प्रोफेसर (डॉ) राम लखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय केंद्र, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग-8, बान्दर सिंदरी,
किशनगड़, अजमेर- 9413300222
समकालीन शब्द की विवेचना परम्परा और इतिहास के
परिप्रेक्ष्य में, विशिष्ट कालखण्ड में, नए सिरे से तथ्य की पहचान और
परख के रूप में की जाती है। समकालीन कविता का विश्लेषण साहित्य के भीतर निहित उस
मूल तत्त्व की प्रतीति एवं प्रवृत्ति के रूप में माना गया है जो मनुष्य के बीच
भेदभाव, घृणा,संकीर्णता आदि के परित्याग की
प्रेरणा देती है। समकालीन कविता एक रचनात्मक विरासत है, समृद्ध विचारशील मस्तिष्क की
उपज है, जीवनानुभव और भावनाशील, आक्रोशित आवेशित उद्वेलित मन
की सबल, सटीक व सचोट अभिव्यक्ति है। इसमें प्रयुक्त भाषा
की धार पैनी है। यह आदर्श और यथार्थ के बीच सेतु बनाती है। समकालीन कविता कल के
यथार्थ को, आदर्श को, स्वप्न को साकार करने की वह
शब्द यात्र है जो मानवता को अनुगामी मानती है।
राजस्थान
की समकालीन कविता में युग एवं परिवेश से संपृक्त हमारी आशा निराशा, आकांक्षा अपेक्षा, राग विराग, हर्ष विषाद, राजनीतिक और आर्थिक दिशा में अस्थिरता, समस्याओं व चुनौतियों से यातनापूर्ण संघर्ष, मन के भीतर का अलगाव, असंतोष, आक्रोश, अस्वीकृति, विद्रोह की छटपटाहट बहुत स्पष्ट रूप से उभारा
गया है। वैश्वीकरण के कारण मंडराते खतरों, भ्रष्टाचार के मुद्दों,मशीनीकरण के कारण उपजा सांस्कृतिक संक्रमण तथा
दलित व स्त्री विमर्श की चिन्ताओं जैसे मुद्दों को तल्खी से रेखांकित किया गया है।
आतंक, अकाल, पानी का संकट, टूटते जीवन मूल्य इत्यादि इसके आयाम हैं। इनकी
समग्र अभिव्यक्ति जो प्रांतीय धारा को मुख्य धारा से जोडती है तथा सृजन मानस की
रागात्मक पहचान का प्रदेय प्रदान करती है।
‘कविता से कविता तक’ की रचनाओं तक गुजरते हुए मैं बडे आत्मविश्वास
के साथ पुरजोर शब्दों में पुष्टि कर सकता हूँ कि ‘‘प्रांत के कवि ने समय
को समझा है। व्यक्तिगत उद्गारों की अभिव्यंजना,मनोमंथन की प्रेरणा का आधार प्रदान करने के रूप में ग्रहण की है।
राजस्थान का कवि परिवेश में व्याप्त विसंगतियों को उजागर ही नहीं करता, अपितु शब्दों की पैनी धार से आर पार की लडाई
लडता है। अपने चारों ओर फैली भूख, गरीबी, अन्याय, इंसान की इंसान के साथ ज्यादतियों का कच्चा
चिट्ठा परत दर परत खोलता जाता है। उसकी चिंता साहित्य की चिंता है। वह पर्यावरण
प्रदूषण,विश्वतापीकरण की आसन्न
विपत्तियों से हताहत होने के बजाय हिताहित की राह अपनाता है। वह परिवर्तन कामी उस
प्रभामण्डल का रचाव करना चाहता है, जिसमें सामाजिक जीवन में घूसखोरी समाप्त हो सके, कालेधन के कारण नैतिक मूल्यों का क्षरण रुक सके, इंसान पर पतन का काला मंडराता साया समाप्त हो
सके।
कविता हो या अन्य संप्रत्यय, उसमें समकालीनता की व्याख्या करना बड़ा कठिन
कार्य है। हम जिस भी समय की बात करें, कभी न कभी तो वह समय समकालीन रहा ही है। और यदि
आज को समकालीन कहें तो कल से यह भी समकालीन नहीं रहेगा। समकालीनता कालमुक्त भी है
और कालबद्ध भी है। सामान्यतः तो समकालीनता कालबद्ध ही है। अपने कालवाचक अर्थ में
तो समकालीनता का अर्थ वर्तमान का बोध अर्थात प्राचीन तथा मध्यकालीन से भिन्न
वर्तमान से सम्पृक्त बोध। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। समय के साथ बदलाव
आते रहते हैं लेकिन यह बदलाव पुराने को समूल नष्ट नहीं करता है। अतः इस नितप्रति
