प्रोफेसर (डॉ) राम लखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बान्दर सिंदरी,
किशनगड़, अजमेर- 9413300222
जवाहरलाल नेहरू ने चालीस साल पहले यह बात कही
थी ‘मैं अंग्रेज़ी का इसलिए विरोधी हूँ क्योंकि
अंग्रेज़ी जानने वाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उसकी दूसरी
क्लास-सी बन जाती है। यही तथाकथित इलीट क्लास होती है। जबकि भारत को छोड़कर
शेष विश्व में इलीट क्लास की भाषा फ़्रेन्च को माना जाता है।’ वस्तुत अँग्रेजी को दोयम दर्जे की भाषा सम्पूर्ण
विश्व में माना जाता है, क्योंकि वह गुलामी का प्रतीक और गुलामियत की भाषा है। हिंदी दुनिया की दूसरी बड़ी
भाषा है जबकि हक़ीक़त यह है कि अंग्रेज़ी का स्थान हिन्दी के बाद आता है । सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं की द्रिष्टि से हिंदी ही विश्व में दूसरे
नंबर पर है,स्पेनिश तीसरे, फ़्रेन्च चौथे और अँग्रेजी पाँचवे स्थान पर आती हैं । चीनी भाषा (मन्दारिन)को पहले स्थान पर माना गया है पर शुद्ध चीनी भाषा
जानने वालों की संख्या हिंदी जानने वालों से काफ़ी कम हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
विदेशियों में हिंदी भाषा सीखने और जानने वालों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हो
रही हैं।
आज संचार का युग है। इस युग में संचार माध्यमों
ने अपनी एक अलग पहचान बना ली है। पिछले कुछ दशकों से जनसंचार
माध्यमों का अभूतपूर्व उदय हुआ है। सांस्कृतिक, शिक्षा, विकास और सामाजिक विकास में सूचना और संचार का
काफी अहम योगदान रहा है। देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में संचार
तंत्र काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अब यह बहस का मुद्दा हो गया है कि संचार माध्यम
हिंदी को बना रहा है या बिगाड़ रहा है। कुछ लोग इसे व्यवसायिक हिंदी का नामाकरण कर
अलग रास्ता दे रहे हैं। यह प्रयोजन मूलक हिंदी है। यह चौतरफा फल-फूल रही है। फैल
रही है। बांग्मय
की आदि-भाषा संस्कृत से आसूत हिन्दी का भाषाई और साहित्यिक इतिहास सर्वथा एवं
सर्वदा समृद्ध रहा है ! संस्कृत, अपभ्रंश, अबहट, प्राकृत और पाली से होती हुई हिन्दी ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका जैसे उपभाषाओं के साथ आज खड़ी बोली की
संज्ञा धारण कर चुकी है! समस्त साहित्यिक गुणों से लैस एवं सुव्यवस्थित वर्णमाला
और सुगम, सुदृढ़ व्याकरण के
बावजूद इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल शास्त्रीय भाषा कह कर
इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने प्रयोजनमूलक हिन्दी
का कवच पहन न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की, वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार की तमाम
प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई।
संचार में भाषा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण
है। जनसंचार का काम भाषा के बिना असंभव है। जनसंचार का काम हिंदी पत्र पत्रिकाएं
देश की आज़ादी के पहले से ही करती आ रहीं हैं। हिंदी को जानने व समझने वालों का एक
बहुत बड़ा वर्ग है भारत में। हिंदी के विकास की यात्रा में हिंदीतर भाषी प्रदेशों
का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 1857 में कलकत्ता विश्व विद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना की गई थी। एक हिंदीतर भाषी नलिन
मोहन सांन्याल सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी में एम.ए. ( अंग्रेज़ी माध्यम में) किया। भूदेव मुखोपाध्याय
ने 1887 में आज के हिंदीभाषी प्रदेश बिहार में हिंदी का पाठ्यक्रम तैयार करवाया
था। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का प्रकाशन जुगल किशोर शुक्ल द्वारा कोलकाता
में हुआ था। यह एक हिंदीतर भाषी प्रदेश है। आज के दिनों में भी हिंदीतर भाषी
प्रदेशों में हिंदी के पत्र काफी लोकप्रिय हैं। हिंदी दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका का बैंगलुरु से पिछले 13-14 वर्षों से लगातार
प्रकाशन हो रहा है। बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका चंदामामा का प्रकाशन चेन्नई से हुआ। इसके संपादक हिंदीतर
भाषी शौरि रेड्डी थे। हैदराबाद
से कभी कल्पना निकलती थी। आज वहां हिंदी मिलाप चल रहा है। कोलकाता देश को सन्मार्ग देता है। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से भी
सरकारी अख़बार द्वीप समाचार हिंदी
में निकलता है। आज हिंदी के अख़बारों की प्रसार संख्या सर्वाधिक है। इन
पत्र-पत्रिकाओं ने हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने के अलावा समाज में सांस्कृतिक
पुनर्जागरण और राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करने में सराहनीय योगदान किया है।
यही प्रयोजनमूलक हिंदी आज पत्रकारिता की भाषा
है जिसमें खरबों के देशी-विदेशी निवेश हो रहे हैं। किंतु ऐसा नहीं है कि
प्रयोजनमूलक संज्ञा पाने के बाद हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ है। हिंदी तो
पत्रकारिता की भाषा तब से है जब इसका प्रयोजन बिल्कुल असंदिग्ध था। स्पष्ट शब्दों
में कहें तो हिन्दी पत्रकारिता का शंखनाद हिन्दी साहित्यकारों के द्वारा
अठाहरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही किया जा चुका था। भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका अवर्णीनीय है। आधुनिक हिंदी साहित्य के
युगपुरूष भारतेंदु हरिश्चंद्र की कवि-वचन सुधा और हरिश्चन्द्र मैग्जिन इसका
प्रमाण है। उसके बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी, आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध से लेकर
प्रेमचंद तक सभी नामचीन साहित्यकार हिन्दी पत्रकारिता के आकाश में दैदीप्यमान
नक्षत्र की तरह उज्जवल रहे हैं। आज से दो दशक पहले तक पत्र पत्रिकाओं के स्तम्भ
सीमित होते थे – धर्म, साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, राजनीति, समाज-सुधार, समाज कल्याण, आदि। आज फैशन, फिल्म, इंटरनेट, मोबाइल, एसएमएस, ब्लॉग, शेयर बाज़ार, आदि से जुड़े समाचार भी प्रमुखता पाते हैं। इन
सब विषय वस्तुओं के अलावा स्थानीय छाप लिए हिंदी एक नए रंग में देखने को मिलती है।
यह कहना कि प्रयोजनमूलक हिंदी आधुनिक युग की
देन है मेरे ख्याल से तर्कसंगत नहीं है। आधुनिक युग ने हिन्दी को केवल
प्रयोजनमूलक नाम दिया है कोई प्रयोजन नहीं। अगर यह कहें कि हिंदी आज प्रयोजनमूलक
है तो यह भी मालूम होना चाहिए कि हिन्दी निस्प्रयोजन कब थी ? अगर हिंदी निस्प्रयोजन होती तो लगभग चार सौ
साल पूर्व रचित तुलसीदास के रामचरित मानस की एक-एक चौपाई आज चरितार्थ नहीं होती।
अगर व्यावसायिकता की बात करें तो भारत के साथ–साथ मलेशिया, फिजी, मोरिशस, करेबिआई द्वीप समूह के अतिरिक्त दुनिया भर में
पढ़े जाने वाला रामचरित मानस भारत के प्रतिष्ठित गीता प्रेस, गोरखपुर से सर्वाधिक छपने वाली किताब का खिताब
पा चुका है। तो जिस भाषा में ऐसे एक-दो नहीं बल्कि अनंत कालजयी साहित्य के सृजन
की क्षमता हो वह निस्प्रयोजन कैसे हो सकती है? आखिर किसी भी भाषा का प्रयोजन क्या
है? अभिव्यक्ति ! और यही
अभिव्यक्ति लोकहित का उद्देश्य धारण कर देश और काल की सीमा से परे चिरंजीवी हो
साहित्य कहलाने लगता है। इस प्रकार इस बात में कोई दो राय नही कि हिन्दी में
