सामाजिक
मीडिया जनमत निर्माण में कितना कारगर
प्रोफ़ेसर (डा.)
रामलखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,
अजमेर, राजस्थान-9413300222
जनमत-संग्रह, जिसे मत-संग्रह या सिर्फ जनमत भी कहते हैं, एक ऐसा प्रत्यक्ष मतदान है जिसमें किसी
क्षेत्र विशेष के सभी मतदाताओं को मतदान के द्वारा किसी एक विशेष प्रस्ताव को
स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जनमत-संग्रह के
माध्यम से सरकार की नीतियों या किसी प्रस्तावित कानून के बारे में जनता की राय
मालूम की जाती है। जनमत-संग्रह नये संविधान के निर्माण, वर्तमान
संविधान में संशोधन, किसी नये कानून, किसी निर्वाचित सदस्य का निर्वाचन रद्द करने या केवल सरकार की किसी विशिष्ट नीति को स्वीकार या
अस्वीकार करने से संबंधित हो सकता है। यह प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक रूप है। समाचार-पत्र
अगर समाचारों के पत्र होते , तो इतनी सारी बहस की
जरूरत नहीं होती । अगर दुनिया मे कभी समाचारों का पत्र होगा तो वह एक बिलकुल भिन्न
चीज होगी । मौजूदा सभ्यता में समाचार-पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है ,
दूसरे ढंग से देखें तो वह जनमत का निर्माता है । यह मत-निर्माण
सिर्फ तात्कालिक मुद्दों के बारे में नहीं होता है , बल्कि
गहरी मान्यताओं और दीर्घकालीन समस्याओं के स्तर पर भी होता है । यह मत-निर्माण या
प्रचार इतना मौलिक और प्रभावशाली है कि इसे मानस-निर्माण ही कहा जा सकता है ।
प्रचार का सबसे प्रभावशाली रूप है समाचार वाला रूप । अगर आप यह कहें कि ’ गन्दगी से घृणा करनी चाहिए’, तो यह गन्दगी के खिलाफ़
एक कमजोर प्रचार है । अगर आप कहें कि ’गन्दगी बढ़ गयी है’,
तो गन्दगी के खिलाफ़ यह ज्यादा प्रभावशाली वाक्य है । आप कहे कि ’पाकिस्तान को दुश्मन समझो’, तो इसका असर कम लोगों पर
होगा । कुछ लोग पूछेंगे , क्यों ? लेकिन
वही लोग जब पढ़ेंगे कि ’ पाकिस्तान को अमरीका से हथियारों का
नया भंडार मिला’ तो दुश्मनी अपने आप मजबूत हो जायेगी । आप
प्रचार करेंगे कि ’ हमें पाँच-सितारा होटलों की जरूरत है’,
तो लोग कहेंगे – नहीं । लेकिन वे जब पढ़ेंगे कि
’ होटल व्यवसाय से सरकार ने १० करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा
कमाई’ तो उन्हें खुशी होगी । प्रचार में द्वन्द्व रहता है ।
शिक्षा – दान में द्वन्द्व रहता है । समाचार में द्वन्द्व
नहीं होता है – इसलिए समाचारों से मान्यतायें बनती हैं ,
मानस पैदा होता है । इसीसे अनुमान लगाना चाहिए कि दैत्याकार
बहुराष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं का कितना प्रभाव तीसरी दुनिया
के शिक्षित वर्ग पर होता है ।
गांधीजी ने जब ’हिन्द-स्वराज्य’ लिखा, डॉक्टरों और वकीलों के पेशे को समाज-विरोधी
पेशे के रूप में दिखाया । हो सकता है कि वे उदाहरणॊं की संख्या बढ़ाना नहीं चाहते
थे या हो सकता है कि पत्रकारों के समाज – विरोधी चरित्र का
साक्षात्कार उन दिनों उन्हें नहीं हुआ था । गांधी अति अव्यावहारिक विचारकों की
श्रेणी में आते हैं । उनके सपने का समाज नहीं बनने वाला है । हम वकीलों-डॉक्टरों
के पेशे को समाज -विरोधी नहीं कह सकते । साधारण नागरिक के लिए पग-पग पर
वकील-डॉक्टर की सेवा की जरूरत पड़ जाती है । जैसे हम जानते हैं कि स्कूलों में
अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है, लेकिन हम अगर स्कूलों को समाज
विरोधी कहेंगे, तो हमारे बच्चे मूर्ख रह जायेंगे । इसी तरह
समाचार-पत्र के आधुनिक मनुष्य के लिए एक बहुत बड़ा बोझ
होने पर भी उसे पढ़े बिना रहने पर हम अज्ञानी रह जायेंगे । समाज में बात करने लायक
नहीं रह जायेंगे । ज्यादा से ज्यादा आप इसे एक विडम्बनापूर्ण स्थिति कह सकते हैं ,
जहाँ समाचार-पत्रों की स्वाधीनता है , लेकिन
पत्रकार पराधीन है । समाचार-पत्र आधुनिक मनुष्य के ऊपर एक बहुत बड़ा अत्याचार है ।
साथ ही , वह हमारी सांवैधानिक आजादी का माध्यम भी है ।
सूचना
एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में पृथ्वी का दायरा सिमटता-सा नजर आ रहा है.