बदलते समय को किन्हीं कालखंडों में बांधकर ही उसका अध्ययन संभव है।
समय-समय
पर होने वाले परिवर्तनों से प्रकृति के अन्यान्य उपक्रमों के साथ साहित्य तथा कला
भी निश्चित रूप से प्रभावित होते हैं। परिवर्तन तथा विकास की प्रक्रिया के कारण ही
हमें इतिहास के अध्ययन में युगानुरूप भिन्नताएं देखने को मिलती हैं। ये भिन्नताएं
देश, काल तथा परिस्थितियों
के अनुसार अलग-अलग रूप में सामने आती है। लेकिन सामान्य क्षेत्रों की बजाय साहित्य
एवं कला के क्षेत्र में यह विकासशीलता भिन्न प्रकार की होती है। ‘‘साहित्यिक क्षेत्र का प्रत्येक नवीन आंदोलन पूर्ववर्ती आंदोलन से
अपनी भिन्नता और नवीनता स्थापित करते हुए ही आगे बढ़ता है, लेकिन पूर्ववर्ती आंदोलनों से अपनी भिन्नता और
नवीनता की घोषणा के बावजूद नया आंदोलन पुराने से पूरी तरह विच्छिन्न नहीं होता।’’
यद्यपि
समकालीन कविता को कोई आंदोलन विशेष नहीं माना जा सकता फिर भी आज जो कुछ लिखा जा
रहा है वह भी परिवर्तन तथा विकास की प्रक्रिया से तो अवश्य ही गुज़रा है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में साहित्यिक क्षेत्र में अनेकानेक आंदोलनों का दौर देखने
को मिलता है। इस दौर में नई कविता एक विशेष आंदोलन था। वास्तव में नई कविता अनेक
वादों का समुच्चय था,जिसमें समसामयिकता,युगबोध, युगधर्म के साथ नव्य आशाएं, नव्य आकांक्षाएं, चुनौतियां, प्रभाव और नव्य विश्वासों का समागम था और
तत्कालीन कवि साधकों ने अपनी सर्जनात्मक मेधा से उसे प्रौन्नत किया था। इसीलिए
उसकी उत्तरवर्ती सर्जना में विविध वादों का उदय परिलक्षित होता है।
हिन्दी
नई कविता के उत्तरार्द्ध में सनातन सूर्योदयी, अस्वीकृत, अकविता, बीट कविता, ताज़ी कविता,प्रतिबद्ध कविता, सहज कविता, युयुत्सवादी कविता, अगली कविता, नवगीत आदि अनेक आंदोलन आए। दरअसल आज़ादी के बाद
के दो दशकों की हिन्दी कविता भारतीय राजनीति एवं समाज की अपेक्षा यूरोपीय आधुनिकता
तथा वामपंथी क्रांतिकारिता से अधिक जुड़ी रही। सर्वत्र वादों को गिनाने की हौड़ सी
लगी रही। नामवरसिंह के शब्दों में ‘‘ कोशिश यही रही कि किसी
पाश्चात्य वाद का नाम छूट न जाए। कुछ उत्साही तो अपनी मौलिक खोज प्रमाणित करने के
लिए हर यूरोपीय वाद के लिए हिन्दी से कुछ न कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत कर देते हैं।
इस तरह हिन्दी में धड़ल्ले से अभिव्यंजनावाद,अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, बिम्बवाद, भविष्यवाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा हुई।’’
आपातकाल
के बाद परिस्थितियों के बदलने के साथ विभिन्न वादों तथा काव्यधाराओं के निकलकर आई
कविता को हम समकालीन कविता मान सकते हैं। इससे पूर्व की हिन्दी कविता वैचारिक
अंतर्विरोधों से घीरी हुई मोहभंग वाली कविता है। यह मात्र अपने-अपने वाद की वक़ालत
करती नज़र आती है। इस कविता में जीवन जगत से जुड़ाव तथा सामाजिक सरोकार कम ही
मिलता है। यद्यपि सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में वामपंथी आदर्शों तथा जीवनमूल्यों
से सीधे सरोकार रखने वाली कविता ने हिन्दी कविता को अकविता जैसे संकीर्ण दायरे से
बाहर निकालकर आम आदमी से जोड़ने का अहम कार्य किया। लेकिन यहां भी कवियों की एक
वैचारिक प्रतिबद्धता नज़र आती है जिसकी जड़े हमारे अपने यथार्थ के बजाय किसी
विचारधारा विशेष में है।
संप्रेषण
के आग्रह के कारण कविता, कविता से इतनी हटी कि
