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Tuesday 29 July 2014

मुंशी प्रेमचंद की स्मृति: प्रोफ़ेसर राम लखन मीना अध्यक्ष, हिंदीविभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

मुंशी प्रेमचंद की स्मृति
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
अध्यक्ष, हिंदीविभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर


प्रेमचंद जी के साहित्य को पढ़ते वक्त अजीब टीस सी उठती है कमजोर पात्रों के दुःख दर्द को जिस सहजता से उन्होंने बयान किया है वह दुनिया के किसी साहित्यकार के बस में नहीं ! जीवन के दुखों को झेलते इन पात्रों से एक जुड़ाव सा हो जाता है हारे हुए आदमी को जिस तरीके से वे पेश करते हैं वो अद्भुत है गुलज़ार साहब की नज़्म प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को बहुत खूबसूरती से बयाँ करती हैप्रेमचंद हिंदी के युग प्रवर्तक रचनाकार हैं। प्रेमचंद को गरीबी विरासत में मिली प्रेमचंद सच्चे देशभक्त थे वे अंग्रेजी शासन के सामने कभी नहीं झुके मुंशी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया अंग्रेजी सरकार ने उनकी एक किताब सोज ए वतनइसलिए जब्त कर ली क्योंकि उसमें देशभक्ति की कहानियां थी शुरू में वे धनपतराय के नाम से उर्दू में लिखते थे, बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया प्रेमचंद को कैसे रखें, यही भूल गए सब के सब प्रेमचंद हामिद के चिमटा वाले प्रेमचंद, गोबर और धनिया वाले प्रेमचंद, दो बैलों वाले प्रेमचंद, गुल्ली डंडा वाले प्रेमचंद ऐसे कई पात्र हैं, जो लोगों की दिलों में बसे हैं अरसा गुज़र गया मगर अब भी प्रेमचंद के हामिद, बदलू चौधरी, निर्मला, होरी, माधो, घीसू, धनिया सब-के-सब  दिलो-दिमाग पर छाए से रहते हैं। कुछ पात्र जेहन से कभी अलग नहीं हो पाते... एक राबता सा कायम हो जाता है उनके साथ सौ वर्ष गुज़र गए मगर प्रेमचंद के लेखन से आगे निकलना तो दूर कोई उनके आस पास भी नहीं पहुँच पाया उनकी कालजयी कहानियों का आलम है कि पीढियां बदल गयीं मगर उनकी कहानियाँ आज भी जीवित हैं यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे असली भारतीय लेखक थे जिसने बगैर लाग लपेट के तत्कालीन देशिक परिस्थितयों को अपने लेखन का आधार बनाया धर्म निरपेक्षता, हिंदू-मुसलमान का साझा कल्चर ग़रीबी, किसान-मजदूरों की समस्या, अशिक्षा, राष्ट्रीय आन्दोलन, महाजनी व्यवस्था, दहेज, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित-नारी चेतना सब कुछ उनके लेखन में दिखता है यद्दपि वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे मगर उनकी प्रगतिशीलता का आलम यह था कि उनके 'हंस' के संपादन मंडल में छह भाषाओं के बड़े लोग थे जो हंस को एक अखिल भारतीय पत्रिका के रूप में और स्वयं प्रेमचंद को अखिल भारतीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करते थे
महान कहानीकार उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के पात्र इस बात को और भी मजबूती प्रदान करते हैं! मुद्दत गुज़र गयी मगर चौथी पांचवी दर्जे में पढ़ी हुयी कहानियों के पात्र जेहन में आज भी जस के तस कैद हैं. आज प्रेमचंद के जन्मदिन पर उनकी याद आना लाजिमी है! उन्होंने प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राटकी पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ,03 नाटक, 10 अनुवाद, 07 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला और गोदान उनके प्रमुख उपन्यास हैं गोदान उनका सबसे महान उपन्यास था  उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। वे सर्वप्रथम उपन्यासकार थे जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी और ऐयारी से बाहर निकाल कर उसे वास्तविक भूमि पर ला खड़ा किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं।
प्रेमचंद की रचनाओं को देश में ही नहीं विदेशों में भी आदर प्राप्त हैं। प्रेमचंद और उनकी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय महत्व है। आज उन पर और उनके साहित्य पर विश्व के उस विशाल जन समूह को गर्व है जो साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और सामंतवाद के साथ संघर्ष में जुटा हुआ है। प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं का चित्रण हुआ है। उन्होंने मील मालिक और मजदूरों, ज़मीदारों और किसानों तथा नवीनता और प्राचीनता का संघर्ष दिखाया है। प्रेमचंद के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डा. नगेन्द्र लिखते हैं, "प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को 'मनोरंजन' के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया. चारों और फैले हुए जीवन और अनेक सामयिक समस्याओं ने उन्हें उपन्यास लेखन के लिए प्रेरित किया" प्रेमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया है, किंतु उनकी दृष्टि समाज से उपेक्षित वर्ग की ओर अधिक रहा है। प्रेमचंद जी ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अपनाया है। उनके पात्र प्रायः वर्ग के प्रतिनिधि रूप में सामने आते हैं। घटनाओं ने विकास के साथ-साथ उनकी रचनाओं में पात्रों के चरित्र का भी विकास होता चलता है। उनके कथोपकथन मनोवैज्ञानिक होते हैं। प्रेमचंद जी एक सच्चे समाज सुधारक और क्रांतिकारी लेखक थे। उन्होंने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर दहेज, बेमेल विवाह आदि का सबल विरोध किया है। नारी के प्रति उनके मन में स्वाभाविक श्रद्धा थी। समाज में उपेक्षिता, अपमानिता और पतिता स्त्रियों के प्रति उनका ह्रदय सहानुभूति से परिपूर्ण रहा है।
