बालमनोभाषिकीः
सिद्धांत और अनुप्रयोग
प्रोफ़ेसर (डा.)
रामलखन
मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर(राजस्थान)
भाषा
मानव संस्कृति की सर्वोच्च देन है। भाषा की समाज सापेक्षता का अध्ययन आजकल समाज भाषाविज्ञान
से करता है। भाषा का मौलिक संबंध व्यक्ति के साथ है, व्यक्ति
ही भाषा का आधार है। व्यक्ति ही भाषा का उत्पादक, ग्राहक
और अध्येता है। अतः भाषा का व्यक्तिपरक अध्ययन भी किया जाता है और यह काम मनोभाषाविज्ञान
करता है। भाषा का अध्ययन बालकों के संदर्भ में करना अत्यंत रोचक विषय है,
क्योंकि
विचारों के संप्रेषण माध्यम के रूप में भाषा बालक के लिए एक केंद्रीय साधन है। बालभाषा
का व्यापक क्षेत्रा समाज है। भाषाई प्रक्रियाओं के संदर्भ में बालमनोभाषिकी में न केवल
भाषिक रूपों को सीखने की प्रक्रिया और संप्रेषण के प्रकार्य के विकास पर चर्चा होती
है, अपितु संदेशों और विचारों की
विशिष्टताओं और विचित्रता के संदर्भ में, बालक
द्वारा संवेदना आदि भी इसके वण्र्य-विषय
हैं। ये विषय मात्रा बालकों के भाषा-शिक्षण
की प्रक्रिया के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, अपितु
बालभाषाविदों के लिए भी उपयोगी हैं जो उत्पादन नियमों के मार्ग ढूँढ़ते हैं और बालभाषा
के आधार पर भाषा को समझने की कोशिश करते हैं।
भाषा के उत्पादन में शरीर,
मन
और मस्तिष्क साथ-साथ सक्रिय होते हैं,
इसलिए
बालक के शारीरिक, मानसिक
तथा मस्तिष्कीय संरचना को ठीक-ठीक
समझ लेना आवश्यक है, विशेषकर
शरीर के आंतरिक अवयवों का स्वरूप और प्रकार्य भाषा अर्जन में सहायक या बाधक हो सकते
हैं। हृदय, श्वसन तंत्रा,
मांसपेशियाँ
आदि अवयव भाषा की उच्चारण प्रक्रिया को काफी प्रभावित करते हैं। इन अंगों का वय के
अनुरूप परिपक्व होना भाषा के सहज उत्पादन के लिए अति आवश्यक है,
उनमें
किसी प्रकार के दोष से भाषा दोषपूर्ण हो सकती है। होंठ और तालु क्षतिग्रस्त होने से
भी उच्चारण में विकार पैदा होते हैं। वाक्हीन में स्वर तंत्रियाँ आदि वाणिंद्रिय अपरिपक्व
होने या क्षतिग्रस्त होने से वाक् शून्यता की स्थिति पैदा होती है। इसी प्रकार मस्तिष्क
के अपरिपक्व होने या क्षतिग्रस्त होने से भी भाषिक क्षमता में कमी आती हैं।
शारीरिक
विकास में जन्म के समय औसत शिशु 7½पौंड
वजन और 19½इंच लंबा होता है। कम
सक्रिय गर्भों की अपेक्षा सक्रिय गर्भों में जन्म के समय ऊँचाई की तुलना में भार औसतन
कम होता है। सामान्यतः लड़कियों की अपेक्षा लड़के कुछ अधिक लंबे और भारी होते हैं।
जन्म के समय हृदय स्पंदन 70 प्रति
मिनट / शिशु का श्वास-प्रश्वास
40 से 45 प्रति
मिनट, जबकि वयस्क का औसतन
18 प्रति मिनट होता है। उपयुक्त विवरण का आशय यह है कि भाषा के
विकास में शरीर के अनेक आंतरिक तथा बाह्य अवयव भाषा के ग्रहण तथा उत्पादन में सक्रिय
रहते हैं। इनके साथ-साथ कुछ आंतरिक अवयव ऐसे
हैं जो कि भाषा विकास में आधारभूत भूमिका का निर्वाह करते हैं।
नवजात शिशु का स्वरोच्चारण,
सामान्यतया
रोना जन्म के समय या थोड़ी देर बाद हो जाता है लेकिन जन्म के समय से पहले भी रोने के
कुछ उदाहरण मिले है। यदा-कदा
जब प्रसव जटिल होता है तब वह गर्भाशय में रहते हुए भी रोने लगता है। जन्म से पहले रोना
बहुत ही कम होता है और उसमें खतरा होता है, क्योंकि
उसमें गर्भाशय के द्रवों के कारण गर्भ का दम घुट जाने की संभावना सदैव रहती है। जन्म-क्रंदन
बिलकुल प्रतिवर्त के प्रकार की एक क्रिया होती है और वायु के वाक्-तंतुओं
के ऊपर से शीघ्र अंदर खिंचने का फल होती है जिससे उनमें कंपन पैदा होता है। नवजात का
क्रंदन ऊँचा और शक्तिशाली होता है और उसमें सांस की नियमितता लक्षित होती है। जन्म-क्रंदन
का उद्देश्य फेफड़ों को फ़ुलाना है, जिससे
साँस लेना संभव होता है और रूधिर को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन पहुँचाना होता है।
शिशुओं के जन्म-क्रंदन में बहुत अंतर होता है।
किसी सीमा तक जन्म-क्रदंन पर शिशु की शारीरिक
दशा और प्रसव के तरीके का प्रभाव पड़ता है। प्राक्परिपक्व शिशु या ऐसे शिशु जिनकी हालत
नाजुक होती है, कराहते हुए क्रंदन करते
हैं। लंबे प्रसव में, जिससे
शिशु बहुत थक जाता है, एक खास
तरह का छोटा और कमजोर क्रंदन होता है। इसके विपरीत, प्रसव
जब जल्दी होता है और शिशु को एकाएक बाहर फेंक देता है तब क्रंदन तीखा और गहरा होता
है।
क्रदंन
संकेत है शारीरिक बेचैनी का
जन्म
के थोड़ी देर बाद शिशुओं के क्रंदन में तारत्व, तीव्रता
और सातत्व की दृष्टि से अंतर होता है। तब कुछ सीमाओं के अंदर यह बतलाना संभव होता है
कि बात क्या है। जब क्रंदन तीखा, रुक-रुक
कर और एकसुरा होता है तो उसका सामान्य मतलब सामान्य शारीरिक बैचेनी या भूख होती है।
यदि बेचैनी दूर न हुई होती है तो क्रंदन अविराम चलता है। जब बैचेनी पीड़ा में बदल जाती
है तब क्रंदन का तारत्व बढ़ जाता है। शारीरिक अवस्था प्रायः भूख पीड़ा,
बैचेनी
या थकान के कारण शिशु क्रंदन करता है। क्रंदन प्रतिवर्तः होता है और किसी निश्चित उद्दीपन
की अनुक्रिया होता है। पीड़ा, भूख
या उदर-शूल में रोने के साथ होने वाली