गद्य ही हो गई। आठवें दशक में आकर कुछ हालात बदले। युवा कवियों की नई पीढ़ी चुपचाप
बिना किसी नाटकीय मुद्रा और ‘‘बिना हाथ उठाकर किसी नए काव्य धर्म की घोषणा के’’ दृश्य के केन्द्र में आ गई। सक्रियता और
उत्तेजना भी बढ़ी। आलोचना के एक मंच ने इस सक्रियता को कविता की वापसी नाम दिया।’’ अब कविता सब तरह के खेमा तथा धड़ाबंदी को छोड़कर
जीवन-जगत से गहरे जुड़ाव की कविता बनी। यह मानवीय सरोकारों की कविता हुई। यद्यपि
यहां भी कुछ वैचारिक प्रतिबद्धताएं देखने को मिलती है लेकिन इसके बावजूद भी इस समय
की कविता की पहुंच आम आदमी तक हुई। उसने आम आदमी की पीड़ा को महसूस किया।
राजस्थान
साहित्य अकादमी ने ‘राजस्थान के कवि शीर्षक’ से यहां के हिन्दी कवियों की चयनित रचनाओं को
तीन भागों में प्रकाशित
कर चुकी है। प्रथम काव्य संकलन का संपादन प्रो. नन्द चतुर्वेदी ने सन 1965 में किया, जिसमें प्रांत के 78 कवियों की रचनाओं को संकलित किया गया। दूसरे
भाग का संपादन प्रो. योगेन्द्र किसलय ने सन 1978 में किया, जिसमें 19 कवियों की रचनाएं
सम्मिलित की गई। इन 19 में भी भाग प्रथम में प्रकाशित सात वरिष्ठ
कवियों को पुनः शामिल किया गया। तीसरा संकलन नंद भारद्वाज ने सन 1989 में किया, जिसमें कुल 31 कवियों की रचनाओं को
सम्मिलित किया गया। इस संकलन में नंद भारद्वाज ने अकादमी द्वारा पूर्व प्रकाशित
दोनों संकलनों में शामिल होने से वंचित रहे कुछ वरिष्ठ कवियों को भी शामिल किया
है। तीसरे संकलन को भाग तन नहीं कहकर स्वतंत्र नाम ‘ रेत पर नंगे पांव’ दिया गया है। इस शोध पत्र में नंद भारद्वाज
द्वारा संपादित रेत पर नंगे पांव तथा गत तीन दशकों की पत्र- पत्रिकाओं में
प्रकाशित रचनाओं तथा समीक्षा आदि को आधार मानना समीचीन समझा गया है।
पंरपरा
की दृष्टि से विचार करें तो राजस्थान ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल और उससे पहले से
अब तक हिन्दी
को अनेक ख्यातिनाम साहित्यकार दिए हैं। इन साहित्यकारों का सृजन हमेशा अपनी
विशिष्टता लिए हुए रहा है। वीरगाथा काल में जहां चारण तथा जैन कवियों के साथ रासो
काव्यों के रचयिता कवि चंद जैसे साहित्यकार हुए वहीं भक्तिकाल में मीरां, संत दादूदयाल, निरंजनी पंथ के हरिपुरुष निरंजनी आदि ने हिन्दी
की सेवा की। रीतिकाल में नीतिकार वृंद तथा बिहारी इसी राजस्थान की देन रहे हैं।
ताराप्रकाश जोशी के शब्दों में ‘‘ कृष्ण प्रेम की दीवानी मीरा एवं वीरोचित डिंगल
साहित्य से उद्बोधित मरुप्रदेश राजस्थान की साहित्य परंपरा परिमाण की विपुलता तथा
गुणात्मकता दोनों ही दृष्टि से भारतीय साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।’’ (मधुमती- मार्च1986 पृ. 20) यहां
कविकर्म की सुदीर्ध परंपरा रही है लेकिन खड़ीबोली हिन्दी में यह कविकर्म गत सदी के
दूसरे-तीसरे दशक के दौरान शुरू हुआ। यहां की रियासतों में सामंतों और अँगरेज़ों की
दोहरी पराधीनता के विरुद्ध जो जनांदोलन हुए, उनके ज्यादातर कार्यकर्ता कवि थे। सामंती दमन
तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए जन साधारण को प्रेरित और उत्साहित करने के
लिए इन कार्यकर्ता कवियों ने गीत-कविताएं लिखीं। इस समय राजस्थान प्रदेश की अपनी
मायड़ भाषा राजस्थानी में भी इस सामंती अन्याय का प्रबल विरोध हुआ। यहां राजस्थान
की जनवादी कविता चरम पर रही है। उमरदान लालस, गणेशीलाल व्यास उस्ताद, रेंवतदान चारण, मनुज देपावत आदि की राजस्थानी कविताएं जन-जन के
कंठ का हार बनी। इनके