प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे उन्होंने देखा की ये बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोइ भी शक्ति उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे सच्चा प्रेम सेवा ओर त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है प्रेमचंद का पात्र जब प्रेम करने लगता है तो सेवा की ओर अग्रसर होता है और अपना सर्वस्व परित्याग कर देता है भाषा के सटीक, सार्थक एवं व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीन ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ जाते हैं. शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। ...चित्रणीय विषय के अनुरूप शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहले प्रेमचंद ने ही किया। उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए दृश्य अत्यंत सजीव गतिमान और नाटकीय हैं। प्रेमचंद ने सहज सामान्य मानवीय व्यापारों को मनोवैज्ञानिक स्थितियों से जोड़कर उनमें एक सहज-तीव्र मानवीय रुचि पैदा कर दी। धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली -- महराज, घर में न गाय है, न बिछया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है और पछाड़ खाकर गिर पडी। भारतीय समाज में स्त्री की स्त्री की स्थिति का अति गंभीरता से चिंतन हुआ है।
प्रेमचंद एवं प्रेमचंदोत्तर साहित्य में नारी की स्थिति का विस्तार से वर्णन हुआ। प्रेमचंद के सभी उपन्यासों के नारी पात्र सामाजिक विसंगतियों से जूझते मिलेगें। बड़े घर की बेटी, अलगोझ्या, कफ़न, जैसी प्रेमचंद की कहानियों में नारी की वेदनामय स्थिति का चित्रण हुआ है। प्रेमचंद के समकालीन प्रसाद की आकाशदीप, मधुलिका जैसी कहानियों में नारी के त्याग, उदात्त रूप का चित्रण मिलता है। प्रेमचंद ने कहा है कि जब पुरुष में स्त्री के गुण आ जाते हैं, तब वह देवता बन जाता है। ऐसे देवता-स्वरूप पुरुषों की समानांतर चर्चा चलती रहती, तो स्त्री विमर्श इस संभावना को भी देख पाता कि पुरुष संस्कृति में भी महत्वपूर्ण अंतर्विरोध हैं, जिसकी कोख से वह सज्जन पुरुष निकल सकता है जिसकी स्त्री विमर्शकारों को प्रतीक्षा है। ऐसा कोई आदर्शवाद नहीं है जिसमें जीवन के यथार्थ की अनुगूंज नहीं सुनाई पड़ती हो। इसी तरह, ऐसा कोई यथार्थवाद नहीं है जिसमें आदर्शवाद के कुछ तत्व न हों। इसी द्वंद्वात्मकता के माध्यम से ही वर्तमान कलुषित संस्कृति के बीच से एक बेहतर संस्कृति की पीठिका खोजी जा सकती है और उसमें नए रंग-रूप भरे जा सकते हैं। प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में तो नारी के विविध रूपों एवं स्थितियों के अनेक पहलू उजागर हुए हैं। असल में स्त्री की करुण दशा से उसे मुक्ति दिलवाते वैचारिक एवं सामाजिक प्रयासों का आरंभ तो, जैसे कहा जा चुका है, राजा राममोहन राय से हो ही चुका था। वास्तविक सेवा-सदनों तथा विधवा- आश्रमों की स्थापना भी हो चुकी थी। उसके बाद लिखा भारतीय साहित्य कहीं न कहीं उन बातों को अपने साहित्य में स्थान देता रहा था ।
प्रेमचन्द का प्रयास भी उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। संपादकीयों में भी वही नज़रिया इस बात की पुष्टि करता है कि प्रेमचन्द जन-संचार माध्यमों के द्वारा भी वही स्टेंड ले रहें हैं जो रचनात्मक साहित्य में लेते रहे हैं। नारी-विषयक उनके सम्पादकीय में प्रकट उनके विचार उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति से मेल खाते दिखते हैं- अर्थात् कहीं कोई फांक नहीं है। अलबत्ता, इस बात की पूरी तरह से पड़ताल करने की भी आवश्यकता है कि उनके वास्तविक जीवन के साथ उनके वैचारिक और सर्जनात्मक चिन्तन कहाँ तक जोड़ कर देखा जाना उचित है और देखने पर क्या परिणाम निकलते हैं। अपने संपादकीयों में प्रेमचन्द उन स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं जो वास्तविक रूप में अभावग्रस्त या शोषित है। जो अनपढ़, शोषित आदि है, उनकी बेहतर स्थिति के लिए वे प्रयत्नशील दिखते हैं, किन्तु जो वहाँ पहुंच चुकी हैं उनके प्रति प्रेमचन्द के पास अतिरिक्त अनुकंपा नहीं है। अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली स्त्रियों के प्रति, या वे, जिनके पास किसी भी तरह की सत्ता है, चाहे वह रचनात्मक क्यों न हो, उनके प्रति प्रेमचन्द बहुत सहृदय नहीं दिखते। प्रेमचन्द के इस रवैये को आजकल के महिला-आरक्षण मुद्दे के संदर्भ में देखा जाए तो मालूम होगा कि समान या लगभग समान स्तर प्राप्त कर लेने पर शोषित समाज के प्रति समान भूमिका पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए, ऐसा आज एक पक्ष का मत उभरता दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचन्द कहीं ऐसा मानते होंगे कि बौद्धिक तथा कला के क्षेत्रों में बराबरी की बात होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात की बात नहीं होनी चाहिए, वहाँ पक्षपात या विशेषाधिकार के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचन्द दलितों के पक्षधर तो थे परन्तु दलितों की राजनीति से उनका कोई मतलब नहीं था। अर्थात दलित-चेतना एवं नारी-चेतना दोनों के वे पक्षधर थे परन्तु दोनों के वादियों के वे पक्षधर नहीं थे। पश्चिम के नारीआंदोलन संबंधी दृष्टिकोण के प्रति प्रेमचन्द बहुत सहमत न भी हों, परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के अधिकारों के लिए उन्होंने बहुत लिखा इसमें दो-राय नहीं हो सकती । जहाँ तक केवल विचार प्रकट करने हों, कड़े से कड़ा और कठोर से कठोर विचार प्रेमचन्द ने बेलौस एवं निर्भीकता से प्रकट किया है।