शारीरिक चेष्टा द्वारा संकेतन एक प्रकार की भाषा है। अर्थात् चूँकि संवेदन का सबसे
अच्छा अध्ययन अंतर्दर्शन की विधि द्वारा होता है और अंतर्दर्शन बच्चे के बोलना सीखने
से पूर्व संभव नहीं होता, इसलिए
सांवेदनिक क्षमता की उपस्थिति या अनुपस्थिति को निर्धारित करने की प्रक्रिया बालकों
के भाषिक व्यवहार का सशक्त माध्यम है, सांवेदनिक
उद्दीपनों की वह गत्यात्मक अनुक्रिया जो सामान्यतया ज्ञानेंद्रियों के उद्दीपन से पैदा
होती है।
भाषा
विकास के दैहिक आधारों में मस्तिष्कीय आधार, स्नायविक
या तंत्रिका तंत्रीय आधार, जैविक
आधार, संवेदनात्मक आधार तथा
कार्यात्मक आधार प्रमुख हैं। भाषा उत्पादन में भाषा और मस्तिष्क की प्रगाढ़ता का व्यापक
महत्व है। मस्तिष्क की भाषिक सृजना की प्रक्रिया एक गूढ़ रहस्य बनी हुई है। व्यवहार
वादियों के अनुसार, मस्तिष्क
मात्रा एक ग्राही यंत्रा है, जबकि
संज्ञानवादियों (Cognitism)
के
अनुसार मस्तिष्क अनेक संभावनाओं से युक्त एक सृजनशील युक्ति है,
भाषा
एक सृजनात्मक साधन है। चिंतन, कल्पना
एवं विचारों के उत्पादन तथा विकास में भाषा का विशिष्ट योगदान है। मस्तिष्क के संज्ञानात्मक,
प्रभावात्मक
और नाड़ीतंत्रा की दैहिकी के अनेक अद्यतन परीक्षणों से नई बातें सामने आ रही हैं।
मस्तिष्क
में भाषा के क्षेत्र को निश्चित करने में दो व्यक्तियों वर्निक (1847)
ब्रोका
(1860) का विशेष योगदान रहा है
।
इन दोनों तंत्रिाका विज्ञान के विशेषज्ञों ने मस्तिष्कीय आद्यात से ग्रस्त व्यक्तियों
का अध्ययन कर इस विषय में बड़ी सनसनीखेज और महत्वपूर्ण अन्वेषणात्मक बातें कहीं,
यद्यपि
इनका आधार अभी तक चिकित्सीय निदान की तरह रहा। ब्रोका का क्षेत्रा मस्तिष्क के बारे
मे पूर्व गोलक (Lobe) के निम्न और पश्चभाग में
क्षति के आधार पर खोजा गया है। यह भाग बाएँ कान के ऊपर सामने की ओर होता है,
इसमें
उच्चारणात्मक भाषा का प्रभाव माना गया है। इसके विपरीत वर्निक ने शंखपाल (Temporal Lobe) के
उच्च और पश्चभाग पर अपना अध्ययन केंद्रित किया, जो
कि बाएँ काने के पीछे ऊपर है। वर्निक ने अपने निष्कर्षों में कहा कि ब्रोका का क्षेत्रा
उस क्षेत्रा के सामने अवस्थित है, जो उच्चारण
के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें मुँह, जीभ
और तालु शामिल है। ये सभी उच्चारण अवयव उच्चारण के लिए आवश्यक गति के अनुक्रय का भंडार
माने जा सकते हैं जबकि वर्निक के क्षेत्रा में श्रवण का प्रतिनिधित्व होता है जिसमें
भाषा की ध्वनियों को अलग-अलग
वाक्-साँचों में पहचाना जाता है। इनमे
पहला औपचारिक ध्वनिविज्ञान तथा दूसरा श्रावणिक ध्वनिविज्ञान से संबंधित है।
भाषा
के लिए कौन सा भाग उत्तरदायी
इस
संदर्भ में, मनोभाषिकी के मस्तिष्कीय
प्रबलन (Brain dominance) और हस्तता
(Handedness)
सिद्धांतों
की चर्चा की जा सकती है। मनोभाषावैज्ञानिक अन्वेषणों से सामने आया है कि भाषा के लिए
भी बायाँ भाग उत्तरदायी है। मनुष्यों में 93
फीसदी
व्यक्ति दक्षिण हस्त (Right Handed) होते
हैं। मनुष्य में दक्षिण हस्तता केवल एक हाथ के लिए वरीयता या संयोग मात्रा नहीं हैं,
अपितु
लिपमैन ने अपने शोध कार्यों से पता लगाया कि बायाँ गोलार्ध (hemisphere) सीखी
हुई गतियों के साँचों के लिए प्राथमिक भंडार की तरह कार्य करता है। मानव-शिशु
में यह वरीयता देखी जाती है कि 93 फीसदी
बच्चे अपना सिर दाएँ ओर घुमाते है और जिससे बाद के वर्षों में हस्तवरीयता संब)
होती
है और कालान्तर में यह वरीयता स्थायी हो जाती है। यह कारण है कि
93 फीसदी लोग दाएँ हाथ का इस्तेमाल करने वाले होते है और औरतें
पुरुषों की अपेक्षा अधिक दक्षिण हस्त होती हैं।
वाक्
(Speech)
के
लिए वाक्-मस्तिष्क की वरीयता के संदर्भ
में औरतों की वाचालता को भी देखा जा सकता है क्योंकि दक्षिण हस्त वरीयता वाले वाक्
के लिए हमेशा 60 फीसद वाम-मस्तिष्कीय
होते है, जबकि
40 फीसदी दक्षिण मस्तिष्कीय। इस तरह 96
फीसदी
व्यक्ति भाषा के लिए वाक् प्रबलन वाले होते हैं। किमूरा ने सिद्ध किया कि दायाँ कान
भाषा ग्रहण के लिए बाएँ की अपेक्षा ज्यादा संवेदन शील होता है जबकि बायाँ मस्तिष्क
रंगों और चेहरों को पहचानने में सक्षम हैं। भावात्मक व्यवहार,
स्मितीय
संवेदना भी इस पर अधिक निर्भर है। बालकों में बोलना दो बातों पर निर्भर करता है;
उच्चारण
की क्रियाविधि (Mechanism of Articulation) और विचारों
की क्रियाविधि (Mechanism of Ideas) मनुष्य
उच्चारण क्रियाविधि के साथ ही पैदा होता है, केवल
उसे (उच्चारण की क्रिया विधि को)
नियत्रांण
करना सीखता है। यह कार्य मस्तिष्क के दोनों भागों में होता है जहाँ होठ और जीभ को नियंत्रित किया जाता है। जन्म के समय
यह भाग बिलकुल कोरा रहता है। शीघ्र ही यह इकाइयों से भर जाता है और तंत्रियों का निर्माण
शुरू होता है। इन तंत्रिायों के चार प्रतिरूप बनते हैं;वनि-प्रतिरूप,
शाब्दिक
प्रतिरूप, दृश्य प्रतिरूप और हस्तश्रम
प्रतिरूप, जो क्रमशः सुनने,
बोलने,
पढ़ने
तथा लिखने के लिए सहयोगी बनते हैं। लिखना मस्तिष्क के आधे भाग द्वारा ही नियंत्रित
होता है।
आरंभ
में यह ऐच्छिक और बाद में वह स्वनियंत्रिात कौशल हो जाता है। हम क्या लिखना चाहते हैं,
