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Sunday 18 May 2014

ओ भारत माँ! हमारा इन्तजार करना O Thy Mother India! Wait I Shall Come Soon


ओ भारत माँ! हमारा इन्तजार करना 
(O Thy Mother India! Wait We Shall Come Soon) 
प्रोफ़ेसर राम लखम मीना 

भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षायें रखने वाल किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है। भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नही।  भारत दुनिया के उन इने-गिने देशों मे से है, जिन्होने अपनी अधिकांश पुरानी संस्थाओं को, यद्यपि उन अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रांतियो की काई चढ़ गयी है, कायम रखा है। साथ ही वह अभी तक अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रांतियों की इस काई को दूर करने की और इस तरह अपना शुद्ध रूप प्रकट करने की अपनी सहज क्षमता भी प्रकट करता है। उसके लाखों-करोड़ो निवासिंयों के सामने जो आर्थिक कठिनाइयां खडी है, उन्हे सुलझा सकने की उसकी योग्यता में मेरा विश्वास इतना उज्जवल कभी नही रहा जितना आज है। मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशो के ध्येय से कुछ अलग है। भारत में ऐसी योग्यता है कि वह धर्म के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बडा हो सकता है। भारत ने आत्मशुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया है, उसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नही मिलता। भारत को फौलाद के हथियारों की उतनी आवश्यकता नही है; वह दैवी हथियारों से लड़ा है और आज भी वह उन्ही हथियारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पूजारी रहे है। यूरोप में अभी जो भयंकर युद्ध चल रहा है, वह इस सत्य का एक प्रभावशाली उदाहरण है। भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है। इतिहास इस सच्चाई के चाहे जितने प्रमाण दे सकता है कि पशुबल आत्मबल की तुलना में कुछ नही है। कवियों ने इस बल की विजय के गीत गाये है और ऋषियों ने इस विषय में अपने अनुभवों का वर्णन करके उसकी पुष्टि की है।
भारत एक विविध संस्‍कृति वाला देश है, एक तथ्‍य कि यहां यह बात इसके लोगों, संस्‍कृति और मौसम में भी प्रमुखता से दिखाई देती है। हिमालय की अनश्‍वर बर्फ से लेकर दक्षिण के दूर दराज में खेतों तक, पश्चिम के रेगिस्‍तान से पूर्व के नम डेल्‍टा तक, सूखी गर्मी से लेकर पहाडियों की तराई के मध्‍य पठार की ठण्‍डक तक, भारतीय जीवनशैलियां इसके भूगोल की भव्‍यता स्‍पष्‍ट रूप से दर्शाती हैं। एक भारतीय के परिधान, भोजन और आदतें उसके उद्भव के स्‍थान के अनुसार अलग अलग होते हैं। भारतीय संस्‍कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग अलग है। यहां के लोग अलग अलग भाषाएं बोलते हैं, अलग अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्‍न भिन्‍न धर्मों का पालन करते हैं, अलग अलग भोजन करते हैं किन्‍तु उनका स्‍वभाव एक जैसा होता है। तो चाहे यह कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं। एक त्‍यौहार या एक आयोजन किसी घर या परिवार के लिए सीमित नहीं है। पूरा समुदाय या आस पड़ासे एक अवसर पर खुशियां मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेल जोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर और वधु बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे उनकी संस्‍कृति या धर्म का मामला हो। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारत की वैश्विक छवि एक उभरते हुए और प्रगतिशील राष्‍ट्र की है। सच ही है, भारत में सभी क्षेत्रों में कई सीमाओं को हाल के वर्षों में पार किया है, जैसे कि वाणिज्‍य, प्रौद्योगिकी और विकास आदि, और इसके साथ ही उसने अपनी अन्‍य रचनात्‍मक बौद्धिकता को उपेक्षित भी नहीं किया है। आपको आश्‍चर्य है कि यह क्‍या है तो यह वैकल्पिक विज्ञान है, जिसका निरंतर अभ्‍यास भारत में अनंतकाल से किया जाता है। आयुर्वेद पूरी तरह से जड़ी बूटियों और प्राकृतिक खरपतवार से बनी दवाओं का एक विशिष्‍ट रूप है जो दुनिया की किसी भी बीमारी का इलाज कर सकती हैं। आयुर्वेद का उल्‍लेख प्राचीन भारत के एक ग्रंथ रामायण में भी किया गया है। और आज भी दवाओं की पश्चिमी संकल्‍पना जब अपने चरम पर पहुंच गई है, ऐसे लोग हैं जो बहु प्रकार की विशेषताओं के लिए इलाज की वैकल्पिक विधियों की तलाश में हैं। आज के समय में व्‍यक्ति के जीवन की बढ़ती जटिलताओं के साथ लोग निरंतर ऐसे माध्‍यम की खोज कर रहे हैं, जिसके जरिए वे मन की कुछ शांति पा सकें। यहां एक और विज्ञान है, जिसे हम ध्‍यान के नाम से जानते हैं तथा इसके साथ जुड़ी है आध्‍यात्मिकता। ध्‍यान और योग भारत तथा भारतीय आध्‍यात्मिकता के समानार्थी हैं। ध्‍यान लगाना योग का सबसे महत्‍वपूर्ण घटक है, जो व्‍यायामों की एक श्रृंखला सहित मन और शरीर का उपचार है। ध्‍यान शब्‍द में अनेक अभ्यास शामिल हैं जो परिस्थितियों को साकार रूप में देखने, एक वस्‍तु या छवियों पर ध्‍यान केन्द्रित करने, एक जटिल विचार के माध्‍यम से सोचने अथवा एक उत्तेजक पुस्‍तक में हो जाने को भी शामिल करती हैं, ये सभी मोटे तौर पर ध्‍यान के प्रकार हैं। जबकि योग में ध्‍यान का अर्थ सामान्‍य रूप से मन को अधिक औपचारिक रूप से केन्द्रित करने और स्‍वयं को एक क्षण में देखने से संदर्भित किया जाता है। भारत और विदेश के कई लोग तनाव से छुटकारा पाने और मन को ताजा बनाने के लिए योग तथा ध्‍यान का आश्रय लेते हैं।
भारत में एक अन्‍य व्‍यापक रूप से प्रचलित विचाराधारा है कर्म की विचाराधारा, जिसके अनुसार प्रत्‍येक व्‍यक्ति को केवल सही कार्य करना चाहिए या एक व्‍यक्ति के रूप में इसके जीवन के पूर्ण वृत्त में वे ही तथ्‍य उसके सामने आते हैं। पिछले दिनों भारत का एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण पक्ष नए युग की महिला का प्रादुर्भाव है। भारत में महिलाएं मुख्‍य रूप से गृहिणियां हैं, जबकि अब यह परिदृश्‍य बदल रहा है। अनेक स्‍थानों पर, विशेष रूप से महानगरों और अन्‍य शहरों में महिलाएं घर के लिए रोजीरोटी कमाते हैं और वे अपने पुरुष साथियों के बराबर कार्य करती हैं। जीवन की लागत / अर्थव्‍यवस्‍थ में हुई वृद्धि से इस पक्ष के उठने में योगदान मिला है। भारतीय नागरिकों की सुंदरता उनकी सहनशीलता, लेने और देने की भावना तथा उन संस्‍कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल है, जबकि उनका अपना अस्तित्‍व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में भाईचारा और सुंदरता बिखेरते हैं।