'स्वराज' उनके लेखन का प्रमुख विषय था बल्कि उन्होंने 1930 में कहा भी कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए लिख रहे हैं उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्पष्ट किया कि महज़ सत्ता परिवर्तन ही स्वराज नहीं है सामाजिक स्वाधीनता भी ज़रूरी है सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य संप्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी कहना चाहिए. उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ग़रीब किसानों की लड़ाई है जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है प्रेमचंद किसी तरह के जातिवाद, किसी तरह के धर्मोन्माद, किसी तरह की सांप्रदायिकता से मुक्त एक मानवधर्मी लेखक रहे हैं उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे उन्होंने हीरा-मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया
प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएँ हैं तो उनके समाधान भी हैं प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिये परिवर्तन की पैरवी करते हैं. उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिये संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा ऑर खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन पैदा किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकताभ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे।
प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज ने अछूत और घृणित समझा था।  उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में शतरंज के खिलाड़ी और 1981 में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने 1936 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़नपर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। 8 अक्टूबर 1936 को इस महान लेखक का निधन हो गया, पर उनकी रचनाएं आज भी अमर हैं



मित्रों... 31 जुलाई प्रेमचंद जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ

मित्रों...
31 जुलाई प्रेमचंद जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ

प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 - 08 अक्तूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं...


Tuesday 8 July 2014

शिक्षा वर्तमान परिपेक्ष्य में: प्रोफ़ेसर (डॉ) राम लखन मीना


शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बच्चों को एक परिपक्व इन्सान बनाना होता है, ताकि वो कल्पनाशील,वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और देश का भावी कर्णधार बन सकें. किन्तु भारतीय शिक्षा पद्दति अपने इस उद्देश्य मे पूर्ण सफलता नही प्राप्त कर सकी है, कारणबहुत सारे है. सबसे पहला तो यही कि अंगूठाछाप लोग डिसाइड करते है कि बच्चों को क्या पढना चाहिये, जो कुछ शिक्षाविद है वो अपने दायरे और विचारधाराओं से बन्धे है, और उनसे निकलने या कुछ नया सोचने से डरते है, ऊपर से राजनीतिज्ञों का अपना एजेन्डा होता है, कुल मिलाकर शिक्षा पद्दति की ऐसी तैसी करने के लिये सभी लोग चारो तरफ से आक्रमण कर रहे है, और ऊपर से तुर्रा ये कि ये सभी लोग समझते है कि सिर्फ वे ही शिक्षा का सही मार्गदर्शन कर रहे है. जबकि दरअसल ये ही लोग उसकी मा बहन कर रहे है.मै किसी एक पर दोषारोपण नही करना चाहता, शिक्षा पद्दति की रूपरेखा बनाने वालों को खुद अपने अन्दर झांकना चाहिये और सोचना चाहिये, कि क्या उसमे मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है.आज हम रट्टामार छात्र को पैदा कर रहे है, लेकिन वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और परिपक्व छात्र नही, क्या यही हमारा एक मात्र उद्देश्य है? आज जब धीरे धीरे सत्ता अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हाथो मे फिसलती जा रही है, तो हम उनसे क्या क्या आशा रखें. सारी राजनैतिक पार्टियां अपने अपने तरीके से इतिहास को बदलने की कोशिश कर रही है, ये सभी कुछ इतना घटिया लग रहा है कि मेरे पास इनकी भर्तत्सना करने के लिये शब्द नही है
पहले किसी बच्चे से पूछा जाता था कि बढे होकर तुम क्या बनोगे तो उसका जवाब डाक्टर,इन्जीनियर,पायलट या कुछ और होता था, इसके पीछे पैसा नही होता था, बल्कि देशसेवा और समाज को आगे बढाने का ज़ज्बा होता था, आजकल बच्चा बोलता है कि मै बढा होकर नेता बनना चाहता हूँ, क्योंकि इस पेशे मे ज्यादा पैसा है, क्या शिक्षा सिर्फ जीवन मे पैसे कमाने के लिये की जाती है? क्या हम बच्चों का मार्गदर्शन सही दिशा मे कर रहे है.आजकल शिक्षा के मायने ही बदल गये है, क्योंकि हम लोगो के सोचने का तरीका ही बदल गया है, या बकौल कुछ लोगो के हम लोग कुछ ज्यादा ही व्यवहारिक और स्वार्थी हो गये है”, हर बच्चा चाहता है कि जल्द से जल्द अपनी पढाई पूरी करे और किसी जगह पर फिट हो जाये, उसने क्या पढा और कितना पढा, उससे इसको मतलब नही है, या जो पढा उसका जीवन मे कितना प्रयोग होगा, उससे भी इसको सारोकार नही है, उसको तो बस अपने शिक्षा के इन्वेस्टमेन्ट के रिटर्न से मतलब है, यानि कि शिक्षा और रोजगार, एक व्यापार हो गया है, पैसा लगाओ और और पैसा पाओ. अब बच्चों को ही क्यों दोष दे, उनके माता पिता भी तो इसी लाइन पर ही सोचते है, कि जल्दी से बच्चा पढ लिख ले तो पैसा कमाने की मशीन की तरह काम करे.क्या यही है शिक्षा का उद्देश्य? यदि यही है तो लानत है ऐसे उद्देश्यों पर.
शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो हमारे जीवन को एक नयी विचारधारा,नया सवेरा देता है, ये हमे एक परिपक्व समाज बनाने मे मदद करता है. यदि शिक्षा के उद्देश्य सही दिशा मे हों तो ये इन्सान को नये नये प्रयोग करने के लिये उत्साहित करते है.शिक्षा और संस्कार साथ साथ चलते है, या कहा जाये तो एक दूसरे के पूरक है.शिक्षा हमे संस्कारों को समझने और बदलती सामाजिक परिस्थियों के अनुरूप उनका अनुसरण करने की समझ देता है. आज शिक्षा जिस मुकाम पर पहुँच चुकी है वहाँ उसमे आमूल परिवर्तन की गुंन्जाइश है, आज हमे मिल बैठकर सोचना चाहिये, कि यदि शिक्षा हमारे उद्देश्यों को पूरा नही करती तो ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नही है. आज जब भगुवाधारी अपना ऐजेन्डा चला रहे है, दूसरी तरफ सो-काल्ड धर्मनिरपेक्ष वाले अपना कांग्रेसी एजेन्डा और तीसरी तरफ मदरसों द्वारा शिक्षा का इस्लामीकरण किया जा रहा है तो किसी से क्या उम्मीद रखें. आप खुद ही बताइये कि भगुवाकरण,कांग्रेसीकरण और इस्लामीकरण से हम कैसे समाज का निर्माण कर रहे है, हम लोगो को लोगो से दूर कर रहे है. हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे है जो अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्मो से गिरा हुआ मानेगा और कभी दूसरे धर्म की बेइज्जती करने से नही चूकेगा. या फिर इस्लामी कट्टरता से बच्चा अपनी जिन्दगी को ही इस्लाम की अमानत समझने मे बिता देगा. क्या यही उद्देश्य है शिक्षा के? अभी भी समय है, जागो, चेतो और इस बिगड़ते हुए शिक्षा के सिस्टम को बचा लो, वरना कल बहुत देर हो जायेगी.मेरे कुछ सुझाव है, जिन्हे शिक्षाविद चाहें तो अमल मे ला सकते हैः
1)   शिक्षा को ना केवल किताबी ज्ञान बल्कि व्यवहारिक शास्त्र के रूप मे प्रदान करना चाहिये.
2)   परीक्षा के प्रारूप और शिक्षा के स्वरूप मे आमूल परिवर्तन की गुन्जाइश है.
3)   कम्पयूटर शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिये.
4)   बच्चों से शिक्षा के एक्ट्ररा लोड को कम कर देना चाहिये.और उनके मानसिक,तार्किक विकास और पर्सनाल्टी डेवलपमेन्ट पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये.
5)   शिक्षा के भगुवाकरण,इस्लामीकरण और कांग्रेसीकरण से बचना चाहिये.इतिहास को इतिहास ही रहने दो, पार्टी का लेबल मत लगाओ.
6)   शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिक ज्ञान भी दिया जाना चाहिये, एडवान्स क्लासेस मे तो यह अनिवार्य होना चाहिये.
7)   छात्रों को नये खोजें करने और नये प्रयोग करने उत्साहित करना चाहिये.
8)   अंगूठाछाप लोगो को सिर्फ राजनीति तक ही सीमित रखना चाहिये.शिक्षा की सलाहकार समितियों से इन लोगो का पत्ता साफ कर देना चाहिये.
9)   भारतीय संस्कृति और संस्कार की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिये.
10)              स्टूडेन्ट एक्सचेन्ज प्रोग्राम को ज्यादा बढावा दिया जाना चाहिये, ताकि छात्रो दूसरे देशों के छात्रो से ज्यादा कुछ सीख सकें.
11)              ग्रामीण शिक्षा के स्तर को सुधारा जाना आवश्यक है. इपर अभी बहुत ज्यादा काम किया जाना बाकी है.
12)              सेक्स एजुकेशन अनिवार्य कर दी जानी चहिये.
13)              प्रोढ शिक्षा के लिये स्वयं सेवी संगठनो को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहन एवं सहायता दी जानी चाहिये.