अतिरिक्त अनेक कवि-कार्यकर्ता राजस्थानी के साथ खड़ीबोली हिन्दी में भी लिखते रहे।
इनमें विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास, हरिभाऊ उपाध्याय,माणिक्यलाल वर्मा, गोकुलभाई भट्ट, हीरालाल शास्त्री, भैरो सिंह कालाबादल तथा सुमनेश जोशी प्रमुख थे।
इन
साहित्यकारों ने हिन्दी की मुख्य धारा से जुड़कर विशेष साहित्यिक सृजन किया है
वहीं स्थानीय रंग से रंगकर अपने सृजन को उल्लेखनीय बनाया है। यद्यपि इनकी रचनाओं
में कोई विशेष उच्च कोटि की कलात्मकता नहीं है लेकिन यह कविता मनुश्य की मुक्ति की
मुहिम में शामिल है। स्वतंत्रता के पूर्व तथा पश्चात दोनों तरफ की स्थितियों में
राजस्थान के कवियों ने अपना कविकर्म निभाया है। स्वाधीनता के बाद भारत के
ग्राम-जीवन को उन्नत करने के जो प्रयत्न हुए, उन्होनें उलटे उसको तोड़ दिया। सबसे अधिक तोड़ा
चुनाव ने। चाहे वह लोकसभा-विधानसभा का चुनाव हो या ग्राम-पंचायत का चुनाव हो।
जहां-जहां प्रजातांत्रिक पद्धति का प्रवेश हुआ, वहां-वहां उसने विष-बीज बोया। फलस्वरूप राजनीति
के दांव-पेच ने गांव के जीवन में घुसकर उसे विषाक्त बना दिया। ग्राम हो या शहर राजनीति ने सबको प्रभावित किया
है। स्वार्थ, अहम, तिकड़मबाज़ी, फ़रेब, धूर्तता आदि दुर्गुण समाज में चारों ओर फैलने
लगे। राजनीति के कारण जातिवाद का ज़हर तेज़ हुआ। साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई और
चौड़ी हुई तथा असामाजिक तत्वों के हौसले और बुलन्द हुए । राजनीति के कारण समाज में
अर्थशक्ति का प्रभाव और बढ़ा, जिसने मानवीय गुणों को अधिक प्रभावित किया। वैभव और तड़क-भड़क
पूर्ण जीवन के आकर्षण ने समाज की सारी नैतिकता को ही बदल दिया। झूठ,फ़रेब, धोखा, बेइमानी, भ्रष्टाचार, घुटन, अत्याचार और मनुश्य की बेचारगी, उसकी विवशता, बेचैनी तथा भटकाव को देखकर संपूर्ण साहित्यिक
जगत में क़लमें चलीं। राजस्थान की कवयित्री सावित्री का यथार्थ चित्रण देखिए- उनके
पास आँखें तो हैं पर दृष्टियां नहीं है/ सच तो पर साहस नहीं है/ दर्द तो है पर
अभिव्यक्ति की हिम्मत नहीं है/ जीवन तो है पर सोच नहीं है/ या किसी भय ने छीन ली
है उनकी संवेदना।
परिस्थितियों
को संपूर्ण भारत के रचनाधर्मियों ने अपने-अपने ढंग से चित्रित किया। राजस्थान भी
इस रचनात्मक कार्य में कैसे पीछे रह सकता था। यहां के कवि सुधीन्द्र, शकुंतला रेणु, कन्हैयालाल सेठिया, कर्पूरचंद्र कुलिष, प्रकाश आतुर, मनोहर प्रभाकर, ताराप्रकाश जोशी, मरुधर मृदुल,कमलाकर, राजकुमारी कौल आदि ने
हिन्दी कविता में अपना योगदान दिया। इनके बाद की पीढ़ी में लगातार दो-तीन दशक तक
राजस्थान के कवि नंद चतुर्वेदी, जयसिंह नीरज, हरीश भादानी, विजेंद्र,ऋतुराज, जुगमिंदर तायल, भागीरथ भार्गव, सुधा गुप्ता, रणजीत, भगवतीलाल व्यास, नंदकिशोर आचार्य, जबरनाथ पुरोहित, डॉ. दयाकृष्ण विजय, बलबीरसिंह करुण, रामदेव आचार्य आदि खड़ीबोली हिन्दी में बराबर
सक्रियता से लिखते रहे हैं। वर्तमान के दो दशकों में हेमंत जोशी, हरिराम मीणा, सवाईसिंह शेखावत, नंद भारद्वाज, रमाकांत शर्मा, गोविंद माथुर, कृष्ण कल्पित, संजीव मिश्र, अंबिका दत्त, विनोद पदरज, हितेश व्यास, सदाशिव श्रोत्रिय, प्रेमचंद गांधी, सुशील पुरोहित,अंजु ढड्डा मिश्र, अनिल गंगल, हरीश करमचंदानी, ओमेंद्र, महेन्द्र नेह, गिरिराज किराड़ू, प्रभात और पीयूष दईया के नाम उभर कर सामने आए
हैं। इनके
अतिरिक्त सावित्री डागा, मदन डागा, रामलखन मीणा,राघवेंद्र, सुरेंद्र श्लेष, सतीश वर्ता, ब्रजेंद्र कौशिक, भरत मिश्र प्राची, शिवराम आदि का कविकर्म उल्लेखनीय है।
