इंटरनेट की दुनिया में हिंदी का भविष्य
प्रोफ़ेसर (डा.) रामलखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर(राजस्थान)
इंटरनेट
पर हिंदी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर चुकी है। यह सिद्ध हो चुका है कि हिंदी किसी भी उच्च-भ्रू तकनीक के अनुकूल है। हिंदी की वेबसाइटों की संख्या जिस अनुपात में बढ़
रही है उसी अनुपात में इसके पाठकों की संख्या भी बढ़ रही है। लेकिन अभी हिंदी को नेट
पर बहुत लंबा सफ़र तय करना है। इसके मार्ग में अनेक तकनीकी बाधाएँ हैं। इन बाधाओं के
बारे में आगे बात करेंगे। पहले इस मिथक की बात करें जिसे हिंदी के प्रबुद्ध वर्ग तक
ने अपने मन में बैठा रखा है। मिथक यह है कि इंटरनेट, शब्द और
अंतत: किताब के लिए खतरा है। प्रबुद्ध वर्ग का इस उच्च-भ्रू तकनीक से अलगाव विचारधारात्मक उतना नहीं हैं, जितना
कि इसके दाँव-पेंचों को न समझ पाने (जैसे
आर्थिक या फिर तकनीकी जटिलताओं से अनुकूलन न कर पाना) के कारण
है। अत: वे इससे एक दूरी बरतना ही पसंद करते हैं। इसलिए सबसे
पहले इंटरनेट पर किताबों-पत्रिकाओं की संभावनाओं की बात की जाए।
भूमंडलीकरण
की प्रक्रिया में दुनिया बहुत तेज़ी से सिकुड़ती और पास आती जा रही है। वैश्विक ग्राम
की अवधारणा के पीछे सूचना क्रांति की शक्ति है। इस प्रक्रिया में इंटरनेट की भूमिका
असंदिग्ध है। जहाँ दुनिया भर में पाठकों की संख्या का ग्राफ़ नीचे आया है,
वहीं सूचना क्रांति को किताब पर छाए ख़तरे के रूप में भी देखा जा रहा
है। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में इंटरनेट एक ऐसा माध्यम हैं, जहाँ
कथा और अ-कथा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध हो सकते हैं। इसका अर्थ
है कि इंटरनेट पर कोई भी कृति इंटरनेट पाठक वर्ग के लिए डाउनलोड की जा सकती है। इससे
वेब पीढ़ी के पाठक तो अनमोल साहित्य और वैचारिक पुस्तकों से जुड़ेंगे ही, साथ में पुस्तक के वर्तमान स्वरूप में एक नया आयाम भी जुड़ेगा। इस दिशा में
प्रयास हुए भी हैं, उदाहरण के तौर पर माइक्रोफ़िल्म को सामने
रखते हैं। ख़ास अर्थो में यह भी पुस्तक की परिभाषा में एक नया आयाम तो जोड़ती है,
लेकिन महँगाई और जटिल तकनीक के कारण इसकी पहुँच सीमित है, जबकि इंटरनेट का फैलाव विश्वव्यापी है।
सही
मायनों में किताब के व्यापक प्रसार की प्रक्रिया पंद्रहवी शताब्दी में प्रिटिंग प्रेस
के आविष्कार के बाद से ही आरंभ हुई थी। इसने ज्ञान पर कुछ विशिष्ट लोगों के एकाधिकार
को तोड़ा और आम जन के लिए ज्ञान की नई दुनिया के द्वार खोले। अब यही काम इंटरनेट भी
कर रहा है,
लेकिन ज़्यादा तीव्रता से और व्यापक स्तर पर, इंटरनेट
ने सूचना या ज्ञान पर एकाधिकार को तोड़ा और विकेंद्रित किया है। विश्वव्यापी संजाल
(वर्ल्ड वाइड वेब जो संक्षेप में डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू. कहलाता है) के ज़रिए इंटरनेट
उपयोगकर्ता दुनिया भर की कैसी भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार जो कार्य
प्रिटिंग मशीन के आविष्कार से आरंभ हुआ था, उसे इंटरनेट ने विस्तार
ही दिया है, अतिशय सूचना की समस्या और इस पर किसी एक ही व्यक्ति