पिछले कुछ दो दशकों में तकनीक-संचार के साधनों की तीव्रता ने दुनिया के मीडिया का चेहरा-मोहरा बहुत बदल दिया है। मीडिया में पेशेवर अंदाज़ व आकर्षक प्रस्तुति की माँग प्राथमिक हो गई है। यह अब शब्दों की बेचारी दुनिया नहीं रही, यहाँ शब्द पीछे हैं, उसके साथ जुड़ा है, एक बेहद चमकीला अर्थतंत्र। मीडिया का यही वैभव आज हमें चकाचौंध में भी डालता है और उसके रचनात्मक इस्तेमाल के लिए एक अलग तरह की चुनौती भी उपस्थित करता है।मीडिया का यह नया चेहरा कैसे और कितना सामाजिक उत्तरदायित्व से लैस हो, ये बहसें भी आज काफी तेज़ हैं, लेकिन बहस उस बात पर नहीं होती, जहाँ से इस मीडिया को नियंत्रित किया जा सकता है। शायद हमें अपने मीडिया को उसकी जड़ों, संस्कारों और मिशनरी भावनाओं से प्रेरित करने के लिए जनसंचार शिक्षा पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। यदि मीडिया में आ रहे युवाओं को जड़ों से ही कुछ ऐसे विचार मिलें, जो उन्हें व्यावसायिकता के साथ-साथ संस्कारों की भी दीक्षा दें, तो शायद हम अपने मीडिया में मानवीय मूल्यों को ज़्यादा स्थान दे पाएँगे। यह चुनौती दुष्कर नहीं पर कठिन अवश्य है क्योंकि हमारी आज की जनसंचार शिक्षा की बदहाली किसी से छिपी भी नहीं है। हमें यह देखना होगा कि हमारे मीडिया की तरह इसकी शिक्षा के हालात भी बदहवासी के शिकार क्यों हैं ?
हर वर्ष नए शिक्षा सत्र की दस्तक होते ही अख़बार और प्रचार माध्यम पढ़ाई के विविध अनुशासनों के विज्ञापनों से भर जाते हैं। तेज़ी से बदलती दुनिया, नए विषयों के उदय के बीच जनसंचार के विविध क्षेत्रों की डिग्रियाँ लेकर भी तमाम संस्थान बाज़ार में हाज़िर है। डिप्लोमा और डिग्रियों के सरकारी संस्थानों के अलावा सैकड़ों प्राइवेट संस्थान भी सामने आए हैं। साथ ही साथ विभिन्न समाचार पत्र समूहों तथा समाचार चैनलों ने भी जनसंचार शिक्षण के लिए संस्थान खोले हैं। मीडिया की दिनों-दिन चमकीली होती दुनिया के प्रति युवक-युवतियों का आकर्षण स्वाभाविक है। टीवी पर दिखने का आकर्षण इस जोश को उफ़ान में बदल रहा है। शायद इसलिए मेट्रो के कुछ अख़बारों में ऐसे भी विज्ञापन छपने लगे हैं-'एक हफ़्ते में न्यूज एंकर'। जाहिर है पत्रकारिता शिक्षा के ये परचूनिए भी सफल हैं और उन्हें भी कुछ युवा मिल ही जाते हैं। हाल के वर्षों में सामाजिक जीवन में जिस तरह के तेज़ परिवर्तन देखे गए, उससे यह सदी आक्रांत है। नई तकनीक और संचार के साधनों ने जिस तरह हमारे समय को प्रभावित किया है वह अद्भुत है। हमारे आचार, विचार, व्यवहार सबमें ये चीज़ें देखी जा सकती है। इसे प्रभावित करने में सबसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है, मीडिया। अख़बार, टीवी चैनल्स, विज्ञान, इंटरनेट, फ़िल्मों, विपणन रणनीतियों और जनसंपर्क की नई प्रविधियों के समुच्चय से जो दुनिया बनती है वह बेहद सपनीली है। जहाँ पॉवर है, पैसा है, सौंदर्य है, सारा कुछ फ़ीलगुड। 
जनसंचार का यह व्यापक होता फलक अब समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने की मुद्रा में है। जनसंचार के किसी भी माध्यम के साथ जुड़ी पूँजी ने इसे बहुत व्यवहारिक बना दिया है।शायद इसीलिए यह क्षेत्र भारी संख्या में प्रशिक्षितजनों की माँग और इंतजार में खड़ा है। फ़ैशन वर्ल्ड से लेकर इवेंट मैनेजमेंट के रोज़ खुलते क्षितिज उन पेशेवरों के इंतजार में हैं जो व्यवसाय में लगी पूँजी को एक बड़े उद्यम में बदल सकें। इसके साथ ही देश के विकास तथा समाज के सभी हिस्सों तक मीडिया के पहुँच की बात की जाती है। रेडियो के नए परिवेश में वापसी ने श्रव्य माध्यम के लिए भी लोगों की माँग पैदा की है। ज़ाहिर है इस तेज़ी से विस्तार लेते क्षेत्र के लिए प्रशिक्षण की अनिवार्यता बढ़ गई है। मीडिया के बढ़ते महत्व ने जनसंचार की शिक्षा के महत्व को स्वत: बढ़ा दिया है। ऐसे में छोटे-छोटे शहरों, कस्बों में खुल रहे जनसंचार शिक्षा के संस्थानों की भीड़ को देखा जा सकता है। मुक्त विश्वविद्यालयों तथा कई अन्य विश्वविद्यालयों ने जनसंचार और पत्रकारिता के पत्राचार पाठयक्रमों की शुरूआत कर अपनी आर्थिक स्थिति तो सुधार ली लेकिन वहाँ से निकलने वाले डिग्रीधारियों की स्थिति समझी जा सकती है। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इसका मौलिक माडल खड़ा करने की है। मीडिया शिक्षा ने भारत में अपनी लंबी यात्रा के बावजूद भारतीय मूल्यों और परंपराओं के आधार पर कोई अपना आधार विकसित नहीं किया है। उसकी निर्भरता बहुत कुछ पश्चिमी ढाँचे पर बनी हुई शिक्षा व्यवस्था पर है। शायद इसीलिए जनसंचार शिक्षा के संस्थानों से निकल रहे छात्र बड़ी अधकचरी समझ लेकर निकल रहे हैं। उन्हें न तो देश का इतिहास पता है, न भूगोल। संस्कृति और लोकाचार तो बहुत दूर की बात है। इसके चलते पूरी की पूरी पत्रकारिता राजनीति के आक्रांतकारी प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाती। खबरों के शिल्प के अलावा कुछ कंप्यूटर और की-बोर्ड की जानकारी के सिवा ये संस्थान क्या दे पा रहे हैं, समझ पाना मुश्किल है। 