आज
विश्व के किसी भी कोने में घटित घटना हम घर में बैठे-बैठे ही देख रहे हैं.
राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे विचारों का विनिमय इस तरह हो रहा है
जैसे हम परिवार के लोगों से करते हैं. वैश्वीकरण की प्रक्रिया का सारा श्रेय
जनसंचार माध्यम को जाता है जो सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं व रूढ़ियों की जटिलताओं
को क्षीण करते हुए मिली-जुली संस्कृति एवं नए मानव मूल्यों की स्थापना कर रहा है. आज
हम जिस सामाजिक परिवर्तन का दर्शन कर रहे हैं उसका सबसे अधिक श्रेय मीडिया को जाता
है. लोगों की जीवनशैली में जिस तरह से परिवर्तन हुआ है उससे अमीरी और गरीबी की खाई
पटती नजर आ रही है . व्यक्ति भले ही अभावों में
जीवनयापन कर रहा हो लेकिन वह जीवन के अच्छे पहलू को समझ रहा है और उसको प्राप्त
करने का प्रयास भी कर रहा है. दैनिक उपयोग की वस्तुओं का जिस तरह से सामान्यीकरण
हुआ है उसमें महत्वपूर्ण योगदान जनसंचार माध्यमों का है. आज योग और आयुर्वेदिक
उपचार से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है, अगर मीडिया इतनी
प्रभावी न होती तो शायद सूचना इतनी तीव्र गति से नहीं पहुंचाई जा सकती थी. मीडिया
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में समाज को मजबूत दिशा दे रहा है. लोकहित की
रक्षा के लिए सरकार पर नियंत्रण रखते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती प्रदान
करने का कार्य मीडिया के द्वारा हो रहा है. वर्तमान समाज में वैज्ञानिक चेतना का
विकास हो रहा है जिससे कृषि उत्पाद दर और परिवार कल्याण को प्रोत्साहन मिल रहा है. खेल का मैदान भी मीडिया से अछूता नहीं है. इसके द्वारा खेलों की जानकारी
के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय भावना का विकास हो रहा है. महत्वपूर्ण
तथ्यों की जानकारी एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता मीडिया की ही देन है.
भूमंडलीकरण
के इस दौर में पिछले एक दशक से जिस उपभोक्तावादी संस्कृति ने जन्म लिया है उसका
प्रभाव पूरे विश्व पर देखने को मिल रहा है. मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह सका है.