यह
निर्णय हमारे केंद्रीय मस्तिष्क के प्रारंभिक आवेग पर निर्भर होता है,
जो
पूरे नाड़ी संस्थान को जोड़कर विचार और भाषण तथा लेखन कौशलों में पारंगत बनाता है।
तात्पर्य है कि बाल-मस्तिष्क उसकी संवेदनाओं
और ज्ञान का केंद्र है। मस्तिष्क की रचना जटिलतम है। भाषा-ग्रहण,
उत्पादन
और बोधन की प्रक्रिया उसकी सूक्ष्मतम और सृजनात्मक अन्यतम विशेषता है। चिकित्सीय दृष्टि
से ही नहीं, वरन शिक्षण एवं भाषा अधिगम
के संदर्भ में भी मस्तिष्क के मनोभाषिक पहलुओं पर व्यापक अन्वेषण की महती आवश्यकता
है। भाषा के स्नायविक आधार पर चर्चा करने से पूर्व तंत्रिाका विज्ञान पर प्रकाश डालना
परमावश्यक है। मानव शरीर संपूर्ण संवेदनाओं के अध्ययन का एक माध्यम हो सकता है। विविध
तंत्रिाकाओं के द्वारा ही मस्तिष्क ज्ञान तथा अनुभवों के संदेशों को ग्रहण करता है।
इसलिए इन तंत्रिाकाओं को संदेश वाहक कहते हैं।
भाषा
के श्रवण में कान की तंत्रिकाएं, लेखन
में हाथ की तंत्रिकाएँ, वाचन
में आँख की तंत्रिकाएँ, अर्थग्रहण
में मस्तिष्क की तंत्रिकाएँ विशेष रूप से उत्तरदायी हैं। बाल,
भाषा
और विकास में भी ये तंत्रिाकाएँ साधक या बाधक बन सकती हैं। बाल विशेष में भाषा का कार्य
एक प्रकार की निजी आंतरिक गत्यात्मक प्रणाली के रूप में संपन्न होता है। ऐसी अवस्था
में ‘प्रति विभक्त’
बाह्य
तंतुओं की गत्यात्मकता की भी महत्ता है, जो
मस्तिष्क और स्नायु समूह के बीच संवेगों का संवहन करती है। इसी से ही होकर उर्ध्वगामी
और बहिर्गामी स्नायुसूत् आते हैं। भाषा के उच्चरित और लिखित रूपों के साथ ही सांवेदिक
प्रभाव स्नायुपुंज से होकर गति और सान्निध्य क्षेत्र तक जाते हैं। ऐसी अवस्था में वाचिक
अवयवों को उक्ति प्रक्रिया में सक्रिय रखने वाले प्रवाहपुंज तक आवर्तित और परावर्तित
होते हैं। लेखन की प्रक्रिया में भी यहीं होता है। उपवाचिक उक्तियों में वे लघु चक्रित
होकर सक्रिय होते हैं। पूर्णतः सक्रिय न होने पर घटनाएँ उपचेतन का अंग बनकर रह जाती
हैं।
परिणामस्वरूप
वे दिमाग में क्षणिक रूप से आकर या जिह्वा को इंगित करके ही खो जाती हैं। दिमाग में
पूरी सक्रियता के साथ आने पर वे उत्पादित और सक्रिय होने के साथ ही शब्दिक आवरण में
प्रवेश करके चेतना तक वाचिक प्रतीकीकरण के लिए आती है। इसी प्रकार अवस्थाओं और धारणाओं,
अनुभवों
और प्रक्षेपों का ठीक रूपायन होता है। बालकों की भाषिक प्रक्रिया मानसिक प्रतिवेदों
(Neurosis)
और
उनके सूत्र-युग्मों (Neuro-Twins) से
भिन्न नहीं है। प्रत्येक ‘कालिक
अंतराल(periodical interval)’ में
कुछ नये तत्व इसमें उत्पन्न होकर विस्तृत प्रयोगों में आते हैं। मानसिक प्रक्रिया या
उत्तेजना भाषिक अन्विति गुंफन के लिए बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। मानसिक प्रतिवेदन
या स्नायविक धारा शक्ति संवेगों की सृष्टि करती है। मस्तिष्कगत भाषा आयामों में दक्षता
प्राप्त करने के बाद ही कोई शिशु बोलना सीखने की स्थिति में अपने को पाता है। वैसे
भी सीखने का अर्थ बच्चे का अपने परिवेश और जीवन के साथ समायोजन करना है।
भाषिक
ध्वनियों के उत्पादन के लिए शरीर का सरल ऊर्ध्वगत संस्थापन अत्यंत आवश्यक है। यही एकांगिता
के विशिष्टीकरण में भी सहायक है। दाहिने हाथ का समायोजन आकस्मिक होकर भी धीरे-धीरे
अनुकृत होकर एक स्थायी मानव-विधान
का रूप धारण कर लेता है। फलतः गत्यात्मक और वाचिक प्रक्रिया में बाएँ मस्तिष्क का प्राधान्य
होता है। द्विविध दृश्यों के लिए आज के विकसित मस्तिष्क की ही आवश्यकता है। इसी क्रम
में मनुष्य ने त्रि-आयामिक क्षमता का अर्जन
किया है और आज वह अपनी भाषा के माध्यम से आकार, विस्तार
रूप, गठन आदि की भी अभिव्यक्ति करता
है। दृश्य और श्रव्य प्रभावों में सहकारिता के कारण वह अपने सारे अवयवों पर नियंत्राण
करता है और उसमें सक्रिय मस्तिष्क एवं अंगुलियों की सहायता लेता है। हाथ,
कान,
आँख
आदि के कारण ही मानव मस्तिष्क में पूर्णता का संकलन हुआ है।
भाषा
के जैविक उपगम के अंतर्गत विकासमान शिशु में भाषा
800 भारतीय बाल साहित्य कोश कौशलों का विकास भी महत्वपूर्ण बिंदु
है। निसंदेह बालक तब तक भाषा नहीं सीख सकता जब तक कि वह आपस में भाषा बोलने वालों के
बीच बड़ा नहीं होता अर्थात् अनुकरण भाषा-अर्जन
की प्राथमिक आवश्यकता है। पर, इसका
मतलब यह नहीं कि भाषा कभी भी सिखाई जा सकती है। इस बात के काफी उदाहरण हैं कि मस्तिष्क
तब तक परिपक्व नहीं होता जब तक कि भाषा सरलता से सीखी जाती रहती है। पर,
एक
बार यह परिपक्व हो जाये तो क्रियाविधि की स्थिति पक्की हो जाती है अर्थात् इसके बाद
भाषा अर्जन की प्रक्रिया में पुनव्र्यवस्था नहीं हो पाती। इस प्रकार की क्रिया विधि
जैविकी में पाई जाती है जो तंतुओ के भ्रूणावस्था के इतिहास से संब)
है।
विकास के दौरान तंतु एवं कोशिकाएँ अधिक-से-अधिक
विशेषीकृत होती जाती हैं और उनके भौतिक प्रकार्य भी उसी तरह विशेषीकृत होते जाते हैं,
इसे
विशेषीकरण कहते हैं। अविशेषीकरण तंतु हमेशा पुनः समायोजन की क्षमता रखते हैं। विशेषीकरण
का अंत अर्थात् लचीलेपन का ”ास /
भाषा
