रघुवीर सहाय की कविता की स्वरलिपि
प्रोफ़ेसर ( डा .) रामलखन मीना , अध्यक्ष,हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
आज हिंदी कविता की भाषा में चमक कम हो रही है, जबकि हिंदी कहानी की भाषा में यह चमक बढ़ रही है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी कहानी की भाषा में जो खाली जगह होती है, उसमें भी सब कुछ खाली नहीं होता। लेकिन हर अच्छी कविता में दो पंक्तियों के बीच जो खाली जगह होती है, वह दरअसल खाली नहीं होती। नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता है जिसकी भाषा बहुत सादी है और लगता ही नहीं कि दो पंक्तियों के बीच कोई अर्थ भी होगा। लेकिन उनके यहां दो पंक्तियों के बीच या दो शब्दों के बीच जो खाली जगह है, उसमें कई अर्थ छुपे हुए हैं:
बहुत
दिनों तक
चूल्हा रोया
चक्की रही
उदास
बहुत
दिनों तक
कानी कुतिया
सोयी उनके
पास
बहुत
दिनों तक
लगी भीत
पर छिपकलियों
की गश्त
बहुत
दिनों तक
चूहों की
भी हालत
रही शिकस्त
दाने
आये घर
के अंदर
बहुत दिनों
के बाद
धुआँ
उठा आँगन
से ऊपर
बहुत दिनों
के बाद
(अकाल)
इस कविता को पढ़ें तो एक चित्र उभरता है जो एक गरीब के घर का चित्र है जिसमें चक्की बेकार पड़ी हुई है और चूल्हा रो रोकर बेहाल है क्योंकि उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। वे उदास हैं और जैसे कानी कुतिया दुःख और उदासी के दिनों में उनके आसपास सोकर उन्हें ढाँढस बंधा रही हो। आदमी की घोर गरीबी बल्कि अनाज के दानों का न होना चूहों और छिपकलियों तक की जिजीविषा को जैसे तोड़ देने वाला साबित हो रहा हो। पूरी कविता बहुत दिन बाद आए दानों और उसके बाद आँगन में उठे धुएँ की कविता है। दानों का न होना और होना दो अलग-अलग स्थितियाँ
हैं, जिन्हें आँगन के ऊपर उठा धुआँ बहुत सादगी और विनम्रता के साथ तोड़ता है। यह सादे और साधारण जीवन की अद्भुत कविता है, जिसमें गजब की ऑब्जेक्टिविटी है और वह असाधारण संतोष है जो ग्रामीण मजदूरों और किसानों में पाया जाता है। इस कविता पर एक लघु वृत्त चित्र भी बनाया जा सकता है। जो इस कविता में छुपी हुई खाली जगहों को अलग तरह से भर सकता है। इससे एक पेंटिंग भी बन सकती है जो नए अर्थ खोलेगी। इस चित्र में एक ग्रामीण भारतीय का घर होगा जिसमें उसके साथ चूहे, छिपकली, कुतिया आदि जीव रहते होंगे और उनके बीच एक मानवीय रिश्ता होगा। यह चित्र अपनी सादगी से न केवल चुनौती दे रहा होगा बल्कि नया सौंदर्यशास्त्र भी रच रहा होगा। अमृता शेरगिल यदि जीवित होतीं और ऐसा कोई चित्र उन्होंने बनाया होता तो वह नागार्जुन की इस कालजयी कविता के और गहरे अर्थ खोलता। लेकिन इस ग्रामीण यथार्थ पर आज न फिल्में बनती हैं, न चित्र बनाए जाते हैं। हमारे चित्रकार सूरज, चाँद, पहाड़, पेड़, नदी को नहीं अब अमूर्तन को पसंद करते हैं। इस कविता पर आधारित चित्र बेशक कला की सीमाओं का अतिक्रमण करे, लेकिन उसमें यदि कविता सा जीवन हो तो वह आपको 'हॉण्ट' भी कर सकता है। शास्त्रीय संगीत तो उससे भी आगे की चीज है जो हमें कई छवियों, ध्वनियों, बेचैनियों, तड़पों और अमूर्तनों के बीच ले जाता है और यहां अर्थ खुलते नहीं उनमें निहित आनंद या विषाद खुलता है।