न्यूज चैनल उन्हीं तथ्यों को देखने और दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं जो दर्शकों को
ज्यादा लुभावने लग सकते हैं, भले ही उनके दिलो-दिमाग
पर इसका कैसा भी असर पड़े. मीडिया समाज को दर्पण दिखाने का कार्य कर रहा है,
लेकिन उस दर्पण में लोगों को अपना प्रतिरूप आदर्श लग रहा है. समाज
का प्रतिबिंब देख, बदलने के स्थान पर लोग उसी में ढलते जा
रहे हैं. यह मीडिया के लिए विचारणीय प्रश्न है. अगर एक दशक के सिनेमा पर विहंगम
दृष्टि डालें तो बीस फीसद फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के चरित्र को दर्शाया गया
है. लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर फिल्मों में स्कूल या कॉलेजों के
भोंडे स्वरूप को ही प्रस्तुत किया गया है. उसी की नकल स्कूल और कॉलेजों में शुरू
हो गई है. इंटरनेट समाज के लिए वरदान है, लेकिन कुछ अश्लील
वेबसाइट्स से युवा पीढ़ी गुमराह भी हो रही है. इस पर भी विचार की आवश्यकता है. व्यावसायिक
प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खबर को मसालेदार और चटपटा बनाने के लिए सचाई को
तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना, अश्लीलता को परोसना, एक ही खबर को पूरे दिन या कई दिनों तक प्रस्तुत करना न्यूज चैनलों के लिए
आम बात है. टीवी धारावाहिकों को इतना लंबा बनाया जा रहा है कि वे अंतहीन मालूम
पड़ने लगते हैं.
कुछ
धारावाहिकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी पाश्चात्य चमक-दमक से ओत-प्रोत हैं जिससे
हमारी संस्कृति, सभ्यता और इतिहास की जड़ें खोखली होती जा
रही हैं जिसके कारण हम अपने आदर्श, मर्यादा, राष्ट्रप्रेम, समाज और संस्कृति से कटते जा रहे हैं. विज्ञापनों की अधिकता भी
मीडिया के सकारात्मक पहलू को प्रभावित कर रही है. सच है कि विज्ञापनों के माध्यम
से ही मीडिया को अर्थ की प्राप्ति होती है पर इतना ही मीडिया का उद्देश्य तो नहीं
हो सकता. तीस मिनट के कार्यक्रम में सत्रह से अट्ठारह मिनट विज्ञापन में ही जाते
हैं और उसी तीस मिनट के कार्यक्रम में एक ही विज्ञापन को चार से पांच बार दिखाया
जाता है. इससे समय तो बर्बाद होता ही है बाजारवाद को भी बढ़ावा मिलता है. समय के
साथ-साथ विज्ञापन की गुणवत्ता को भी ध्यान में रखना मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी
होनी चाहिए. समाचारपत्र भी इस प्रभाव से नहीं बच पाए हैं. जिस नीमहकीम को डॉक्टरों
ने खारिज कर रखा है उसका भी विज्ञापन उच्च गुणवत्ता के मानक के साथ प्रस्तुत किया
जा रहा है.
लोकतंत्र
में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका
के समुचित ढंग से कार्य न करने के कारण लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को अपनी
सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. आज का सबसे बड़ा सरोकार है नकारात्मकता भूमिका से
सकारात्मक भूमिका में परिवर्तन. मीडिया की भूमिका जितनी सशक्त होगी, उतना ही अधिक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन होगा.पिछले 15 वर्षों में मीडिया के स्वरूप में बहुत तेज बदलाव देखने को मिला है। सूचना
क्रांति एवं तकनीकी विस्तार के चलते मीडिया की पहुंच व्यापक हुई है। इसके समानांतर
भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाजारीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई
है, जिससे मीडिया अछूता नहीं है। नए-नए चैनल खुल रहे हैं,
नए-नए अखबार एवं पत्रिकाएं निकाली जा रही है और उनके स्थानीय एवं
भाषायी संस्करणों में भी विस्तार हो रहा है। मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय
पहलू यह जुड़ा गया है कि यह सामाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है। मीडिया के इस
बदले रूख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती जा रही है, जो यह
मानते हैं कि मीडिया के मूल में सामाजिक सरोकार होना चाहिए।
भारत
में मीडिया की भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर हो ही नहीं सकती पर
यहां मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है। मीडिया की प्राथमिकताओं में अब
शिक्षा,
स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन
जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता
के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, यानी जो
बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ
खबरें भी इतनी सड़ी हुई है कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित
बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने)
के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा ह। खबरों के उत्पादकों के पास इस बात का
भी तर्क है कि यदि उनकी ''बिकाऊ'' खबरों
में दम नहीं होता, तो चैनलों की टी.आर.पी. एवं अखबारों का
रीडरशप कैसे बढ़ता?
