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Friday, 2 May 2014

आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक



आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक
प्रोफ़ेसर (डा.) रामलखन मीनाप्रोफेसर एवं अध्यक्षहिंदी विभागराजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर(राजस्थान)


आज की आधुनिक शिक्षा और गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा हमारे रहने, जीने, और सोचने का ढंग बदलती आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक व जीवनउपयोगी है हम भलीभाँती जानते है गाँधीजी ने "हिन्द स्वराज" (पुस्तिका) में लिखा था "अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है । जो लोग अंग्रेजी पढे हुए है, उनकी संतानों को नीति ज्ञान, मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की दूसरी भाषा सिखानी चाहिए "अन्य प्राचीन धर्मो की तरह वैदिक दर्शन की भी यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पन्दित है। सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात् पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, आग, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब में दैवत्व की धारा प्रवाहित है। वैदिक दर्शन ने हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति गहन श्रद्धा और स्त्रेह से जीना सिखाया। इस दृष्टि का इतना अधिक प्रभाव था कि जब प्रकृ ति की गोद में स्थित एक आश्रम में पली-पोसी कालीदास की "शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त से मिलने के लिए शहर जाने लगी तो उसकी जुदाई से वे पौधे जिन्हें उसने सींचा, फूल जिनकी उसने देखभाल की, मृग जिन्हें उसने पोçष्ात किया आदि अत्यधिक दुखी हुए। यहां तक कि लताओं ने भी अपने पीले पत्ते झाड़कर रूदन करना शुरू कर दिया। 
वह ऎसा युग था जब मानव व प्रकृति के बीच पूर्ण तादात्म्य और सीधा सम्पर्क था। आवश्यकताएं सीमित थीं, मनुष्य इतना संतोष्ाी था कि प्रकृति के शोषण की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था। प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध ही सभी धर्मो का मर्म था। समय ने करवट बदली। शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूट गया। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। इस विकास का अर्थ था प्रकृति का उसके अस्तित्व की कीमत पर शोषण। एक तरफ जीवन की आवश्यकताओं व मन की इच्छाओं और दूसरी ओर विवेकपूर्ण आचरण की आवश्यकता के बीच संतुलन बिगड़ गया। दृश्य पदार्थ ने मानव जीवन की सूक्ष्म अदृश्य आत्मा को पराजित कर दिया। वैदिक लोकाचार ऎसे समग्र जीवन का उल्लेख करता है, जिसमें शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता हो। शरीर को आवश्यकता है रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाओं की। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों । लेकिन बुद्धि आवश्यकताओं को सीमित करने तथा इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए हमारा इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त नहीं हों। मैं आपके समक्ष जीवन के तीन बुनियादी पहलुओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा, जो गहन पारिस्थितिकी के सिद्धान्तों से प्रगाढ़ रूप से जुड़े हुए हैं।
न केवल पारिस्थितिकी और टिकाऊ जीवन के लिए अपितु जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के लिए भी धर्म और शिक्षा की भूमिका सबसे पहले आती हैं। आज शिक्षा व्यवसायोन्मुख हो गई है, जो केवल रोजी-रोटी कमाने तक सीमित रह गई है। धर्म, परम्पराएं पीछे छूट गए हैं, जो मूल्य-परक शिक्षा के स्रोत थे। वैदिक परिप्रेक्ष्य में मैं कहना चाहूंगा कि सिक्के की तरह मानव जीवन के भी दो पहलू हैं। एक दृश्य है और दूसरा है अदृश्य, जो हमारी इंद्रियों की समझ से परे है। वह कारण और कार्य भाव की तरह काम करते हैं। अदृश्य जगत ही दृश्य जगत का संचालन करता है। हमारे शरीर में बुद्धि, भावनाएं और आत्मा अदृश्य हैं। भारतीय जीवन पद्धति ने सदियों से दृश्य और अदृश्य के बीच संतुलन बनाए रखा है। मेरी समझ में आज प्राकृतिक पर्यावरण के अवकष्ाüण और वर्तमान कष्ट का एकमात्र कारण आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एकान्तिक दृष्टिकोण है। यह व्यावहारिकता और यथार्थवाद से कोसों दूर है। शिक्षा का प्रारम्भ इस एकमात्र लक्ष्य को लेकर हुआ कि सामाजिक दृष्टि से अच्छे इंसान तैयार हों। किंतु अब यह विकृत होकर ऎसी प्रणाली में बदल गई है जो शरीर और बुद्धि की बात तो करती है किन्तु मनुष्य का आध्यात्मिक और भावनात्मक दृष्टि से स्पर्श नहीं करती। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं। जितनी उच्च शिक्षा, उतना ही अधिक असंतुलन। आज कोई भी आत्मा के बारे में नहीं सोचता, जो शरीर में सौ वर्षो तक रहती है - यह शरीर ही जिसका वाहक है। यह मानव जीवन के उस महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा करती है, जिसमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और अन्य मनुष्यों के हित की चिंता निहित है।