दरअसल, इस विराट जगत में हम जिसे खाली जगह समझते हैं, वह वस्तुतः खाली नहीं होती। मसलन आकाश में दो पिंडों के बीच भी कहीं खाली जगह सरीखी कोई चीज नहीं है। उसमें या तो डार्क एनर्जी है या फिर डार्क मैटर है। किसी कवि को यह वैज्ञानिक जानकारी दो तो वह वह कहेगा इस खाली जगह में भी कोई कविता है, जबकि दर्शन का छात्र विचित्र कुलाबें भिड़ाने लगेगा। इस विराट ब्रह्मांड की तरह अच्छी कविता भी तो एक रचना है जिसका स्रष्टा है कवि, जिसका अपना स्वतंत्र
और स्वायत्त संसार होता है और उस संसार से निकलने वाली कविता अपना आकार खुद गढ़ती है। यह कि कहाँ शब्दों के बीच ठहरना है, कहाँ खाली जगह छोड़नी है और कहाँ विराम देना है। हम जैसे साधारण लोग तो इसको पूरी तरह समझते भी नहीं।
रघुवीर सहाय ने नागार्जुन की तरह सादे शब्दों से कविता को संभव बनाया। उनकी कविता हमारे मन-मस्तिष्क में सबसे ज्यादा अटकी रह जाती है तो इसलिए कि उनके यहाँ दो पंक्तियों के बीच जो भराव है, वह आत्मीय है, असाधारण है और अनंग है, जिसमें न साँस है, न गंध है। उसमें मेटाफिजिक्स भी नहीं है। उससे तो कवि का वैसे भी कोई प्रगट रिश्ता नहीं होता। कुछ अज्ञात लेकिन जरूरी यथार्थ। शमशेर के यहाँ यह और भी ज्यादा है। इसीलिए उन्हें 'कवियों का कवि' कहा गया है। मुझे नहीं मालूम कि रघुवीर सहाय की तरह किसी दूसरे कवि ने अपनी किसी कविता की स्वरलिपि बनाई हो। एक कवि को इसकी जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? क्या इसलिए कि रघुवीर सहाय चाहते थे कि इस कविता को इस तरह पढ़ा जाए तो खाली जगह के अर्थ खुलेंगे? देवी प्रसाद मिश्र ने अपनी एक कविता में बाईं और दाईं दोनों तरफ कुछ पंक्तियाँ लिखकर 'पहल' में प्रकाशित कराई थीं। यह प्रयोग कविता के पूरे रूप को ही तोड़ डालता है।
रघुवीर सहाय ने नागार्जुन की तरह सादे शब्दों से कविता को संभव बनाया। उनकी कविता हमारे मन-मस्तिष्क में सबसे ज्यादा अटकी रह जाती है तो इसलिए कि उनके यहाँ दो पंक्तियों के बीच जो भराव है, वह आत्मीय है, असाधारण है और अनंग है, जिसमें न साँस है, न गंध है। उसमें मेटाफिजिक्स भी नहीं है। उससे तो कवि का वैसे भी कोई प्रगट रिश्ता नहीं होता। कुछ अज्ञात लेकिन जरूरी यथार्थ। शमशेर के यहाँ यह और भी ज्यादा है। इसीलिए उन्हें 'कवियों का कवि' कहा गया है। मुझे नहीं मालूम कि रघुवीर सहाय की तरह किसी दूसरे कवि ने अपनी किसी कविता की स्वरलिपि बनाई हो। एक कवि को इसकी जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? क्या इसलिए कि रघुवीर सहाय चाहते थे कि इस कविता को इस तरह पढ़ा जाए तो खाली जगह के अर्थ खुलेंगे? देवी प्रसाद मिश्र ने अपनी एक कविता में बाईं और दाईं दोनों तरफ कुछ पंक्तियाँ लिखकर 'पहल' में प्रकाशित कराई थीं। यह प्रयोग कविता के पूरे रूप को ही तोड़ डालता है।
हिन्दी कविता के पिछले 70-80 वर्षों के इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि कविता में पारम्परिक छन्दों का आग्रह लगभग समाप्त हो गया है और छन्दमुक्त कविता के स्वरुप को स्वीकार कर लिया गया। इसका अर्थ यह नहीं है कि अभी लोग पारम्परिक छन्दों में नहीं लिख रहे हैं- लेकिन जिस कविता ने गम्भीर साहित्य में अपनी जगह और पहचान बनाई है, वह ज्यादा तथाकथित छन्द मुक्त कविता ही है। यूँ तो हर कस्बे से लेखक बड़े शहरों तक में आज भी बहुत सारे ऐसे लोग मिल जायेंगे, जो छन्दों में (यानी तुक और लय का ध्यान रखकर ज्यादातर मात्रिक आधार पर) कविता कर रहे