प्राचीन समय से ही भारत की आध्‍यात्मिक भूमि ने संस्‍कृति धर्म, जाति भाषा इत्‍यादि के विभिन्‍न वर्ण प्रदर्शित किए हैं। जाति, संस्‍कृति, धर्म इत्‍यादि की यह विभिन्‍नता अलग-अलग उन जातीय वर्गों, के अस्तित्‍व की गवाही देती है, जो यद्यपि एक राष्‍ट्र के पवित्र गृह में रहते हैं, परन्‍तु विभिन्‍न सामाजिक रिवाजों और अभिलक्षणों को मानते हैं। भारत की क्षेत्रीय सीमाएं, इन जातीय वर्गों में उनकी अपनी सामाजिक व सांस्‍कृतिक पहचान के आधार पर भेद करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत में जो धर्म विद्यमान हैं वे हैं हिन्‍दू धर्म, ईसाई धर्म, इस्‍लाम, सिक्‍ख, धर्म, बुद्ध धर्म, और जैन धर्म। नागरिकों को, जिस भी धर्म को वे चाहते हैं, अपनाने की स्‍वतंत्रता है। देश में 35 अलग-अलग राज्‍यों व केंद्रशासित क्षेत्रों का संचालन करते समय, विभिन्‍न राज्‍यों द्वारा, संस्‍कृतियों के प्रदर्शन से विभिन्‍न भागों में क्षेत्रीयता की भावना उत्‍पन्‍न हुई है। जो हालांकि राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक पहचान दर्शाने के लिए अंतत: एक सामान्‍य बंधन से मिल जुल जाती है।
भारतीय संविधान ने, देश में प्रचलित विभिन्‍न 22 भाषाओं को मान्‍यता प्रदान की है जिनमें से हिंदी राजभाषा है तथा भारत के अधिकांश नगरों व शहरों में बोली जाती है। इन 22 भाषाओं के अलावा, सैकड़ों बोलियां भी हैं जो देश की बहुभाषी प्रकृति में योगदान करती हैं।भारतीय साहित्‍य की परम्‍परा विश्‍व में सबसे प्राचीन है। प्रारम्‍भ में यह काव्‍य रूप में था जिसे गाकर सुनाया जाता था। साहित्‍य की प्रारम्भिक कृतियां गीत अथवा छन्‍द के रूप में होती थी। यह सिलसिला कई पी‍ढ़ियों तक चलता रहा और फिर साहित्‍य का यह लिपिबद्ध रूप सामने आया। भारत में सरकारी तौर पर 22 भाषाओं को मान्‍यता दी गई है और पिछले कुछ समय में इन भाषाओं में एक विशाल साहित्‍य का संकलन हुआ है। अधिकांश भारतीय संस्‍कृति पर हिन्‍दू साहित्‍य परम्‍परा का प्रभाव है। वेदों के अलावा, जो कि एक धार्मिक ग्रंथ है, हिन्‍दू साहित्‍य की कई अन्‍य कृतियाँ हैं जैसे कि हिन्‍दू महाकाव्‍य रामायण और महाभारत, भवन-निर्माण और नगर आयोजना में वास्‍तुशिल्‍प त‍था राजनीतिविज्ञान में अर्थशास्‍त्र जैसे शोध ग्रंथ। संस्‍कृत की सर्वाधिक प्रसिद्ध हिन्‍दू कृतियां वेद, उपनिषद और मनुस्‍मृति हैं। दूसरा लोकप्रिय साहित्‍य है तमिल साहित्‍य, जिसकी 2000 वर्ष पुरानी साहित्‍य परम्‍परा बहुत ही समृद्ध है। यह साहित्‍य महाकाव्‍यों के रूप में अपने काव्‍यात्‍मक स्‍वरूप और दार्शनिक तथा लौकिक रचनाओं के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। अन्‍य महान साहित्यिक रचनाएं जिनसे भारतीय साहित्‍य के स्‍वर्ण युग का निर्माण हुआ, कालीदास की 'अभिज्ञान शकुन्‍तलम' और 'मेघदूत', शुद्रक की 'मृच्‍छकटिकम' भास की 'स्‍वप्‍न वासवदत्ता' और श्री हर्ष की द्वारा रचित 'रत्‍नावली' है। अन्‍य प्रसिद्ध कृतियां चाणक्‍य द्वारा रचित अर्थशास्‍त्र और वात्‍स्‍यायन का 'कामसूत्र' है।
उत्तरी भारत के कृष्‍ण और राम के अनुयायियों द्वारा स्‍थानीय बोलियों में रचित साहित्‍य भारतीय साहित्‍य की अति प्रसिद्ध कृतियां है। इसमें बारहवीं शताब्‍दी के दौरान रचित जयदेव की कविताएं जो 'गीत गोविन्‍द' के नाम से प्रसिद्ध है और मैथिली (बिहार की पूर्वी हिन्‍दी) में लिखी गई आध्‍यात्मिक प्रेम की कविताएं भी शामिल हैं। भक्ति के रूप (ईश्‍वर के प्रति व्‍यक्ति की श्रृद्धा), जिसमें राम (विष्‍णु के अवतार) को सम्‍बोधित किया गया है, साहित्‍य का निर्माण हुआ है। इसमें सबसे उल्‍लेखनीय कृति कवि तुलसीदास की अवधि में लिखित 'रामचरितमानस' है। सिक्‍ख धर्म के आर्य गुरूओं अथवा संस्‍थापकों विशेष रूप से गुरू नानक और गुरू अर्जुन देव ने भी ईश्‍वर का गुणगान करते हुए भजनों की रचना की है। सोलहवीं शताब्‍दी में राजस्‍थान की राजकुमारी और कवियत्री मीरा बाई ने कृष्‍ण का गुणगान करते हुए भक्ति गीतों की रचना की है और गुजराती कवि नरसिंह मेहता की गीत रचना भी इसी प्रकार है।