इसीलिए तथाकथित शिक्षित लोग ही पारिस्थितिकी और पर्यावरण समरसता के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। वे प्रकृति को जड़ वस्तु मानते हैं जो मानो मानव के उपयोग और "शोष्ाण के लिए ही बनी हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित जनसंख्या व जीवन स्तर पर स्वतंत्र आयोग "इंडिपेंडेंट कमीशन ऑन पापुलेशन एंड क्वालिटी ऑफ लाइफ" की रिपोर्ट इस तथ्य को प्रकट करती है कि "मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक पर्यावरण बहुत महžवपूर्ण है। भावी पीढियों के लिए पर्यावरण का पोष्ाण और देखभाल आवश्यक है, जिसकी उपेक्षा की जा रही है।" माता-पिता द्वारा सृजित इस नश्वर शरीर में आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। आचरण या संस्कार की दृष्टि से दोनों के स्तर अलग-अलग हैं। शरीर में आत्मा दूसरे शरीर से आती है, जो आवश्यक नहीं कि मनुष्य का ही हो। वह पिछले जन्म के संस्कार भी साथ लाती है। मनुष्य की भूमिका से समरसता के लिए इन संस्कारों की पहचान और शुद्धीकरण की प्रक्रिया आवश्यक होती है। इसमें धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि वह जीवन की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से सम्बन्धित होता है। यह सभी मजहबों से ऊपर है। क्योकि धर्म आत्मा से जुड़ा है और यह व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग है। मजहब अथवा सम्प्रदाय इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति है। 
आधुनिक शिक्षा ऎसी बुद्धि से जुड़ी है, जो व्यक्ति को रोजगार दिलाने में मदद करती है। मानवीय संवेदनशीलता के बजाए उसका सम्बन्ध विष्ायों से ज्यादा है। यह ह्वदय की संस्कृति विकसित करने का प्रयास नहीं करती। भावनात्मक दृष्टि से महिला पुरूष्ा से ज्यादा संवेदनशील मानी जाती है। वह भी समानता और महिला सशक्तीकरण के वैश्विक अभियान के लपेटे में आ गई है। वह भी मां और पत्नी की भावुक भूमिका की कीमत पर पुरूष्ा की बौद्धिक जीवन श्ौली की लालसा करने लगी है। पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। किन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ऎसा हो नहीं रहा है। दोनों स्वावलम्बी और प्रतिस्पर्धी बने रहकर किसी भी समय एक-दूसरे से अलग होने को तैयार रहते हैं। भारत में ऎसा नहीं है। भारत में तो पति-पत्नी के सम्बन्ध मृत्यु के बाद भी नहीं टूटते हैं। स्वाधीनता, आर्थिक स्वतंत्रता और समानता के लिए संघष्ाü करने वाली महिला नारीत्व की प्राकृतिक भूमिका को अस्वीकार कर खुद प्रकृति को चुनौती दे रही है। केवल महिला ही है जो इस धरती पर ह्वदय की संस्कृति का निर्माण करने में सक्षम है, लेकिन हास्यास्पद है कि वह अब पुरूष्ा का अनुकरण करने में जुटी है। कैसे वह जीवन भर पुरूष्ा को आकçष्ाüत करके जोडे रख सकती है। समान ध्रुव में विकष्ाण होता है। उसका अदृश्य ह्वदय और आत्मा उसके अहम के साथ मेल नहीं खाते। आज शोष्ाण भी उसी का सबसे ज्यादा हो रहा है और पूरी दुनिया इसकी कीमत चुका रही है। मां की भूमिका को दोयम दर्जे का मान लिया गया है। महिला ही बच्चों में जीवन-मूल्यों और जीवन के उद्देश्य हस्तान्तरित करने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। मां को ही शिशु का प्रथम गुरू माना जाता है। जब वह खुद जीवन के संघष्ाोü में उलझ गई तो उसके पास बच्चों को जीवन-मूल्यों के संस्कार देने के लिए समय ही नहीं बचता, जिससे बच्चों को अनुभव होने लगे कि प्रकृति और मानव अविभाज्य हैं - एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। 
पृथ्वी पर पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने के लिए हमें गहराई में इसकी जड़ों तक जाना होगा। हमें मां के रूप की सबसे महžवपूर्ण भूमिका को फिर स्थापित करना होगा और हम सभी को उसमें श्रद्धा रखनी होगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर उसका रचनात्मक प्रभाव ही उन्हें संतुलित मानव बना सकता है। जो गूढ़ पारिस्थितिकी विज्ञान के सिद्धान्तों को अपना सके। जिनका उल्लेख अर्नेनैस ने अपनी पुस्तक "द इकोलॉजी ऑफ विजडम" में किया है। इस पुस्तक में पृथ्वी पर मानवीय और गैर-मानवीय जीवन के फलने-फूलने व जीवन के विविध रूपों की विविधता और समृद्धता पर जोर दिया गया है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वेदों में धातु, जल, वायु और पृथ्वी जैसे निर्जीव तत्वों में भी जीवन माना गया है। इस विविधता और समृद्धता को कम करके हम अपने विनाश की ओर ही बढ़ेंगे। इस लक्ष्य के लिए भारत के वैदिक परिदृश्य में जीवन पुरूष्ाार्थ चतुष्टय पर आधारित है। ये चार पुरूष्ाार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पुरूष्ाार्थ का अर्थ है "आत्मा के लिए", जो एक अवधि के बाद शरीर से मुक्ति चाहता है। अर्थ या सम्पत्ति इस शरीर के लिए है। काम मानस से सम्बन्धित या इच्छाओं/ मनोभावों का केन्द्र है। अर्थ और काम पिछले जन्म के कर्माें को भी प्रकट करते हैं। ये पूरी तरह इस जन्म के प्रयासों पर आधारित नहीं होते। निश्चय ही, धर्म "वर्तमान" का प्रकाश-स्तम्भ है। वह कर्म की दिशा और गति तय करता है, जो किसी व्यक्ति के संकल्प या जीवन के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता के अनुरूप होती है।