विशेष के वर्चस्व के प्रश्न को निश्चित ही अनदेखा नहीं किया जा सकता, इस ओर सावधान रहने की आवश्यकता है। जहाँ तक इंटरनेट पर साहित्यिक कृतियाँ उपलब्ध
कराने की बात है, तो यह प्रकाशकों और साहित्यकारों की इच्छा शक्ति
पर निर्भर करता है। प्रारंभिक दौर में हम पीछे रह गए हैं।
इंटरनेट
की उपयोगिता को सबसे पहले विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने
ही समझा टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, नई दुनिया, इंडिया
टुडे, आउटलुक जैसी पत्रिकाओं ने अपने इंटरनेट संस्करण निकालने
आरंभ किए, इससे निश्चित ही इन पत्र-पत्रिकाओं
की पाठक संख्या बढ़ी है। 'द स्टेट आफ द साइबरनेशन' पुस्तक के लेखक नील वैरट के अनुसार, इंटरनेट के संदर्भ
में 'पाठ' को तीन भागों मे बाँटा जा सकता
है। तात्कालिक महत्व के समाचार-परक लेख, जैसे दैनिक समाचार पत्र। पृष्ठभूमीय समाचार-परक लेख
(बैकग्राउंडर), जिनकी उपयोगिता अपेक्षाकृत कम समयबद्ध
होती है जैसे साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ। स्थायी महत्व का कथा और अ-कथा साहित्य, यानी किताबें।
इंटरनेट
पर पूरी किताब उपलब्ध करवाना बाइट का खेल है। (बाइट
: कंप्यूटर में डेटा सुरक्षित रखने की आधारभूत इकाई, जिसमें एक बाइट आठ बिट के बराबर होती है), अधिकांश समाचार-परक लेखों की शब्द संख्या एक हज़ार शब्दों से कम होती है, पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों की पाँच हज़ार शब्दों से कम, पूरे समाचार-पत्र या किसी पत्रिका को कंप्यूटर पर डाउनलोड
करने में औसतन चालीस से पचास हज़ार शब्द लग सकते हैं। पुस्तकें इंटरनेट पर उपलब्ध करवाने
में औसतन अस्सी हज़ार शब्द लगेंगे, यद्यपि यह संख्या तुलनात्मक
रूप से अधिक प्रतीत होती है, लेकिन पूर्णत: व्यवहार्य है। कंप्यूटर की भाषा में कहें तो बिना चित्रों की अस्सी हज़ार शब्दों
वाली किताब में मात्र ०.५ मेगाबाइट खर्च होंगे।
पुस्तकों
के पाठकों की संख्या में आई गिरावट के इस दौर में इंटरनेट हमें एक नया पाठक वर्ग पैदा
करने का अवसर देता है। तकनीकी विकास के साथ किताब का स्वरूप भी बदला है। हम जिस रूप
में किताब को आज पाते हैं वह पहले से ऐसी नहीं थी। लेकिन तब तक से लेकर अब तक उसके
होने पर कोई विवाद नहीं रहा। हाँ। तकनीक का विरोध औद्योगिक क्रांति के समय से ही कमोबेश
होता रहा है। विक्टोरियन इंग्लैंड में कवि और समाज सुधारक विलियम मौरिस एक समय प्रिंटिंग
प्रेस के सख़्त विरोधी थे। उनकी नज़र में इससे किताब के सौंदर्य और भव्यता पर आँच पहुँचती
थी। स्पष्टत:
यह एक अभिजातवादी दृष्टिकोण है। हिंदी के रचनाकारों की समस्या है कि
वह तकनीक का कोई सकारात्मक उपयोग प्राय: अपने लिए नहीं पाते।
क्या यह स्थिति इसलिए है कि वें एक पिछड़े समाज के प्रतिनिधि हैं? किसी भी तकनीक के दो पहलू हुआ करते हैं। एक अच्छा तो दूसरा बुरा। बुरे का विरोध
और अच्छे का अपने पक्ष में उपयोग ही उचित है, न कि कोरे विरोध
के द्वारा स्वयं को इससे असंयुक्त कर लेना।
किताब
का जो वर्तमान स्वरूप हमारे सामने है, उसमें किताब की अपनी
स्वायत्त सत्ता होती है और पाठक की स्वायत्तता के खिलाफ़ इसकी दख़लअंदाज़ी बहुत सीमित
होती है। मगर ऐसा ही इंटरनेट उपयोगकर्ता के साथ भी है। वह जब चाहे तब कंप्यूटर का स्विच