हिन्‍दी साहित्‍य का प्रारम्‍भ मध्‍यकाल में अवधी और ब्रज भाषाओं में धार्मिक और दार्शनिक काव्‍य रचनाओं से हुआ। इस काल के प्रसिद्ध कवियों में कबीर और तुलसीदास विख्‍यात हैं। आधुनिक युग में खड़ी बोली ज्‍यादा लोकप्रिय हो गई और संस्‍कृत में नानाविध साहित्‍य की रचना हुई। देवकीनन्‍दन खत्री द्वारा लिखित चन्‍द्रकान्‍ता को हिन्‍दी गद्य की प्रथम कृति माना गया है। मुंशी प्रेमचन्‍द हिन्‍दी के प्रसिद्ध उपन्‍यासकार थे। मैथिलीशरण गप्‍त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्‍दन पंत, महादेवी वर्मा और रामधारी सिंह दिनकर इस काल के अन्‍य प्रसिद्ध कवि थे। ब्रिटिश युग में पश्‍चि‍मी विचारधारा के प्रभाव और मुद्रणालय के आरम्‍भ होने से साहित्‍य के क्षेत्र में एक क्रान्ति आई। स्‍वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को बल देने और समाज में मौजूद बुराइयों को दूर करने के उद्देश्‍य से रचनाएं तैयार की गई। भारत में विज्ञान की शिक्षा प्रारम्‍भ करने के राम मोहन राय के अभियान और स्‍वामी विवेकानन्‍द की कृतियों को भारत में अंग्रेजी साहित्‍य का बहुत बड़ा उदाहरण माना गया। विगत 150 वर्षों के दौरान, आधुनिक भारतीय साहित्‍य के विकास में बहुत से लेखकों का योगदान रहा है, कई क्षेत्रीय भाषाओं और अंग्रेजी में रचनाएं की। एक महान बंगाली लेखक श्री रवीन्‍द्र नाथ टैगोर पहले भारतीय थे जिन्‍हें वर्ष 1913 में साहित्‍य (गीतांजली) के लिए नोबेल पुरसकर प्रदान किया गया था।
भारत के आधुनिक काल में अन्‍य कई लेखकों को भी प्रसिद्धि मिली जैसे कि मुल्‍क राज आनन्‍द जिनकी प्रसिद्ध कृतियां थी 'अनटचेबल' (1935) और 'कुली' (1936), आर. के. नारायण जिन्‍होंने उपन्‍यास लिखे और दक्षिण भारत के गांव की कहानी लिखी जैसे कि 'स्‍वामी एण्‍ड फ्रेंड्स। युवा लेखकों में अनीता देसाई का नाम लिया जाता है जिन्‍होंने 'क्‍लीयर लाइट ऑफ दि डे' (1980) और 'इन कस्‍टडी' प्रसिद्ध उपन्‍यासों की रचना की। अन्‍य सुविख्‍यात उपन्‍यासकारों/लेखकों के नाम इस प्रकार है: डॉम मोरेस, एन लिसिम ई जेघियल, पी. लाल, ए.के. रामानुजन, कमला दास, अरूण कोलटकर और आर. पार्थसारथी, राजा राव, जी.वी. देसाई, देसानी, एम. अनन्‍तनारायण, भदानी भट्टाचार्य, मनोहर मालगांवकर, नयनतारा सहगल, ओ. वी. विजयन, सलमान रशदी, श्री निसासन आयंगर, सीडी नरसिंहमन और एम.के. नायक। इसके बाद के लेखकों में विक्रम सेठ ('ए सूटेबल बॉय'), एलन सियली ('दि ट्रॉटर-नामा'), शशी थरूर ('शो बिजनस'), आमित्‍व घोष ('सर्थिस ऑफ रीज़न', 'शेडो लाइन्‍स'), उपमन्‍यु चटर्जी ('इंगलिश अगस्‍त') और विक्रम चन्‍द्र ('रेड अर्थ और पोरिंग रेन') का नाम आता है। पिछले कुछ समय में महिला लेखकों जैसे कि अरुंधती राय जिन्‍हें ' गॉड ऑफ स्‍माल थिंग्‍स', के लिए बुकर प्राइज दिया गया है, झुम्‍पा लहरी जिन्‍हें कथा साहित्‍य के लिए वर्ष 2000 का पोल्टिजर पुरस्‍कार प्रदान किया गया है, शोभा डे, आदि के लोकप्रिय लेखों के साथ एक पूर्णतया नई शैली का प्रारम्‍भ हुआ है।