 मनुष्य जब गर्भ में होता है तभी से धर्म नाभि-रज्जु के जरिए उसके साथ जुड़ता है। आधुनिक भाष्ाा में हम इस रज्जु को किसी व्यक्ति के धर्म का प्रतीक कह सकते हैं। इसके माध्यम से मां बच्चे के भविष्य का निर्धारण करती है। वह अपने शरीर व मन में हो रहे परिवर्तनों से इस आत्मा के स्वभाव को समझती है और आवश्यकता के अनुरूप कदम उठाती है। आधुनिक शिक्षित माताएं यह नींव नहीं रखतीं। जो जन्म के बाद में पढ़ाया जाता है वह "रिलिजन" है। इस नए दौर का बच्चा धर्म के बिना, अर्थ और काम के जरिए ही पलता-बढ़ता है। उस पर सामाजिक, नैतिक या धार्मिक किसी भी तरह की बंदिशें नहीं होतीं। इसलिए वह आत्मा की मुक्ति के चरण तक नहीं पहुंच सकता। समाज देखेगा कि उसकी नींव पर हमला करने वाले मानव के भेष्ा में पशु अधिकाधिक तैयार हो रहे हैं।  हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसे जड़ शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए और वह भी प्रेम और केवल प्रेम के द्वारा ही। अन्य कुछ भी हो, कुछ खास नहीं होगा। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है। 
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बच्चों के संस्कार परिष्कृत करने, माताओं की प्रभावी शिक्षक की भूमिका फिर कायम करने और धर्म, अर्थ व काम के बीच समन्वय कायम रखने के कदम नहीं उठाए जाएंगे तो पारिस्थितिकी संकट दिनोंदिन गंभीर और बेकाबू होता जाएगा। गाँधीजी का "यंग इण्डिया" में प्रकाशित (१९२१) लेख के माध्यम से स्पष्ट कहाँ कि "यथार्थ शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से देना असम्भव है तथा प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए । " गाँधीजी ने अक्टुम्बर १९३७ में वर्धा के शिक्षा-सम्मेलन में कहाँ था कि "सवाल होता है कि प्राथिमक शिक्षा का स्वरुप क्या हो ? मेरा जवाब यह कि किसी उद्योग या दस्तकारी को बीच में रखकर उसके जरिये ही यह सारी शिक्षा दी जानी चाहिए । लड़को को कुछ भी सिखाया जाए, आप कह सकते है कि मध्यम युग में हमारे यहाँ लड़कों को सिर्फ धन्धए ही सिखाये जाते थे । मैं मानता हूँ, लेकिन उन धन्धों के जरिये सारी तालिम देने की बात लोगों के सामने न थी । धन्धा सिर्फ धन्धें के ख्याल से सिखाया जाता था । हम तो धन्धें या दस्तकारी की मदद से दिमाग को आला(बढिया) बनाना चाहते है मैं तो प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई धन्धा आता हो तो निस्संकोच उसे सुझाइये, ताकि हम उस पर भी कर सकें । लकड़ी मुझे सबसे ज्यादा इसलिए जंचती है कि कि इसे छोड़कर और धन्धओं के लिए हमारे पास कोई सामान मौजूद नहीं है । अपने लिए शिक्षा का यही तरीका उपयोगी होगा बशर्ते कि हम अपने बालकों को शहरी न बनाना चाहें । हम तो उन्हें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपने देश की सच्ची प्रतिभा का प्रतिनिधि बनाना चाहते हैं और मेरे ख्याल में स्वावलम्बी प्राथमिक शिक्षा के सिवा दूसरे ढ़ंग से हम उन्हें ऐसा बना नहीं सकते । इस मामले में यूरोप हमारा आदर्श नही बन सकता है, क्योंकि वह हिन्सा पर विश्वास करता है हमारे पास शिक्षा का इस अंहिसात्म योजना के सिवा और कोई उपाय ही कहाँ है ।
 "शिक्षा का आरम्भ उद्योग और उसके द्वारा होना चाहिए ऐसा गाँधीजी मानते थे शिक्षा का मतलब केवल अक्षरी ज्ञान तक ही सीमित न रहना । शिक्षा के बारे में "हरिजन" नामक (८ सितम्बर१९३९) के एक लेख में लिखा कि मेरा मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा शारीरिक अंगों के उचित व्यायाम और अनुशआसन से प्राप्त हो सकती है शारीरिक अंगों के बुद्धिपूर्ण उपयोग से बालक का बोद्धिक विकास होता है । गाँधी जी का विश्वास था कि प्राथमिक शिक्षा में दस्तकारी को एक पृथक विषय रखने के बजाय उसके माध्यम से गणित, भूगोल, इतिहास इत्यादि पढ़ाना चाहिए ताकि दस्तकारी द्वारा बच्चे को त्रम की प्रतिष्ठा और स्वावलम्बन की भी शिक्षा दी जा सके । गाँधी जी किताबी ज्ञान अपेक्षा अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्व देते थे । शिक्षा मातृभाषा के माध्यम सी ही दी जानी चाहिए । राष्ट्रभाषा का बोल-समझ सकने वाला ज्ञान दिया जाए धार्मिक शिक्षा भी अनिवार्य रुप से दी जाए ताकि धर्म व संस्कृति का भी उसे ज्ञान मिल सके किताबी ज्ञान नही होना चाहिए शिक्षक के आचरण का भी विशेष