पर असर पड़ना अवश्यम्भावी है। ज़ाहिर हैमीडिया और समाज के रिश्तों पर कोई क़ानून नहीं बन सकतालेकिन हमें ऐसी संस्थाओं की ज़रूरत है जो इन रिश्तों की लगातार पड़ताल करे और मीडिया को आईना दिखा सके।
 मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की ज़रूरत है। मीडिया शिक्षा में हमें तीन गुणों ; ज्ञान,निरीक्षण और विश्लेषण तथा अभिव्यक्ति की क्षमता को बढ़ाना होगा। इन गुणों से युक्त पत्रकार या मीडिया कर्मी जहां कहीं भी जायेंगे अपनी छाप छोड़ेंगे। ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शिक्षकों और विद्यार्थियों को बहुत मेहनत करनी होगी। निरीक्षण और विश्लेषण की क्षमता को धीरे-धीरे अनुभव के आधार पर विकसित किया जा सकता है तदनुरूप  ज्ञान के आधार पर किये गये निरीक्षण और विश्लेषण से अभिव्यक्ति की योग्यता को भी विकसित किया जा सकता है।
 राडिया प्रकरण मीडिया और पूँजी के रिश्तों के एक छोटे से पहलू का पर्दाफ़ाश करता है। बड़े-बड़े संपादक उद्योगपतियों की हाज़िरी बजाते हैंउनके दलालों के इशारे पर भी अपनी कलम नचाते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद इसके एक संस्थागत पहलू का ख़ुलासा हुआ। अनेक अख़बारों ने चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवारों के पक्ष में खबरें छापने के दाम वसूलेकई आर्थिक अख़बारों ने कंपनियों के हक़ में ख़बरें छापने के बाक़ायदा लिखित क़रार कर रखे हैं। मीडिया और पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशे लगनी जरूरी हैं। अधिकांश अख़बार और टीवी चैनल पूंजीपति या कंपनी की मिलकीयत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों के लिए करना चाहता है। अनेक मीडिया के मालिक या तो रियल एस्टेट का धंधा चलाते हैंया फिर रियल एस्टेट में अनाप-शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनल खोल लेते हैं। यहाँ तक कि मीडिया का इस्तेमाल दलाली और ब्लैकमेल के लिए भी होता है।    

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