प्रोफेसर (डॉ) राम लखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय
केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बान्दर सिंदरी,
किशनगड़, अजमेर- 9413300222
मीडिया की अहम भूमिका
होने के कारण इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। किन्तु, बदलते परिवेश में जिस तरह से कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका पर ईमानदारी और सामाजिक दायित्व से
जुड़े सवाल खड़े किये जा रहे हैं, वे लाजमी हैं ।अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार
में खुला छोड़ कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो, पैसा है तो काम करने का अपना आधारभूत ढांचा
बनाओ, प्रतिद्वंद्वी चैनलों
से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो, तो क्या होगा? मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी
कॉरपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है! अगर नहीं
हो सकती तो फिर चौथे खंभे का मतलब क्या है? सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कॉरपोरेट में
क्या फर्क होगा? कॉरपोरेट अपने धंधे को
मीडिया की तर्ज पर क्यों नहीं विस्तारित करना चाहेगा। मसलन, सरकार कौन-सी नीति ला रही है? मंत्रिमंडल की बैठक में किस मुद्दे पर चर्चा
होनी है? ऊर्जा क्षेत्र हो या
आधारभूत ढांचा या फिर संचार हो या खनन, सरकारी दस्तावेज अगर पत्रकारीय हुनर तले चैनल
की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह न बता पाए कि सरकार किस कॉरपोरेट या कंपनी को
लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या
करेगा? यही हश्र टूजी
स्पेक्ट्र्म की प्रक्रिया के दौरान हुआ और उसका बद्सूरत चेहरा देश-दुनिया के सामने देर से ही आया। जाहिर है, सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार
सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिए बेचैन किसी कॉरपोरेट घराने के
लिए काम करने लगेगा। राजनीतिकों के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी।
संयोग से दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों की एक बड़ी फौज मीडिया छोड़ कॉरपोरेट का
काम सीधे देखने से लेकर उसके लिए दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी हुई है । चौथा खंभा
और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आने लगती है। मगर नई परिस्थितियों में संकट
दोहरा है।
भारत में नदियों के
किनारे बसी वैदिक बस्तियों ने सबसे पहले इनके प्रति अपनी जवाबदेही जाहिर करते हुए
पर्यावरण को लेकर शांति मंत्र तैयार किया, जिसे धर्म यानि कर्तव्य पालन की बात के रूप में घर-घर तक पहुंचाया, जिसमें जल, अग्नि, पृथ्वी,प्रकृति, वायू और आकाश को
कल्याणकारी बनाने के लिए यज्ञों का आयोजन शुरू हुआ ताकि पूरी प्रकृति को प्रदुषण
मुक्त किया जा सके। इस सबके लिए उन्होंने अपनी-अपनी लोकभाषाओं में कहावतें भी गढ़ी। किन्तु, यही कर्तव्यपरायणता भारतीय मीडिया से लगभग गायब
है। मीडिया और समाज के रिश्ते में दो पक्ष चिंताजनक हैं; एक, मीडिया और मीडियाकर्मी महानगरों के उपभोक्तावादी वर्ग की
चिंताओं से ग्रस्त हैं। देश के आम नागरिक के दुख-सुख की खबरें कमोबेश गायब हैं। दूसरा चिंताजनक पक्ष मीडिया
कर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है। जहां मीडिया की ताकत बढ़ी है, वहीं मीडिया के भीतर पत्रकारों की ताकत घटी है।
आज मीडिया की सफलता में पत्रकारिता से अधिक महत्व पूंजी और व्यावसायिक सूझ-बूझ को
दिया जाता है। पूंजी और मुनाफे की इस दौड़ में वे लोग पीछे छूटते गए जो मीडिया को
व्यवसाय कम, मिशन अधिक मानते थे।
जबकि, वे लोग मीलों आगे निकल
गए जिन्होंने मुनाफे को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया। आज जितने भी बड़े मीडिया समूह