महत्व उस बालक पर पड़ता है जो उससे शिक्षा हासिल कर रहाँ हो अतः शिक्षक का आचरण ठीक-ठाक हो बालकों को १६ वर्ष तक की आयु के बाद अपनी मातृभाषा की शिक्षा भी दी जानी चाहिए जैसे हिन्दु को हिन्दी व मुसलमान को अरबी भाषा का ज्ञान दिया जाना चाहिए उन्हें शारीरिक कार्यों के साथ अक्षरी ज्ञान का भी पाठ पढ़ाया जाए ताकि वे जल्द शिक्षा व्यवहारिक तौर पर सीख सकें । गाँधी जी ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर जो स्वप्न देखा था वह था कि - प्रत्येक शासन की सत्ता पर निर्भर न रहे । समाज में श्रम को ही गौरवपूर्ण और जीविका के क्षेत्र में वे स्वावलम्बी हो । व्यक्ति को एक नई दिशा देने के प्रयास में थे गाँधीजी शिक्षा के जरिये ।गाँधीजी का नजरिया शिक्षा के प्रति इस तरह का था वे सबी के लिए समान रुप से शिक्षा देने का प्रयास करने में हित समझते थे किताबी ज्ञान से वे शिक्षा के साथ साथ बच्चे को स्वावलम्बनी बनाने का सोचते थे ताकि वह व्यक्ति अपनी जीविका आसानी से चला सकें चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो ? उनकी प्राथिमक शिक्षा की नीति गरीब लोगों की भावना को ध्यान में रखकर बनाई गई थी ।
आज की आधुनिक शिक्षा नीति ठीक इसके विपरीत है अभावनात्मक नीति यूरोपीयन छाप से प्रेरित जिसमें आम व्यक्ति से कोई सरोकार नही होता है उस शिक्षा का हमारे जीवन में क्या महत्व होगा किस दिशा की ओर हमें ले जाएगी हम स्वयं अनुमान लगा सकते है रटन प्रणाली से रटे हुए प्रश्नोत्तरों को परीक्षा परिणाम अंच्छे आने के उद्देश्य से रटे जाते है जो परिणाम आने के दो माह तक कुछ ज्ञान नही होता कि हमने किसी प्रकार का कितना रटा और परीक्षा परिणाम तक ही उसका उपयोग रहता है असल जीवन में उस रटन अध्यनावली कोई काम की नही होती है । अच्छे अंक प्राप्त करके हजारों की ताबाद में शिक्षित बेरोजगार युवक-युवतियाँ नौकरी पोने के लिए लायतित घूम रही है लाखों रुपयों की मँहगी किताबे पढ़कर वे चन्द डिग्री ही हासिल कर पाते है और वे डिग्रीयाँ भी मह्तवहीन जब होती है जब कि हमें हजारों प्रयास के बावजुद भी नौकरी न मिल सके और छोटा-मोटा काम-धन्धा तो हम कर ही नही सकते है क्योंकि आधुनिक शिक्षा पद्धति में रटन शिक्षा के अलावा कोई व्यवसायिक पाठ्यक्रम नही सिखाया जाता है जिसे हम आसानी से व्यवसाय के रुप में अपना सकें । हमारी शिक्षा नीति के आधुनिककरण के अलावा बढ़ती गरीबी और जनसंख्यां वृद्धि ने बेरोजगारी की समस्याँ ओर भी विकराल कर दी है हताश युवा गरीबी और बैरोजगारी से, रोज रोज पारिवारिक ताने सामाजिक जाने से परेशान जल्द अमीरी के स्वप्न संजोने में लग जाते है और अपराधिकता से नाता जोड़ लेते है जिससे स्वयं का अहित तो होता है, बल्कि समाज व राष्ट्र का भी जाने-अनजाने में अहित करने से नही कतराते है । अतः शिक्षा के साथ हमारी सोच भी आधुनिक यूरोपीय सोच से प्रभावित होकर अनीतिपूर्ण होने की वजह से हमें आत्मउत्थान का मार्ग नही मिल पाता है ।
अतः हमें उत्तम शिक्षा जो नीतिपूर्ण हो जो हमें भय व निराशा से भी मुक्ति दे सकें अनुशासित जीवन, आत्मसम्मान, कर्त्तव्यनिष्ठता, विश्वास, प्रेमाभाव से परिपूर्ण नीतिज्ञान जो एक श्रेष्ठ नागरिक बना सके ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो शिक्षा के साथ स्वरोजगार के स्वसुलभ जिसे गरीब बच्चें भी फायदा उठा सकें । आज के दौर शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी, प्राश्चात संस्कृति की धाप बनकर रह गई है । जो हमारी रुचि के अनुसार हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक होकर हमें श्रेष्ठ नागरिक बनाने में हमारी मदद करें । अनैतकतापूर्ण स्कुलों व कालेज परिसरों में आये दिन हिन्सात्मक वारदाते होना हमारी आधुनिकत्म शिक्षा नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है हमारी नीतिज्ञयता में कमी इसी का परिणाम है हमारे आदर्श क्या है गुरु का सम्मान क्या होता है माँता-पिता की आदर करना इत्यादि का ज्ञान हमारे व्यवहार से बाहर हो जाने से हम आसपास के माहौल से प्रेरित बाहरी शिक्षा नीति की बाहरी संस्कृति व नीति को अपनाकर अपने ही भविष्य के साथ खिडवाल कर रहे है बल्कि समाज व राष्ट्र का भी अहित कर रहे है । संस्कृति का ज्ञान न होना हमारी शिक्षा नीति में नीतिज्ञ ज्ञान का अभाव भावी पीढ़ी ही नही भविष्य में सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अहितकर होगा । अतः जरुरत है हमें आधुनिक शिक्षा में बदलाव की ।
