रघुवीर सहाय की आलोचनाशीलता
प्रोफ़ेसर ( डा .) रामलखन मीना , अध्यक्ष,हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ में हुआ। वहीं से इन्होंने एम.ए. किया। 'नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक तथा 'दिनमान साप्ताहिक के संपादक रहे। पश्चात् स्वतंत्र लेखन में रत रहे। इन्होंने प्रचुर गद्य और पद्य लिखे हैं। ये 'दूसरा सप्तक के कवियों में हैं। मुख्य काव्य-संग्रह हैं : 'आत्महत्या के विरुध्द, 'हंसो हंसो जल्दी हंसो, 'सीढियों पर धूप में, 'लोग भूल गए हैं, 'कुछ पते कुछ चिट्ठियां आदि। ये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। पिछले एक अरसे से हमारी पीढ़ी के लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकार इस बात को जान रहे थे कि रघुवीर सहाय की रचनाशीलता उनकी दुनिया में न सिर्फ़ किसी न किसी तरह शामिल हो गयी है बल्कि उसका एक ऐसा जीवंत हिस्सा बन गयी है जिससे उनका वास्ता अब बार-बार पड़ता है। रघुवीर सहाय कोई ऐसे लेखक न थे जो अपनी बात कह चुका हो, अपनी कारगुजारी दिखा चुका हो और अब जल्दी से उसका साहित्यिक मूल्यांकन कर डालना या स्मारक बना देना शेष रह गया हो। उनका निधन सिर्फ़ उस तरह असामयिक नहीं है जिस तरह कहने का चलन है। वह ज्यादा गहरे, ऐतिहासिक अर्थों में असामयिक है।
रघुवीर सहाय हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के पिछ्ले 40-45 वर्ष के इतिहास की उलझनों से गुजरकर रचनातमक अभिव्यक्ति का निरंतर संघर्ष करते हुए उस जगह आ पहुंचे थे जहाँ कोई कवि फिर से अपने तमाम पिछले अनुभव पर एक बड़ी नज़र डालता है। उनका रचनात्मक संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था, बल्कि जैसा वे महसूस भी करते थे, एक नए, विषम और कठिन दौर में दाखिल हो रहा था। इस तरह उनकी रचा अभी बीचोंबीच और अधूरी थी क्योंकि वे वास्तव में इसी नए दौर के रचनाकार थे जो एक अर्थ में अभी-अभी शुरू हुआ है। रघुवीर सहाय उस पीढ़ी के सदस्य थे जो आजादी की लड़ाई के ख़त्म होने के बाद (या लगभग उसके दौरान) सजग और रचनाशील हुई थी। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी संवेदनशीलता के बहुत से अंदरूनी सूत्र इसी दौर की खूबियाँ लिए हों। मसलन, एक तरह की स्वचेतनता और एक व्यक्ति, एक नागरिक होने का अहसास जो उनमें भरपूर था, शायद इसी दौर की देन था। लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो गए है कि आजादी के बाद जो नयी काव्यधारा उभरकर सामने आयी उसमें कई तरह के मध्यवर्गीय तत्व शामिल थे,जो अपने-अपने कारणों से एक जगह आ मिले थे। उनका एक साथ होना लगभग एक तरह का ऐतिहासिक संयोग था। इतनी सहमति जरूर थी कि ये सभी तत्व नयी इतिहासिक परिस्थिति में एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना चाहते थे। इस धुंधली इच्छा में एक बड़ी ऐतिहासिक जरूरत भी शामिल थी। लेकिन प्रबल यह इच्छा नहीं, सामजिक शक्तियों का नया संतुलन सिद्ध हुआ जो इसके कुहासे में बन रहा था और जो बाद के वर्षों में धीरे-धीरे व्यवस्थित होता चला गया और इन तत्वों के भवितव्य को भी अपनी तरह तय करता चला गया।