हैं उनमें यही लोग हैं। समाज के लिए बाजारीकरण और केन्द्रीयकरण की प्रवृत्तियां
हानिकारक हो सकती हैं। लेकिन, इनके लिए यह बड़े काम की चीज है क्योंकि, इससे इन्हें विज्ञापन रूपी अमृत की प्राप्ति
होती है। समाज का हित इस वर्ग को तभी तक दिखाई देता है जब तक उसके मुनाफे पर असर न
पड़ता हो। सत्ता पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपना मुनाफा बढ़ाने में इसे कोई
संकोच नहीं है। यह सत्ता पर अंकुश रख कर ही संतुष्ट नहीं है। इसे तो सत्ता में
परोक्ष रूप से भागीदारी भी चाहिए। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण इन बड़े
मीडिया समूहों से किसी सार्थक सामाजिक बदलाव में मदद की उम्मीद करना बेमानी हो गया
है।
एक सर्वे के अनुसार
देश की ख़बरें तय करने वालों में 83 फ़ीसद पुरुष हैं और 86 फ़ीसद हिन्दू द्विज जातियों से। मुसलमान व
पिछड़ी जातियां सिर्फ़ चार फ़ीसद और दलित-आदिवासी शून्य... शोध से पता चला कि हिंदी मीडिया में 87 फ़ीसद मीडिया कर्मी ब्राह्मण परिवार से हैं
किन्तु उन्होंने अपनी पहचान छुपाने के लिए उनके नामों से जातिसूचक शब्द हटा लिये
हैं । हर किसी का विचार अपनी जाति-समुदाय से बंधा नहीं होता, लेकिन अगर मीडिया समाज के चरित्र से इतना अलग
हो तो इसका खबरों पर असर पड़ना अवश्यम्भावी है। ज़ाहिर है, मीडिया और समाज के रिश्तों पर कोई क़ानून नहीं
बन सकता, लेकिन हमें ऐसी
संस्थाओं की ज़रूरत है जो इन रिश्तों की लगातार पड़ताल करे और मीडिया को आईना दिखा
सके। मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की
ज़रूरत है। मीडिया शिक्षा में हमें तीन गुणों ; ज्ञान, निरीक्षण और विश्लेषण तथा अभिव्यक्ति की क्षमता
को बढ़ाना होगा। इन गुणों से युक्त पत्रकार या मीडिया कर्मी जहां कहीं भी जायेंगे
अपनी छाप छोड़ेंगे। ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शिक्षकों और विद्यार्थियों को
बहुत मेहनत करनी होगी। निरीक्षण और विश्लेषण की क्षमता को धीरे-धीरे अनुभव के आधार पर विकसित किया जा सकता है
तदनुरूप ज्ञान
के आधार पर किये गये निरीक्षण और विश्लेषण से अभिव्यक्ति की योग्यता को भी विकसित
किया जा सकता है।
मीडिया एक सामाजिक
संस्था है। इसका उद्भव और विकास व्यक्तियों और समूहों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं की
पूर्ति के साधन के रूप में हुआ था, लेकिन वर्तमान समय में इसका संचालन व्यापारिक
संगठनों की तरह किया जा रहा है। हाल के वर्षों में मीडिया-व्यापार का अनेक कारणों
और साधनों से तीव्र गति से विस्तार हुआ है। जिसका एक मुख्य कारण पेड न्यूज भी है, जो संभवत: एक दृष्टि से व्यापार के दबदबे के
चलते मीडिया की रग-रग में समा चुका है। जिसका नकारात्मक असर कम करना मीडिया के लिए
चुनौती है। वैसे ‘पेड न्यूज’ कोई नई तकनीक नहीं है। इसका जिक्र इतिहास के
पन्नों में भी मिलता है। पहले यह लुक-छिप कर होता था, परंतु वैश्विकरण के दौर में यह खुलेआम हो रहा
है। ‘पेड न्यूज’ एक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप
बदलता रहता है। इस बदलते रूप के कारण मीडिया का समाज के प्रति दायित्व से भटकाव हो
रहा है, जो वर्तमान सामाजिक यथार्थ
में साफ देखा जा सकता है। अगर हम मीडिया में सामाजिक नियंत्रण की बात पर जोर दे तो
हकीकत से रू-ब-रू हो सकते हैं, कि किस प्रकार मीडिया पर हावी बाजारीकरण इनकी आर्थिक जरूरतों की
पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भटक रहा है
और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है। भटकाव के इस दौर में मीडिया उच्चम समूह की
पूर्ति अपनी अवश्यकताओं के साथ-साथ करता रहता है, क्योंकि ये उच्च वर्ग मीडिया पर ही निर्भर रहते