लाखों रुपयों की योजनाएं चलाने के बजाए शिक्षा का सरलीकरण व प्राथमिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसाईक पाठ्यक्रम भी सिखाये जाए ताकि वे बच्चे जो इस समय (आज के दौर में ) हमारे देश में सबसे ज्यादा है जरा सी पूजी के साथ व्यसाय कर अपने परिवार का भरण-पोषण के साथ साथ अपनी स्कुली प्राथमिक शिक्षा की तालिम भी लेते रहे स्कुलों में भोजन व्यवस्था व मुक्त की किताबे, स्कुल ड्रेस, स्कालशिप से गरीब बच्चे स्कुल की ओर आकृर्षित जरुर हुए है, लेकिन वे गरीब बच्चे जो माँ-बाप के साथ स्वयं भी परिवार की आय स्त्रोत के लिए मजदुरी करने पर बाध्य है उनके लिए ऐसी योजनाएँ किस काम की अतः हमारी सरकार को इस तरह के बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए प्राथिमक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिकता सम्बन्धी पाठ्यक्रम दि.ये जाए ताकि वे पढ़ाई के साथ साथ बालमजुदरी के लिए बाध्य न रहें। गाँधी जी ने कहाँ था कि - पाठशाला चरित्र निर्माण, शिक्षा रोजगार का साधन स्थली होना चाहिए वह शिक्षा जो मनुष्य को कम्प्युटर की भांति ज्ञैन-सामग्री का विश्वकोश, रोबोट के समान मानवशुन्य पशुता की श्रेणी में न ला खण्डा करें मानवी जीवन का महत्व है उसके विचारों आदशों से । अतः गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा नीति का स्वप्न आज भी कितना प्रासंगित है अमल योग्य कितना आवश्यक है अनैतिकता की बेडियाँ तोडने के लिए हमें उनके आदर्शो को पूर्नः अपनाना होगा ।
अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा आजकल अत्यंत परेशान चल रहे हैं। उनकी परेशानी का कारण भी अजीबो गरीब है। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा लगभग हर फ्रंट पर असफल रहे हैं तथा पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश की तुलना में उनका रिपोर्ट कार्ड अभी तक शून्य चल रहा है परंतु इस असफलता पर बराक ओबामा ज्यादा परेशान नहीं हैं। उनकी परेशानी का कारण यह है कि अमेरिका में रहने वाले भारतीय शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में असाधारण रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहे हैं तथा उनके मुकाबले अमेरिका के छात्र कहीं भी नहीं टिक पा रहे हैं। बराक ओबामा एक स्कूल के कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। यह स्कूल अमेरिका का नामी गिरामी स्कूल है तथा इसमें वहां के धनी एवं उच्च घरानों के बच्चे पढ़ते हैं। बच्चों के एक क्विज कार्यक्रम में भारतीय मूल के बच्चों ने अमेरिका के बच्चों को बुरी तरह से हरा दिया। गणित एवं साइंस के प्रश्नों को भारतीय छात्रों ने मौखिक ही हल कर दिया जबकि अमेरिका के स्थानीय छात्रा कम्प्यूटर एवं कैलकुलेटर के आदी हो चुके हैं। कविता प्रतियोगिता में भी भारतीय छात्रों के मुकाबले अमेरिका के छात्रा शून्य ही रहे। इसी तरह धर्म एवं संस्कारों से संबंधित क्विज में भी भारतीय छात्रा हावी रहे। कार्यक्रम के अन्त में जब पुरस्कार वितरण के लिए जब बच्चों को मंच पर बुलाया गया तो उसमें लगभग नब्बे प्रतिशत भारतीय छात्रों की हिस्सेदारी थी। इस सारे प्रदर्शन से राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अत्यंत अपमानित एवं उपेक्षित महसूस किया तथा अपने भाषण में ओबामा ने अमेरिका के छात्रों को भारतीय छात्रों से पढ़ने की कला सीखने की सलाह दी तथा स्कूल प्रबंधन को हिदायत दी कि भारतीय पैटर्न पर पढ़ने तथा पढ़ाने की व्यवस्था की जाये तथा इसमें भारतीय शिक्षकों का ज्यादा से ज्यादा सहयोग लिया जाये।
अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय छात्रा हर क्षेत्रा में अमेरिका के स्थानीय छात्रों से इतने आगे क्यों हैं। इसका सबसे सीधा एवं सरल उत्तर भारत की प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली है। इस गुरूकुल शिक्षा प्रणाली में में गुरू छात्रों को गणित एवं विज्ञान के सभी प्रश्न, बारीकियों, जटिलताओं को मौखिक ही हल करवाते थे अथवा रटवाते थे। उसी गुरूकुल शिक्षा के कुछ अंश आज भी भारतीय शिक्षा में जीवित हैं तथा उसके बल पर भारतीय छात्रा गणित एवं विज्ञान का मौखिक हल इतना आसानी से कर लेते हैं। इसी तरह भारतीय छात्रों को कविता रटने की जन्म से ही आदत होती है तथा बचपन से ही भजन, जागरण, आरती आदि रटते रहते हैं तथा गाते हैं। यह हमारे हिंदू परिवारों की एक परंपरा होती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती है। हमारे देश में हर व्यक्ति जन्म से ही कवि होता है इस कारण बच्चों को कविता रटने एवं गाने में कोई झिझक नहीं होती। इसी तरह संस्कार संबंधी मामलों में भारतीय छात्र परिवारों में स्वतः ही अच्छे संस्कार सीख जाते हैं। संयुक्त परिवारों में बच्चों में धर्म, संस्कृति, मानवता, व्यवहार, आदि की शिक्षा बिना किसी विशेष ध्यान के स्वतः ही आ जाती है। अतः इस क्षेत्रा में भी अमेरिका के छात्रा भारतीय छात्रा विशेषकर हिंदू छात्रों के सामने कहीं भी टिक नहीं पाते। इस सारे वर्णन से स्पष्ट है कि हमारा देश धर्म, संस्कृति, मानवता, व्यवहार तर्क आदि के मामलों में विदेशी छात्रों से काफी आगे है। इसी के साथ-साथ भारत की प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली आज भी श्रेष्ठतम शिक्षा प्रणाली है। भारत की संयुक्त परिवार व्यवस्था एवं गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के कुछ बचे हुए अंशों ने आज भी भारतीय छात्रों का विदेशों में भी लोहा मनवा दिया है।