उक्त
नामोल्लेखित कवियों के अलावा भी बहुत से ऐसे कवि निश्चित रूप से हैं, जो काव्य सृजन कर रहे हैं। संभव है कि उनका
सृजन आज के किसी भी चर्चित कवि से श्रेष्ठ निकले। ऐसा होता आया है। कबीर से लेकर
मुक्तिबोध, नागार्जुन, बाबा त्रिलोचन आदि इस बात के पुख्ता प्रमाण
हैं। मेरे अध्ययन की तथा शोधपत्र के रूपाकार की अपनी सीमाएं हैं। अतः मेरे इस पत्र
को उसी भाव से लेने का कष्ट करेंगे तो कृपा होगी। इस पत्र में मैने उन रचनाकारों
को भी शामिल नहीं किया है जो राजस्थानी तथा हिन्दी दोनों में समानान्तर काव्यसृजन
कर रहे हैं और उसका कारण यही रहा है कि उनका राजस्थानी सृजनात्मक योगदान इतना
विशेष है कि उसके सामने हिन्दी रचनाएं उतनी प्रभावी नहीं बन पाई है। मैंने उनके
राजस्थानी अवदान को पढ़ा है अतः हिन्दी लेखन में उनका नामोल्लेख मात्र करके छोड़ना
मुझे कहीं उचित प्रतीत नहीं हुआ। मैं उनसे क्षमा चाहूंगा। इसके बावजूद भी बहुत से
लोगों के नाम लिए गए है।
जब
दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है । अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी पूरी दूनिया के नक्शे पर
मार्च कर रही है लेकिन श्रम के मार्च पर सैंकड़ों पाबन्दियाँ हैं । सभ्यताओं के
तमाम विकास के बावजूद जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धांत ही एक मात्र सिद्धांत है ।
मुनाफ़ाखोर पूंजी केवल युद्धों को ही जन्म नहीं दे रही है, बल्कि बेरोज़गारी और ग़रीबी को भी विस्तार दे
रही है प्रजातन्त्र भ्रष्टतन्त्र हो गया है । आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर देश अन्तर्राष्ट्रीय
पूंजी के दलाल की भूमिका में आ गए हैं संयुक्त राष्ट्र संघ शक्ति हीन हो गया है ।
अब वह भी आर्थिक रूप से सम्पन्न देशों की रखैल-सा व्यवहार कर रहा है । पूंजी के
नेतृत्व में विघटनकारी शक्तियों धार्मिक व जातीय उन्माद फैलाकर आतंक की रचना कर
रही है फिर उसी आतंकवाद को समूल नष्ट करने का दम भी भरती है । पूंजी के प्रभुत्व
प्रभावशाली मिडिया लोगों की चेतना को उपभोक्तावाद और चरमभौगवाद की ओर मोड रहा है ।
इन्टरनेट
पर सैकड़ों पोर्नाग्राफ़ी साइटें और सेक्स रेकेट चलते हैं फ्री सेक्स की मुहिम ने
परिवार की औरतों को भी सेक्स रेकेट में शामिल कर दिया है यौन उनमुक्तता जीवन का
मन्त्र बन गई है । एड्स का ख़तरा बढ़ गया है । पारिवारिक संबन्धों में बिखराव आ
गया है । मुनाफाखोर पूंजी ने पर्यावरण को भयंकर नुकसान पहुँचाया है लेकिन अमेरिका
जैसे राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी ग़रीब मुल्कों पर डालने की कोशिश कर
रहै हैं । वर्ड बैंक और वर्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन धनी देशों के ईशारे पर काम कर रहा
है । व्यापार को मुक्त करने का दबाव बढ़ रहा है, पूरी दूनिया एक ग्लोबल विलेज हो रही है लेकिन
इसकी चौंधराहट अमेरिका जैसे देशों के पास ही है भूमंडलीकरण, उदारवाद और निजीकरण प्रगति के मूलमन्त्र बन गये
है ।
बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों का बाज़ार पर कब्जा बढ़ता जा रहा है सार्वजनिक क्षेत्र कोड़ियों के मोल
देशी / विदेशी पूंजी के हाथों बेचा जा रहा है तमाम तरह के बुद्धिजीवियों, सम्पादकों और चैनल मालिकों को बकायदा मीडिया
में रात दिन पैरवी करने के लिए ख़रीद रखा है । सार्वजनिक क्षेत्र की बात करने वाला