हैं। चाहे वोटरों को लुभाना हो, किसी खास मुद्दे पर जनमत तैयार करना हो या अपने उत्पादकों को बाजार
में बेचना। जिस कारण मीडिया में एक तबका नदारत होता जा रहा है।
मीडिया सामाजिक संरचना
का एक हिस्सा है, बावजूद इसके मीडिया की
पूर्ण स्वायत्तता और नैतिकता सामाजिक दायित्वों से उन्मु्क्त होकर आर्थिक और
राजनीतिक दशाओं पर प्राय: निर्भर पाया जाता है। इस आलोक में कहा जाए, तो इस बात में बहुत दम है कि मीडिया एक
प्रभुद्ध वर्ग के लिए कार्य करता है। वह यथार्थ की ऐसी छवियां पेश करता है जिनसे
आभिजात्य वर्ग के हितों की पूर्ति की दिशा में नये रास्ते् खुलते हैं। वह संसदीय
लोकतंत्र में नौकरशाही तथा कॉरपोरेट घरानों की सामाजिक सत्ता और उनके मान-मूल्यों
को बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका देता है। इस परिप्रेक्ष्य में नोम चॉम्सकी ने
कहा है कि, ‘मुक्ता बाजार अमीरों
के लिए ‘समाजवाद’ है, जनता कीमत अदा करती है और अमीर फायदा उठाता है-
गरीबों के लिए बाजार और अमीरों के लिए ढेर सारा संरक्षण।‘ इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया की प्रक्रियाओं
में प्रकट या अप्रकट रूप से नियंत्रण का तत्व मौजूद रहता है। इस नियंत्रण की
प्रक्रिया को ढ़ाल बनाकर मीडिया अपना हित साधने में प्रत्यनशील है। जिसके लिए कीमत
का कोई मोल नहीं होता। मीडिया में दानव की भांति हावी ‘पेड न्यूज’ आज एक गंभीर चुनौती बन चुकी है। चाहे मीडिया
चिंतक हो, मीडिया विद् हो, विश्लेषक हो या फिर आलोचक सभी इस दानवरूप
बाजारवाद के प्रभाव से सकते में हैं, कि क्या होगा आने वाले समय में मीडिया का। जिस
प्रकार अपने हितों की पूर्ति के लिए मीडिया ‘पेड न्यूज’ का सहारा लेकर अपनी हवस की पूर्ति करने में लगा
हुआ है उससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया में संपादक की जगह प्रबंधक ने हथियाली
है। जिसकी वजह से मीडिया की खबरों में कंटेंट न होकर प्रबंधन की झलक देखने को मिल
जाती है।
राडिया प्रकरण मीडिया और
पूँजी के रिश्तों के एक छोटे से पहलू का पर्दाफ़ाश करता है। बड़े-बड़े संपादक उद्योगपतियों
की हाज़िरी बजाते हैं, उनके दलालों के इशारे पर भी अपनी कलम नचाते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव और उसके
बाद इसके एक संस्थागत पहलू का ख़ुलासा हुआ। अनेक अख़बारों ने चुनाव में पार्टियों
और उम्मीदवारों के पक्ष में खबरें छापने के दाम वसूले, कई आर्थिक अख़बारों ने
कंपनियों के हक़ में ख़बरें छापने के बाक़ायदा लिखित क़रार कर रखे हैं। मीडिया और
पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशे लगनी जरूरी हैं। अधिकांश अख़बार और टीवी
चैनल पूंजीपति या कंपनी की मिलकीयत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने
व्यावसायिक हितों के लिए करना चाहता है। अनेक मीडिया के मालिक या तो रियल एस्टेट
का धंधा चलाते हैं,या फिर रियल एस्टेट में अनाप-शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनल खोल लेते हैं। यहाँ तक कि मीडिया का इस्तेमाल
दलाली और ब्लैकमेल के लिए भी होता है। आधुनिकीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था ने मीडिया
को भी अपनी चपेट में ले लिया। मीडिया अब गरीब जनता और पीडि़त व्यीक्ति को न्याय
दिलाने के लिए नहीं, बल्कि मात्र खबरों के रूप में इस्तेमाल करने लगा क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था
जिस प्रकार समाज पर हावी होती गई, मीडिया पर उसका असर साफ दिखाई देने लगा । अब आलम यह हो चुका है कि समाज की
नजरों में मीडिया की छवि में तब्दीली आ चुकी है। किन्तु, समय के सवालों का जवाब
समय से नहीं मिला तो व्यवस्थाओं पर प्रश्न चिह्न लगना स्वाभाविक है ।
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