इस
बात में कोई दम नहीं है कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है, क्योंकि विकल्पों को खत्म करके पाठकों, दर्षकों एवं
श्रोताओं को ऐसी खबरों को पढ़ने, देखने एवं सुनने के लिए
बाध्य किया जा रहा है। उन्हें सामाजिक मुद्दों से दूर किया जा रहा है। ऐसी ही
परिस्थितियों के बीच मीडिया में विकास के मुद्दों को बढ़ावा देने का कार्य कर रही
भोपाल की एक संस्था विकास संवाद ने कुछ दिन पूर्व चित्रकूट में राष्ट्रीय मीडिया
संवाद का आयोजन कर नई उम्मीदें जगाई हैं। संभवत: देश में यह पहला आयोजन है,
जिसमें 7 राज्यों - मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, बिहार,
दिल्ली, राजस्थान, पंजाब
के पत्रकारों ने भाग लिया। संवाद में संपादक, वरिष्ठ पत्रकार,
स्वतंत्र पत्रकार, वरिष्ठ उप संपादक, उप संपादक, संवाददाता, जिला
संवाददाता, पत्रकारिता के प्राध्यापक एवं पत्रकारिता के
विद्यार्थियों ने शिरकत की।
संवाद
का स्वरूप अनौपचारिक था, जिसमें प्रतिभागियों को अपने
अनुभवों एवं अतीत को खंगालने का मौका मिला। संवाद की शुरुआत पत्रकारों ने अपने सफर
के साथ ही शुरू कर दी थी। आयोजन में विभिन्न संस्थानों के पत्रकार काम के दबाव के
बाहर आकर एक दूसरे से मिले। कई पत्रकार पिछले 4-5 वर्षों से
फोन पर चर्चा करते रहे थे, पर आपस में कभी मिले ही नहीं थे,
कई पत्रकार वर्षों बाद आमने-सामने हुए. सभी ने अपनी यादों के गर्द
को साफ करना शुरू कर दिया - किस मकसद के लिए है पत्रकारिता, किस
ओर जा रही है पत्रकारिता, किन-किन दबावों को झेल रही है
पत्रकारिता, कौन कहां क्या कर रहा है, के
साथ-साथ हास-परिहास। राष्ट्रीय मीडिया संवाद को कई सत्रों में विभाजित किया गया था,
पर ऐसा नहीं था कि उसमें तब्दीली न की जा सके। पूरी स्वतंत्रता थी
कि सामूहिक रूप से तय कर चर्चा को आगे बढ़ाया जाये और ऐसा हुआ भी. रात को सभी
पत्रकारों ने अपने जीवन के दूसरे पक्ष को टटोला, जिस फन को
भूल गए थे उसे याद किया, पद और शक्ति का चोला एक ओर रखकर
आयोजन स्थल को कम्यून बना दिया, सभी बराबर और सभी को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
राष्ट्रीय
मीडिया संवाद में कुई गंभीर चर्चाएं हुई - क्या है विकास, एकांगी विकास, समग्र विकास, शहरी
एवं ग्रामीण विकास में अंतर, विस्थापन, स्वास्थ्य, बच्चों के अधिकार, विकास
में महिलाओं की स्थिति, समानता एवं उसके विभिन्न पहलू,
वैकल्पिक मीडिया, मुख्यधारा के मीडिया में
स्पेस की समस्या का समाधान, अपनी भूमिकाएं आदि कई मुद्दों पर
चर्चा की गई। संवाद की शुरुआत परिचय के साथ हुई। परिचय में प्रतिभागियों ने न केवल
अपने नाम, संस्थान एवं अपने काम के बारे में बताया, बल्कि गैर सरकारी संस्थाओं को वे किस नजर से देखते हैं और संस्थाओं एवं
समाज के बीच उनकी अपनी क्या छवि है को लेकर भी बात की। माखनलाल पत्रकारिता
विष्वविद्यालय भोपाल के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पुष्पेन्द्रपाल सिंह ने
कहा कि स्वयंसेवी संस्थाएं भावनात्मक आधार पर काम करते हैं पर मीडिया तर्क और