का उदयकाल मस्तिष्क में परिपक्वता की स्थिति से नियंत्रिात होता है। दो से दस/बारह
वर्ष के बीच बालक का मस्तिष्क भाषार्जन की उस स्थिति में होता है,
यह
सुविधा हृास के कारण होती है और उत्तर किशोरावस्था में मस्तिष्क में कुछ ऐसा होता है
जो भाषा सीखने को असंभव / कठिन
बना देता है।
भाषिक
संवेदना
बाल
मनोभाषिकी के विकास का अन्य महत्वपूर्ण आधार भाषिक संवेदना है। शरीर के कान,
आँख,
मुख
आदि अवयव ज्ञानेंद्रिय माने जाते हैं। इन्हीं बाह्य इंद्रियों से प्रत्येक ज्ञान काल
में संवेदन प्राप्त होता है। बाद में, मस्तिष्क
से इन संवेदनों का प्रत्यक्षण होता है। प्रत्यक्षण के बाद ही संप्रत्ययों का निर्माण
होता है, तब जाकर चिंतन की प्रक्रिया
प्रारंभ हो जाती है। अर्थात् बालक के चिंतन का आधार भी संवेदन ही है। संवेदन दो प्रकार
का होता है;आनुभविक संवदेन और स्पर्श जनिक
संवेदन। आनुभविक विकास की संवेदना की अवस्था में जिन संवेगों का अनुभव होता है वे हैं;वेमा,
भय,
ईर्ष्या,
स्नेह,
जिज्ञासा
और हर्ष। इनमें से प्रत्येक की अभिव्यक्ति बाल्यावस्था में भली-भाँति
विकसित होती है और प्रत्येक को उभारने वाले उद्दीपन होते हैं जिनका अनुभव अधिकांशतः
बालकों को सामान्य रूप से होता है। क्रोध सर्वाधिक सामान्य संवेग है,
क्योंकि
छोटे बालक के जीवन में क्रोध को उभारने वाली परिस्थितियाँ बहुत होती हैं और अंशतः इस
कारण कि छोटे बालक को जल्दी ही मालूम हो जाता है कि क्रोध चाही हुई चीज को तुरंत पाने
काऋ चाहे वह किसी का ध्यान पाना हो चाहे किसी इच्छा की पूर्ति हो;एक
आसान तरीका है। बालकों को खेलने की चीजों को लेकर लड़ाई, शौच
और कपड़े पहनने के बारे में झगड़ा, जिस
काम में मन लगा हुआ हो उसमें बाधा पड़ना, इच्छाओं
की पूर्ति में बाधा, दूसरे
बालक का जोरदार हमला, किसी
पसंद की चीज का दूसरे बालक द्वारा ले लिया जाना आदि परिस्थितियाँ प्रमुख हैं।
बालकों
में भाषिक विकास की प्रक्रिया में क्रोध की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब छोटा बालक क्रोधित
होता है तब वह अपने क्रोध को तीव्र उद्रेकों या मचलने के रूप में प्रकट करता है। मचलने
में बालक रोता है, चिल्लाता
है, पैर पटकता है,
लात
मारता है, ऊपर-नीचे
उछलता है, हाथ चलाता है,
फर्श
पर लोटता है, साँस रोक लेता है,
शरीर
की माँसपेशियों (विशेष कर मुँह)
को
कड़ा कर लेता है या बिलकुल ढ़ीला छोड़ देता है। ये सब भाषिक विकास की आधारभूत प्रक्रियाएँ
हैं। बालक की भाषा के विकास के अध्ययन के लिए कतिपय सिद्धांतों की आवश्यकता है। इसका
प्रमुख कारण यह है कि भाषार्जन के संबंध में मनोवैज्ञानिकों,
दार्शनिकों
और भाषा वैज्ञानिकों में पर्याप्त मतभेद हैं। इन मतभेदों के पीछे कुछ मूलभूत समस्याएँ
हैं जो भाषा विकास की सतत प्रक्रिया और उसमें सातत्यता के अभाव से जुड़ी हैं। दूसरी
समस्या भाषिक क्षमता के जन्मजात या अर्जन की है। चामस्की जैसे विद्वान इसे जन्मजात
मानते हैं तो स्निकर जैसे व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक इसे अर्जित वस्तु मानते हैं। तीसरी
समस्या संज्ञानवादी विद्वानों और अन्य वैज्ञानिकों द्वारा उठाई गई है। वे जानना चाहते
हैं कि भाषा की समझ और उत्पादन की प्रक्रिया क्या है और किस प्रकार सम्पन्न होती है।
भाषा की समझ से तात्पर्य, श्रोता
कथन का श्रवण करके किस प्रकार मानसिक रूप से, सुनी
हुई सामग्री का विश्लेषण, व्याख्या
और अर्थ निर्णय करता है। उत्पादन का अर्थ है- किसी
उद्देश्य की पूर्ति का सूचना के संप्रेषण के लिए वक्ता द्वारा भाषा का उपयोग किस प्रकार
किया जाता है। और बालक के भाषार्जन की सातत्यता का निर्धारण,
बालक
के विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक के अध्ययन से जुड़ा हुआ है।
बालकों
में भाषा विकास के अध्ययन के लिए सर्वप्रथम
1928 में विलियम स्टर्न ने विद्वानों का ध्यान खींचा। इस अध्ययन
का नाम ‘पीडियो लिंग्विस्टिक्स’
अर्थात्
बाल भाषा विज्ञान रखा गया। कालांतर में इसी
का नाम अमेरिका में विकासात्मक मनोभाषाविज्ञान रखा गया। उनमें लेन्नंजर,
मिलर
एंड मिलर (1972), ग्रिम
(1973) प्रमुख हैं। इस काल में विकसित
हुई विद्या कोडीकरण और विकोडीकरण के अध्ययन में ऑसगुड और सेबेओक (1965)
और
स्लामा कजाकू (1966) प्रमुख
हैं, जिनका संप्रेषण के संदर्भों में
अध्ययन उल्लेखनीय है। वस्तुतः बाल मनोभाषिकी प्रयोगोन्मुख विधि को प्रमुखता देने वाला
विज्ञान है, जिसका उद्देश्य बाल भाषा
विकास का अध्ययन करना है। फोडर, जेन्किन्स
और सपोर्टा ने 1967 में मनोभाषा की व्याख्या
करते हुए कहा कि यह विषय भाषार्जन, भाषा-उत्पादन
और समझ की प्रक्रिया का अध्ययन है। चूँकि भाषा जैविक और सामाजिक संदर्भों में विकसित
होती है इसलिए सामाजिक आचरण के प्रतिदर्शों का भी अध्ययन करना चाहिए। सामाजिक आचरण
के प्रतिदर्श, आचरण-विधि
और सांस्कृतिक परंपराएँ आदि के माध्यम से ही सीखी जाती हैं। इस दृष्टि से बालमनोभाषिकी
अंतर-अनुशासनिक प्रकृति का विषय है
जो समाजशास्त्रा, संस्कृति,
नृविज्ञान,
मनोविज्ञान,
गणित
और चिकित्सा शास्त्रा से भी संबंधित है। साथ ही, यह
अर्थविज्ञान, मनोवैज्ञानिक समस्याओं,