भारत में लघु चित्रकारी की कला का प्रारम्‍भ मुगलों द्वारा किया गया जो इस भव्‍य अलौकिक कला को फ़राज (पार्शिया) से लेकर आए थे। छठी शताब्‍दी में मुगल शासक हुमायुं ने फराज से कलाकारों को बुलवाया जिन्‍‍हें लघु चित्रकारी में विशेषज्ञता प्राप्‍त थी। उनके उत्तराधिकारी मुगल बादशाह अकबर ने इस भव्‍य कला को बढ़ावा देने के प्रयोजन से उनके लिए एक शिल्‍पशाला बनवाई। इन कलाकारों ने अपनी ओर से भारतीय कलाकारों को इस कला का प्रशिक्षण दिया जिन्‍होंने मुगलों के राजसी और रोमांचक जीवन-शैली से प्रभावित होकर एक नई विशेष तरह की शैली में चित्र तैयार किए। भारतीय कलाकारों द्वारा अपनर इस खास शैली में तैयार किए गए विशेष लघु चित्रों को राजपूत अथवा राजस्‍थानी लघु चित्र कहा जाता है। इस काल में चित्रकला के कई स्‍कूल शुरू किए गए, जैसे कि मेवाड (उदयपुर), बंदी, कोटा, मारवाड़ (जोधपुर), बीकानेर, जयपुर और किशनगढ़। यह चित्रकारी बड़ी सावधानी से की जाती है और हर पहलू को बड़ी बारीकी से चित्रित किया जाता है। मोटी-मोटी रेखाओं से बनाए गए चित्रों को बड़े सुनि‍योजित ढंग से गहरे रंगों से सजाया जाता है। ये लघु चित्रकार अपने चित्रकारों के लिए कागज़, आइवरी पेन लो, लकड़ी की तख्तियों (पट्टियों) चमड़े, संगमरमर, कपड़े और दीवारों का प्रयोग करते हैं। अपनी यूरोपीय प्रतिपक्षी कलाकारों के विपरीत भारतीय कलाकार अपनी चित्रकारों में अनेक परिदृश्‍यों को शामिल किया है। इसके प्रयोग किए जाने वाले रंग खनिज़ों एवं सब्जियों, कीमती पत्‍थरों तथा विशुद्ध चांदी एवं सोने से बनाए जाते हैं। रंगों को तैयार करना और उनका मिश्रण करना एक बड़ी लंबी प्रक्रिया है। इसमें कई सप्‍ताह लग जाते हैं और कई बार तो सही परिणाम प्राप्‍त करने के लिए महीने भी लग जाते हैं। इसके लिए बहुत बढिया किस्‍म के ब्रुशों की जरूरत पड़ती है और बहुत अच्‍छे परिणाम प्राप्‍त करने के लिए तो ब्रुश आज की तारीख में भी, गिलहरी के बालों से बनाए जाते हैं। परम्‍परागत रूप से ये चित्र कला का एक बहुत शानदार, व्‍यक्तिपरक और भव्‍य रूप हैं, जिनमें राजदरबार के दृश्‍य और राजाओं की शिकार की खोज के दृश्‍यों का चित्रण किया जाता है। इन चित्रों में फूलों और जानवरों की आकृतियों को भी बार-बार चित्रित किया जाता है।
राजस्‍थान का किशनगढ़ प्रान्‍त अपनी बनी ठनी चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध है। यह बिल्‍कुल भिन्‍न शैली है जिसमें बहुत बड़ी-बड़ी आकृतियां को चित्रित किया जाता है जैसे कि गर्दन, बादाम के आकार की आंखें और लम्‍बी-लम्‍बी अंगुलियां। चित्रकारी की इस शैली में बने चित्रों में अपने प्रिय देवता के रूप में अनिवार्य रूप से राधा और कृष्‍ण और उनके संगीतमय प्रेम को दर्शाया जाता है। अठारहवीं शताब्‍दी में राजा सावंत सिंह के शासनकाल के दौरान इस कला ने ऊंचाइयों को छुआ, जिन्‍हें बनी ठनी नाम की एक दासी से प्रेम हो गया था और इन्‍होंने अपने कलाकारों को आदेश दिया कि वे कृष्‍ण और राधा के प्रतीक के रूप में उनका और उनकी प्रेमिका का चित्र बनाएं। बनी ठनी चित्रकारों के अन्‍य विषय हैं: प्रतिकृतियां, राजदरबार के दृश्‍य, नृत्‍य, शिकार, संगीत, सभाएं, नौका विहार (प्रेमी-प्रेमिकाओं का नौका विहार), कृष्‍ण लीला, भागवत पुराण और अन्‍य कई त्‍योहार जैसे कि होली, दीवाली, दुर्गा पूजा, और दशहरा।