पिछले 30 साल की परीक्षाओं में यह भी स्पष्ट हो गया कि स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समझौते की विरासत की तरह सामने आए इन मध्यवर्गीय तत्वों में जनतांत्रिक सारवस्तु और जीवनी शक्ति एक जैसी नहीं है। रघुवीर सहाय के बारे आज शायद यह अलग से प्रमाणित नहीं करना होगा कि वे उस दौर में सामने आयीं उन विरल प्रतिभाओं में थे जिनका रचनात्मक व्यक्तित्व जनतांत्रिक प्रेरणाओं और अनुरोधों के ज्यादा मौलिक, विकासमान और वास्तविक अंशों को आत्मसात करते हुए बना था। मेरे विचार से वे उस दौर के उन सबसे अधिक संवेदनशील, आधुनिक, विवेकशील और प्रबुद्ध मध्यवर्गीय तत्वों में थे जिनमें राष्ट्रीय नवजागरण की विकासशील, जीवित और श्रेष्ठ परम्पराओं का खोजपूर्ण और रचनाशील उपयोग करके उसे आगे विकसित करने की योग्यता और इच्छा इतनी थी कि उसे आसानी से कुचला नहीं जा सकता था। अनेक सामाजिक-राजनीतिक कारणों से आजादी के बाद हमारे शासकों को यह जरूरत महसूस हुई कि वे नए मध्यवर्ग मध्यवर्ग की आदर्श भावना और जनतांत्रिक आकांक्षाओं को सामाजिक रूपांतरण के बड़े उद्देश्य से काट दें। `विकास` का नक्शा वे खुद बनाकर दें और बाके लोग उसी में रंग भरें। इस नयी ऊर्जा को अनुकूलित करने के लिए उन्होंने बड़े कौशल से इसे इसी की सीमा में बांधकर छोड़ दिया।
इस तरह इन तत्वों को आत्म-परिष्कार के संघर्ष में भी अलग और लगभग मुक्त कर दिया गया। अब यह एक तथ्यहै कि नए मध्यवर्ग का यह जो नमूना तैयार करके सामने रखा गया उसकी नाप में उस दौर की अनेक समा ठीक-ठीक समा गयीं बल्कि उसी में मरखपकर सम्पूर्ण भी हो गयीं. लेकिन रघुवीर सहाय का मामला ऐसा नहीं था. उस दौर के अनेक कवियों की तरह अपने सामाजिक सरोकारों को धो-पोंछकर `आधुनिक` बनने के बजाय उन्होंने ज्यादा मुश्किल रास्ता चुना. मुफ्त की आधुनिकता और जाहिल आत्मप्रेम के जिस मकड़जाल में उस युग की अनेक प्रतिभाओं ने अपनी उम्र सुखपूर्वक गुजार दी, उसके प्रति रघुवीर सहाय शुरू से ही सशंकित और सावधान थे. बल्कि उसके साथ उनकी कुछ बुनियादी शत्रुता थी। उन्होंने अपनी मनुष्यता और अपनी रचना को समाज के बीचोंबीच, उसके भीतर और उसके साथ-साथ ही पहचाना और साथ-साथ ही बचाना चाहा. आजादी के बाद के दौर की यह हकीकत एक बड़ी दुर्घटना की तरह हमेशा उनकी स्मृति में जीवित रही कि हमारे शासक वर्गों ने सत्ता का निरंकुश संचय करने के क्रम में जनता के व्यापक हिस्सों से यह अधिकार भी छीनकर अपने पास रख लिया है कि वे अपने मानवीय अस्तित्व को खुद पहचान और बदल सकते हैं. संस्कृति और समाज की संस्कृति और समाज की रचना के अधिकार से साधारण जनता को वंचित करने और अभिव्यक्ति के तमाम उपलब्ध साधनों पर धीरे-धीरे कब्जा जमाते हुए ही सत्ताधारी वर्गों के लिए यह संभव हो सका है कि वे विकृति और विनाश की आक्रामक मुहिम को बिना किसी बड़े प्रतिरोध का सामना किये चला सकें.