हैं। बावजूद इस सच के यह मानने पर विवश होना पड़ता है कि इस कविता ने पिछले 50-60 वर्षों में साहित्य के गम्भीर पाठकों या श्रोताओं का ध्यान आकर्षित नहीं किया। न गम्भीर साहित्य के किसी प्रकार के विमर्श में ही इसे कोई जगह मिली। दर असल, इस समस्या को इसकी जड़ में जाये बिना समझा नहीं जा सकता, क्योंकि आज कविता जिस तरह की छन्द विहीनता तक पहुंच गई है- यह छन्द के नकार की चरम परिणति है। एक समय था जब छन्द की जकडऩ इतनी बढ़ गई थी कि कविता की साँस ही घुटने लगी थी। तब आजादी के बहुत पहले कविता में छन्द से मुक्ति का नारा दिया गया था और उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा गया था। सुमित्रानन्दन पंत ने लिखा था- छुट गये छन्द के बन्ध / प्रास के रजत पाश
यह, छन्द की जकडऩ से और तथाकथित काव्यालंकारों से मुक्त होने की अभिव्यक्ति थी-छन्द के निषेध की नहीं। हमें इस बात को समझना होगा कि किसी भी परम्परा में जब कुछ चीजें जकडऩ पैदा करती हंै तो हम उनसे मुक्त होना चाहते हैं- इसका अर्थ यह नहीं कि हम उन चीजों की मूल संकल्पनाओं का ही निषेध कर रहे हैं। छन्द विहीनता एक तरह का निषेध है और छन्द से मुक्ति का अर्थ उसके उस स्वरुप से ही मुक्ति है, जिसने उस कर्म को कर्मकांड में बदल दिया है और वह जड़ीभूत हो गया है। एक समय में तथाकथित पारम्परिक छन्द इसी सीमा तक पहुंच गया था जहाँ अभिव्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाती थी। तब हिन्दी कविता में छन्द से मुक्त होने की बात कही गई थी- छन्द के निषेध और छन्दहीनता की नहीं। दुर्भाग्य यह है कि छन्द से मुक्ति को हमने धीरे-धीरे छन्द का निर्षध मान लिया और समकालीन कविता को छन्दहीनता की सीमा तक ले आये -पर क्या कोई भी कविता छन्द विहीन हो सकती है? यदि वह कविता है तो उसका अपना कोई न कोई छन्द होगा ही, जिससे वह पहचानी जायेगी। नितान्त गद्य की तरह दिखाई देती कविता, अगर कविता है, तो अपना छन्द गढ़े बिना कविता नहीं हो सकती। कोई भी कविता, अपनी कविता होने की शर्तों को पूरा किये बिना कविता नहीं हो सकती, फिर चाहे वह निरे गद्य दिखते स्वरूप में ही क्यों न हो। अगर कविता अपनी रचना होने की पूर्ण प्रक्रिया से गुजर कर आई है तो निरे गद्य दिखते रूप को भी अपने छन्द में ( चाल, ढाल, पहचान) ढाल देती है। और यदि वह पूरी प्रकिया से नहीं गुजरी तो तथाकथित पारम्परिक छन्द में होते हुए भी कविता नहीं होती। दरअसल, जब हम काव्य की चर्चा करते हैं तो हमें गद्य और पद्य से ऊपर उठना ही होगा। बड़े-से बड़े कवि की बहुत सुन्दर पंक्तियों का हम भाषागत विश्लेषण करें तो वे पद्य में होते हुए भी गद्य के साधारण वाक्य ही होंगे। उदाहरण के लिए तुलसीदास की ये पंक्तियाँ देखिए- सिया राम मय सब जग जानी / काउ प्रणाम जोरि जुग पाणि
इस चौपाई का भाषिक विश्लेषण किया जाय तो आप इसे गद्य में किसी और रूप में लिख ही नहीं सकते। इसका गद्य स्वरूप, जिसे अंग्रेजी में प्रोज आर्डर कहते हैं, वह भी यही होगा। तो इसका गद्यात्मक वाक्य-विन्यास कहीं भी कविता होने में बाधा नहीं बनता। इस चौपाई की जो अद्भुत शब्द-संयोजन है, जो इसे उस अर्थ तक ले जाती है, जो इन शब्दों से बाहर है और हमें सारे संसार में प्रकृति और पुरुष ( सत और चित्) के रूप में व्याप्त राम और सीता को आरोपित कर जिस वैश्विक दृष्टि का परिचय देती है- वह काव्यार्थ उसे कविता बनाता है। तुलसीदास धर्म की जकड़ से राम और सीता को बाहर निकालकर सारे संसार में व्याप्त प्रकृति और पुरुष के रूप में व्याप्त कर देते हैं- यह काम कविता ही करती है। इसी अर्थ में शुद्ध गद्य का वाक्य भी कविता में रूपान्तरित हो जाता है और केशवदास की सम्पूर्ण ‘रामचन्द्रिका’ काव्य के समस्त बाहृा उपादानों से लदी-फँदी भी वह प्रभाव पैदा नहीं करती, जो तुलसी की एक चौपाई कर देती है।