पिछड़ा माने जाने लगा है । पूंजीवाद, व्यक्तिवाद, और केरियरीज्म घोर स्वार्थ को जन्म दे रहा है ।
स्वार्थो ने हमारे पारावारिक व सामाजिक जीवन की सामुदायिकता को समाप्त कर दिया है
मनुष्य को आत्महीन व विचारहीन करने का पूरा प्रयत्न चल रहा है विकासशील देशों के
शोषण से वहाँ ग़रीबी, अशिक्षा और बीमारी का
साम्राज्य फैल रहा है । पाखण्ड, अंधविश्वास का व्यापार अरबों में पनप रहा है । तनाव बनाम शांति के
नाम व्यक्ति को संघर्ष से काटने की कोशिश हो रही है । राजनीति और ब्यूरोक्रेसी का
भ्रष्टतन्त्र धर्म, अर्थ और अपराधजगत के
साथ मिलकर दमन तन्त्र बन गया है न्यायतन्त्र की विफलता की चर्चा अब आम हो गई है ।
विकास के ऐसे मॉडल अपनाए जा रहै हैं जो हमारी ज़रूरतों संसाधनों के पार जाकर हमारे
लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े कर देता है। लेकिन नीजि और विदेशी पूंजी को फ़ायदे के
अवसर भरपूर देता है हमारे सामने स्वास्थ्य और पर्यावरण की समस्या पैदाकर ग़रीबों, आदिवासियों को तबाह कर देता है । ऐसे परिदृश्य
में हमें हिन्दी लघुकथा लेखन की स्थिति और नई सम्भावनाओं की तलाश करनी है -
भूमण्डलीकरण, स्त्री एवं दलित
विमर्श हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा बन गये है। लेकिन क्या कथा-साहित्य में ऐसा है ?
मुझे
लगता है कथा-साहित्य में
भूमण्डलीकरण, उदारवाद और निजीकरण के
ख़तरे लगभग अनुपस्थित है। नये आर्थिक नीति के तहत बंद होते सार्वजनिक कारख़ाने और
उनसे निकाले गये कर्मचारी बढ़ती बेरोज़गारी को और बढ़ा रहै है। लेकिन इस सन्दर्भ
में लघुकथा साहित्य में एक्की-दुक्की रचनाएं ही प्राप्त होंगी । मुक्त व्यापार, अंधांधुध विदेशी निवेश के ख़तरे भी कथा- साहित्य में व्यक्त नहीं
हुए हैं । स्त्री विमर्श है लेकिन वह भेदभाव से आगे नहीं बढ़ पाया है । स्त्री पर
हो रहै अत्याचार जैसे दहैज, बलात्कार आदि तो हैं लेकिन उसकी अस्मिता को
लेकर रचनाएं सिरे से गायब हैं इसी तरह दलित विमर्श के मुद्दे भी कथा- साहित्य में व्यक्त हुए भी
हैं तो वे हिन्दी कथा-साहित्य की मुख्य धारा के हिस्से नहीं बन पाये है। विभिन्न स्तरों
के मज़दूरों और किसानों की स्थितियाँ, बदलता ग्राम्य जीवन भी व्यक्त नहीं हुआ है।
पिछले दिनों हुई गुजरात की भीषण साम्प्रदायिक घटनाओं पर भी कोई टिप्पणी नहीं है ।
अगर कोई साहित्य अपने समय के मुख्य प्रश्नों /मुद्दों से रूबरू नहीं होता है,तो वह साहित्य अपनी उपयोगिता व महत्ता खो देता
है ।
वस्तु
के स्तर पर आख़िर कथा-साहित्य में अब तक
क्या व्यक्त हुआ है । इसे जाँचना भी ज़रूरी है,कथा-साहित्य में मूल्यों
के क्षरण पर चिंता व्यक्त की है लेकिन यह चिंता भी अधिकतर इस सेंस में हुई है कि
देखिये पहले समाज में कितने अच्छे मूल्य थे और हम अब कहाँ आ पहुँचे हैं । वस्तु के
स्तर पर कथा का केन्द्र बिन्दु परिवार रहा है, उसमें बनते-बिगड़ते रिश्तों पर प्रकाश डाला गया
है,परिवार में वृद्धों की
दयनीय स्थिति को खुब उकेरा गया है लेकिन ऐसा क्यों और कैसे हुआ । उसका विश्लेषण
नहीं है ? सम्भवतः यह लघुकथा की सीमा हो कि वह विश्लेषण
में नहीं उतर सकती फिर भी मेरा मानना है कि कुछ संकेत लघुकथा में भी किये जा सकते
हैं परिवार में स्त्री की दशा को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई है लेकिन वह लघुकथा
में एक स्टोंग ट्रेंड नहीं बन सकी। परिवार व सम्बन्धों के अतिरिक्त लघुकथा साहित्य
में राजनैतिक व्यग्य की भरमार है । इसके अन्तर्गत राजननेताओं ओर नौकरशाही की