अभिव्यक्ति और साहित्य-सृजन दोनों की अपार क्षमता है। अतः यह संस्कृत तनया अपने
जन्मकाल से ही प्रयोजनवती रही है। सो मेरा उद्देश्य
हिन्दी का प्रायोजन अथवा इसकी प्रयोजनमूलकता सिद्ध करना कतई नहीं है। किंतु आज
जिस प्रयोजनमूलक हिंदी की चर्चा ज़ोर-शोर से की जा रही है उससे मुंह चुराना भी
उपयुक्त नहीं है।
साहित्य से अलग के क्षेत्र जैसे विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि में जिस भाषा का प्रयोग होता है वह
भाषा जीवन व्यवहार और ज्ञानपरक विचार-विश्लेषण–मूल्यांकन विवेचन और प्रस्तुतिकरण की भाषा होती है। उसकी एक अलग
तकनीकी शब्दावली होती है, जिसके प्रयोग के बिना
उसके कार्य को आगे बढ़ाया ही नहीं जा सकता। चूंकि हिंदी की बोलियों में विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि क्षेत्रों संबंधी चिंतन अनुशासन का
विकास हुआ ही नहीं था इसलिए उसकी शब्दावलि की कोई बोलीगत परंपरा विकसित नही थी।
आधुनिक पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि की शब्दावली के लिए हिंदी शब्दावलि
में पर्याय निर्धारित करने के प्रश्न पर काफी विवाद उठा। एक वर्ग संस्कृत के
धातुओं को लेने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग अरबी-फ़ारसी। यह टकराव का कारण बना।
शब्दावलि तैयार तो की गई पर न तो यह पूर्ण है न ही निर्दोष। जीवन के विभिन्न
क्षेत्रों विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि में हिंदी को कार्य का माध्यम
बनाने के प्रयास को आज तक गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया है। चाहे शिक्षा का क्षेत्र
हो या कार्य क्षेत्र, विभिन्न विषयों के लोग
हिंदी माध्यम से अपने को दूर रखने की कोशिश ही करते रहे।
सरकारी क्षेत्र के सृजनात्मक लेखन की बात करें
तो हम पाते हैं कि प्रशासनिक क्षेत्र में हिंदी के उपयोग के सरकारी प्रयास का
समुचित माहौल ही नहीं बना। अनुवाद की प्रक्रिया हिंदी में सोचने, समझने और लिखने की सहज स्थिति से दूर हटती गई।
रोज़मर्रा के व्यवहार के अभाव में प्रशासनिक हिंदी में असहजता ही नहीं आई बल्कि यह
अटपटी हिंदी बनकर रह गई। कार्यालयों में यह बात आए दिन सुनी जा सकती है कि हिंदी
को ख़तरा अंग्रेज़ी से नहीं, अपनों से है, ख़ास तौर से शुद्धतावादियों से। कार्यालय को कठिन और दफ़्तर को सरल, वेतन को कठिन और तनख़्वाह को सरल सिद्ध करते
हुए ऐसे लोग हिंदी के संस्कृतकरण के ख़िलाफ लड़ाई लड़ते रहते हैं। ऐसे लोगों का
तर्क है कि तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से हिंदी संकीर्ण होती जा रही है। वे हिंदी
को शुद्धतावादियों के ख़ेमे से बाहर निकाल कर सर्वग्राह्य बनाने के भरसक प्रयास में ये जुटे
रहते हैं। आज हिंदी के कई रूप देखने को मिलते हैं; छत्तीसगढ़ी हिंदी, झारखंडी हिंदी, मुंबइया हिंदी, बिहारी हिंदी, अंडमान की हिंदी,कर्नाटक की हिंदी, हैदराबादी हिंदी,असमिया हिन्दी और राजस्थानी हिन्दी इत्यादि-इत्यादि। हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदीतर भाषी
क्षेत्रों में हिंदी भाषी क्षेत्रों का योगदान महत्त्वपूर्ण
रहा है। वस्तुत हिन्दी के दुश्मन हिन्दी भाषी लोग ही हैं जो कभी अपनी कूपमन्डूकता
से बाहर निकल ही नहीं पाये।
हिन्दी को प्रयोजनमूलक कहने की आवश्यकता क्यों
पड़ी। दरअसल हिन्दी का साहित्य बहुत पुराना है। यह भाषा संस्कृत के बहुत समीप
है। आज भी संस्कृत के मूल शब्द हिन्दी में तत्सम और उनके विकृत रूप तद्भव नाम
से उपयोग में है। अतः इसका इतिहास भी उसी अनुपात में पुराना होना स्वाभाविक ही
है। नब्बे के दशक में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पहल पर हिंदी के पौराणिक