खैर, मैं बात कर रहा था छन्दमुक्ति और छन्दहीनता की। मैं शास्त्रीय व्याख्या में जाना नहीं चाहता, क्योंकि अन्तत: वह शास्त्र ही है, जो किसी भी चीज के रूप को सीमित कर उसका व्याकरण गढ़ देता है। छन्द की मूल संकल्पना में किसी भी चीज, वस्तु मनुष्य और प्राणी मात्र की अपनी पहचान ही मुख्य है। हजारीप्रसाद द्विवेदी कहा करते थे कि दूर से आते हुए उस व्यक्ति को जो आपको ठीक से दिख भी नहीं रहा है, आप उसको पहचान लेते हैं, और कहते हैं हो न हो अमुक चले आ रहे हैं। ऐसा इसलिए होता है कि आप उस व्यक्ति के छन्द ( चाल-ढाल, वेशभूषा और देह की भंगिमा) को पहचानते हैं। अंग्रेजी में इसे बॉडी लैंगवेज कह सकते हैं। क्योंकि सारी प्रकृति में जो भी चीजें हैं, पहाड़, पर्वत, नदियों से लेकर प्राणि मात्र तक, वे सम्पूर्ण प्रकृति की विभिन्न रचनाएँ हैं- और वे चूँकि रचनाएँ हैं, उनकी पहचान अलग-अलग है- यह पहचान ही उनका छन्द है। तो इस तरह कविता अगर रचना है- तो वह अपना छन्द लेकर ही आयेगी। अगर आप उसे सिर्फ छन्द की रूढ़ धारणाओं में खोजते फिरेंगे तो वह कैसी दिखेगी। छन्दमुक्ति के इस अभियान में सबसे पहले निराला ने मुक्त छन्द में कविता लिखकर छन्द को ही अपनी जकडऩ से मुक्त किया। ‘जुही की कली’ उनकी यह पहली कविता है, जो छन्द से मुक्त न होकर ‘मुक्त छन्द’ में है। कहते हैं कि महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस कविता को ‘सरस्वती’ में प्रकाशित
नहीं किया था। इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इसलिए उद्धत कर रहा हँू, ताकि यह पता चल सके कि निराला ने छन्द से कविता को मुक्त नहीं किया, वरन ‘छन्द’ को ही मुक्त कर दिया। ‘विजय वन वल्लरी पर / सोती बैठी थी सुहाग भरी /स्न्नेह स्वप्र भग्र /अमल-कोमल, तनु-तरुणी / जुही की कली / दृग बन्द किये / शिथिल पत्रांक में’ ये पंक्तियाँ व्याकरण की दृष्टि से पूरा एक साधारण-सरल वाक्य है। इसका भी प्रोज आर्डर सम्भव नहीं है। पर इसमें छन्द की गति और लय बहुत स्पष्ट है। आप इन पंक्तियों की गति-लय को नजरअन्दाज करके पढ़ ही नहीं सकते। अर्थात् छन्द तो है, पर वह अपनी ही जकड़ से मुक्त हो गया है- ज्यादा सही होगा कि यहाँ छन्द उन्मुक्त है। गरज यह कि छन्द की जकडऩ से कविता मुक्त हुई। अपनी अभिव्यक्ति में ‘स्वतंत्र’ हुई। इसे उस समय आजादी के लिए संघर्ष के प्रतीक रूप में भी देखा गया। जैसे ‘स्वतंत्रता’ शब्द में तंत्र का निषेध नहीं है, वरन अपने ही तंत्र के विकास की भावना निहित है।
