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Thursday 1 May 2014

मीणा बनाम मीना : अर्थ-भेदकता अवैज्ञानिक




मीणा बनाम मीना : अर्थ-भेदकता अवैज्ञानिक 

प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर



न्यायपालिका की कार्य प्रणाली और तत्सम्बन्धी निर्णयों का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का प्राथमिक और नैतिक दायित्व है। अपवादों को छोड़करन्यायपालिका के निर्णय गलत और अवैज्ञानिक नहीं होते हैं । अधिकांशतः निर्णय सटीक होते हैं । किन्तु, कुछेक निर्णय ऐसे भी होते हैं जिनमें असली तस्वीर सामने नहीं आ पाती, कुछेक निर्णय ऐसे होते हैं जिनमें कष्ट और पीड़ा के अनेक दृश्य सामने आते हैं, मनुष्य के अन्दर की मनुष्यता तार-तार होने लगती है। आरक्षण अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। इससे जुडे मामले में  अक्सर देखा गया है कि उच्च पीठ के निर्णयों को (एस पुष्पा बनाम मेरी चन्द्राशेखर) एकल पीठ बदल देती है और सरकार व सरकार की एजेंसियाँ हाथ-पर-हाथ रखकर तमाशबीन बनी रहती है, शायद उनको ऐसा होने या करने में आत्मिक सुख का अनुभव होता है जो मनुवादी और संकीर्ण ब्राह्मणवादी सोच का परिचायक होता है। देश में ऐसी कई संकीर्ण सोचवाली एजेंसियाँ और व्यक्ति मौजूद है जो सामाजिक समरसता, जातीय सौहार्द, राष्ट्रीय एकता और अखंडता उन्हें कतई पसंद  नहीं है, वे येन-केन-प्रकार्णेन इसे तार-तार करना चाहते हैं , ऐसी ताकतों के कुटीलतापूर्ण खेल को नियन्त्रित करने की महत्ती जरूरत है।   
निर्णय-प्रक्रिया न्यायपालिका के समक्ष रखे गये साक्ष्य, दस्तावेज़ों और चश्मदीद गवाह के बयानों के आधार पर ही लिये जाते हैं । किन्तु, यदि न्यायपालिका के समक्ष रखे गये सबूतों, कागजात उचित ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं हो तो निर्णय-प्रक्रिया में खामिया आ सकती हैं, इसमें तनिक भी संदेह  की गुंजाइश  नहीं है। मीणा बनाम मीना के मामले में माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय पर भी तकनीकी सवाल उठाना जायज नहीं है। किन्तु, सरकार, सरकार के नुमांइदों और मामले को न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करने वाली मानसिकता पर सवाल उठने अत्यंत लाजिमी है क्योंकि बिना सोचे-समझे लिये गये फ़ैसलो से हमारे दीर्घकालिक हितों को नुकसान हो सकता है। यह  प्रवृति राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है, विशेषकर आरक्षण सम्बन्धी मामलों के कानूनी निर्णयन- प्रक्रिया में ।
न्यायालय में विचाराधीन याचिका में मीणा जाति को अनुसूचित जन जाति से बाहर करने की माँग की है। यह भी कहा गया है कि राजस्थान अनुसूचित जन जाति की सूची में क्रम सख्या 9 पर ‘मीना’ का उल्लेख है। जब मीणा शामिल ही नहीं है तो बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू करने की माँग का औचित्य नहीं  है। ‘मीणा बनाम मीना’ के अन्तःसम्बन्ध को ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और अर्थविज्ञान के मानदण्डों पर विवेचित करना अधिक समीचीन होगा । मानक हिन्दी की संरचना की  दृष्टि से ‘म’, ‘ण’, ‘न’ की तुलना में ‘ङ’ तथा ‘ञ’ का महत्व नगण्य है। इन दोनों व्यंजनों का प्रयोग केवल स्थान की दृष्टि से अपनी वर्गीय ध्वनियों के पूर्व में ही होता है अर्थात ‘ङ’ का प्रयोग ‘क’ वर्ग और ‘ञ’ का प्रयोग ‘च’ वर्ग से पूर्व होता है अन्यत्र नहीं । आवृति की दृष्टि से ‘न’ का प्रयोग अधिक होने के कारण ‘ङ’ और ‘ञ’ को ‘न’ का संस्वन माना जाता है । मानक हिन्दी में उसकी प्रकृति और प्रकार्य के अनुसार ‘न’ और ‘म’ नासिक्य ध्वनियॉ ही महत्वपूर्ण हैं । शब्दों के आदि,मध्य और अन्त में इनका स्वतंत्र प्रयोग होता है और अर्थ-भेदकता के कारण ये सभी स्वनिम है।