आफ़ कर सकता है। हाँ! यह अवश्य है कि लैप टॉप सरीखे महँगे कंप्यूटर
का उपयोग नदी किनारे बैठकर कोई साहित्यिक कृति पढ़ने के लिए नहीं किया जा सकता। यह
कंप्यूटर की सीमा भी है। लेकिन तकनीक सुलभ और सस्ती हो, तो भविष्य
में कुछ भी संभव है।
इंटरनेट
पर साहित्य उपलब्ध होने से कुछ विधा संबंधी परिवर्तन आना तय है। उदाहरण के लिए,
जिस प्रकार पत्रकारिता के दबावों के चलते रिपोर्ताज, धारावाहिक लेखन सरीखी विधाएँ सामने आई, उसी तरह कुछ नवीन
विधाएँ इंटरनेट पर जन्म ले सकती है। सचित्र लेखन, कार्टून जिसका
एक रूप है, उसकी तर्ज़ पर एक्शन भरा लेखन सामने आ सकता है। फ़िल्म
और साहित्य के बीच की कोई विधा विकसित हो सकती है। ऑन लाइन फ़रमाइशी लेखन की संभावना
भी बनती है। इंटरनेट पर सहकारी यानी सामूहिक लेखन के प्रयास भी हो सकते हैं। अब प्रश्न
उठता है कि क्या इंटरनेट पर गंभीर साहित्य की रचना संभव है या फिर यह सिर्फ़ पॉपुलर
साहित्य तक ही सिमट जाएगा, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य ही दे सकता
है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इंटरनेट स्वयं संप्रेषण माध्यम की अंतिम कड़ी नहीं
हैं।
वैज्ञानिक
खोजें किसी एक बिंदु पर आकर नहीं रुकतीं, टेलीप्रिंटर
के आने से संप्रेषण माध्यम में एक नया आयाम जुड़ा और बाद में यह रेडियो के विकास की
कड़ी बना। हालाँकि अपने स्वतंत्र रूप में टेलीप्रिंटर आज भी बना हुआ है। इतिहास बताता
है कि मशीन पर किताब छपने से क्लासिक की परिभाषा और किताब का स्वरूप, दोनों ही बदले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध होने वाले साहित्य को भी इसी परिप्रेक्ष्य
में देखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर इंटरनेट-साहित्य किताब की परिभाषा
में कुछ नया ही जोड़ता है।
बहुत
कठिन है डगर पनघट की
जब तक इंटरनेट सेवा मुफ़्त ही न हो जाए, हिंदी पट्टी तक इसका पर्याप्त विस्तार हो सकेगा, इसमें शक है। हिंदी को तकनीक सचेत बनाने में बहुत सारी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का हल निकाले बिना हिंदी को इंटरनेट पर लाने के अब तक के तमाम प्रयासों समेत भविष्य के भी समाप्त प्रयास प्रभावकारी नहीं हो सकेंगे।
जब तक इंटरनेट सेवा मुफ़्त ही न हो जाए, हिंदी पट्टी तक इसका पर्याप्त विस्तार हो सकेगा, इसमें शक है। हिंदी को तकनीक सचेत बनाने में बहुत सारी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का हल निकाले बिना हिंदी को इंटरनेट पर लाने के अब तक के तमाम प्रयासों समेत भविष्य के भी समाप्त प्रयास प्रभावकारी नहीं हो सकेंगे।
कंप्यूटर पर हिंदी टाइपिंग
हिंदी
में फोंट को ज़बरदस्त समस्या है। हिंदी के सैंकड़ों फोंट उपलब्ध हैं। और यही समस्या
की असली जड़ है। अंग्रेज़ी के 'टाइम्स न्यू रोमन'
की तरह हिंदी में कोई 'वैश्विक फोंट' नहीं है कि सभी हिंदी भाषी एक ही फोंट पर काम कर सकें। हर पत्रिका,
हर अख़बार और हर प्रकाशक अपना एक नया ही फोंट चलाता है। इस तरह से हिंदी
में फोंट को लेकर अराजकता की स्थिति बनी हुई है। इसी कारण हिंदी में कोई एक जैसा की-बोर्ड (कुंजीपटल) नहीं हैं। हालाँकि
बाज़ार में की-बोर्ड पर चिपकाने वाले स्टिकर मिलते हैं। लेकिन