हिन्दी कविता में उस समय ‘छन्द से मुक्ति’ का व्यापक प्रभाव पड़ा। बाद में छायावाद का कोई भी कवि ऐसा नहीं था जिसने मुक्त छन्द में कविता नहीं की, चाहे जयशंकर प्रसाद हो, या सुमित्रानन्दन पंत- सबने अपनी-अपनी तरह से छन्द के पारम्परिक ढाँचे को बदलकर उसे उन्मुक्त कर दिया। इस प्रारम्भिक चरण में हम गौर से देखें तो पारम्परिक छन्दों की ध्वनि कानों में पड़ सकती है और वह कविता की लय और चाल में दिखाई भी देती है, पर सबसे बड़ी बात यह है कि छन्दों का कविता पर हावी होना नहीं दिखाई पड़ता। आपका ध्यान कविता पर जाता है छन्द पर नहीं। निराला की ‘जुही की कली’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ इस बात के उदाहरण हैं। पंत की ये पंक्तियाँ भी देखी जा सकती हैं- मैंने बचपन में छिपकर पैसे बोये थे / सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे इस तरह छायावाद के तमाम कवियों ने जो काम किया, वह यह कि एक तो उन्होंने छन्द को ‘मुक्त’ कर दिया। उसमें अपनी रचनात्मकता से उन्होंने ‘छन्द’ में पंख लगा दिये और छन्दों ने उडऩा शुरू कर दिया। ‘निराला’ और ‘पंत’ की अधिकांश रचनाएँ बाकायदा छन्दों में ही हैं, पर उन्होंने पारम्परिक छन्दों का चेहरा ही बदल दिया, जैसे- बाहर मैं कर दिया गया हूँ / भीतर पर भर दिया गया हूँ . छन्द की दृष्टि से यह चौपाई है- पर हमारा इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता। यानी चौपाई का जो स्वरूप हमारे मन में जड़ हो गया है, उससे निराला ने चौपाई को बाहर निकाला। इसी तरह- बाँधों न नाँव इस ठाँव बंधु / पँूछे ना सारा गाँव बंधु इसमें भी 16,16 मात्राओं की दो अर्धालियाँ हैं। अर्थात् चौपाई का निराला ने इस तरह का जो दोहन किया है- वह वे ही कर सकते थे। वरना साधारण कवि तो रामचरितमानस की चौपाइयों के स्वरूप से ही मुक्त नहीं हो पाता। उन्होंने अनेकानेक गीतों में जो छन्दों का प्रयोग किया है, वह अद्भुत इस दृष्टि से है कि उन्होंने मूल छन्दों की गति और लय को पकड़कर नये छन्दों का निर्माण इस तरह किया कि वे कविता के कथ्य, मनोभावों, आशाओं और निहितार्थों पर हावी न हो जाये-वरन् कविता अपने शब्द-अर्थ, भाव-भंगिमा, नाद-अनुनाद, संकेतों, बिम्बों के द्वारा जो स्वरूप रचे वह अपने ही रचे हुए छन्द के द्वारा जगमगा जायें- प्रकाशित हो जाये। इसीलिए कविता का अपना छन्द सम्प्रेषण को सहज और आत्मीय बना देता है।
निराला और पंत के बाद की जो पीढ़ी आई अर्थात् अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल -इन सभी ने छन्द के बदले हुए स्वरूप के महत्व को समझा।
इनमें से किसी ने भी छन्द का निषेध नहीं किया। अर्थात् छन्द की भूमिका, गाड़ी की उस धुरी की तरह होती गई जो किसी को दिखाई नहीं देती, किन्तु गाड़ी के पहिये उसी धुरी के कारण घूमते हैं। अज्ञेय की बहुत प्रसिद्ध पंक्तियाँ देखिए- साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं / नगर में रहना भी तुम्हें नहीं आया / एक बात पूछूँ/ उत्तर दोगे / डसना कहाँ से सीखा /विष कहाँ से पाया यहाँ साधारण बातचीत की भाषा में छन्द कितनी खामोशी से अपना काम कर रहा है- बताने की जरूरत नहीं। यहाँ कविता अपना छन्द खुद रच रही है, इसे बने-बनाये किसी विशिष्ट छन्द के उस रूप तक जाने की जरूरत नहीं, जिन्हें काव्यशास्त्रियों ने ‘छन्द’ को वर्गीकरण कर उसे किसी खास कोटि में रख दिया है। शमशेर की कविता तो संगीत और चित्रमयता से भरी हुई कविता है। इसीलिए शमशेर की कविताओं का छन्द चिर-परिचित छन्दों से दूर उनकी कविता का अपना छन्द है जिसमें भाषा अपना ही संगीत रचती है।
नागार्जुन