लोक और जनजातीय कला हमेशा से ही भारत की कलाएं और हस्‍तशिल्‍प इसकी सांस्‍कृतिक और परम्‍परागत प्रभावशीलता को अभिव्‍यक्‍त करने का माध्‍यम बने रहे हैं। देश भर में फैले इसके 35 राज्‍यों और संघ राज्‍य क्षेत्रों की अपनी विशेष सांस्‍कृतिक और पारम्‍परिक पहचान है, जो वहां प्रचलित कला के भिन्‍न-भिन्‍न रूपों में दिखाई देती है। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्‍परागत कला का एक अन्‍य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएं बहुत ही पारम्‍परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृ‍द्ध विरासत का अनुमान स्‍वत: हो जाता है। अपने परम्‍परागत सौंदर्य भाव और प्रामाणिकता के कारण भारतीय लोक कला की अंतरराष्‍ट्रीय बाज़ार में संभावना बहुत प्रबल है। भारत की ग्रामीण लोक चित्रकारी के डिज़ाइन बहुत ही सुन्‍दर हैं जिसमें धार्मिक और आध्‍यात्मिक चित्रों को उभारा गया है।
भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्रकलाएं है बिहार की मधुबनी चित्रकारी, ओडिशा राज्‍य की पता‍चित्र चित्रकारी, आन्‍ध्र प्रदेश की निर्मल चित्रकारी और इसी तरह लोक के अन्‍य रूप हैं। तथापि, लोक कला केवल चित्रकारी तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्‍य रूप भी हैं जैसे कि मिट्टी के बर्तन, गृह सज्‍जा, जेवर, कपड़ा डिज़ाइन आदि। वास्‍तव में भारत के कुछ प्रदेशों में बने मिट्टी के बर्तन तो अपने विशिष्‍ट और परम्‍परागत सौंदर्य के कारण विदेशी पर्यटकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हैं। इसके अलावा, भारत के आंचलिक नृत्‍य जैसे कि पंजाब का भांगडा, गुजरात का डांडिया, असम को बिहु नृत्‍य आदि भी, जो कि उन प्रदेशों की सांस्‍कृतिक विरासत को अभिव्‍यक्‍त करने हैं, भारतीय लोक कला के क्षेत्र के प्रमुख दावेदार हैं। इन लोक नृत्‍यों के माध्‍यम से लोग हर मौके जैसे कि नई ऋतु का स्‍वागत, बच्‍चे का जन्‍म, शादी, त्‍योहार आदि पर अपना उल्‍लास व्‍यक्‍त करते हैं। भारत सरकार और संस्‍थाओं ने कला के उन रूपों को बढ़ावा देने का हर प्रयास किया है, जो भारत की सांस्‍कृतिक पहचान का एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा हैं। कला के उत्‍थान के लिए किए गए भारत सरकार और अन्‍य संगठनों के सतत प्रयासों की वजह से ही लोक कला की भांति जनजातीय कला में पर्याप्‍त रूप से प्रगति हुई है। जनजातीय कला सामान्‍यत: ग्रामीण इलाकों में देखी गई उस सृजनात्‍मक ऊर्जा को प्रतिबिम्बित करती है जो जनजातीय लोगों को शिल्‍पकारिता के लिए प्रेरित करती है। जनजातीय कला कई रूपों में मौजूद है जैसे कि भित्ति चित्र, कबीला नृत्‍य, कबीला संगीत आदि आदि।
आज भी बहुत से कलाकार रेशम, हाथीदंत, सूती कपड़े और कागज पर लघु चित्रकारी करते आ रहे हैं। लेकिन समय के साथ-साथ प्राकृतिक रंगों की जगह अब पोस्‍टर रंगों का प्रयोग होने लगा है। लघु चित्रकला स्‍कूलों का भी व्‍यापारीकरण हो गया है और कलाकार अधिकांशत: प्राचीन कलाकारों के बनाए चित्रों की पुनरावृत्ति ही कर रहे हैं।