पाठ्यक्रम से आम तौर पर अप्रसांगिक हो चले अंशों को काट कर और वर्तमान परिदृश्य
में उपयोगी तत्वों को ज़ोड़ कर
एक ऐसा पाठ्यक्रम विकसित किया गया जो आम-ज़रूरतों को पूरा कर सके। बेशक, मशीनी युग के भाग-दौड़ में वही चीज स्वागतयोग्य है जिसका सीधा और तीव्र
प्रभाव पड़ता हो। परिवर्तन का नियम शाश्वत है। फलस्वरूप हिंदी को भी पौराणिकता की चारदीवारी से निकलकर आधुनिकता का आवरण
ओढ़ना पड़ा। दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाज़ार के
मान-दंड पर खड़ा होना पड़ा। और हिन्दी जैसी समर्थ, उदार और लोचदार भाषा तो ऐसे परिवर्तनों के लिए
तैयार ही थी, अंततः बन गई
प्रयोजनमूलक। प्रयोजनमूलक अर्थात बाज़ारू या प्रयुक्तिपरक। मतलब बिना लाग-लपेट उतनी ही और वैसी ही हिन्दी
जो विनिर्दिष्ट आवश्यकता को संतुष्ट कर सके। आज
हिंदी केवल शास्त्रीय लेखन की भाषा नहीं अपितु बाज़ार और कार्यालयी काम-काज की भाषा है।
विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मीडिया उद्योग
अंग्रेज़ी के बाद हिन्दी उद्योग पर आधारित है। प्रयोजनमूलक हिंदी में लालित्य, अलंकार और सौंदर्य कतई आवश्यक नहीं बल्कि
प्रभावोत्पादकता और सम्प्रेषणीयता ही वरेन्य है। अभिप्राय यह है कि अकादमिक हिन्दी के अतिरिक्त प्रयोजनमूलक हिंदी के रूप में एक ऐसी भाषा का
विकास हुआ है जो जन-संचार अर्थात मास-कम्युनिकेशन की भाषा है। जिस भाषा में
रोमांच है, जिसमें ट्विस्ट है, जिसमें टेस्ट है और जिसे हिन्दी भाषियों के
अतिरिक्त हिन्दीतर भाषी भी आसानी से समझ सकते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी वह है जो
लालित्य के
बोझ से न दब कर खरी-खरी कहतीहै। ऐसा नहीं कि इसमें सौन्दर्य नहीं है। किंतु इसका सौन्दर्य
अलंकारों से नहीं साधारणीकरण से है। सफल
संवाद-अदायगी,हमेशा की तरह आज भी
इसकी मूलभूत विशेषता है। आज हिन्दी केवल “स्वान्तः सुखाय या रसिक समाज हर्षाय” ग्रंथों की भाषा नहीं है। वरन लाखों हाथों को काम
और करोड़ो लोगों के पेट की आग बुझाने की भाषा है और यही है हिंदी कीप्रयोजनमूलकता का सच है जो हिन्दी की छवि को सत्यम,शिवम और सुन्दरम की
शाश्वतता प्रदान करता है ।
विज्ञान की चरम उन्नति से हिंदी को भी नए आयाम
मिले हैं। वर्तमान युग आई. टी. युग है। और सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में भारत
दुनिया भर में अपनी धाक मनवा चुका है। विज्ञान की इस शाखा में पूरा विश्व भारतीय
मस्तिस्क का कायल है। दूसरी बात कि सूचना प्रोद्यौगिकी के विकास ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरो
दिया है। यहीं से तकनीक के एक नए व्यवसाय का उदय होता है, जिसका नाम है आउटसोर्सिंग। अर्थात तकनीक हस्तांतरण
या दुनिया के किसी कोने में बैठ कर दूसरे कोने को तकनिकी समाधान देना। आज
आउटसोर्सिंग बिजिनेस में भारत का कोई सानी नहीं है। पश्चिमी देशों में तो
आउटसोर्सिंग के लिए टर्म ही बन गया है, “It’s been Bangalored”. क्योंकि पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारतीय
अभियंता किसी तकनीक को काफी कम लागत और कम समय में कुशलता के साथ विकसित कर देते
हैं। यह भी कारण है कि बहुत बड़ी संख्या में विदेशी दृष्टि भारत की ओर लगी हुई
है। ज़ाहिर है, कहीं भी व्यवसाय करने के लिए वहाँ की भाषा
समझना अनिवार्य है। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस कार्य के लिए बिहारीलाल की
सतसई या विद्यापति की पदावली को तो काम में लाया नहीं जा सकता। अतः भारत में जो भाषा
यह काम बड़े पैमाने पर कर सकती है, वही प्रयोजनमूलक हिंदी है। बात चाहे सॉफ्टवेयर
की हो या अन्य उपभोक्ता उत्पादों की, विश्व की बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी
की नज़र आज भारतीय बाज़ार पर टिकी हुई है। और बिना हिंदी के भारतीय बाजार पर
क़ब्ज़ा करना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। और जो भाषा इस बाज़ार को चलाने
में उपयुक्त है वही प्रयोजनमूलक हिंदी है। यही वजह है कि अभियंत्रण जैसी तकनीकी
विधा के बाद अब हिंदी जैसे शास्त्रीय विधा के शिक्षकों की पश्चिमी देशों में भारी
मांग हो रही है। हाल ही में प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय पत्रिका“फोर्ब्स” में कहा गया था कि आगामी दो वर्षों में यूरोप
और अमेरिका के देश लगभग पचास हज़ार हिंदी शिक्षकों की नियुक्ति के बारे में सोच
रहे हैं।
जनसंचार
के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक
क्रांति दी है। हिंदी फिल्म भारत के हर कोने में देखी और पसंद की जाती है। विदेशों
में भी हिंदी सिनेमा सितारों की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। अंग्रेज़ी फिल्में हिंदी
में डब करके प्रस्तुत की जा रहीं हैं। प्रयोजनमूलक हिंदी का सबसे बड़ा उपयोग
मीडिया और विज्ञापन के क्षेत्र में है। टेलीविजन पर विज्ञापन की दुनियां में हिंदी
का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन
गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार
में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य
हिंदी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए। इस सुखद स्थिति में हिंदी
को लाने का बहुत बड़ा श्रेय हिंदी सिनेमा और हिंदी धरावाहिक को जाता है, इस बात से इंकार नही किया जा सकता।
आज
लोग यह समझ चुके है कि “अगर पूरे हिन्दुस्तान
को कोई संदेश देना है तो हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा”। हिंदी ही भारत के जनसंचार माध्यमों की भाषा
है। आज अनेक विदेशी उत्पादों के विज्ञापन भारत में हिंदी में किए जाते हैं,ऐसी हिंदी में जिसे उस कंपनी के सी.ई.ओ. से
लेकर भारत के गांवों का किसान तक समझ जाता है। शीतल पेय कोकाकोला का विज्ञापन कहता
है “पीयो सर उठा के”, मतलब गर्व से पीयो। जो इसका यह अर्थ नहीं समझ
पायेंगें वो इतना तो समझ ही जायेंगें की सर को ऊपर कर के कोकाकोला पीने में मजा
आता है। लेकिन कहा जाए कि “कृपया अपने मस्तक को
उर्ध्व कर कोकाकोला का पान करें” तो इसमें नाहक ज़्यादा समय और ज़्यादा ऊर्जा लगेगा और सुनने में
शायद ये कुछ कोमल कान्त लगे किंतु अधिकांश हिन्दीभाषी भी इसका अभिप्राय नहीं समझ
पायेंगें। यहाँ कोमल शब्दों वाले दूसरे मधुर वाक्य का कोई प्रयोजन नहीं है जबकि
चार सामान्य शब्दों वाला पहला वाक्य अपने अभिप्राय का वहन करने में कहीं अधिक
सफल है, तो यही है प्रयोजनमूलक
हिंदी और मजबूरन बाजार की नियामक
शक्तियों को हिन्दी की ताकत के समक्ष झुक कर कहना पड़ रहा है ‘ठन्डा मतलब कोकाकोला’
या ‘डर के आगे जीत है माउन्टेन ड्यू’ ।
प्रयोजनमूलक हिंदी में शामिल घटकों में प्रमुख
हैं, मीडिया के विविध आयाम, अनुप्रयुक्तभाषाविज्ञान, अनुवाद,सृजनात्मक लेखन और भाषा के प्रयुक्तिपरक अनुप्रयोग । दरअसल प्रयोजनमूलक हिंदी की संकल्पना की परिधि में पत्रकारिता,जन-संपर्क और विज्ञापन भी इसी में आ जाते हैं। अतः हिंदी की पत्रकारिता की भाषा, शैली, इतिहास और व्यापार का अध्ययन, प्रयोजनमूलक हिंदी के दायरे में आ जाता है। आज
जिस प्रकार हिंदी मीडिया बूम पर है और इसमें जिस रफ़्तार से देशी और विदेशी निवेश
हो रहे हैं, उसे देखते हुए इसमें
व्यवहृत भाषा, प्रयोजनमूलक हिंदी का
वर्तमान तो सुदृढ़ है ही भविष्य भी उज्जवल नज़र आता है। कृति पर पाठकों की प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित हैं ।
No comments:
Post a Comment