ओबामा के संदेश एवं हताशा से भारत सरकार एवं नेतागणों को संदेश एवं सबक लेना चाहिए। आज हमारे देश में शिक्षा को लेकर थ्री इडियट्स की तरह रोज नये-नये तरह के ड्रामा एवं स्टंट करते रहते हैं। इन सारे स्टंट एवं ड्रामों से आज भारत की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की हो गयी है जैसे वह किन्हीं इडियट्स के द्वारा संचालित हो रही है तथा सिर्फ इडियट्स के लिए ही होकर रह गयी है। भारत के राजनेता, शिक्षाविदों आदि को इस सारे प्रकरण से कुछ सीखना चाहिए। जहां एक ओर विज्ञान एवं आधुनिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है वहीं भारत की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली संस्कृत शिक्षा, धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक एवं अनिवार्य है। भारत में आजकल एक नई बीमारी घर कर गई है। यहां के कर्णधार भारत की हर विरासत को बदनाम करने एवं गाली देने में अपने आप को गौरवान्वित समझते हैं तथा आंखें बंद करके पश्चिम एवं इस्लामिक शिक्षा एवं सभ्यता का अनुसरण करने में गर्व महसूस करते हैं। इसी का परिणाम है कि आज भारत की शिक्षा प्रणाली में जबरदस्त भटकाव आ गया है तथा इसी भटकी हुई शिक्षा प्रणाली के परिणाम स्वरूप आज भारत के छात्रों में भी भारी भटकाव आ गया है। इसके परिणाम स्वरूप हमारी शिक्षा प्रणाली एक दम दिशाहीन हो गयी है तथा भारतीय छात्रा भी एकदम दिशाहीन हो गये हैं तथा चारों तरफ एक भटकाव का सा माहौल बन गया हैं। इस सारे वर्णन में एक साफ संदेश देखा जा सकता हैं, पहला यह है कि विज्ञान एवं आधुनिक शिक्षा के नाम पर पश्चिम एवं धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली से भारत के छात्रा एवं शिक्षा जगत में दिशाहीनता साफ देखी जा सकती है। इसी तरह देश की प्राचीन गुरूकुल एवं संस्कृत शिक्षा प्रणाली को भी छोड़ कर भारत के शिक्षा जगत में भी अंधकार एवं दिशाहीनता स्पष्ट दिखाई देती है।
शिक्षा और युवावर्ग के पारस्परिक संबंध को रोजगार एक सामाजिक आधार प्रदान करता है। इसलिए रोजागर की अधिकाधिक संभावनाओं वाली शिक्षा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में शैक्षणिक गुणवत्ता और नैतिक मूल्यों के स्थान पर काबिज हुई है। इसका इतिहास लगभग दो सौ वर्ष पुराना है यानी इसके सूत्र औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों की देख-रेख में हो रहे शैक्षणिक ढांचे में हुए बदलाव तक फैले हैं। अपनी समस्त शैक्षणिक तैयारियों, जिसमें ज्ञान, मेधा, डिग्री, प्रमाण-पत्र और अनुभव शामिल हैं, के साथ युवा जब सामाजिक ढांचे में प्रत्यक्ष भूमिका के लिए तैयार होता है तो जो तत्व उसे वैध-अवैध, जरूरी-गैरजरूरी करार देता है, वह है, उसका रोजगार या उसकी संभावना। औपनिवेशिक दौर की आधुनिक शिक्षा से पूर्व तक शिक्षा एक वर्ग-विशेष तक सीमित थी और उसका उद्देश्य भी अपने पारंपरिक क्षेत्रों में दक्षता प्रदान करना था। औपनिवेशिक दौर की आधुनिक शिक्षा ने उसे चोट जरूर पहुंचाई लेकिन उसे पूरी तरह ध्वस्त नहीं किया, जो उसका उद्देश्य था भी नहीं। उसका मूल उद्देश्य औपनिवेशिक ढांचे को सुचारू रूप से चलाने के लिए सस्ते मानव-उपकरण तैयार करना था इसलिए सामाजिक जागरूकता या नैतिक दायित्व जैसे प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया। साथ ही शिक्षा के जरिये विशेषीकृत लोगों की एक ऐसी जमात तैयार की गई जो कुशल श्रम, सेवा क्षेत्र या उससे जुड़ने की संभावना के आधार पर सामान्य लोगों से अलग हो गई। औपनिवेशिक दौर में रोजगार की जो नई संभावनाएं पैदा हुई थी, शिक्षण नीति को बदल कर उसके हित-पोषण में लगाया गया। इसलिए शिक्षा और रोजगार में मजबूत और अनिवार्य संबंध स्थापित हो गया, जो आज और भी अधिक दृढ़ और स्थायी हो चुका है।
भारत जैसे देश में रोजगार को शिक्षा का अतिरिक्त उत्पाद होना चाहिए था, लेकिन प्रबोधन शिक्षा का अतिरिक्त उत्पाद हो गया और जैसे-जैसे प्रबोधन की स्मृति धूमिल होती गई, शिक्षा के आधारभूत ढांचे से ज्ञान और प्रबोधन का तत्व भी धुंधला होता गया। उसकी जगह अधिक स्वार्थ लोलुपता, चालाकी, अंधी प्रतियोगिता और आर्थिक सफलता की इच्छा ने ले ली। पिछले किसी भी दौर से तुलना करें तो पायेंगे कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने वर्ग-विभाजन को पहले के बनिस्पत अधिक गहरा किया है। साथ ही, वर्ग-विभाजन के उपरान्त पैदा होने वाले असंतोषों के शमन के लिए रोजगार की संभावनाओं का इस्तेमाल ‘सेफ्टी वाल्व’ की तरह किया है। उसी तरह जैसे पहले सामाजिक असंतोषों के शमन के लिए धर्म और ईश्वर को ‘सेफ्टी वाल्व’ के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इसलिए केवल स्कूल और कालेज यानी शैक्षणिक संस्थान ही बटें नहीं हैं बल्कि शिक्षा का भी खौफनाक बंटवारा हुआ है। एक ओर यदि विज्ञान- प्रौद्योगिकी और प्रबंधन आधारित व्यावसायिक शिक्षा है जिसे भूमंडलीय-बाजारवादी व्यवस्था ने अनंत संभावनाओं से भर दिया है तो दूसरी ओर पारंपरिक मानविकी शिक्षा है।