चरित्रहीनता, हृदयहीनता, भ्रष्टता और नीचता पर अच्छा ख़ासा व्यंग्य किया
है । पुलिस विभाग पर इतना लिखा गया कि स्वयं लघुकथा लेखक कहने लगे बहुत हो गया भाई
अब बस करो । ‘आतंक’ संकलन (सम्पादक धीरन्द्र शर्मा व नन्दन हितैषी)
का पूरा विषय ही पुलिस विभाग था । इसमें पुलिस के दमनात्मक एवं भ्रष्ट व्यवहार को
दर्शाया गया है उन्हें केवल धन/पद की चिन्ता है इसलिए वे अपने राजनीतिक आशंकाओं के
इशारे पर उठते-बैठते हैं,अपराधियों से साठगांठ
करते है, वे बख़ूबी अपना
दायित्व भूल जाते है क्योंकि आज व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हो गये हैं इसी तरह
रिश्वतखोरी के संबन्ध में भी अति हो यह अति तब लक्षित हुई जब एक ही कथ्य व एक सी
ही स्थितियों पर रचनाओं की बाढ़ आ गई । निश्चित ही इसमें नकल व रचनाओं की चोरी का
मुद्दा भी उठा।समाज, राजनीति और न्याय
व्यवस्था में भी सामाजिक व मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन हुआ लोगों का ग़लत तरीक़ों
में विश्वास बढ़नें लगा है । यह सब भी व्यक्त हुआ इसके साथ घोर स्वार्थ ने मनुष्य
को हृदयहीन और संवेदन हीन कर दिया।अमानवीयकरण की हद तक पहुँचने के किस्से हमारे
जीवन में बिखरे पड़े है। लघुकथा ने उन्हें व्यक्त भी किया लोगों की
व्यक्तिकेन्द्रित मनोवृतियों को व्यक्त किया है।धार्मिक पांखड पर भी व्यंग्य हुआ
है । लेकिन कुल मिलाकर लेखक निम्न मध्यमवर्गी व मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया
है।ऑफिस और स्कूल को घटनाओं पर बहुत सी रचनाएं लघुकथा साहित्य में मिल जाएगी लेकिन
उनतनी ही प्रचुरता में खेत-खलिहान पर लिखी रचनाएं नहीं मिलेगी। चूंकि अधिकतर लेखक
अघ्यापक व कर्मचारी है। और उनकी दृष्टि आदर्शवादी व अनुभव संसार बहुत सिमटा है अतः
नये कथ्य कहाँ से आयेंगे ? व्यापक अनुभव और गहरी विश्लेषणात्मक दृष्टि
सम्पन्न लोग ही लघुकथा को वस्तु के स्तर पर नये आयाम दे सकते हैं। साम्प्रदायिकता
की पृष्ठभूमि एक अच्छा संकलन आया है ‘आयुध’ -सम्पादक कमल चोपड़ा,इसमें साम्प्रदायिकता का विरोध है । ‘शिक्षाजगत की लघुकथाएं’ - सम्पादक रूपदेव गुण शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी
समस्याओं का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है इसी तरह ‘स्त्री-पुरूष सबंधों
को लघुकथाएं सम्पादक सुकेश साहनी, जिसमें दाम्पत्य जीवन के तनाव व्यक्त हुए है । विषय विशेष को लेकर
संकलन अभी और आने चाहिए ताकि लघुकथा साहित्य का आकलन ठीक से हो सके ।
कविता
और कहानी की मुख्य धारा को देखें तो हम पाएंगे कि वे हमारे समय की चिंताओं और
चुनौतियों को अभिव्यक्त कर रही है जबकि लघुकथा लेखन साहित्य जगत में उतनी ही
मुस्तैदी से नहीं खड़ा है । कोई साहित्यकार कितना ही लघुकथा को नकारे अगर वह
साहित्य हमारे समाज की नब्ज पर हाथ रखता हो तो उसे नकार पाना क़रीब-क़रीब असम्भव
हो जायेगा । लघुकथा वस्तु के स्तर पर क़दमताल कर रही है वह आगे नहीं बढ़ रही है ।
लघुकथा लेखकों को इस दिशा में सोचने की ज़रूरत है क्या हम लिखें, छपें, संकलन/संग्रह छपवायें और चूक जाने के आगे विचार
करेंगे । साहित्य केवल व्यक्तिगत संतोष के लिए नहीं है इसके व्यापक सामाजिक
दायित्व है ।
शिल्प
के स्तर पर लघुकथा लेखन की वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डाले तो पाएंगे कि कथा
साहित्य ने पारम्परिक कथा शिल्प को ख़ूब अपनाया है । आधुनिक कथा साहित्य में भी