मनो-सामाजिक
और परा भाषावैज्ञानिक प्रश्नों के अध्ययन से जुड़ा विषय भी है।
बालक
के भाषाविकास के अध्ययन की विधियाँ
बालक
विकास का अध्ययन करने के लिए कई विधियाँ उपयोग में लाई जाती हैं। इनमें प्रमुख विधियाँ
निरीक्षण और डायरी लेखन हैं। निरीक्षण विधि द्वारा और प्रत्येक कथन के भाषिक व्यवहार
का निरीक्षण और प्रत्येक कथन का रिकार्ड (लियो
पोल्ड के अध्ययन 1939 से
1949 उल्लेखनीय) करना
है। कथनों की रिकार्डिंग के लिए टेप-रिकार्डर
और वीडियो रिकार्डर उपयोग में लाए जाते हैं।
1. निरीक्षण विधिः निरीक्षण विधि
द्वारा किये जाने वाले अध्ययनों के तीन चरण हो सकता हैं।
(क)
भाषिक
व्यवहार का रिकार्ड करना,
(ख)
कथनों
का संदर्भ ज्ञात करना, उनकी
व्याख्या और अर्थ निर्णय करना।
(ग) रिकार्डेड
सामग्री के आधार पर भाषार्जन प्रक्रिया के बारे में अनुमान लगाना। बालक द्वारा बोले
गये शब्द और वाक्यों के अतिरिक्त बालक के संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास,
भाषाविकास
की दिशा और भाषा-ज्ञान का भी अध्ययन करना।
2. डायरी विधिः अनेक बाल मनोभाषावैज्ञानिकों
द्वारा बालक के भाषायी विकास का अध्ययन करने के लिए शिशु के जन्म के समय से उसकी प्रगति
और विकास को डायरी में नोट किया जाता हैं। डायरी से प्राप्त सामग्री की व्याख्या और
विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। जाँपिया जैसे मनोभाषावैज्ञानिकों से
इसी विधि द्वारा अपने अध्ययन किए हैं।
3. प्रयोगात्मक विधिः इस विधि द्वारा
अध्ययनों को वैज्ञानिक, व्याख्या
को एकरूपता प्रदान करने का प्रयास, अध्ययन
के प्रारूप का विकास और शब्दावली का निर्णय कर अर्थ और निष्कर्षों तुलनात्मक अध्ययन
करना। इस विधि में निम्नलिखित प्रारूप व्यवहार में लाया जा सकता है;
(क)
अध्ययन
को शीर्षकों में विभाजित करना।
(ख)
अध्ययन
का सार तैयार करना।
(ग)
भूमिका
में संदर्भ, अध्ययन का उद्देश्य आदि
शामिल करना।
(घ)
विधि-उपकरण,
प्रयोज्यों
की संख्या, प्रकार आदि का विवरण तैयार
करना।
(ड़)
रिकार्डेड
सामग्री से प्राप्त निष्कर्षों को सारणी रूप में तैयार करना।
(च)
अध्ययन
का विवेचन और चरों के कारण निष्कर्ष को प्रभावित करना।
यह
विधि आधुनिक विधि है जो कि प्राइडू के अध्ययन ‘दि
एक्सपेरीमेंटल स्टडी ऑफ लेंग्वेजः 1984’ पर
आधारित है। बालक की भाषिक अभिव्यक्ति और व्यवहार की अवस्था को जानने में
‘इंगिति’ भी हमारी
महत्त्वपूर्ण सहायता करती है। इसके सभी कार्य-संवेग
और आवेग की अभिव्यक्ति, उक्त
शब्दों में शक्ति का पुनःस्थापन और शब्द के अतिरिक्त एक विशिष्ट माध्यम से कथन शिशु
में गतिशील रहते हैं। बाह्य और आंतरिक उत्तेजनाओं के प्रति सहज शारीरिक प्रतिक्रिया
के रूप में इंगिति का प्रयोग बच्चा बोलना सीखने से पूर्व करने लगता है। भाषा का प्रयोग
सीखने के बाद वह अपने द्वारा प्रयुक्त शब्दों में अतिरिक्त शक्ति के संचार के लिए इंगिति
का प्रयोग करता है। किसी वस्तु के नामकरण की जरूरत होने पर वह उसकी ओर इंगित करता है
और अग्रसर होता है।
बाद
में, धीरे-धीरे
इससे वह परिचित हो जाता है कि आवश्यकता के मुताबिक उसका नाम लेकर शाब्दिक व्यवहार में
प्रवृत्त होने लगता है। उक्ति की प्रणाली के समानांतर ही वह व्यावहारिक प्रणाली को
भी सीखता है। जब शब्दों का अभाव उसे बाध्य करता है, तब
इशारे के माध्यम से ही वह उस अभाव की संपूर्ति करता है। शिशु इंगिति के अध्ययन पर आधृत
निष्कर्ष पर विचार व्यक्त करते हुए ज्वायस एल. किलिंकस
का कहना है कि ‘अधिकांशतः लोगों के लिए
इंगिति उनके सहज सांवेगिक तत्वों एवं शक्ति-संस्थापन
और विनिमय में विश्लेषणात्मक तत्वों को बचाए रखता है।’ बच्चों
में होने वाले भाषा-विकास की दिशा में किए
गए कार्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि शिशु के जीवन में आने वाला प्राथमिक भाषिक वातावरण
ही वह कारण है, जो उसके भाषिक शिक्षण
को प्रभावित करता है। इस दृष्टि से पारिवारिक परिवेश के अध्ययन का प्रमुख स्थान है।
बोसार्ड ने शिशु के पारिवारिक परिवेश का बहुत ही सूक्ष्मता से अध्ययन किया है। उनका
मानना है कि ‘पारिवारिक व्यवस्था और
प्रणाली में बहुत अधिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं, जो
स्तरीभूत रूप में शिशु के संपूर्ण भाषिक व्यवहार को कई दिशाओं में मोड़ती हैं जिसका
प्रमुख आधार परिवार की सामाजिक-आर्थिक
स्थिति है। जिस परिवार में शिक्षित लोगों की संख्या अधिक है या जो सामाजिक दृष्टि से
सुसंस्कृत परिवार की कोटि में आता है, उसमें
शिशु की भाषिक क्षमता का सहज विकास अत्यंत सरल और गुणात्मक रूप में होता है।
उपभोक्तावादी
संस्कृति से उत्पन्न दूरियाँ
आधुनिकीकरण
और उपभोक्तावादी संस्कृति ने मातृत्व और शिशुत्व के बीच काफी दूरियाँ बना दी हैं,
जिसका
प्रभाव शिशु के व्यक्तित्व पर पड़ता है। कुछ परिवार ऐसे भी हैं,
जिनमें
बच्चों की देखरेख का भार प्रत्यक्ष रूप से उनके माता-पिता
पर न होकर, नियुक्त दासियों या प्रशिक्षिकाओं
पर होता है। इस स्थिति में अपेक्षा के साथ ही सहज व्यवहार में एक प्रकार का अभाव भी