रचना को रघुवीर सहाय ने इसी खोयी हुई पहलकदमी को छीनने के अर्थ में पहचाना था. इसी तरह यह बात भी गौरतलब है कि उन्होंने अपने समय के इस शीतयुद्धीय सुझाव को अमान्य कर दिया था कि `जनतांत्रिक मूल्यों` या `मानव-मूल्यों`, व्यक्ति और `अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता` को अपनी जाहिल और निजी निर्विघ्न दुनिया की ढाल बनाकर खड़ा कर दिया जाय। अपने बहुत से समकालीनों से वे इस बात में महत्वपूर्ण भिन्नता लिए हुए थे कि उन्होंने अपनी आधुनिकता और अपने जनतांत्रिक आदर्शों को एक कहावत की तरह नहीं पा लिया था बल्कि उन्हें अपने रचनात्मक और सामाजिक व्यवहार से बार-बार खोजते, स्थिर करते, बरतते और बदलते हुए अर्जित किया था। एक तरह से रघुवीर सहाय पांचवें-छठे दशक की आधुनिकतावादी निर्मिति के सतही अंतर्विरोधों को बाहर लाकर उसकी स्वतः सम्पूर्णता को ध्वस्त करने वाले कवि भी कहे जा सकते हैं। रघुवीर सहाय के रचनाशील व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी शायद उनकी संपन्न और आत्मप्रबुद्ध जनतांत्रिक संवेदनशीलता ही थी। लेकिन उनकी शक्ति इस बात में नहीं थी कि वे जनतांत्रिक मूल्यों के `पक्षधर`, उदघोषक या वकील थे बल्कि इस बात में थी कि उन्होंने इन मूल्यों को निर्दिष्ट और इनके पक्ष को परिभाषित मानकर इस तरफ़ से आँखें नहीं मूँद लीं। उन्होंने किसी जड़ अमूर्तता में इन्हें ग्रहण नहीं किया बल्कि ठोस सामजिक आलोचना करते हुए बार-बार परखा। यह निरंतर जाग्रत, सचेत, चीजों को उलटती-पलटती, खोजती, बचाती और नष्ट करती हुई कठोर आलोचनाशीलता ही रघुवीर सहाय की संवेदनशीलता की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है। जो विद्वान इसे `निरी आधुनिकता` (या नयी कविता की `बौद्धिकता`!) मानकर बड़ी आसानी से पल्ला झाड़ लेते हैं, वे यह नहीं देख पाते कि कवि ने इस विवेक को समाज के भीतर, मनुष्यों और संस्थाओं के आपसी संबंधों के भीतर; अत्याचार, अन्याय और पतन के अनगिन दृश्य-अदृश्य रूपों की वर्षों की व्यथा भरी मुश्किल छानबीन के दौरान विकसित किया था।
रघुवीर सहाय ने बहुत सारे मसलों पर जिस तरह अपना रुख तय किया उससे द्वंद्वों को पहचानने वाली उनकी आधुनिक और कुशाग्र आलोचनात्मक बुद्धि का परिचय मिलता है। शायद इसे वजह से वे कई तरह के उन फंदों से बचे रहे जो उनसे बहुत दूर नहीं थे। मसलन रघुवीर सहाय उन लोगों में शामिल नहीं हुए जिनको एक झटके में आधुनिक होने के लिए पहले `कास्मोपालिटन` होने की जरूरत हुई और फिर `भारतीय` होने के लिए `जड़ों`और `जातीय स्मृति` के अन्धकार में शरण लेना जरूरी लगा। `राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत` से भी उन्होंने कोई `मिथकीय तादाम्य` कायम नहीं किया कि वे उस विरासत का भारी मुकुट बस सर पर उठाये घुमते। इसके बजाय उन्होंने इस परम्परा के जीवित अंश को सामाजिक जीवन में पहचानने की कोशिश की। यह पता लगाया कि पहले की इन इन परम्पराओं को अलग-अलग सामाजिक शक्तियां किस तरह व्यवहार में ला रही हैं और यह कि इनके जीवन पोषक तत्वों की रक्षा आज किस तरह की जा सकती है। यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती कि रघुवीर सहाय ने पश्चिमपरस्ती या पश्चिम-विरोध (या एक साथ दोनों) के कुटिल चक्र में फँसने के बजाय ठोस यथार्थ की सकारात्मक और विवेकपूर्ण आलोचना से ही अपनी दिशा तय की जबकि आधुनिकतावादी या `समाजवादी`चिंतन के प्रभाव में आने वाले अल्पविकसित मध्यवर्गीय तत्व अधिकतर इससे बच नहीं सके।
