‘हिन्दस्वराज’ में गांधी
जी की शिक्षा नीति
प्रोफेसर (डॉ) राम लखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बान्दर सिंदरी,
किशनगड़, अजमेर
महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य एक बार फिर अपने सौ साल पूरे होने
पर चर्चा में है । महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और
अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है । सबसे महत्व की बात है
कि पुस्तक की शैली । यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है । पाठक और
संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे
कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से
दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था । 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक
प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित
संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं
जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं। गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों
के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी
सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति
नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों
से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे
अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े
करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम
क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। गांधी
जी के राजनीतिक गुरू श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में
कच्चा पन नजर आया ।
गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम
विचारक सही नहीं मानते । मिडलटन मरी कहते हैं-‘ गांधी जी अपने विचारों के जोश में
यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की
नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है।’ हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि
क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग
तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- ‘ वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर
भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र
है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है
उसके लिए है।’ वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य
तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते
हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के
अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना
चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें
चाहिए न कारखाने।
महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता
का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है।
वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- ‘मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए
मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ
मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब
धर्मों के अंदर जो धर्म है भारतीय होने का धर्म; वह हिंदुस्तान से जा रहा है,
हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।’ वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ
स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित
की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल
करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है। गांधी कहते हैं- ‘ हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह
राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र
माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए।
हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।’ महात्मा गांधी की राय में धर्म की
ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और
मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे।
वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- ‘ बहुतेरे हिंदुओं और
मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है।
क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के
अलग-अलग रास्ते हैं।
गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन
लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही
नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस
कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- ‘ आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक
ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम
एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे।
हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।’ गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते
हुए कहते हैं- ‘ दो
अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं।’ एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत
गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के
पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है।
उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की
एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस
पर भरोसा भी करते हैं।
भारत में शिक्षा की सुव्यवस्थित प्राचीन परम्परा थी। अंग्रेजी
राज के पहले यहां लाखों स्कूल थे। इसके भी हजारों वर्ष पहले उत्तरवैदिक काल में सुव्यवस्थित
शिक्षा व्यवस्था थी। शिक्षा का उद्देश्य अविद्या का नाश और विद्या की प्राप्ति था।
विद्या का उद्देश्य मुक्ति था- ‘सा विद्या या विमुक्तये’। अविद्या दुख का कारण थी,
विद्या आनंद का पर्याय थी। महात्मा बुध्द ने भी समस्त दुखों और पुनर्जन्म का कारण
‘अविद्या’ ही बताया है। इसके भी पहले उत्तरवैदिक काल में रचे गए उपनिषद् साहित्य में
अनेक भौतिक अधिभौतिक विषयों की सूची मिलती है। नारद सभी विषयों के ज्ञाता थे। छान्दोग्य
उपनिषद् में इन विषयों की सूची है। नारद ने सनत्कुमार को बताया, हे भगवान्! मैं ऋग्वेद
पढ़ा हूँ तथा यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद, पांचवा इतिहास पुराण, वेदों का वेद
पिन्न्य, राशि, दैव, निधि, वाक्योवाक्य, एकायन, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या,
नक्षत्रविद्या, सर्प और देवजन की विद्या यह सब। हे भगवान! मैं पढ़ा हूँ। नारद सभी विषयों
के विद्वान थे लेकिन अशान्त थे। उपनिषद् में सनतकुमार द्वारा उन्हें मूल ज्ञान दिया
गया।
शिक्षा के उद्देश्य पर चलने वाली बहस पुरानी
है। भारत की आधुनिक शिक्षा पध्दति अंग्रेजी राज की देन है। अंग्रेजी राज की शिक्षा
का उद्देश्य भारत की सभ्यता को अंग्रेजी सभ्यता में ढालना था । भारतीय संस्कृति और
परम्पराओं के प्रति आत्महीन भाव पैदा करना था। अंग्रेजी राज को जायज ठहराने वाले विद्वान
पुरूष पैदा करना था। लार्ड मैकाले ने इसी बड़े लक्ष्य को लेकर भारतीय शिक्षा प्रणाली
का ताना-बाना बुना था। अंग्रेजी सत्ताधीशों की भाषा थी, अफसरों और न्यायालयों की भाषा
थी। सो अंग्रेजी सम्मान और हनक-ठसक की भाषा भी थी। गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में
लिखा, यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इन्साफ पाना हो, तो मुझे
अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं
सकता। दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए । यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी
की हद नहीं तो और क्या है? इसमे मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना? हिन्दुस्तान
को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।
‘राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।
गांधी जी की टिप्पणी में आक्रामकता के साथ वेदना भी है कि राष्ट्र की हाय अंग्रेजों
पर नहीं बल्कि हम पर पड़ेगी। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती। प्रत्येक संस्कृति
की अपनी भाषा होती है, प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति भी होती है। भारतीय संस्कृति
की भाषा संस्कृत थी और है। संस्कृत भाषा ने भारतीय संस्कृति को राष्ट्रव्यापी, वैज्ञानिक
और दार्शनिक बनाया था। हिन्दी संस्कृत का नया रूप है। अंग्रेजी भाषा की भी अपनी संस्कृति
है। अंग्रेजी भाषा और संस्कृति में विज्ञान, इतिहास और सभी विषयों की अपनी दृष्टि है।
यह दृष्टि दैहिक और भोगवादी है। यहां अंग्रेजी शिक्षा के साथ अंग्रेजी सभ्यता भी आई
थी। गांधी जी ने लिखा, आपको समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र
को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा
पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।’
गांधी जी ने लिखा, करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने
जैसा है। मैकॉले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने
इसी इरादे से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा
यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि ‘हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते
हैं?’