लक्षित होता है। जिस परिवार में बच्चों को शुद्ध भाषिक व्यवहार की शिक्षा दी जाती है,
उसमें
शिशु को बाधित प्रक्रिया का बोध होता है। ऐसी अवस्था में भाषिक व्यवहार सहज रूप से
निर्मित या पोषित न होकर एक निर्धारित प्रणाली के अनुसार व्यतिक्रमित रूप में होता
है। बालक के भाषायी विकास का अध्ययन जन्म से लेकर सात वर्ष की आयु तक किया जाता है।
भाषा विकास की प्रक्रिया को भली-भाँति
समझने के लिए बाल मनोभाषा-वैज्ञानिकों,
विलियम
स्टर्न, (1928) कारमाइकेल
(1946), ऑसगुड और सेबेऑक (1965)
और
स्लामा ज़्दाक(1966) ने इसके
दो भाग किए हैं;जन्म से चार वर्ष की आयु तक और
चार-पाँच वर्ष से सात वर्ष की आयु
तक।
बाल-मनोभाषाविकास
की अवस्थाएँ : आरेख-1
अवस्था
आयु भाषा विकास
प्राथमिक जन्म से एक वर्ष तक क्रंदन,रूदन,बबलाना,अनायास ध्वन्यात्मक
प्रतिक्रियाएँ
करना,सुनी हुई ध्वनियों
का अनुकरण करना।
प्रथम अवस्था
1.0 वर्ष के उपरांत
(12 महीने
से 18 महीने तक)
वास्तविक
भाषा का आरंभ
द्वितीय अवस्था
1.6 वर्ष से 2.0 वर्ष तक शब्द या शब्दों के अर्थ
के प्रति सजगता का विकास,
(18 महीने से 24 महीने) एक पदीय वाक्य
का आरंभ,
आसपास
की वस्तुओं के
नामादि
पूछने की क्रिया और उनके भेद।
तृतीय अवस्था
2.0 वर्ष से 2.6 वर्ष तक दो या दो से अधिक पदों
के वाक्य,
संज्ञा
शब्दों की
(24 महीने से 30 महीने तक) बहुलता,क्रियां और विशेषण
शब्दों के साथ विभक्तियों
के प्रयोग का आरंभ, रंगों की जानकारी
आदि।
चतुर्थ अवस्था
2.6 से 4 वर्ष तक विचारों का संयोजन, कार्य कारण संबंध
का ज्ञान,
(30 माह से 54 माह तक) नए शब्दों को व्युत्पन्न
करने की क्षमता का विकास, संयुक्त वाक्यों का प्रारंभ।
बालाभाषा
विकास की इस मनोभाषा वैज्ञानिक संज्ञानात्मक अवधारण को कुछ विस्तार से समझ लेना अधिक
समीचीन होगा। इस अवधारणा के विचारकों और विद्वानों का मानना है कि बालक के जीवन का
प्रथम वर्ष भाषार्जन की तैयारी का समय माना गया है। प्रथम रुदन के बाद से ही रुदन-क्रंदन
की भाषा द्वारा शिशु अपनी आवश्यकताओं की भावाभिव्यक्ति आंरभ कर देता है। क्रमशः बबलाना,
बलबलाना,
कूकना
जैसी भाव-ध्वनियों का उच्चारण और स्वरीकरण
भाषा के विकास और अर्जन में सहायक बनने वाली क्रियाओं का विकास संभव होता है। एक वर्ष
की आयु होते-होते बालक में वाक् का आरंभ होने
लगता है।
इस
अवस्था में रुदन, बबलाना,
अर्थहीन
अनुकरण और वाक् रहित समझ मिलकर एक इकाई का निर्माण करते हैं। ध्वनियों के उच्चारण आरंभ
होने के संबंध में मेरा मानना है कि व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में पहले ओष्ठीय और
उनके बाद काकल्य या तालव्य ध्वनियों का उच्चारण बालक सीखता है। ओष्ठीय ध्वनियों में
भी सर्वप्रथम ‘प’
ध्वनि
का उच्चारण बालक सीखता है और फिर ‘म’
ध्वनि।
इसका कारण ओष्ठीय ध्वनियों की उच्चारण प्रक्रिया का आसान होना है। ये ध्वनियाँ सर्वाधिक
कोमल, सरल एवं स्वाभाविक होती
हैं। ‘ललाना’
जैसी
ध्वनियाँ शिशु के शारीरिक प्रयासों, स्वरात्मक
उच्चारण, विशेष रूप से होंठों और
काकल्य ध्वनियों पर निर्भर होती हैं। ओम्बे्रडेन और इर्विन का भी यही मानना है कि भाषा
का विकास काकल्य की माँसपेशियों के अधिक तनाव से कम तनाव की ओर और होठों द्वारा उच्चरित
ध्वनियों से आरंभ होता है। उन्होंने भाषा की ध्वनियों के उच्चारण आरंभ करने का काम
मस्तिष्क के वाणी-केंद्र का क्रियाशील होना
माना है। इसके बाद अनुकरण द्वारा भाषा अधिगम आरंभ हो जाता है। समवेत रूप से बालक में
ध्वनियों की उच्चारण-प्रक्रिया ये हैं-
1) प्रथम
तीस महीनों में उच्चरित की जाने वाली ध्वनियों में स्वर (बाधा
रहित उच्चारण), (अबाध)
ध्वनियाँ,
व्यंजन
(बाधा सहित उच्चारण),
सबाध
ध्वनियों से अधिक होती हैं, क्योंकि
स्वर ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से निकलने वाली प्राणवायु बिना किसी बाधा का
सामना किए बाहर निकलती है।
2) फेफड़ों
से निकलने वाली श्वास वायु के वाग्यंग में कोई बाधा का सामना न करने के कारण प्रथम
दो वर्षों में स्वर ध्वनियों का विकास पहले और धीरे-धीरे
होता है।
3) इस
अवस्था में व्यंजन ध्वनियों से स्वर ध्वनियाँ पाँच गुना अधिक होती हैं।
4) व्यंजन
ध्वनियों के विकास का वक्र पेराबोलिग होता है अर्थात् पहली सीखने की प्रगति अधिक होती
है और एक सीमा पर पहुँचकर कम होने लगती है।
5) प्रथम
30-32 महीनों में व्यंजन ध्वनियों की प्रगति स्वर ध्वनियों की आवृत्ति
के समान नहीं होती।
6) प्रथम
वर्ष में शिशु स्वर अधिक और व्यंजन कम बोलता है।
7) 30-32
महीने
की अवस्था में बालक प्रायः सभी स्वरों का उपयोग करने लगता है किंतु व्यंजनों की संख्या
मात्रा 16-20 होती
है।
8) प्रथम
दो महीनों में शिशु के ध्वनिकोश में लगभग
7.5 विभिन्न स्वनिम होते हैं जो क्रमशः बढ़कर
30-32 माह तक 27 से
35 तक हो जाते हैं। ये स्वनिम लगभग वही होते हैं जो वयस्क भाषा
में प्रयोग किए जाते हैं।
9) अनुनासिकता
का विकास आयु के विकास के साथ होता है। प्रथम
30-32 महीनों में संघर्षी स्वनिमों की कमी होती है।
10) पाश्र्व
व्यंजन और काकल्य व्यंजन प्रारंभ में अधिक होते हैं। लगभग 87
फीसदी
