रघुवीर सहाय की कविता की स्वरलिपि-2
प्रोफ़ेसर ( डा .) रामलखन मीना , अध्यक्ष,हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
रघुवीर सहाय ने जिस तरह गद्य को कविता में दुहा है, वह सामान्य कवियों को बहुत आसान काम दिखाई देता है। रघुवीर सहाय के प्रशंसकों में बाद की पीढ़ी के कवियों में, जिन्होंने
इस बात को नहीं समझा, वे गच्चा खा गये। रघुवीर सहाय की छन्दोबद्ध कविताओं से अलग हटकर जो कविताएँ हैं, वे ऐसा भ्रम देती हैं कि वे यथातथ्य गद्य में लिखी कविताएँ हैं। बाद में सातवें और आठवें दशक में वे लोग यह भूल गए कि रघुवीर सहाय ने छन्द को अपनी तरह से अपनी तरह से अपनी कविता में बरता है। और फिर जब वे अपनी कविता में गद्यात्मकता को बरतते हैं तो वे उससे भी अपनी कविता का छन्द अलग बनाते हैं। दोनों तरह की कविताओं का विश्लेषण उदाहरणार्थ मैं पहले कर चुका हूँ। इसलिए रघुवीर सहाय की कविता के छन्द को पूरी तरह समझे बिना ही जो उनका अनुकरण करेगा- वह गड्ढे में जायेगा ही। रघुवीर सहाय छन्दहीनता या छन्द के निषेध के कवि नहीं हैं। इसीलिए उनकी सम्पूर्ण कविता ( छन्दबद्ध और छन्दमुक्त) अपना अलग मुहावरा गढ़ती है-वे अपने ही ‘फार्म’ में फँसकर नहीं रह जाते, बल्कि वे अपना ही फार्म बार-बार तोड़ते हैैं। इसी कारण वे अपनी कविता में तरह-तरह के छन्द रचते हैं। उनकी कविता में विविधता है। उन कविताओं का आचरण और व्यवहार भी अलग-अलग है, जो गद्य में दिखती हैं। उनकी कविताओं का संरचनात्मक फलक बहुत व्यापक और विविध है। वे एकरसता के कवि नहीं हैं। जिन्होंने इस तथ्य को नहीं समझा, उन्होंने रघुवीर सहाय की गद्यात्मकता का अनुकरण तो किया, उसे आगे भी बढ़ाया, किन्तु वे खुद अपने ही फार्म में कैद होकर रह गये और वह उनसे टूटे नहीं टूट रहा है। मैं कहना यह चाहता हँू कि कविता में कोई भी बनी-बनाई चीज काम नहीं आती। कविता को अपना छन्द खुद बनाना पड़ता है। इसके लिए कोई शार्टकट है ही नहीं। वरना बने-बनाये छन्दों में निरर्थक लिखते चले जाने, और छन्द में पूरी तरह तिलांजलि देकर लिखते चले जाने में कोई अन्तर नहीं है।
आज कविता जिस तरह धीरे-धीरे छन्दहीनता की ओर चली जा रही है, वह भी एक तरह के फार्म में फँसती चली जा रही है। इस बात को युवा कवियों को कभी भूलना नहीं चाहिए कि निरा ठोस और ठस गद्य कविता कभी नहीं हो सकता। उसे इतना लचीला होना पड़ेगा कि कविता अपने निहितार्थों और आशयों को उस लचीलेपन में भर सके। उसमें वक्रता और व्यंजना पैदा कर सके। जाहिर है अब तक छन्द से मेरा आशय क्या है, आप जान गये होंगे। इसीलिए ढेरों कविताएँ एक ही व्यक्ति की लिखी दिखाई दे रही हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह, ढेरों गजलें, गीत और छन्दबद्ध कविताएं लिखी जा रही हैं, पर सारी की पहचान विहीन हैं। इन दोनों रूपों में कोई भेद नहीं है। वे इसीलिए अपने छन्दबद्ध होने या छन्दमुक्त होने के बावजूद कोई प्रभाव पैदा नहीं कर रही हैं। और जो अपना प्रभाव पैदा कर रही हैं, वे रचना की शर्तों को पूरा करती हुई उस प्रक्रिया से गुजरी हैं, जहां कविता अपना स्वरूप स्वयं गढ़ती है- अब वह चाहे तथाकथित छन्द में, और चाहे तथाकथित छन्द से मुक्त हो। कुल मिलाकर यह कि कविता की पहली शर्त है उसका कविता होना। कविता न तो निबन्ध है, न कहानी है, न नाटक है, न संगीत है, न चित्र है, न केवल शब्द और उसका अर्थ है। लेकिन कविता में ये सारी चीजें समाहित हैं। इन सारी चीजों का कविता अपने स्वरूप निर्धारण में दोहन करती है और फिर जो भी उसका स्वरूप रचना-प्रक्रिया से निकलकर आता है, वही उसका छन्द होता है।
कविता एक सामाजिक कर्म इस अर्थ में है कि वह सामाजिक (पाठक या श्रोता) को अपने रचनात्मक अनुभव का साझीदार बनाती है- वह साझीदार ही कविता का सही साक्षी होता है। और काव्यानुभव का सबसे बड़ा साक्ष्य वही होता है। जब मैं कहता हूँ कि कविता छन्द के निषेध या छन्दहीनता की तरफ जा रही है- इसका अर्थ यही है कि वह अपनी रचना की पूरी प्रक्रिया गुजरे बिना ही पाठकों के सामने परोस दी जाती है। उसकी अपनी कोई पहचान बनने से पहले ही आधी-अधूरी ही हड़बड़ी में प्रकाशित कर दी जाती है। या फिर बहुत सारे ऐसे लोग भी कविता करने के क्षेत्र में उतर आए हैं जिनमें वह प्रातिभा शक्ति का ही अभाव है, जो मनुष्य के अनुभव को काव्यानुभव में रूपान्तरित करने की क्षमता रखती है। मैं समर्थ कवियों की बात नहीं कर रहा हूँ। किन्तु यदि आज की कविता पाठकों से दूर हो रही है, पाठकों में अपनी रुचि पैदा नहीं कर पा रही है, तो इसका कारण यह है कि बहुत सारी ऐसी कविता पाठकों के सामने आ रही है, जो वाजिब कविता ही नहीं है। यह कहने के लिए क्षमा चाहता हूँ, आज के विज्ञापन और बाजारवादी समय में बहुत सारे अ-कवि (ठ्ठशठ्ठ-श्चशद्गह्लह्य) येन-केन प्रकारेण दृश्य पर कई कारणों से छाये हुए हैं। और कविता की सच्ची और समर्थ आवाजों को पाश्र्व में भी किया जा रहा है। अपने समय में कविता की कोई मुख्य धारा और गौण धारा जैसी चीज नहीं होती। अपने समय की कविता में अनेकानेक धाराएं ही मिलकर कविता की सुरसरि का निर्माण करती हैं। बहरहाल, आज के इस सब तरह से कठिन समय में अच्छे और बुरे और सच्चे और नकली की पहचान कर पाना भी एक कठिन काम होता जा रहा है, क्योंकि इन अक्षरों को धूमिल करने के प्रयत्न में ही हमारी सारी उत्तर आधुनिकता लगी हुई है।
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