चित्रकारी की पत्ताचित्र शैली ओडिशा की सबसे प्राचीन और सर्वा‍धिक लोकप्रिय कला का एक रूप है। पत्ताचित्र का नाम संस्‍कृत के पत्ता जिसका अर्थ है कैनवास और चित्रा जिसका अर्थ है तस्‍वीर शब्‍दों से मिलकर बना है। इस प्रकार पत्ताचित्र कैनवास पर की गई एक चित्रकारी है जिसे चटकीले रंगों का प्रयोग करते हुए सुन्‍दर तस्‍वीरों और डिजाइनों में तथा साधारण विषयों को व्‍यक्‍त करते हुए प्रदर्शित किया जात है जिनमें अधिकांशत: पौराणिक चित्रण होता है। इस कला के माध्‍यम से प्रदर्शित एक कुछ लोकप्रिय विषय है: थे या वाधिया-जगन्‍नाथ मंदिर का चित्रण; कृष्‍णलीला-जगन्‍नाथ का भगवान कृष्‍ण के रूप में छवि जिसमें बाल रूप में उनकी शक्तियों को प्रदर्शित किया गया है; दसावतारा पति-भगवान विष्‍णु के दस अवतार; पंचमुखी-पांच सिरों वाले देवता के रूप में श्री गणेश जी का चित्रण। सबसे बढ़कर विषय ही साफ तौर पर इस कला का सार है जो इस चित्रों अर्थ को परिकल्पित करते हैं। इसलिए इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है कि इस तरह की चित्रकारी करने की प्रक्रिया में पूरी तरह से ध्‍यान केन्द्रित करने और कुशल शिल्‍पकारिता की जरूरत होती है जिसमें केवल पत्ता तैयार करने में ही पांच दिन लग जाते हैं।
यह कार्य सबसे पहल पत्ता बनाने से शुरू किया जाता है। शिल्‍पकार जिन्‍हें चित्रकार भी कहा जाता है, सबसे पहले इमलह का पेस्‍ट बनाते हैं जिसे बनाने के लिए इमली के बीजों को तीन दिन पानी में भिगो कर रखा जाता है। इसके बाद बीजों को पीस कर पानी में मिला दिया जाता है और पेस्‍ट बनाने के लिए इस मिश्रण को मिट्टी के बर्तन में डालकर गर्म किया जाता है। इसे निर्यास कल्‍प कहा जाता है। फिर इस पेस्‍ट से कपड़े के दो टुकड़ों को आपस में जोड़ा जाता है और उस पर कई बार कच्‍ची मिट्टी का लेप किया जाता है जब तक कि वह पक्‍का न हो जाए। जैसे ही कपड़ा सूख जाता है तो उस पर खुरदरी मिट्टी के अन्तिम रूप से पालिश की जाती है। इसके बाद उसे एक नरम पत्‍थर अथवा लकड़ी से दबा दिया जाता है, जब तक कि उसको सतह एक दम नरम और चमड़े की तरह न हो जाए। यही कैनवास होता है जिस पर चित्रकारी की जाती है। पेंट तैयार करना संभवत: पत्ताचित्र बनाने का सबसे महत्‍वपूर्ण कार्य है जिसमें प्राकृतिक रूप में उपलब्‍ध कच्‍ची सामग्री को पेंट का सही रूप देने में चित्रकारों की शिल्‍पकारिता का प्रयोग होता है। केथा वृक्ष की गोंद इसकी मुख्‍य सामग्री है और भिन्‍न-भिन्‍न तरह के रंग द्रव्‍य तैयार करने के लिए एक बेस के रूप में इस्‍तेमाल किया जाता है जिसमें तरह-तरह की कच्‍ची सामग्री मिलाकर विविध रंग तैयार किए जाते है। उदाहरण के लिए शंख को उपयोग सफेद रंग बनाने और काजल को प्रयोग काला रंग बनाने के लिए किया जाता है। कीया के पौधे की जड़ का इस्‍तेमाल सामान्‍यत: एक साधारण ब्रुश बनाने और चूहे के बालों का प्रयोग जरूरत होने पर बढिया ब्रुश बनाने के लिए किया जाता है जिन्‍हें लकड़ी के हैंडल से जो दिया जाता है।

पत्ताचित्र पर चित्रकारी एक अनुशासित कला है। इसमें चित्रकार अपनी रंग सज्‍जा जिसमें एक ही संगत वाले रंगों का प्रयोग किया जाता है, और नमूनों के प्रयोग की शैली का पूरी सख्‍ती से पालन करता है। स्‍वयं को इस कला के कुछ नियमों के दायरे में समेटकर ये चित्रकार इतनी सूक्ष्‍म अभिव्‍यक्ति करने वाले इतने सुन्‍दर चित्र प्रस्‍तुत करते है कि आश्‍चर्य होता है यह जानकर कि इसमें रंगों के विविध शेडो (रंगत) का प्रयोग निषिद्ध है। वास्‍तव में चित्रों में उभारी गई आकृतियों के भावों का प्रदर्शन ही इस कला का सुन्‍दरतम रूप है जिसे चित्रकार पूरे यत्‍न से सुन्‍दर रंगो से सजाकर श्रेष्‍ठ रूप में प्रस्‍तुत करते हैं। समय के सा‍थ-साथ पत्ताचित्र की कला में उल्‍लेखनीय क्रांति आई है। चित्रकारों ने टस्‍सर सिल्‍क और ताड़पत्रों पर चित्रकारी की है और दीवारों पर लटकाए जाने वाले चित्र तथा शो पीस भी बनाए हैं। तथापि, इस प्रकार की नवीनतम से आकृतियों की परम्‍परागत रूप में अभिव्‍यक्ति और रंगो के पारम्‍परिक प्रयोग में कोई रूकावट नहीं आई है जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसी रूप बरकरार है। पत्ताचित्र की कला की प्रतिष्‍ठा को बनाए रखने में इसके प्रति चित्रकारों की निष्‍ठा एक मुख्‍य कारण है और ओडिशा में इस कला को आगे बढ़ाने के लिए स्‍थापित किए कुछ विशेष केन्‍द्र इसकी लोकप्रियता को उजागर करते हैं।