व्यंजन इन्हीं स्वनिमों से युक्त होते हैं और कुछ वत्स्र्य स्वनिम
9.7 फीसदी वयंजनों के आधार होते हैं। अन्य व्यंजन,
जिनका
उच्चारण वागयंत्र के अग्रभाग से किया जाता हैजैसे-पश्चदंत्य,
दंत्य
और ओष्ठीय का क्रमिक विकास होता है।
11) अग्रस्वर
क्रमशः 72 फीसदी से घटकर
47 फीसदी और पश्चस्वर
2-3 फीसदी से बढ़कर तीस महीने की आयु तक
37 फीसदी हो जाते हैं।
12) शब्द
के उच्चारण में व्यंजन शब्द की आदि (आरंभ)
स्थिति
में पहले आता है और मध्य तथा अंत की स्थिति में बाद में बोलना शुरू होता है।
13) प्रथम
छह महीनों में शब्दांत में व्यंजन ध्वनियों का उपयोग नहीं के बराबर होता है किंतु इस
आयु के बाद व्यंजन के उच्चारण का विकास तेज गति से होने लगता है।
14) बालकों
में स्वरीकरण (ARTICULATION) कुछ-कुछ
बबलाने के समान होता है।
द्वितीय
अवस्था अर्थात्
1.6 वर्ष और दो वर्ष की आयु के मध्य बालक में शब्दों के अर्थ के
प्रति सजगता उत्पन्न हो जाती है। बच्चा जिन शब्दों को सुनकर उनका वाचिक अनुकरण करता
है, तदुपरांत बालक अर्थ समझकर अनुकरण
करता है। इससे व्यक्त होता है कि दूसरों का अनुकरण करने से पूर्व शिशु अपने-आप
का अनुकरण करता है। बबलाना अपनी सहज वृत्तात्यक प्रक्रिया के रूप में शिशु के अनुकरण
का पूर्वविधान है। होल्ट ने प्रतिपादित किया है कि ‘जब
ध्वनियाँ उत्पन्न की जाती हैं, तब उनसे
संबद्ध शारीरिक सक्रिय पथ अति सरलता के साथ निःशक्तता की अवस्था की ओर अग्रसर होते
हैं।’ मीलर और डोलार्ड ने अपने
अध्ययन में बलबलाने की जो व्याख्या प्रस्तुत की है, वह
परंपरागत विधि से भिन्न है। इन्होंने एक प्रकार से ई.बी.
होल्ट
के सिद्धांतों का संश्लिष्ट भाष्य उपस्थित किया है। उन्होंने ‘अनुकूल-निर्भरता’
के
रूप में अनुकरण को प्रस्तुत किया है। इनके दृष्टिकोण में आनुकरणिक प्रक्रिया को अव्यवस्थित
व्यवहार से ‘चीत कार्य (Imitation)
के
रूप में माना गया है। जैसे-अपने
बड़े भाई / बहन के साथ छोटा भाई भागने
की प्रक्रिया तब सीख सकता है, जब उसे
गोद में लेकर बड़ा भाई / बहन
या परिवारीजन भागने का प्रयत्न करता है। इसी दृष्टि से बलबलाना कभी-कभी
अनुकरण के रूप में भी व्यक्त होता है। ए.नी.मीलर
अपनी कृति-‘लैंग्वेज एण्ड कम्युनिकेशन’
में
स्वीय प्रवृत्ति के रूप में अनुकरण करने की
प्रवृत्ति का स्थान नहीं होने की बात कहते हैं। वे पुरस्कार के क्रम में ही इसे सीखते
हैं। अनुकरण से उन्हें साहचर्य या योग-प्रवृत्ति
का बल मिलने का समर्थन करते हैं। जे.बी.
केरोल
बालक दूसरों की प्रतिक्रियाओं का अनुकरण करता है और सीखता है। नयी प्रतिक्रियाओं को
व्यक्त करता है, उत्तेजनाओं को समन्वित
करना, युक्ति को दोहराना और
सामान्यीकरण आदि को भी वह सीखता है।
इस
दृष्टि से बलबलाना एक प्रकार की भाषिक पूर्व भूमिका या व्यक्त वाचिक आधार है। बलबलाने
के पूर्व छिन्न ध्वनिखंडों के रूप में होने वाली प्रतिक्रिया धीरे-धीरे
अधिक जटिल और स्पष्ट ध्वनीकरण में प्रवृत्त होती है। बलबलाने के पूर्व की ध्वनियों,
स्वर
और व्यंजन ध्वनियों के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं है। केरोल ने इस संदर्भ में इरविन
की आलोचना प्रस्तुत की है। इरविन के अनुसार, बलबलाने
की प्रक्रिया में ध्वनिक का रूपायन स्पष्टतया लक्षित है। वस्तुतः केरोल को इरविन की
ध्वनिक अवधारणा पर आपत्ति है। उनका मानना है कि ध्वनिक में अर्थ पक्ष भी शामिल है और
ध्वनियों में अर्थीय विभक्तियाँ नहीं हैं। यहाँ पर आपसी विरोध ध्वनिकों की आंतरिक भेदकता
से है। बलबलाने की प्रक्रिया का क्रमिक विकास कई रूपों में होता है। इस प्रक्रिया के
द्वितीय पक्ष में हम सर्वप्रथम इस तथ्य से संब) में
कुछ प्रमाण पाते हैं कि बच्चा कुछ प्रतीकात्मक संकेतों, मुद्राओं,
लयात्मक
क्रमों, आद्यातों,
शब्दों
और वाक्य खंडों को ग्रहण करने लगता है। इस ग्राहकता को हम बाद के प्रात्ययिक (Conceptual)
और
आनुभाविक ग्राहकता के समानांतर रखकर नहीं देख सकते। यह एक प्रकार से सान्निध्यगत एनेद्रिय
संबंध स्थापन के रूप में सक्रिय रहती है। कई दृष्टि से यह महत्वपूर्ण काल है। इस अवस्था
में भाषिक विकास दिशा, ग्राहकता-स्वरूप
एवं भाषिक अनुभवों के स्वरूप के अध्ययन के लिए अनुसंधान की कोई अव्यक्त दिशाओं का उद्घाटन
कर सकते हैं। इस दृष्टि से अनुसंधान अपेक्षित है जो महत्वपूर्ण शोध का विषय हो सकता
है। यह वही काल है, जब शिशु
ध्वनियों के भेदों को स्पष्टतया ग्रहण करने की दिशा में प्रवृत्त होकर,
सर्वथा
प्रयुक्त एवं सुव्यवहृत ध्वनियों की ओर तीव्रता से आकृष्ट होता है। उच्चारण-स्थान
और उच्चारण-विधि की दृष्टि से शिशु सर्वप्रथम
किन ध्वनियों का प्रत्यक्षीकरण और ग्रहण करता है, यह
सर्वाधिक विचारणीय विषय है। रोमन जैकोष्सन और एम. हैले
ने अपने शोघ-अध्ययन पर विचार व्यक्त करते
हुए यह कहा है कि ध्वनिग्रहण की प्रक्रिया में शिशु सर्वप्रथम ओष्ठ्य ध्वनियों के रूप
में ‘म’ या
‘प’ ध्वनियों
का प्रत्पक्षीकरण करता है। उसकी दृष्टि में यह व्यंजन-स्वर
का विरोधाभास प्रकट करता है और श्रव्य स्तर पर यही काम करता है। गुणात्मक एवं बोधपरक
दृष्टि से यह क्षमता-स्थापन का काल है। जे.