मुक्तिबोध के बाद संभवतः वे पहले कवि हैं जिन्होंने हमारे समय के गंभीर और सर्वव्यापी संकट की ऐतिहासिकता को इतनी सम्पूर्णता के साथ सामने रखा है। इस संकट का वर्णन बहुत से कवि करते हैं लेकिन रघुवीर सहाय की कविता एक तरह से इस संकट की प्रखर और विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करती है जो यह बताती चलती है कि आखिर क्या-क्या दाँव पर लगा हुआ है और अभी बचा हुआ है। एक सरलचित्त,सहजविश्वासी कवि अक्सर अपनी सदाशयता से कई तरह के काम चला लेता है। अक्सर इस सदाशयता में एक बौद्धिक आलस्य छिपा रहता है जो कवि के सामने कोई असुविधाजनक स्थिति खड़ी हो इससे पहले ही बच निकलने का रास्ता दिखा देता है। रघुवीर सहाय उन सरलचित्त कवियों में न थे। वे ऐसी सुविधाओं का इस्तेमाल करने से वितृष्णापूर्वक परहेज करते थे। इसके बजाय पूरी चुनौती स्वीकार करने का रास्ता उन्हें ज्यादा आकर्षित करता था। बल्कि हम जानते हैं कि रचना के बीच में ऐसे चोर दरवाजों को ढूंढ़-ढूंढ़कर पकड़ना और बंद करना उन्हें अलग से प्रिय था।
भारतीय समाज और राज्यव्यवस्था के फासीवादी पुनर्गठन की भूमिका ख़ास तौर पर पिछले बीस वर्षों में जिस तरह बनकर सामने आयी है, रघुवीर सहाय की कविता की एक नज़र लगातार उसकी क्रियाविधि पर रही है। इस कठिन दौर में अपमान और व्यथा का भार उठाये हुए भी वह इसकी अन्तरंग कथा को खोलकर कहती रही है। आने वाले दिनों में रघुवीर सहाय हमारे समय के इस उदीयमान फासीवाद के उन पूर्व प्रतिरूपों और विधियों की पहचान की एक साहसिक और बड़ी पहल करने वाले कवि के रूप में जाने जायेंगे जिन्हें पिछले दिनों हमारे सामाजिक जीवन में, रिश्तों में, देखने, महसूस करने,सोचने-समझने के तौर तरीकों में बड़े कपटपूर्ण और रहस्यमय ढ़ंग से शामिल किया गया है। आज जबकि और माध्यमों की तरह कविता की भाषा भी अभिव्यक्ति के इन झूठे साँचों की व्यूह रचना के भीतर चक्कर लगाने में ही परिपूर्ण हो जाती है, रघुवीर सहाय की कविता इन साँचों को तोड़कर बार-बार हमें हमारे वक्त के मनुष्य का जीवन, उसकी जीती-जागती वास्तविकता,उसकी तमाम सुन्दरता और क्रियाशीलता दिखला जाती है। कई बार ऐसे दुर्लभ कोण से, जहाँ से उसे बिना क्षति के पूरा देखा जा सकता है। ऐसा कई बार होता है कि वे एक सधे हुए, मेहनती, कुशल सर्जन की तरह मानवीय स्थितियों को,खासकर उनमें निहित ज्यादा नाजुक और कीमती चीजों को तमाम तरह के खतरों से खेलते हुए बचाकर निकाल लाते हैं।
हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है
हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे
हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए
जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूँज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है
हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !... हँसो हँसो जल्दी हँसो
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी।
धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी।
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख कर के आये
लोग सिमट कर आँख गड़ाये
लगे देखने उसको, जिसकी तय था हत्या होगी।
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसनें आखिर उसकी हत्या होगी?
भीड़ ठेल कर लौट आया वह
मरा हुआ है रामदास यह
'देखो-देखो' बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलानें उन्हें, जिन्हें संशय था हत्या होगी।... रामदास
दो पंक्तियों के बीच की जगह- यशस्वी कवि रघुवीर सहाय ने एक बार कहा था कि कविता की दो पंक्तियों के बीच दरअसल जो खाली जगह होती है, वह वास्तव में खाली नहीं होती। उसमें भी कविता छिपी होती है जिसे समर्थ कवि संभव बनाते हैं और समर्थ पाठक समझ लेते हैं। यह तो हम जानते हैं कि कविता अपने प्रकट अर्थों से परे जाती है और हर पाठ से नया अर्थ खुल सकता है। सवाल यह है कि यह बात क्या किसी निबंध या कहानी पर भी लागू होती है। इसका जवाब देना मुश्किल है। लेकिन निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि न केवल दो पंक्तियों के बीच बल्कि दो शब्दों के बीच की जगह भी जैसे कुछ छवियाँ और ध्वनियाँ लिए हुए हों। भाषा की यह काव्यात्मकता ही निर्मल वर्मा की