जिन लोगों को व्यावसायिक मांगों के चलते एक से अधिक फोंट पर काम करना पड़ता है उनके
लिए ये स्टिकर किसी काम के नहीं होते, यह हिंदी की व्यावसायिक
दुर्बलता है। इस मायने में यह हिंदी वालों की विलक्षण मेधा ही है कि वे अंग्रेजी के
की-बोर्ड पर हिंदी की टाइपिंग कर लेते हैं। इससे सिद्ध होता है
कि हिंदी वाले तमाम मुश्किलों के बावजूद तकनीक सचेत बने हैं। इंटरनेट उपयोगिता हिंदी-प्रेमी होने के कारण हिंदी की वेबसाइटों पर जाते तो हैं। लेकिन हिंदी में
'सबके लिए फोंट' न होने कारण टिकते नहीं। वेबदुनिया
सरीखी प्रसिद्ध वेबसाइट के 'चैट सिस्टम' के असफल होने का यही कारण है। अपना समय, ऊर्जा और पैसा
खर्च करके इंटरनेट सर्फिंग करने वाले उपयोगकर्ताओं से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए
कि वे हिंदी के दुनिया भर के फोंट सीखते फिरेंगे। इन फोंटों से परिचित न होने की स्थिति
में इंटरनेट उपयोगकर्ता को लगता है कि वह अपना समय और पैसा बर्बाद कर रहा है। इसी कारण
हिंदी में ई-मेल भेजने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति या तो इंटरनेट
पर जाता ही नहीं या फिर अंतत: अंग्रेज़ी में ही ई-मेल करता है।
दरअसल
की-बोर्ड की मैपींग (एक ऐसी मानक तालिका निर्धारित करना,
जिसमें प्रत्येक अक्षर, अंक और चिह्न के लिए तयशुदा
मानक 'को' हों) के
मूल में ही फोंट की समस्या विद्यमान है। अंग्रेज़ी में भले ही फोंट अलग-अलग (टाइम्स न्यू रोमन, एरियल)
हैं, लेकिन उन सबका की-बोर्ड
एक ही है। असल में हिंदी का की-बोर्ड बनाते समय कोई मानक निर्धारित
नहीं किया गया। अंग्रेज़ी में आई.बी.एम.
को छोड़कर सभी कंप्यूटरों में ए.एस.सी.आई.आई. मानक का निर्धारण और पालन किया गया। इस तरह से बड़ी समस्या पहले ही सुलझा ली
गई। इससे हुआ यह कि आप फोंट कोई भी इस्तेमाल करें, की-बोर्ड एक ही रहेगा। हिंदी की तरह नहीं कि कृतिदेव फोंट में अंग्रेज़ी के की-बोर्ड का 'डी' दबाने से
'क' आएगा और शुषा फोंट चुनने पर 'द', इसलिए की-बोर्ड का मानक निर्धारित
करना आवश्यक है। यह तकनीकी समस्या है, लेकिन इससे इंटरनेट पर
ही नहीं, कुल कंप्यूटर परिदृश्य पर हिंदी का भविष्य निर्भर करता
है। हिंदी जानने वाले कंप्यूटर पर हिंदी को बहुतायत में तभी अपना सकेंगे जब यह बाधा
दूर हो जाए। इस समस्या को सुलझाना निजी उद्यम के बस की बात नहीं हैं। बहुत सारे निजी
प्रयास होने और कोई तयशुदा मानक न होने के चलते ही अराजकता की स्थिति बनी है। सरकार
को इस दिशा में पहल करनी होगी। एक मानक की-बोर्ड बन जाने और एक
नियम या कानून के तहत अनिवार्य होने से ही यह बाधा दूर हो सकती है।
दूसरी बिकट समस्या यू.आर.एल.ऐड्रस की है। जब तक यू.आर.एल. ऐड्रस और इंटरनेट संबंधी अन्य तकनीकी चीजें हिंदी में नहीं होंगी, तब तक अंग्रेजी न जानने वाले बहुसंख्यक हिंदीभाषी इससे नहीं जुड़ेंगे। इस प्रकार के इंटरनेट उपयोगकर्ता भविष्य में सर्वाधिक लाभ देने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
दूसरी बिकट समस्या यू.आर.एल.ऐड्रस की है। जब तक यू.आर.एल. ऐड्रस और इंटरनेट संबंधी अन्य तकनीकी चीजें हिंदी में नहीं होंगी, तब तक अंग्रेजी न जानने वाले बहुसंख्यक हिंदीभाषी इससे नहीं जुड़ेंगे। इस प्रकार के इंटरनेट उपयोगकर्ता भविष्य में सर्वाधिक लाभ देने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