पाइगे
ने शिशु के ध्वनि-विकास के क्रम को कुछ
निश्चितकालिक अवस्थाओं में बाँटकर प्रस्तुत किया है किंतु यह पक्ष पूर्णतः विकसित रूप
में नहीं दिखाई पड़ता। इसमें प्रयुक्त ध्वनियों का श्रव्य और उच्चारण की दृष्टि से
तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता है।
तीसरी
अवस्था (दो
वर्ष से ढाई वर्ष की आयु) में
बालक की भाषा में प्रत्यात्मक और भेदक किंतु असंबद्ध वाक्प-विन्यास
(PARATECSIS) देखने
को मिलता है। क्रिया पदों और विभक्तियों के साथ तुलना करने को प्रवृत्ति भी दिखाई देती
है। दो या दो से अधिक शब्दों या पदों द्वारा वाक्य संरचना का आरंभ हो जाता है। वाक्यों
की शृखलाएँ भी देखने को मिलती है। विचारों में तार्किकता और संबंधों के बहुआयामों की
पहचान पैदा हो जाती है किंतु वाक्य पूरी तरह से व्याकरणिक नहीं होते। इस अवस्था तक
आते-आते उसकी सीमित शब्दावली में
स्वस्थ समृद्धि आती है, और वह
अपने विचारों को निर्दिष्ट रूप में व्यक्त करने के साथ ही उसे ग्रहण भी कर सकता है।
केरोल इसे ‘भाषिक प्रयोग प्रक्रिया’
की
अवस्था मानते हैं। मेरा मानना है कि यह स्थिति केरोल की भाषिक प्रयोग-प्रक्रिया
से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थिति है और मैं इसे ‘अर्थ
संगति’ की संज्ञा देता हूँ। बालक
ज्ञान स्थिति में शब्द के रूपों में व्यवस्थित सुधार (औच्चारणिक
और नियमगत) की खोज करता है। साथ ही,
उन
व्याकरणिक संकेतों की खोज भी करता है जो अर्थवान होते हैं और कथन के अंतर्निहित अर्थ
को पहचानने में सहायक होते हैं। बालक का शब्दांत पर ध्यान देना,
शब्द-क्रम,
उपसर्ग
और प्रत्ययों पर ध्यान देना और रूकावट या भाषिक इकाइयों की पुनर्रचना से भी बचने का
प्रयास करता है।
चतुर्थ
अवस्था (30
माह
से 45 माह) में
बालक में विचारों के संयोजन और अधीनीकरण (sub-ordination)
की
अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। बालक अब उपवाक्यों की रचना करने लगता है। इस प्रकार
के उपवाक्यों में वाक्य के विभिन्न अंग या कठिन पदबंध भले ही अपेक्षाकृत कम क्यों न
हों, किंतु बालक उनकी रचना करने लगता
है। वह कार्य-कारण संबंधों को समझने लगता है,
क्योंकि
उसमें तर्कशक्ति का विकास आरंभ हो जाता है। बालक नए शब्दों का निर्माण भी करने लगता
है। उसमें शब्दों को जोड़कर व्युपन्न शब्द-निर्माण
भी देखने को मिलता है। इन तथ्यों को शब्दों के अर्थ सीखने और शब्दार्थों की स्पष्टीकरण
प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
इस
प्रकार बालक भाषा की प्रोसेसिंग के लिए जिन युक्तियों का उपयोग करता है उनका अध्ययन
भी भाषार्जन को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। प्रायः बालक भाषा प्रोसेसिंग के लिए
जिन युक्तियों को प्रयोग में लाता है वे वास्तव में वे नियम हैं, जिनका
बालक प्रारंभिक अवस्था में उपयोग करता है। ये नियम उसे भाषा सीखने में सहायता पहुँचाने
के साथ-साथ के भाषा की जटिलता का भी
बोध कराते है शिशु भाषा अध्ययन के उद्देश्य से पारंपरित भाषा-शिक्षण
की विधियों के विश्लेषण के अतिरिक्त, प्रत्येक
वर्ग के शिशु के आवसरिक अध्ययन की भी आवश्यकता है। अभ्यास के लिए अवसर और सुविधा के
साथ ही वैज्ञानिक विधि द्वारा शिक्षण माध्यम से ही इसमें संपूर्णता लाई जा सकती है।
बच्चों को भाषिक प्रणाली की शिक्षा देने के लिए लिखित की अपेक्षा उक्ति को ही माध्यम
बनाना उचित है। इस प्रकार बाल मनोभाषिकी के अध्ययन क्षेत्रा में अनेक नई दिशाएँ व्यक्त
की जा सकती हैं।
निष्कर्ष
रूप में कह सकते हैं कि बालक की संपूर्ण भाषिक-प्रक्रिया
के अध्ययन की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हम शिशु के मानसिक स्वरूप पर संक्षिप्ततया
विचार कर लें। मानव मस्तिष्क की संपूर्ण विशेषताएँ किसी-न-किसी
रूप में बच्चों में निहित हैं। वयस्क मस्तिष्क में हम कुछ वैसी विशेषताएँ पाते हैं,
जो
बच्चों में पर्यवेक्षित नहीं की जा सकती हैं। किंतु, पाया
यह जाता है कि वे सारी विशेषताएँ बच्चों में पाई जाती हैं, पर
हम उन्हें स्पष्टतया नहीं देख सकते। चेतना में कुछ वैसे महान विचार और प्रत्यय भी हैं,
जो
अत्यंत मौलिक और सरल रूप में चेतना के द्वारा उद्घाटित होते हैं। मनोभाषिक विकास एक
वैसी प्रक्रिया है, जो निवर्तन
और परिवर्तन, दोनों ही रूपों में सक्रिय
रहती हैं। मनोभाषिक विश्लेषण और भाषा की समग्रता की रक्षा का प्रयास इस शोध पत्रा में
किया गया है। इस प्रकार मनोभाषिकी संबंधी विभिन्न प्रवृत्तियों सिद्धांतों और विचाराधाराओं
को हिदीं भाषा के विशेष संदर्भ में विवेचित
करने का प्रथम प्रयास भी किया गया है। यह भी संभव है कि विषय का अपेक्षित विस्तार न
हो पाया हो किंतु विषय विस्तार शोधपत्र का उद्देश्य भी नहीं है। यह तो विषय का परिचय
मात्र है।
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the best
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