ऐसे कवि हैं कि जिन्होंने ढेरों कविताएँ घोर पारम्परिक छन्दों में लिखी हैं, पर उनके ये छन्द सम्प्रेषण को प्रभावी बनाने का ही काम करते हैं- और कविता को ही प्रकाशित करने का काम खामोशी से करते हैं। जले ठूँठ पर बैठकर, गई कोकिला कूक / बाल न बाँका कर सकी, शासन की बन्दूक यह छन्द ठेठ पारम्परिक रूप में ‘दोहा’ है। इसके स्वरूप को बदलने की कहीं कोई कोशिश नहीं है- फिर भी यह अपने स्वरुप में इतना विनम्र है कि अपने ‘दोहा छन्द’ होने का उसे कहीं कोई गुमान नहीं। न जाने कितने ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं। ‘अकाल और उसके बाद,’ ‘हिमालय’ जैसी बाकायदा छन्दोबद्ध
रचनाओं के अलावा जो भी उनकी अन्य रचनाएँ हैं- उनमें कथ्य के अनुरुप भाषा की अपनी लय है, भंगिमाएँ
हैं, उतार-चढ़ाव हैं। वे सारी कविताएँ जो निरे गद्य के निकट जाती दिखाई देती हैं- वे अपना छन्द खुद रचती हैं।
त्रिलोचन
और केदार की ढेरों कविताओं के इसी तरह के उदाहरण दिये जा सकते हैं। त्रिलोचन ने तो बाकायदा ‘अंग्रेजी के सानेट’ छन्द का अपनी कविताओं का आधार बनाया। सानेट के अतिरिक्त जो उनकी अन्य रचनाएँ ( ‘धरती,’ ‘ताप के ताये हुए दिन,’ आदि संग्रहों
में) हैं, वे छन्द मुक्त हैं- किन्तु ‘छन्द’ की आत्मा का निषेध नहीं करतीं। ‘चम्पा’ और ‘नगई महरा’ जैसी उनकी कविताओं में भी भाषा के उस स्वरुप को देखा जा सकता है जिसका गहरा रिश्ता उसके छन्द रुपमें अपनी तरह से रुपान्तरित होने में है। और मुक्तिबोध की कविता तो पारम्परिक छन्दों का ‘अद्भुत’ विस्तार है। चाहे वह ‘भूल-गलती,’ ‘अँधेरे में’ हो या ‘ब्रह्म राक्षस,’ या ‘चाँद का मुंह का मँुह टेढ़ा है’ हो, सभी कविताओं में पारम्परिक
छन्दों का दोहन कर उन्हें अपने कथ्य के अनुरुप ढाला है। उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं, फिर भी कुछ पंक्तियाँ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उद्धृत कर रहा हूँ- (1) पिस गया वह भीतरी / और बाहरी दो कठिन पाटों बीच / ऐसी ट्रेजेडी
है नीच। (2) भूल-गलती / आज बैठी है जिरह बख्तर पहनकर/ तख्त पर दिल के / चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक / आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर-सी / खड़ी है सिर झुकाये / सब कतारे / बेजुबाँ बेबस सलाम में / अनगिनित खंभो व मेहराबों-थमे/ दरबारे-आम में, मुक्तिबोध
की कविता छन्दों के इन विविध रूपों से भरी पड़ी है। पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यही है कि छन्द यहाँ कथ्य के प्रवाह को अपने में बाँधते हुए खुद भी परिवर्तित हो जाते हैं- और यह छन्द और कथ्य मिलकर मुक्तिबोध की कविता का वह स्वरूप बनाते हैं, जो केवल और केवल ‘मुक्तिबोध’ की कविता की पहचान बनती है।
केदारनाथ
अग्रवाल की कविता की आत्मा तो उनके उन छन्दों में ही विराजती है, जिसे वे गढ़ते हैं- बच्चे ने कंकड़ से / ताल को कँपा दिया / ताल को कँपा दिया / ताल को नहीं अनंत/ काल को कँपा दिया , मैं कहना यह चाहता हूँ कि ये सारे हिन्दी के वे कवि हैं, जिनके सहारे हिन्दी की आधुनिक कविता की इमारत टिकी हुई है। इन सारे कवियों ने कविता को ‘छन्द’ की जकडऩ से ही मुक्त नहीं किया, विषय -वस्तु, भाषा और कहन की जड़ हो गई तमाम उन भंगिमाओं से भी मुक्त किया जो धीरे-धीरे अपना अर्थ खो बैठी थीं। इसके बाद वह पीढ़ी आती है, जो आजादी के बाद जवान हो रही होती है। अर्थात् लगभग 