नैतिक व नीति कथाएं अच्छी ख़ासी तादाद में मिल जायेगी । कथा साहित्य ने प्रतीक व
फ़ैटेंसी के शिल्प को भी ग्रहण किया है । पैरोडी कथाओं की बाढ़ आई थी एक समय ।
व्यंगय विनोद का इतना प्रयोग हुआ कि पाठकों साहित्यकारों को कथा साहित्य में
व्यंग्य की अनिवार्यता महसूस होने लगीं लेकिन यह व्यंग्य-विनोद के किस्से चुटकुले
तक पहुँच जाने से लघुकथा की छवि को आघात भी लगा ।
साहित्य
कथाओं के शिल्प को गद्यगीतों, भावकथाओं संस्मरणों ने प्रभावित किया है। नये शिल्प भी विकसित हुए
लेकिन यह भी सच है कि घटना कथा, सत्यकथा, रोमांचक कथा और
चमत्कारिकता के अति आग्रह ने व भाषा शेली की अनगढ़ता ने कथा साहित्य के शिल्प को
नुकसान ही पहुँचाया।चूंकि कथा साहित्य के उन्मेष के पीछे समाज में व्याप्त
विसंगितयों, विरोधाभासों और
विडम्बनाओं को उघाड़ने का उद्देश्य रहा था इसलिए उनके लिए जो ढाँचे उपयोग में लाये
गये वे बाद में इतने रूढ़ हो गये कि लेखक यान्त्रिक तरीक़े से उन ढाँचों का उपयोग
कर रचनाएं लिखते रहै । इन कथा ढाँचों में कथनी - करनी के भेद, विरोधाभासी व विडम्बनात्मक स्थितियों ओर
तुलनात्मक स्थितियों को आमने-सामने रखकर व्यंग्य किया गया । आरम्भ में वे लोकप्रिय
भी हुई लेकिन रूढ़ता पाप्त होने के बाद कथा-साहित्य क्षेत्र में उनकी महत्ता कम हो गई । लेकिन संवाद कथा के
ढांचे का भरपूर उपयोग हुआ है ।
जैसे
कविता में सपाट बयानी का दौर आया था, जो विचार को अत्यधिक महत्व देता था और शिल्प के
प्रति लापरवाही दृष्टि रखता था ठीक वैसा ही दौर कथा- साहित्य लेखन में भी आया, जब कथ्य को प्रकट करना समूचे लेखन का उद्देश्य
हो गया था, स्वभाविक ही साहित्यक
हल्क़ों में इस लेखन की आलोचना हुई । हालाँकि कविता में सपाटबयानी के पैरोंकारों
के सपाट बयानी को ख़ूब प्रोटेक्ट किया लेकिन अन्ततः शिल्प की ज़रूरत को सबने महसूस
किया, अगर कथ्य सम्प्रेषण ही
एक मात्र ध्येय है तो सपाटबयानी ठीक है । यथार्थ के हु-ब-हू वर्णन साहित्यिक कला को जन्म नहीं देते अतःललित साहित्य का सौन्दर्य बोध भी वांछित है ।
यह ज़रूर है कि आज के समय में विचारधारात्मक कथ्य महत्वपूर्ण हो गए हैं, और कथा- साहित्य वैसे भी कथ्य प्रधान विधा रही है
इसलिए सपाट शिल्प का होना कोई अनहोनी बात नहीं है सपाटबयानी शिल्प की एक ख़ासियत
है कि वे सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित हो जाती है, लेकिन अब कथा-साहित्य लेखक शिल्प के प्रति सजग हो रहा है । उसे लगने लगा है कि
कथा-साहित्य में केवल कथ्य
ही नहीं देखा जायेगा बल्कि कथ्य के प्रकटीकरण का समायोजन भी देखा जायेगा । लेकिन
शिल्प के प्रति अति आग्रह भी नहीं होना चाहिए । शिल्प की दुहरता संप्रेषण में बाधा पहुँचाती है तो कथ्य की प्रधानता रचना के सोन्दर्य में
कभी करती है अतः इनके बीच एक सन्तुलन होना आवश्यक है । कई लोग कथा-साहित्य को यथार्थ की तपती धरती पर खड़ा होना
नहीं देखना चाहते। टेक्नोलोजी के विकास के साथ-साथ और जीवन जीवन परिस्थतियों में
बदलाव के साथ-साथ हमारे अभिव्यक्ति के उपकरण भी बदल जाते हैं। कथा-साहित्य में इन्टरनेट चैटिंग के शिल्प व कथ्य
को प्रकट किया गया था । सम्भावनाएं अनन्त हैं । तेज़ी से बदलता समय हमारे लिए
कथ्यों की कमी नहीं होने देगा ओर अभिव्यक्ति के उपकरण भी समय के साथ बदलते
जायेंगे। कथ्य और शिल्प के स्पर पर सम्भावनाएं भरपूर हैं, इस दिशा में अनुसंधान किये जाने की महती ज़रूरत हैं ।
No comments:
Post a Comment