कालानुक्रमिक विकास की दृष्टि से संस्कृत के शब्दों में प्रयुक्त ‘ण’ ध्वनि हिन्दी तक आते-आते ‘न’ में तब्दील हो गयी। किन्तु, तत्सम शब्दों की दृष्टि से‘ण’ भी सार्थक नासिक्य है और केवल तत्सम शब्दों में प्रयोग की दृष्टि से स्वनिम माना जा सकता है, जो एतिहासिकता और प्राचीनता का द्योतक है। ‘ण’ और‘न’ ध्वनियों के ध्वनिगत और स्वनिमगत अन्तर और विभेद को समझने से पहले हमें एस एन त्रुवेत्स्काय और रोमन याकोब्सन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को समझना पडेगा। एक ही श्वासाघात में उच्चरित ध्वनि या ध्वनि समूह को अक्षर कहा जाता है, इसकी संरचना में एक स्वर होना अनिवार्य है, व्यंजन एक से अधिक हो सकते हैं । इसी तरह भाषाविज्ञान के सूक्ष्म सिद्धान्तों और अन्वेषणों को ध्यान में रखते हुए ‘ण’ और ‘न’ का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण भी तार्किक और अपरिहार्य है, तभी किसी तटस्थ परिणाम पर पहुँचा जा सकता है। रोमन याकोब्सन द्वारा प्रतिपादित अर्थभेदक-अभिलक्षणों का पुंज स्वनिम कहलाता है, यह काल्पनिक ध्वनि इकाई होती है जिसकी सत्ता भौतिक न होकर काल्पनिक होती है, जिससे अर्थ-तत्व  सृजित होते हैं ।
स्वनिम एकाधिक संस्वन का प्रतिनिधित्व करता है, जो ध्वन्यात्मक दृष्टि से मिलते-जुलते, अर्थभेदकता में असमर्थ तथा आपस में मुक्त या परिपूरक वितरण में प्रयुक्त होते हैं । वहीं, एक ही स्वनिम के विभिन्न रूप जो विशेष भाषिक परिस्थितियों में स्वनिम् का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें ध्वन्यात्मक समानता पायी जाती है, जो व्यतिरेकी वितरण में  न प्रयुक्त होकर परिपूरक वितरण; आदि, मध्य और अन्त  में प्रयुक्त होते हैं, संस्वन कहलाते हैं । इसका निर्धारण स्वनिमों के वितरण के आधार पर किया जाता है, जिसमें विरोधी, अविरोधी वितरण, परिपूरक वितरण एवं मुक्त वितरण की भाषावैज्ञानिक प्रक्रिया का विशेष योगदान है । इसी आधार पर ध्वनियों के अर्थ-निर्धारण की वैज्ञानिक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे रोमन याकोब्सन ने द्विचर विरोध या परिच्छेदक-अभिलक्षण के सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया । यह भाषाविज्ञान विशेष रूप से अर्थ-निर्धारण के क्षेत्र में सबसे बडी देन है। इस प्रक्रिया को विश्व के अधिकांश देशों में विधिक कार्यवाहियों की निर्णयन-प्रक्रिया में सटीक आधार बनाया जाता है।
लब्ध-प्रतिष्ठ विदेशी भाषातत्वज्ञ एल पी टेस्सिटरी, जान बीम्स, रेवरेड जी मैकेलिस्टर, सर जार्ज ग्रियर्सन और सुकुमार सेन, सुनीति कुमार चटर्जी, एम एस माहन्डगे, नाम वर सिह, कैलाश चन्द्र अग्रवाल एवं प्रोफ़ेसर राम लखन मीना इत्यादि भारतीय भाषाविज्ञानी आदि ने अपने अन्वेषणशील शोध-कार्यो के माध्यम से प्रतिपादित किया कि हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में कमोवेश समान रूप से सभी ध्वनियाँ प्रयुक्त होती है। किन्तु, उभय भाषाओं में ‘ण’ और ‘न’ ध्वनियों के बीच व्यतिरेक मिलता है, हिन्दी में ये दोनों व्यतिरेकी हैं वहीं राजस्थानी में ये ध्वनियॉ परिपूरक वितरण में प्रयुक्त होती हैं । उच्चारण-स्थान और उच्चारण-विधि कीदृष्टि से ‘ण’ मूर्धन्य, नासिक्य, सघोष,अल्पप्राण, ‘न’ वर्त्स्य, नासिक्य, सघोष,अल्पप्राण के रूप में अधिक समीप है । इसमें  इन ध्वनियों से युक्त शब्द बहुलता