तीसरी
बड़ी समस्या इंटरनेट पर कोई 'इच्छित जानकारी खोजने'
से संबंधित है। इंटरनेट का एक बड़ा ही दिलचस्प आयाम 'सर्च इंजन' हैं। सर्च इंजन की सहायता से इंटरनेट उपयोगकर्ता
बड़ी आसानी से कैसी भी वांछित जानकारी जुटा लेता है। विडंबना बस यही है कि सूचना क्रांति
के दूसरे दौर में प्रवेश हो जाने के बावजूद हिंदी में एक भी सर्च इंजन नहीं हैं। इंटरनेट
पर लगभग सभी जानकारियाँ चूँकि अंग्रेज़ी में हैं, इसलिए सर्च
इंजन भी अंग्रेज़ी में ही हैं। अंग्रेज़ी भाषा न जानने वाले के लिए इसकी कोई उपयोगिता
नहीं हैं। कहना न होगा कि हिंदी पट्टी को सूचना क्रांति के पूरे लाभ नहीं मिले हैं।
इस मायने में पहले से पिछड़ी हिंदी पट्टी और पीछे जा रही है। जबतक हिंदी का अपना विशाल
डेटाबेस नहीं बन जाता, तब तक सर्च इंजन में अनुवाद की सुविधा
देने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया जा सकता है। भाषा भले ही सहज, प्रवाहपूर्ण न हो, लेकिन अंग्रेज़ी न जानने वाला कम से
कम अपनी भाषा में जानकारी तो जुटा सकेगा, इस दिशा में कापीराइट
की समस्या आड़े आ सकती है, तो एक सुझाव यह हो सकता है कि इस तरह
की साइट के लिए कुछ पैसा लिए जाने का प्रावधान कर लिया जाए, हालाँकि
यह कोई बहुत कारगर उपाय प्रतीत नहीं होता है, क्यों कि इंटरनेट
पर पैसा उपयोगकर्ताओं से न लेकर विज्ञापनदाताओं से लिया जाता है। बिल्कुल टी.वी. की तरह, जिसमे टी.वी. चैनल दर्शक से पैसा नहीं माँग सकते, ऐसा न करने से फ्लाप तक हो सकता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इस दिशा
में उस कंपनी को प्रयास करने होंगे जो हिंदी का सर्च इंजन उपलब्ध कराएगी, यह लचीली, कार्यक्षम और आक्रमक विपणन नीति से ही संभव
हो सकता है। टी.वी. की ही तरह जितने अधिक
साइट देखने वाले होंगे उतने ही विज्ञापन भी जुटाए जा सकेंगे।
चौथी
बड़ी समस्या स्वयं हिंदी की वेबसाइटों को लेकर है। हिंदी की इन वेबसाइटों पर ग़ौर करें
तो ख़ासे दिलचस्प परिणाम सामने आते हैं। इन वेबसाइटों की खोज-खबर लेकर, अंग्रेज़ी की वेबसाइटों से तुलना करने पर पता
चलता है कि हिंदी की वेबसाइटें दरअसल कितनी पिछड़ी या बेहतर काम कर रही हैं। इंटरनेट
पर मुख्यत: पाँच प्रकार की वेबसाइटें उपलब्ध हैं।
वेबदुनिया
सरीखी वेबसाइटें,
जिन्हें अंग्रेज़ी के इंडिया टाइम्स की प्रतिकृति कहा जा सकता है,
वेबदुनिया ने हिंदी की अन्य वेबसाइटों की तुलना में स्वयं को अधिक बाज़ार
सचेत सिद्ध किया है। इसमें भी वे सभी हथकंड़े अपनाए जाते हैं, जिन्हें इंडियाटाइम्स एक लंबे समय से अपनाता रहा है। इसकी सबसे बड़ी कमी यही
है कि इसके पास इंडिया टाइम्स की तरह सर्च इंजन नहीं है। सकारात्मक पक्ष वही है कि
इसमें साहित्य और विचार के लिए भी जगह है
अप्रवासी
भारतीयों और भारत में ही निवास करने वाले लोगों की निजी वेबसाइटें,
इन वेबसाइटों से हिंदी प्रेम तो झलकता है, लेकिन
स्तरीयता की कमी रहती है। इन वेबसाइटों पर जाना अपना समय और पैसा नष्ट करना है,
लेकिन कुछ बेहतर पयास भी दिखते हैं, लोग निजी स्तर
पर अपने पसंदीदा रचनाकार/रचनाकारों की रचनाएँ वेबसाइट बनाकर उपलब्ध
कराते हैं
ग़ैर
सरकारी संगठनों,