शक्ति है जिसे उदयप्रकाश की अद्भुत भाषा और भी चमकाकर पेश करती है। आज हिंदी कविता की भाषा में चमक कम हो रही है, जबकि हिंदी कहानी की भाषा में यह चमक बढ़ रही है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी कहानी की भाषा में जो खाली जगह होती है, उसमें भी सब कुछ खाली नहीं होता। लेकिन हर अच्छी कविता में दो पंक्तियों के बीच जो खाली जगह होती है, वह दरअसल खाली नहीं होती। नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता है जिसकी भाषा बहुत सादी है और लगता ही नहीं कि दो पंक्तियों के बीच कोई अर्थ भी होगा। लेकिन उनके यहां दो पंक्तियों के बीच या दो शब्दों के बीच जो खाली जगह है, उसमें कई अर्थ छुपे हुए हैं:
बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आये घर के अंदर बहुत दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर बहुत दिनों के बाद... (अकाल)
इस कविता को पढ़ें तो एक चित्र उभरता है जो एक गरीब के घर का चित्र है जिसमें चक्की बेकार पड़ी हुई है और चूल्हा रो रोकर बेहाल है क्योंकि उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। वे उदास हैं और जैसे कानी कुतिया दुःख और उदासी के दिनों में उनके आसपास सोकर उन्हें ढाँढस बंधा रही हो। आदमी की घोर गरीबी बल्कि अनाज के दानों का न होना चूहों और छिपकलियों तक की जिजीविषा को जैसे तोड़ देने वाला साबित हो रहा हो। पूरी कविता बहुत दिन बाद आए दानों और उसके बाद आँगन में उठे धुएँ की कविता है। दानों का न होना और होना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं, जिन्हें आँगन के ऊपर उठा धुआँ बहुत सादगी और विनम्रता के साथ तोड़ता है। यह सादे और साधारण जीवन की अद्भुत कविता है, जिसमें गजब की ऑब्जेक्टिविटी है और वह असाधारण संतोष है जो ग्रामीण मजदूरों और किसानों में पाया जाता है। इस कविता पर एक लघु वृत्त चित्र भी बनाया जा सकता है। जो इस कविता में छुपी हुई खाली जगहों को अलग तरह से भर सकता है। इससे एक पेंटिंग भी बन सकती है जो नए अर्थ खोलेगी। इस चित्र में एक ग्रामीण भारतीय का घर होगा जिसमें उसके साथ चूहे, छिपकली, कुतिया आदि जीव रहते होंगे और उनके बीच एक मानवीय रिश्ता होगा। यह चित्र अपनी सादगी से न केवल चुनौती दे रहा होगा बल्कि नया सौंदर्यशास्त्र भी रच रहा होगा। अमृता शेरगिल यदि जीवित होतीं और ऐसा कोई चित्र उन्होंने बनाया होता तो वह नागार्जुन की इस कालजयी कविता के और गहरे अर्थ खोलता। लेकिन इस ग्रामीण यथार्थ पर आज न फिल्में बनती हैं, न चित्र बनाए जाते हैं। हमारे चित्रकार सूरज, चाँद, पहाड़, पेड़, नदी को नहीं अब अमूर्तन को पसंद करते हैं। इस कविता पर आधारित चित्र बेशक कला की सीमाओं का अतिक्रमण करे, लेकिन उसमें यदि कविता सा जीवन हो तो वह आपको 'हॉण्ट' भी कर सकता है। शास्त्रीय संगीत तो उससे भी आगे की चीज है जो हमें कई छवियों, ध्वनियों, बेचैनियों, तड़पों और अमूर्तनों के बीच ले जाता है और यहां अर्थ खुलते नहीं उनमें निहित आनंद या विषाद खुलता है।
दरअसल, इस विराट जगत में हम जिसे खाली जगह समझते हैं, वह वस्तुतः खाली नहीं होती। मसलन आकाश में दो पिंडों के बीच भी कहीं खाली जगह सरीखी कोई चीज नहीं है। उसमें या तो डार्क एनर्जी है या फिर डार्क मैटर है। किसी कवि को यह वैज्ञानिक जानकारी दो तो वह वह कहेगा इस खाली जगह में भी कोई कविता है, जबकि दर्शन का छात्र विचित्र कुलाबें भिड़ाने लगेगा। इस विराट ब्रह्मांड की तरह अच्छी कविता भी तो एक रचना है जिसका स्रष्टा है कवि, जिसका अपना स्वतंत्र और स्वायत्त संसार होता है और उस संसार से निकलने वाली कविता अपना आकार खुद गढ़ती है। यह कि कहाँ शब्दों के बीच ठहरना है, कहाँ खाली जगह छोड़नी है और कहाँ विराम देना है। हम जैसे साधारण लोग तो इसको पूरी तरह समझते भी नहीं।
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