एक समय था, जब समाज में तपकर, संघर्ष कर पत्रकार सामने आते थे, वे जीवन की पाठशाला में ही इतना कुछ सीख लेते थे कि उनके अनुभव से निकला हुआ सच पत्रकारिता की मिसाल बन जाया करता था। उन दिनों में बहुत ज़्यादा स्थानों पर पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण के केंद्र नहीं थे। पत्रकारिता अपने लिए नायकों की स्वयं तलाश कर रही थी। देश की स्थितियां भी पत्रकारिता के लिए खासी अनुकूल थीं। उसके चलते तमाम क्षेत्रों में काम कर रहे दिग्गज लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। उन्होंने अपने-अपने तरीके से पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन और जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई के लिए उपयोग किया। वे दिन वास्तव में भारतीय पत्रकारिता के लिए आदर्श की तरह हैं। आज़ादी के बाद विभिन्न विश्वविद्यालयों में जनसंचार और पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ किंतु हम भारतीय पत्रकारिता का कोई माडल नहीं गढ़ पाए। शिक्षा विभागों की तरफ से भी मीडिया शिक्षा की घोर उपेक्षा हुई। कई विश्वविद्यालयों के तमाम विभागों में अध्यापकों का टोटा तो है ही, दृष्टि का भी घोर अभाव है। अलग-अलग तरह के पाठयक्रम और उनके अलग-अलग मूल्य भी एक बड़े संकट के रूप में सामने खड़े थे। ये दृश्य दुखी भी करता था और आहत भी। लेकिन जिस देश में उच्च शिक्षा को व्यापारियों के हवाले छोड़ दिया गया है , उस देश में ऐसे दृश्य बहुत स्वाभाविक हैं।
पत्रकारिता को एक ऐसा कर्म मान लिया गया, जिसे कोई भी कर सकता है। ज़ाहिर है उसे पढ़ाने के लिए भी हर कोई तैयार था। ऐसे मीडिया गुरू, मीडिया शिक्षा के मैदान में कूद पड़े, जो स्वयं मीडिया के क्षेत्र में पिटे हुए मोहरे थे। इससे प्रोफ़ेशनलिज्म ने पहले दिन से ही मीडिया शिक्षा से हाथ जोड़ लिए। जो पीढ़ी तैयार हो रही है, वह अपने गुरू से आगे कैसे जा सकती है? इन घटनाओं के बीच में भी कुछ छात्र 'गुड़ के चेले शक्कर' बन गए हों, या 'घिस-घिसकर शालिग्राम', तो इसे अपवाद के रूप में ही लिया जाए। कई ऐसे कालेज भी नज़रों के सामने हैं, जो पत्रकारिता की डिग्री बाँटने का उपक्रम पिछले कई दशकों से कर रहे हैं, किंतु वहाँ पत्रकारिता के किसी भी नियमित प्राध्यापक की नियुक्ति कभी नहीं रही। जादू यह कि ये कालेज भी सरकार के द्वारा चलाए जाते हैं। जहाँ सरकारी कालेजों का यह हाल हो, तो प्राइवेट संस्थाओं से ज़्यादा उम्मीद करना बेमानी है। बेहतर होगा सरकार अपने इन कालेजों में इस तरह के पाठयक्रमों पर ताला लगा दे, तो शायद पत्रकारिता का तो भला होगा ही, डिग्रियों का अवमूल्यन भी रूकेगा। ये संस्थाएं सस्ते मीडियाकर्मी भले पैदा कर लें, अच्छे पत्रकार नहीं पैदा कर सकतीं। 'पढ़े फारसी बेचे तेलकी तर्ज़ पर इन महाविद्यालयों में किसी भी विषय का प्राध्यापक पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने लग जाता है। व्यवहारिक प्रयोगों की तो जाने दीजिए, हालात यह हैं कि जमाने से 'आदमी कुत्ते को काटे तो समाचार हैयही परिभाषा छात्रों को पढ़ाई और रटाई जा रही है। 
आज मीडिया जिस प्रकार के अत्याधुनिक प्रयोगों से लैस है और आज के मीडिया कर्मियों से जिस प्रकार की तैयारी तथा क्षमताओं की अपेक्षा की जा रही है। क्या ये संस्थान ऐसे मानव संसाधन का निर्माण कर सकते हैं? किताबी बातों से अलग ये विशेषीकृत पाठयक्रमों के आधार पर आज के व्यापक हो रहे मीडिया संसार की चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार हैं? ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर हमें नकारात्मक ही मिलेंगे। जनसंचार शिक्षा, सिर्फ पत्रकारिता तक सीमित नहीं है, उसने जनसंपर्क से आगे बढ़कर कार्पोरेट कम्यूनिकेशन की ऊँचाई हासिल की है। विज्ञापन के क्षेत्र में अलग-अलग तरह के विशेषज्ञों की माँग हो रही है। प्रिंट मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक, रेडियो, मनोरंजन, वेब के तमाम संसाधनों पर लोगों की माँग हो रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार ने आज मीडिया प्रोफेशनल्स की चुनौतियाँ बहुत बढ़ा दी हैं। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनज़र तैयार करें, यह एक बडी ज़िम्मेदारी की बात है। शोध और अनुसंधान के प्रति हिंदी क्षेत्र की उदासीनता के किस्से मशहूर हैं। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में आगे आए तमाम पत्र संस्थान एवं मीडिया समूह शायद इसीलिए इस क्षेत्र में आए क्योंकि वे परंपरागत संस्थानों व विश्वविद्यालयों की सीमाएं जान चुके थे। अपनी संस्था के लिए सही पेशेवरों को तैयार करने की चुनौती मीडिया समूहों के सामने थी। टाइम्स आफ इंडिया, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, द हिन्दू, आजतक, पायनियर जैसे समूहों के मीडिया प्रशिक्षण संस्थान इसी पीड़ा की उपज है। यह उन परंपरागत संस्थानों को चुनौती भी हैं जो खुद को मीडिया शिक्षा का रहबर समझते हैं। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में उच्चस्तरीय मानव संसाधन की उपलब्धता ज़रूरी है, क्योंकि यह सर्वाधिक रोजगार सृजन करने वाला क्षेत्र साबित होने जा रहा है। चौथे स्तंभ की सैध्दांतिक भूमिका से परे भी मीडिया का आकार और क्षेत्र बहुत बड़ा है। एक-एक शिक्षकों के सहारे चल रहे विश्वविद्यालयों के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग नए समय की चुनौतियों का मुकाबला करने वाली पीढी तैयार कर पाएँगे, इसमें संदेह है। मीडिया संस्थानों तथा मीडिया शिक्षा के परिसरों का संवाद बहाल होना भी ज़रूरी है। यह आवाजाही बढ़ेग़ी तो यह शिक्षा क्षेत्र उपयोगी बनेगा। 
शिक्षा के अधिकार की अहमियत को समझे हमारे भारत को गावों का देश के नाम से जाना जाता है. और जिस देश की सत्तर फीसदी जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती हो, जिसने अपने भीतर विभिन्न भाषाओं तथा कला संस्कृति का समावेश किया हो, आप इसी से अंदाज़ा लगा सकते हो कि ऐसे देश को शिक्षा की कितनी ज़रुरत होगी। भारत आज़ादी से पहले जब अंग्रेजों के हाथों की कठ पुतली बना हुआ था, उस दौर में यह देश शिक्षा के स्तर को उबारने की कोशिश तो कर रहा था लेकिन ब्रिटिश हुक्मरान लोग उभरने देते भी कैसे? ये एक बड़ा सवाल बुद्धिजिवयों के मन में उठ रहा था, इनको इस बात का भी डर था कि कही ये शिक्षित हो गए तो हमारा देश में राज करने से क्या फायदा होगा? जो भी लोग उस समय के पढ़े -लिखे होते थे, वो इन्ही के यहाँ पर दो टुकडों की खातिर घर पर बंधे एक कुत्ते की तरह पहरेदारी करते थे. कहने का मतलब ये है कि पूर्ण रूप से इन गोरे लोगों के अधीन होकर चापलूसी करना, धीरे -२ समय बदलता गया देश में एक और शिक्षित वर्ग कहीं किसी कोने में पड़ा जागरूक हो रहा था. जैसे महात्मा गाँधी, डॉ. अंबेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहर लाल नेहरुइत्यादि लेकिन वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग देश को आज़ादी दिलाने के चक्कर में जगह-२ जाकर आंदोलनों की शुरुआत कर रहे थे. अंग्रेजों का रुख अब पूरी तरह से इन आन्दोलन करने वालों की ओर केन्द्रित हो चुका था शिक्षित वर्ग इस तरफ शिक्षित होता जा रहा था. यही वर्ग देश में थोड़ी बहुत पढाई करके, विदेशी शिक्षा हासिल करने विदेशो की ओर पलायन कर रहा था. इन्होंने शिक्षा की अहमियत को समझा, क्योंकि इनको लग रहा था कि देश को आज़ादी लड़ाई करके मिलने वाली नहीं है. इसको शिक्षा के बल पर हासिल करना होगा. जैसे -२ ये लोग विदेशी शिक्षा हासिल करके लौटे तब इनको इस बात का एहसास हुआ कि गोरे लोग देश को कब्जाए बैठे हैं. धीरे -२ शिक्षित वर्ग ने एक शिक्षित लोगो का संगठन खड़ा करना शुरू कर दिया कि किस प्रकार इनके चुंगल से देश कों आजाद करना चाहिए. उस वक़्त भी शिक्षा का स्तर कुछ खास नहीं दिखाई दे रहा था. लेकिन लोगों का रुख शिक्षा के प्रति धीरे-२ बढ़ने लगा, देश अब आज़ादी पाने कि पूरी चरम सीमा पर पहुच चुका था। ब्रिटिश गवर्नर लार्ड माउन्टबेटन और लार्ड मिंटो को लगा कि कही अगर यह सारा देश एकजुट हो गया तो बहुत बड़ा खतरा पैदा हो सकता है तभी उन्होंने मोहम्द अली जिन्ना पर नज़र रखनी शुरू कर दी. और अंत में देश को दो भागों बटवा ही डाला. गाँधी ने देश को हिस्सों में बाटने की मंशा जाहिर की और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के