           मेरा यह कहना नहीं है कि हम शेष दुनिया से बचकर रहें याअपने आस- पास दीवालें खडी़ कर लें। यह तो मेरे विचारों से बडी़ दूर भटक जाना है। लेकिन मैं यह जरूर कहता हूं कि पहले हम अपनी संस्‍कृति का सम्‍मान करना सीखें और उसे आत्‍मसात् करें। दूसरी संस्‍कृतियों के सम्‍मान की, उनकी विशेषाओं को समझने और स्‍वीकार करने की बात उसें बाद ही आ सकती है, उसके पहले कभी नहीं। मेरी यह दृढ़ मान्‍यता है कि हमारी संस्‍कृति में जैसी मूल्‍वान निधियां हैं वैसी किसी दूसरी संस्‍कृति में नहीं हैं। हमने उसे पहिचाना नहीं है; हमें उसके अध्‍ययन का तिरस्‍कार करना, उसके गुणों की कम कीमत करना सिखाया गया है। अपने आचरण में उसका व्‍यवहार करना तो हमने लगभग छोड़ ही दिया है। आचार के बिना कोरा बौद्धिक ज्ञान उस निर्जीव देह की तरह है, जिसे मसाला भरकर सुरक्षित रखा जाता है। वह शायद देखने में अच्‍छा लग सकता है, किन्‍तु उसमें प्रेरणा देने की शक्ति नहीं होती। मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्‍कृति को सीखूं, ग्रहण करूं और उसके अनुसार चलूं; अन्‍यथा अपनी संस्‍कृति से विच्छिन्‍न होकर हम एक सामाज के रूप मानो आत्‍महत्‍या कर लेंगे। किन्‍तु साथ ही वह मुझे दूसरों की संस्‍कृतियों का अनादर करने या उन्‍हें तुच्‍छ समझने से भी रोकता है। वह उन विविध संस्‍कृतियों के समन्‍वय की पोषण है, जो इस देश में सुस्थिर हो गयी हैं, जिन्‍होंने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है और जो खुद भी इस भूमि के वातावरण ये प्रभावित हुई हैं। जैसा कि स्‍वाभाविक है, वह समन्‍वय स्‍वदेशी ढंग का होगा, अर्थात उसमें प्रत्‍येक संस्‍कृति को अपना उचित स्‍थान प्राप्‍त होगा। वह अमेरीकी ढंग का नहीं होगा, जिसमें कोई एक प्रमुख संस्‍कृति बाकी सबको पचा डालती है और जिसका उद्देश्‍य सुमेल साधना नहीं बल्कि कृत्रिम और जबरदस्‍ती लादी जाने वाली एकता निर्माण करना है।
            हमारे समय की भारतीय संस्‍कृति अभी निर्माण की अवस्‍था में है। हम लोगों में से कई उन सारी संस्‍कृतियों का एक सुन्‍दर सम्मिश्रण करने का प्रयत्‍न कर रहे हैं, जो आज आपस में पड़ती दिखाई देती हैं। ऐसी कोई भी संस्‍कृति, जो सबसे बचकर रहना चाहती हो, जीवित नहीं रहा सकती। भारत में आज शुद्ध आर्य संस्‍कृति जैसी कोई चीज नहीं है। आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या यहां बाहर से आये थे और यहां के मूल निवासियों ने उनका विरोध किया था, इस सवाल में मुझे ज्‍यादा दिलचस्‍पी नहीं है। जिस बात में मेरी दिलचस्‍पी है वह यह है कि मेरे अतिप्राचीन पूर्वज एक- दूसरे के साथ पूरी आजादी से घुल- मिल गये थे, और उनकी वर्तमान सन्‍तान उस मेल का ही परिणाम हैं। अपनी जन्‍मभूमि का और इस पृथ्‍वी माता जो हमारा पोषण करती है, हम कोई हित कर रहे हैं या उस पर बोझ रूप हैं, यह तो भविष्‍य ही बतायेगा।

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