आजादी के बाद शिक्षा को राज्य के अधीन इस उद्देश्य के साथ किया गया कि इसमें क्षेत्रीय विशिष्टताओं और मांग के अनुरूप ठोस एवं व्यावहारिक नीतियां बनाई जा सके। इसलिए ‘शिक्षा की भारतीय प्रणाली’ अपने पारिभाषिक रूप में कोई केन्द्रीयकृत इकाई नहीं है। बावजूद इसके रोजगार की संभावना और सुरक्षा इसे केन्द्रीय रूप प्रदान करती है। बच्चा जब स्कूल में भर्ती होता है तो वहां से लेकर उच्च शिक्षा तक, जितने भी लोग इस दौड़ में बचे रहते हैं, खौफनाक रूप से वर्गीकृत हैं। संकाय, भाषा, संस्थान, पैसा, शहर और देश इसके वर्गीकरण को आधार प्रदान करते हैं। इन तमाम आधारों को वैधता प्रदान करने का काम रोजगार करता है। इसके कारण ‘शिक्षित युवा’ कहने से बहुत खींचतान कर भी कोई समान या एकरूप परिभाषा नहीं बनाई जा सकती। गांवों-कस्बों में खुलने वाले कालेज और शहरों में स्थापित कालेजों में ढांचागत अंतर बहुत अधिक है जो समान डिग्री के बावजूद गुणवत्ताा को आसानी से प्रभावित करता है। शिक्षा की माध्यम भाषा तो मौजूदा दौर में रोजगार की संभावना को सीधे-सीधे बांट देती है।
औपनिवेशिक भारत की शिक्षण नीति और आजाद भारत में उसके किंचित सुधरे रूप ने रोजगार को नौकरी तक सीमित कर दिया है। शिक्षण व्यवस्था के द्वारा उत्पादित विद्यार्थी कुशल मजदूरी-पर्यवेक्षक या अर्थ-व्यवस्था के तीसरे क्षेत्र अर्थात् सेवा क्षेत्र के लिए तैयार माल की तरह शैक्षणिक संस्थाओं से निकलते हैं। उक्त क्षेत्र यदि इस तैयार माल का उपयोग नहीं कर पाते तो रोजगार या जीविकोपार्जन के लिए वे जो भी रास्ता चुनते हैं उसमें अर्जित शिक्षा की भूमिका नगण्य होती है। यदि व्यापक तौर पर एक सर्वेक्षण किया जाए कि नौकरी न मिलने के बाद युवाओं द्वारा चुनी गई आजीविका में उनकी शिक्षा मददगार हुई या नहीं तो इसके नतीजे भयंकर रूप से निराशाजनक होंगे। इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत में युवाओं की संख्या और नौकरी की उपलब्धता को देखते हुए शिक्षा ने न तो रोजगार के प्रति कोई विश्वास पैदा किया है और न ही वह नैतिक-सामाजिक- राजनीतिक मूल्यों के विकास की दिशा में कोई सकारात्मक पहल कर पायी है। इसकी जगह उसने गलाकाट प्रतियोगिता की दिशा में आक्रामक बन जाने के लिए युवाओं को उकसाया है।
प्रबंधन और प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा ने युवाओं की रोजगार संभावनाओं को पुष्ट जरूर किया है, लेकिन इसका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि इसने शिक्षितों के नाम पर चालाक और धूर्त लोगों की जमात खड़ी की, जिसका सीधा संबंध भूमंडलीकृत व्यवस्था से है। भूमंडलीय बाजार के एकाधिकार के पूर्व के दौर में जब लघु दस्तकारी और छोटे उद्योगों के संरक्षण की सरकारी नीतियां प्रभावी थीं, तब सीमित मात्रा में ही सही, ऐसी शिक्षा जो रोजगार से सीधे जुड़ी थीं जैसे आई.टी.आई. या व्यावसायिक डिप्लोमा पाठयक्रम, उसके प्रति मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्गीय छात्रों का झुकाव था और इसमें एक सम्मान जनक जीवन जीने की पर्याप्त संभावनाएं थीं, लेकिन बाजार ने रोजगार के इस क्षेत्र को असंगठित क्षेत्रों के हवाले कर दिया जिसका श्रममूल्य अत्यधिक नीचा है। इसका सीधा फायदा एकीकृत बाजारवाद तथा उदारीकरण के समर्थकों को मिला।
आजाद भारत में शिक्षा में बुनियादी सुधार संबंधी जितने भी प्रस्ताव और रिपोर्ट प्रस्तुत किये गये, उनमें शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाने की बात कही गई और कई तरह के व्यावसायिक पाठयक्रमों की अनुशंसा भी की गई। पाठयक्रम लागू भी किये गए जिसके प्रति लोगों का रवैया उत्साहपूर्ण है। इसका सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा कि जो पाठयक्रम शिक्षा को रोजगार से जोड़ने में अपेक्षाकृत न्यून संभावनाओं वाले हैं, उसके प्रति उदासीनता बढ़ी या उसे टाइम पास जैसी मानसिकता के साथ ग्रहण किया गया। इस तरह पाठयक्रम ने रोजगार की संभावनाओं के आधार पर शिक्षित युवाओं को भयंकर रूप में वर्गीकृत कर दिया है। कला और समाज-विज्ञान जैसे संकायों के प्रति युवाओं की उदासीनता बढ़ी है। इसे इन संकायों से शिक्षा अर्जित कर रहे छात्रों की संख्या के आधार पर नहीं बल्कि रुचियों और आकर्षण के आधार पर देखना चाहिए। इसे राजधानी या महानगरों में स्थित संस्थानों- विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की रुचियों के आधार पर भी देखना चाहिए।