से मिलते हैं जो कि राजस्थानी की मौलिक विशिष्टता है । ‘ण’ ध्वनि हिन्दी में केवल तत्सम शब्दों में ही मिलती है, अन्यत्र इसका प्रयोग नगण्य है जबकि राजस्थानी में ‘ण’ का प्रयोग बहुलता से होता है और ‘णकारान्त’ राजस्थानी की प्रमुख एवं स्वाभाविक विशेषताओं में से एक है । यह प्रवृति  राजस्थानी में अपभ्रंश  काल से ही आरम्भ हो चुकी थी जो राजस्थानी भाषा के हिन्दी से भी अधिक प्राचीन और समृद्ध  होने का प्रमाण है । यही कारण है कि राजस्थानी में जीवन का उच्चारण जीवण, रानी का उच्चारण राणी, मीना का उच्चारण मीणा जैसे अनगिनत अनेकानेक उद्वरहण भरे पडे हैं। व्युत्पत्ति विज्ञान के सिद्धान्त अनुसार ‘मीणा’ शब्द मयण,मयणा,मैयणा,मैणा,मीणा तथा हिन्दी भाषा के मानकीकरण की प्रक्रिया में ‘मीना’ मानक शब्द के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है, दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक है । इतिहासकार कर्नल जेम्स टाड, गौरी शंकर हीरा नंद ओझा, अन्य विभिन्न इतिहासकारों तथा नृविज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि जहाँ राजस्थान के विभिन्न भागों में इसे मीणा, मेणा, मैणा आदि नामों से पुकारा जाता है, वहीं राजस्थान के बाहर यह समुदाय ‘मीना’ जाति के रूप में जानी जाती है । राजस्थान के बाहर निवास करने वाले ‘मीना समुदाय’ को आरक्षण के लाभ से वंचित भी किया गया है जबकि वह अपने उपनाम के रूप में ‘मीना’ शब्द का ही प्रयोग करते हैं । पुरातत्वविद् फ़ादर हेरास भी सटीक विश्वास रखते थे कि राजस्थान में निवासित आधुनिक ‘मीणा’ पूर्व आर्य काल के ‘मीन’ गण चिह्न वाले लोगों के वंशज है जो कबीलों के रूप में जंगलों में रहने हैं । मीन पुराण के रचयिता एवं राजस्थानी और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ श्री मुनि मगनसागर की प्रतिस्थापना है कि ‘मीना’ जाति राजस्थान में ‘मीणा’ कहकर पुकारी जाती है, अतः राजस्थान के सन्दर्भ में ‘मीना’ और ‘मीणा’ एक ही जाति समुदाय के उच्चारणगत भेद हैं ।
भाषाविज्ञानी और अनुवादवेत्ता के रूप में मेरा मानना है कि वस्तुत: मीणा बनाम मीना की समस्या हिन्दी और राजस्थानी की समस्या नहीं है क्योंकि राजस्थानी के सन्दर्भ में ‘ण’ और ‘न’ के बीच स्वनिम और संस्वन का सम्बन्ध है, अर्थगत नहीं । दरअसल समस्या की जड़ अनुवाद से जुड़ी है जिसमें (mina) का अनुवाद केवल “मीना” कर लिया गया है। राजस्थान के सन्दर्भ में इसका अनुवाद “मीना और मीणा” दोनों होना चाहिये या दोनों का अर्थ-संज्ञान एक ही रूप में लेना चाहिये। मीना की अपेक्षा मीणा शब्द राजस्थानी भाषा और आदिवासी संस्कृति के अधिक निकट है, मौलिक है, स्थानीय है जिसकी व्युत्पति गूगल सर्च पर उपलब्ध सामग्री एवं विश्व की भाषाओं की एट्लस एथनोलोग के विश्लेष्ण में शामिल किया गया है जिसको अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में लिप्यान्तरित किया गया है । किन्तु, याचिका कर्ता की संकीर्ण सोच और शान्तिप्रिय राजस्थानी माहौल में वैमनस्य फ़ैलाने के कलुषित उद्देश्य दायर की गयी याचिका में थोडे से सन्दर्भगत एवं अनुवादगत भेद के कारण न्यायपालिका ने एक नये विवाद को पनपाने की ओर अग्रसर है जिसके पीछे क्या सोच रही होगी, यह कहना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अर्थदीप्तियों और अर्थ-निष्पतियों के आधार पर निर्णय देने वाली न्यायपालिका स्थूल और यादृच्छिक अर्थ-निर्णय की ओर क्यों अग्रसर है और  जिसका हल बेहद पेचीदा किस्म का है ।

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