रूप में स्वीकृति दे दी. और भारत कों 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के हाथो से स्वतंत्र हो ही गया। आज़ादी मिलने के बाद भी देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अधिकार की अहमियत को समझा और देश में धीरे -२ साक्षरता दर का विस्तार होने लगा. देश कि जनता ने अब शिक्षा को हासिल करने की कोशिश की, आज़ादी से पहले जनता अंग्रेजों की गुलामी कर रही थी. वहीं अब ये जनता क्षेत्रियो ज़मीदारो की गुलामी करने लगे जिन लोगों ने शिक्षा की अहमियत को समझा, उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा के पीछे धकेल दिया. समुन्द्र के तटवर्तिए क्षेत्र में जहां पर अंग्रेजों का वर्चस्व था. वहा शिक्षा का स्तर काफी हद तक ठीक था. जैसे- तमिलनायडू, केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, ये भारत के उन राज्यों में से एक थे जहा के लोगों ने शिक्षा के अधिकार को समझा और पहचाना, भारत का मध्य भू- भाग राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश हरियाणा,पंजाब. इन क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर ज़रूरत से ज्यादा कम था. जहां के ज़मींदार वर्ग ने इनको उभरने नहीं दिया. तभी ये प्रेदश आज भुखमरी और गरीबी के सबसे ज्यादा शिकार है. भारतीय संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने संविधान में शिक्षा के अधिकार की अहमियत को बताया कि शिक्षा देश के हर वर्ग के लिए ज़रूरी है. पंडित जवाहर लाल नेहरु जब देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश की जनता को शिक्षा के प्रति जागरूक होने की बात कही थी कि देश की जनता को जागरूक होना होगा. तभी देश का विकास होगा. देश के उच्च वर्ग को अब सबसे ज्यादा समस्या हो गयी थी तो, वो था दलित वर्ग जिसको देश का सबसे ज्यादा दबा कुचला वर्ग माना जाता था, जिसका नाम सुनकर धरती भी चिढ़ जाती थी. इस वर्ग को शिक्षा देना कोई नहीं देना चाहता था। इनके पूर्वजों ने इसी तरह की मुसीबतों को झेला है. देश के उच्च पदों पर बैठे कुछ गिने चुने दलित वर्ग के आज भी उच्च वर्ग की आँखों में खटकते हैं. समय के साथ- साथ इन्सान बदला, उसकी सोच बदली, समाज बदला, और अपने विचारो में तेज़ गति लानी शुरू की. देश के दूर दराज क्षेत्रों में पल रही प्रतिभाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या थी तो वो ये इसको आगे कैसे लाया जाए? इन दूर-दराज इलाकों से स्कूल कोसो दूर होते थे जहां तक पहुच पाना असंभव होता था. देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी बड़े ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले इन्सान थे. अपनी माता जी के मृत्यु के बाद जब देश की सत्ता अपने हाथों में ली. तो उनका बस एक ही सपना था की देश का हर हर बच्चा पढ़ा लिखा हो. राजीव गाँधी ने सन 1986 में प्रतिभा शाली बच्चों के लिए जवाहर नवोदय विद्यालय की नींव रखी, ताकि हर प्रतिभाशाली बच्चों के लिए उनके भविष्य को उज्जवल बनाया जाये. ग्रामीण परिवेश से आये बच्चो को अपनी प्रतिभा निखारने का पूरा मौका मिले. केंद्र सरकर भी जवाहर नवोदय विद्यालय के हर एक बच्चे पर सालाना बावन हज़ार रूपये खर्च करती है केंद्र सरकार की शिक्षा का अधिकार, सर्व शिक्षा अभियान जैसी कई पहलों पर और प्रगति के बावजूद भी भारत में विश्व की 35 हज़ार फीसदी आबादी निरक्षर है जिसकी साक्षरता दर 68 फीसदी है. प्राथमिक स्तर पर सन 1950-1951 में स्कूलों में दाखिला लेने वालों बच्चों की संख्या उन्नीस करोड़ दो लाख थी.वही 2000-2001 में ये बढ़कर दस अरब अन्ठानवे करोड़ हो गयी आज़ादी के बाद साक्षरता दर 18.33 फीसदी से बढ़कर 2001 में 64.01 फीसदी हो गयी है. एक पक्ष में देखा जाये तो देश की साक्षरता दर बढ़ तो रही है. लेकिन दूसरे पक्ष में जनसंख्या का होता विस्फोट हर तरफ में निरक्षरों की दर बढ़ा रहा है. बिहार, नागालैंड, मणिपुर ही मात्र ऐसे राज्य है जहा निरक्षरों की संख्या लगातार बढ़ रही है. जिस शिक्षा को हमने गुरु-शिष्य के पवित्र रिश्तो को गंगा जैसे पवित्र जल की तरह समझा. आज वही शिक्षा एक सब्जी मंडी की तरह हो गयी है, जो चाहे खरीद लो, पैसे के बल पर आज पूंजीपति लोगों ने शिक्षा को वैश्वीकरण का रूप दे दिया. क्या आज के दौर में शिक्षा के अधिकार की यही अहमियत है, हमारे पास अभी भी संभलने का मौका है हमें जल्द से जल्द शिक्षा की अहमियत को समझना होगा ताकि देश फिर से कहीं गुलाम न हो जाये.