गांधी जी ने भी उसी तर्ज पर लिखा, अब ऊंची शिक्षा को लें।
मैं भूगोल-विद्या सीखा, खगोल-विद्या (आकाश के तारों की विद्या) सीखा, बीजगणित (एलजेब्रा)
भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्यॉमेट्री) का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्या
को भी मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के
लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से मैंने वह ज्ञान हासिल किया? उससे क्या फायदा हुआ?
‘… अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूंगा कि ऊपर जो शास्त्र मैंने गिनाये
हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इन्द्रियों को बस में करने के लिए मुझे नहीं करना
पड़ा। इसलिए प्राइमरी-प्राथमिक शिक्षा को लीजिये या ऊँची शिक्षा को लीजिये, उसका उपयोग
मुख्य बात में नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते- उससे हम अपना कर्तव्य नहीं जान
सकते।’ सच्चा मनुष्य बनने और समाज का भला करने वाली शिक्षा ही गांधी जी को प्रिय थी।
तैत्तिरीय उपनिषद् की शुरूआत ‘शिक्षावल्ली’ से ही होती है।
ऋषि कहते हैं ‘शीक्षां व्याख्या स्यामः’ अब हम शिक्षा की व्याख्या करते हैं। यहां पृथ्वी,
अग्नि, वायु, जल और आकाश आदि विषय हैं। फिर ‘अध्यात्म’ समझाते हैं। गैरजानकार लोग अध्यात्म
को आस्था विषयक ज्ञान मानते हैं लेकिन मन्त्र संहिता में अध्यात्म शरीर संरचना है।
चौथे अनुवाक् में प्रार्थना है मैं मेधा सम्पन्न बनूं । शरीर सक्रिय और रोगरहित रहे
‘शरीरम् मे विचर्षणम्’ फिर छठे अनुवाक में विद्या प्राप्त ज्ञानी की प्रशंसा है ‘आप्ति
स्वराज्यम्’ वे स्वराज्य पाते हैं, वाणी के स्वामी हो जाते हैं, विज्ञानपति हो जाते
हैं आदि। 11 वें अनुवाक् में शिक्षण समाप्ति के बाद का उपदेश है सत्य बोलना । धर्म
में रहना । अध्ययन में आलस्य न करना । सन्तान प्रवाह का उच्छेद नहीं करना- ‘मा व्यवच्छेत्सी’।
पढ़ने और पढ़ाने में आलस्य न करना। मां, पिता, आचार्य देवता है। अतिथि देवता है। निन्दित
कर्म वर्जित हैं। निर्दोष कर्म करणीय हैं। सच और गलत के बारे में शंका हो तो सत्कर्म
पालन में संलग्न विद्वानों से परामर्श करना। महात्मा गांधी ‘असली मनुष्य’ के निर्माण
वाली ऐसी ही शिक्षा के पक्षधर थे।
गांधी जी ने लिखा है ‘शिक्षा-तालीम का अर्थ क्या है? अगर
उसका अर्थ सिर्फ अक्षर-ज्ञान ही हो, तो वह तो एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्छा उपयोग
भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्त्र से चीर-फाड़ करके बीमार को अच्छा
किया जा सकता है और वही शस्त्र किसी की जान लेने के लिए भी काम में लाया जा सकता है।
अक्षर-ज्ञान का भी ऐसा ही है। बहुत से लोग उसका बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते
ही हैं। उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं ।’ भारत पश्चिमी सभ्यता के
मोहपाश में है। उन्होंने लिखा, हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा
लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पायी है, वह उसका
अच्छा उपयोग करे। अंग्रेजों के साथ के व्यवहार में, ऐसे हिन्दुस्तानियों के साथ के
व्यवहार में निज की भाषा हम समझ न सकते हों और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे परेशान
हो गये हैं यह समझने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये। जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए
हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान
की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए। गांधीजी ने दो टूक लिखा ‘बालक जब पक्की उम्र के हो
जायें तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि
उसके जरिये पैसे कमाने के इरादे से।’ गांधी जी ने शिक्षा व्यवस्था से जुड़े मौलिक प्रश्न
उठाये हैं। बच्चों की शिक्षा की शुरूआत की भाषा आखिरकार क्या हो? 21 वीं सदी के भारत
में ढाई तीन बरस के शिशु की शिक्षा शुरूआत भी अंग्रेजी से ही होती ‘हिन्द स्वराज’ का
मतलब अंग्रेजीराज की जगह भारतीय राज ही नहीं है। हिन्द स्वराज का मतलब स्वसंस्कृति,
स्वसभ्यता और स्वराष्ट्र के अंतरंग, स्वरस और स्वछंद में ही भारत के भविष्य का निर्माण
करना है। लेकिन वही हुआ, जिसका भय था। अंग्रेजीराज गया, अंग्रेजी सभ्यता के जीवाणु
पहले से भी ज्यादा भयावह रूप में हिन्दुस्तान को कैंसरग्रस्त बना रहे हैं।
हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर
है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर
रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है।
भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह
अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना
होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना
सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में
चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार
द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के
जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की
मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती
है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते
हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें
द्वंद हैं,
सभ्यता
का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती
हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की
कोशिश तो करनी ही चाहिए
।
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