यदि रोजगार की संभावनाओं को केन्द्र में रखकर विद्यार्थियों की संख्या का एक रेखाचित्र बनाया जाए तो वह पिरामिड की तरह का होगा जिसके ऊपरी भाग में प्रबंधन, प्रौद्योगिकी या पब्लिक सर्विस में जाने की तैयारी के लिए श्रेष्ठ संस्थानों में पढ़ रहे युवा होंगे तो नीचे क्रमश: विज्ञान, वाणिज्य और कला के सामान्य विद्यार्थी होंगे। इस तरह शीर्ष पर काबिज युवा, शेष समुदाय से स्वयं को अलग कर लेते हैं। चिन्ता की बात यह है कि शीर्ष के युवा जब रोजगार प्राप्ति की दृष्टि से असफल हो जाते हैं तो समाज में उनके लिए जगह नहीं होती। वे अकेलेपन, आत्म-निर्वासन और अजनबीयत के शिकार हो जाते हैं। इस संदर्भ में अमरकांत की कहानी ‘डिप्टी कलेक्टर’ उल्लेखनीय है।
भारत का शिक्षित शारीरिक और मानसिक श्रम बाजार, शिक्षितों के एक छोटे से अंश को अपने भीतर जगह देता है। इसलिए रोजगार उनके भीतर एक असुरक्षा पैदा करती है। आजाद भारत में कोई ऐसा ढांचा आज तक विकसित नहीं किया जा सका है जो शिक्षा से लैस युवाओं को रोजगार की गारंटी प्रदान कर सके या ऐसी स्थिति के न होने पर क्षतिपूर्ति स्वरूप उनके जीवन को चलाने की कोई सुचारू व्यवस्था कर सके। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि शिक्षा का आर्थिक मूल्य तो किसी हद तक विकसित हुआ लेकिन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य लगातार धूमिल होते गए।
भूमंडलीकृत व्यवस्था में रोजगार की नई संभावनाओं ने राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को और भी अधिक समस्याग्रस्त बना दिया है। विशेषकर महानगरों के नव धनाढयों और संपन्नों ने शिक्षा को पूरी तरह बाजार में जीने और अपनी बोली लगाने की दक्षता में बदल दिया है। भारत जैसे देश में जहां 83 करोड़ से भी अधिक जनता रोजाना बीस या उससे कम रुपये में अपनी जिन्दगी गुजार रही है वहां 5-10-20 लाख के वार्षिक पैकेज को हड़पने वाली शिक्षा के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं इसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। विगत दस वर्षों में नगरों-महानगरों में हत्या, डकैती, अपहरण जैसी घटनाओं में लिप्त लोगों का अधिसंख्यक वर्ग यही शिक्षित युवा ही है जो या तो ऐश के लिए या असुरक्षा के चलते इन अपराधों की ओर आकर्षित हुआ। दंगों में सक्रिय भूमिका निभाने वाला वर्ग यही है। कहना होगा कि शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त असंतोषों के विस्फोटक रूप लेने की शुरूआत हो चुकी है। प्रख्यात शिक्षाशास्त्री मूनिस रजा ने पहले ही इस ओर ध्यान आकर्षित कराया था- ”भारतीय उच्च शिक्षा का संकट न तो इसके आकार में निहित है और न ही प्रसार की ऊंची दर में।
भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र का वास्तव में और अधिक प्रसार आवश्यक है ताकि वह वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक आत्म-निर्भरता के आधार पर सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की आवश्यकताएं पूरी कर सके। भारतीय उच्च शिक्षा के संकट की जड़ें उन संरचनात्मक विकृतियों और अपर्याप्तताओं में है जो विरासत में मिली प्रणाली की जकड़ को तोड़ सकने की असमर्थता की देन है।” एक सामान्य-सा प्रश्न जो हमारी शिक्षा पध्दति से बहिष्कृत कर दिया गया और जिसे कभी ठीक से हमारी शिक्षा पध्दति का हिस्सा ही नहीं बनाया गया कि क्या समाज की कोई प्रत्यक्ष सेवा व्यापक रूप में कभी शिक्षा का उद्देश्य बन पायेगी? इसका नकारात्मक उत्तार ही शिक्षा को केवल कमाई के जरिये के रूप में देखता है। शिक्षा एक सांस्कृतिक कर्म है जिसका उद्देश्य विषमताओं और असंतोषों का शमन करना होना चाहिए, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि रोजगार की हड़प नीति ने उसे लगातार धूर्त बनाया है। युवाओं के बीच धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, पारिस्थितिकी, बहुलता, वर्ग जैसे मुद्दों पर एक ईमानदार बहस चलाने में हमारी शिक्षण पध्दति व्यावहारिक स्तर पर नाकाम रही है। यदि वह बहस कहीं उठी थी तो युवाओं की व्यक्तिगत निष्ठा के बल पर, न कि पाठयक्रम की एक जरूरी शर्त के रूप में। इस तरह आजाद भारत में शिक्षा व्यापक रूप में शिक्षा बन ही न पाई, वह रोजगार के आस-पास ही चक्कर काटती रही। इस संदर्भ में शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार का वक्तव्य उल्लेखनीय है- ”ऐसी साक्षरता जो शब्दों के अलावा परिस्थिति का बोध कराती है, शिक्षा बन जाती है।
इसके विपरीत जब शिक्षा जीवन और समाज की परिस्थिति से कट जाती है तब वह साक्षरता बन कर रह जाती है।” इसलिए हमारे समय के जागरूक युवाओं को अब साक्षरता को शिक्षा बनाने की दिशा में कुछ निश्चयात्मक कदम उठाने होंगे और एक ऐसा सामाजिक दबाव पैदा करना होगा जिससे शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पाने की दिशा में नीतियां बननी शुरू हो । हमारे देश में जहां एक ओर विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा की सख्त आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली एवं संस्कृत शिक्षा की भी सख्त आवश्यकता है। भारत की परिस्थितियों में दोनों में सांमजस्य की सख्त आवश्यकता है। इससे ही भारत का तिरंगा सारे विश्व में बुलंद रहेगा।