1950 के आसपास। इनमें भी कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, और उनके कुछ बाद के केदारनाथ सिंह, श्रीकान्त वर्मा और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि में से किसी ने भी ‘छन्द’ का निषेध नहीं किया, वरन् छन्दों का अपनी-अपनी तरह उनका चेहरा बदलकर उपयोग किया। और इस काम में सबसे प्रमुख नाम है ‘रघुवीर सहाय’ का। स्थान की सीमा के कारण हर कवि की कविताओं का विश्लेषण न करते हुए मैं रघुवीर सहाय पर ही विशेष रूप से अपने आपको केन्द्रित कर रहा हूँ, क्योंकि इन सबमें रघुवीर सहाय ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी कविता से छन्दों के अद्भुत प्रयोग किये हैं। और वे प्रयोग, मात्र प्रयोग के लिए नहीं है। अपने समय के यथार्थ को दिखाने और उसके निहितार्थ को व्यंजित करने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया। वरना छन्दों के उनके ये प्रयोग चीख-चीखकर कहते कि देखो-देखो, मैंने छन्दों में किया, वो किया। प्रयोग हो जाता है। छन्द चेहरा बदलकर आते हैं- रघुवीर सहाय उन्हें अपने अनुसार अपनी कविता में बरतते हैं- और हमें पता भी नहीं चलता कि ये कौन-सा छन्द किस रूप में हमारे सामने है। उनकी एक छोटी-सी कविता है ‘आपकी हँसी’- निर्धन जनता का शोषण है / कहकर आप हँसे / लोकतंत्र का अंतिम क्षण है / कहकर आप हँसे / सबके सब हैं भ्रष्टाचारी / चारों ओर बड़ी लाचारी / कहकर आप हँसे / कितने आप सुरक्षित होंगे मैं सोचने लगा / सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हँस े।
इस कविता को, छंद को, न तो चौपाई कह सकते हैं, न दोहा। पर इसकी अपनी संरचना दोहा की तरह है, जिसकी पहली अर्धाली 16 मात्राओं
अर्थात् चौपाई की है और दूसरी अर्धाली 10 मात्राओं की है। ये छन्द कुछ-कुछ आल्हा में प्रयुक्त
छन्द होने का भी भ्रम देता है। ये रघुवीर सहाय का दिमाग ही कर सकता था। उनकी ही रचनात्मकता में, दोहा, चौपाई से मुक्त होकर 16, और 10 मात्राओं
का अपना छन्द रच सकती थी, जिसमें छन्दशास्त्र
के ज्ञान की जरूरत नहीं, किन्तु भाषा की लय और कथ्य के अनुरूप अपना ही छन्द तलाशने अर्थात् अभिव्यक्ति का अपना रूप तलाशने की जरूरत होती है। कहना न होगा, रघुवीर सहाय की कविताओं में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। और जो कविताएँ इस तरह छन्दोबद्ध नहीं दिखतीं, उन्हें गौर से देखिए तो वे कविताएँ निरे गद्य का प्रयोग करती हुई भी अपना अलग छन्द ही रचती हैं। चाहे वे कविताएँ ‘आत्महत्या के विरुद्ध,’ ‘हँसो-हँसो जल्दी हँसो’ की कविताएँ हों या ‘लोग भूल गए हैँ’ और बाद की कविताएँ हों। हम जानते हैं कि ‘रघुवीर सहाय’ ही वे कवि हैं जिन्होंने हिन्दी कविता में छन्दों की इतनी तरह की विविधता के अलावा, अखबारी भाषा के निरे गद्य को भी अपनी कविता का आधार बनाया। और यहीं से हिन्दी कविता की वह यात्रा शुरू होती है जो दुर्भाग्य से हिन्दी कविता को छन्द के निषेध की सीमा तक ले जाती है। जबकि रघुवीर सहाय स्वयं ने अपनी उन कविताओं में भी जो निरी गद्यात्मक दिखाई देती हैं- भाषा की लय और उस ताल को नहीं छोड़ा है जो कविता के छन्द का ताना-बाना बुनती हैं। इसीलिए रघुवीर सहाय की कविता में सम्प्रेषण का किसी भी तरह का कोई संकट है ही नहीं। उनकी इसी तरह की एक कविता देखिए, जिसका शीर्षक है ‘नयी हँसी’- महासंघ का मोटा अध्यक्ष / धरा हुआ गद्दी पर खुजलाता है उपस्थ / सर नहीं,/ हर सवाल का उत्तर देने से पेश्तर।