विदेशी विश्वविद्यालयों और स्वामियों या मठाधीशों की वेबसाइटें चूँकि एक ख़ास उद्देश्य को लेकर ही बनाई जाती है, इसलिए इनका पाठक वर्ग भी विशिष्ट या अलग प्रकार का होता है। सरकारी वेबसाइटों
को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है, लेकिन सरकार की महिमा ही
है कि हिंदी के राष्ट्रभाषा होने के बावजूद, सरकारी वेबसाइटों
पर उपलब्ध अधिकांश जानकारियाँ अंग्रेज़ी में ही हैं। इससे 'सबको
सूचना के अधिकार' की खिल्ली ही उड़ती लगती है। सरकार ऐसी भाषा
में जानकरी दे रही है, जिसे बहुसंख्यक जनता समझती ही नहीं है।
देसी शिक्षा संस्थानों की साइटों पर भी अंग्रेज़ी का ज़ोर है। पत्रिकाओं (साहित्यिक और गैर साहित्यिक), अखबारों, टीवी चैनलों और सिनेमा संबंधी वेबसाइटों को यहाँ रखा जा सकता है। पत्रिकाओं,
अख़बारों और टीवी चैनलों की स्थिति फिर भी ठीक है, लेकिन जिन्हें सिनेमा पर कुछ भी स्तरीय पढ़ने की आदत हैं, उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी।
उपरोक्त
श्रेणी की अधिकांश वेबसाइटें इस कदर जानकारी विहीन है कि उन्हें देखने का कोई तुक नहीं
बनता है। कहना न होगा कि हिंदी को इंटरनेट पर अभी बहुत सफ़र तय करना है। साहित्यिक
पत्रिकाओं और किताबों को हिंदी में इंटरनेट पर उपलब्ध करने को लेकर बहुत से बुद्धिजीवी
सवाल खड़े करते रहे हैं। उनसे यही कहा जा सकता है कि आज हम जिस रूप में किताब को जानते
हैं वह हमेशा से ऐसी नहीं थी। इसलिए रूप बदलने को न तो शब्द की मृत्यु मानना उचित है
और नही
'फार्म' को लेकर रूपवादी होना ही ठीक है। भारत
सरीखे बहुस्तरीय समाज में, छपे हुए शब्द की महत्ता कम नहीं होने
वाली। इसलिए दोनों मोर्चों पर एक साथ लोहा लेने की ज़रूरत है।
भूमंडलीकरण
के औज़ार, बाज़ार और मीडिया ने न सिर्फ़ हिंदी को, बल्कि अपनी देहरी
तक सीमित अन्य भाषाओं को भी विस्तार दिया है। प्रौद्योगिकी ने इसे आसान बनाया है। एक
बार फिर भाषा निर्णायक रूप से बदल रही है। हम एक ऐसे 'संक्रमण
बिंदु' पर खड़े हैं, जहाँ से हमें भाषा
की ताक़त और कमज़ोरियों के सवाल से भी दो-चार होना होगा। मीडिया
में हिंदी के बढ़ावे को देखकर जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्होंने
स्थिति पर गहराई से विचार ही नहीं किया है। इसका अर्थ है, जनता
को लगातार एक ऐसी भाषा में बनाए रखना, जिसमें ज्ञान नहीं,
दैनिक सूचनाएँ ही अधिक हों, ज्ञान का केंद्रीकरण
इस मायने में अंग्रेज़ी भाषा के पक्ष में और अधिक हुआ है। हिंदी में आज आप कोई भी स्थायी
या अस्थायी महत्व को वैश्विक जानकारी इंटरनेट पर नहीं जुटा पाएँगे। मगर हिंदी को तकनीक
सचेत बनाने में जो तकनीकी दिक़्क़तें हैं, उन्हें दूर किए बिना
इंटरनेट पर हिंदी की सफलता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इन सब बातों का यह अर्थ
नहीं लगाया जाना चाहिए कि तमाम तकनीकी दिक़्क़तों के बावजूद हिंदी की बेहतर वेबसाइटें
नहीं आ रही हैं। इसका उद्देश्य तो बस पाठकों को वस्तुस्थिति से परिचित कराना है। कुल
मिलाकर कह सकते हैं कि इंटरनेट पर ऐसी वेबसाइटें बहुतायत में हैं जो हिंदी के ई-पाठक के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
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