बीस बड़े अखबारों के प्रतिनिधि पूछें पचीस बार / क्या हुआ समाजवाद / कहे महासंघपति
पचीस बार हम करेंगे विचार/ हँसे बीस अखबार।
एक नयी ही तरह की हँसी यह है / पहले भारत में सामूहिक हास-परिहास तो नहीं ही था / लोग आँख से आँख मिला हँस लेते थे।
इसमें सब लोग दाँये-बाये झाँकते हैं / और यह मँुह फाड़कर हँसी जाती है।
राष्ट्र के महासंघ का यह सन्देश है/ जब मिलो तिवारी से-हँसो-क्योंकि तुम भी तिवारी हो / जब मिलो शर्मा से- हँसो-क्योंकि वह भी तिवारी है / जब मिलो मुसद्दी से / खिसयाओं/जाँत-पाँत से भरे/रिश्ता अटूट है/राष्ट्रीय झेंप का।
अब इस कविता को पढ़कर कौन कह सकता है इसका अपना कोई छन्द नहीं है। न होता तो यह कविता अपनी अलग कोई पहचान नहीं बनाती। फिर मैं कहता हूँ कि रघुवीर सहाय की ऐसी ही कविताओं के अनेक उदाहरण से सिद्ध किया जा सकता है कि यदि कविता अपनी अलग से पहचान बनाती है तो वह अपना मुहावरा अलग गढ़ती है, फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह बाकायदा छन्दोबद्ध है- या नहीं है। आज की समकालीन हिन्दी की आधुनिक कविता इसी अर्थ में आधुनिक है कि वह बाकायदा छन्दोबद्ध होकर भी छन्द के ऊपर है और वह पारम्परिक छन्दों का उपयोग करके भी अपना ही छन्द रचती है- और बाकायदा छन्दोबद्ध न होते हुए भी, निरी गद्य दिखती हुई भी, अपना खुद का छन्द रचती है। जब ऐसा नहीं होता है, तभी सम्प्रेषण
की समस्या पैदा होती है। क्योंकि या तो कविता का कथ्य अपना स्वरूप खोजने या पाने में असफल होता है या फिर बाकायदा पके-पकाये छन्द का उपयोग कर आसानी से कविता का कथ्य उस बने-बनाये छन्द के सामने आत्मसमर्पण कर देता है और छन्द ही छन्द बचा रहता है- कथ्य गायब हो जाता है।अन्तत: कथ्य और उसे अभिव्यक्ति कर सकने या उसका भाषा में अपना स्वरूप पाने के द्वन्द्वात्मक संघर्ष के अलावा कविता का रचनात्मक आत्मसंघर्ष और क्या है?
रघुवीर सहाय ने जो काम हिन्दी की कविता में गद्य के स्वरूप को लेकर किया और जिस तरह समाचार पत्रों की भाषा और बोलचाल के गद्य में कविता को सम्भव किया, उसने कविता के स्वरूप को बहुत प्रभावित किया। दरअसल, निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध के बाद हिन्दी में रघुवीर सहाय ही ऐसे कवि हैं, जिन्होंने
हिन्दी का आधुनिक कविता के रूप और स्वरूप बहुत बदला। और आज की कविता के रूप और स्वरूप पर इन तीनों कवियों का प्रभाव गहराई से देखा जा सकता है। पर रघुवीर सहाय ने गद्यात्मकता का जो नया रास्ता खोला,उसने बावजूद कविता की खास तरह की मारक अभिव्यक्ति के, दुर्भाग्य
से, एक ऐसा रास्ता खुल गया मानो कि कविकर्म एक संश्लिष्ट प्रक्रिया न होकर सरल और रैखिक प्रक्रिया हो। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। स्वयं रघुवीर सहाय ने गद्यात्मकता का दोहन अपनी कविता में जिस तरह किया है- उसकी प्रक्रिया
बहुत सूक्ष्म और कठिन है। वस्तुत: अब कविता लिखना जितना कठिन कर्म है- दुर्भाग्य
से उसको बहुत सरल और आसान मान लिया गया। लोगों ने यह नहीं देखा कि रघुवीर सहाय निरी गद्यात्मक दिखती पंक्तियों में जो वक्रता और व्यंजना पैदा करते हैं, वह आसान नहीं है।
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