विवेक को मानता है। इसी सत्र में दैनिक जागरण, मेरठ में
कार्यरत रमेन्द्र नाथ झा ने अपने अनुभवों को बताया कि जब उनके पास विकास की खबरें
आती है, तब उनकी कोशिश होती है कि उसे किसी भी तरह से
प्रकाशित होना चाहिए, यदि उस दरम्यान विज्ञापन या अन्य खबरों
का दबाव हो तो भी कोशिश होती है कि वह एक कॉलम या बॉक्स के रूप में ही चला जाए।
अन्य प्रतिभागियों ने भी बताया कि सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों के प्रति उनकी
प्रतिबध्दता तो रहती है, पर इन मुद्दों पर कार्यरत सभी
स्वयंसेवी संस्थाओं को वे सही नहीं मानते। उन्होंने यह भी कहा कि जो संस्थाएं एवं
संगठन बेहतर काम करती है, उनकी बातों को सुनते भी हैं और
उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों को प्रकाशित करने का प्रयास भी करते हैं।
विकास
एवं सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों को संचार माध्यमों में विस्तार देने के
उद्देष्य से वेब एवं न्यूज पोर्ठल के विकल्पों पर भी चर्चा की गई पर यह बात भी
सामने आई कि अभी भी इसमें विष्वसनीयता का संकट है। इसकी तकनीकी पहलुओं और पहुंच के
बारे में पी.एन.एन. हिन्दी न्यूज पोर्टल के संपादक शिराज केसर एवं माय न्यूज डॉट
इन न्यूज पोर्ठल के संपादक वेदव्रत गिरि ने विस्तार से बात की। इसी चर्चा में
ब्लॉग को लेकर भी बात हुई कि क्या जो खबरें प्रकाशित नहीं हो रही है, उसे ब्लॉग पर डाल देना चाहिए या फिर ब्लॉग एक ऑनलाइन व्यक्तिगत डायरी ही
माना जाना चाहिए। विस्तृत होती जा रही इस चर्चा को विराम देते हुए यह माना गया कि
वेब को विकल्प के बजाय विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि
इसे भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। वेब के लिए भाषा
आज भी एक समस्या है
·
विकास के मुद्दों को अखबारों के
लिहाज बिकाऊ बनाने की जरूरत है।
·
मुद्दों के विभिन्न पक्षों को
देखने की जरूरत है।
·
सोच में सकारात्मक परिवर्तन लाने
की जरूरत है।
·
मुद्दा आधारित पत्रकारों के समुह
बनाने की जरूरत है।
·
स्थानीय मुद्दों पर लिखने, शोध करने एवं उसका फॉलोअप करने की जरूरत है।
·
मीडिया के छात्रों के साथ
कार्यषाला आयोजित करने की जरूरत हैं।
·
प्रभावित क्षेत्रों में कार्यषाला
करने की जरूरत है।
·
सामाजिक विकास से जुड़ी एजेंसियों
के माध्यम से मुद्दों पर लिखे गए लेखों को जारी करने होंगे।
इन
कार्ययोजनाओं को देखते हुए यह जरूरी है कि जो प्रतिभागी संवाद में शामिल हुए हैं
और जो मीडिया संवाद से जुड़े हैं, या फिर जो जन सरोकार से
जुड़कर मूल्यपरक पत्रकारिता के पक्षधर हैं, वे अपने-अपने
क्षेत्र में संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएं। इसके लिए निम्न कार्य करना
महत्वपूर्ण हैं -विकास से जुड़े मुद्दे पर अपने आसपास (प्रदेश, जिला या क्षेत्र) की घटनाओं की जानकारी मीडिया संवाद से जुड़े साथियों को
अवगत कराना, ताकि उस पर अलग-अलग आयामों के साथ लेखन एवं
कार्य किया जा सके।
संवाद
से जुड़े साथियों के साथ लगातार संवाद बनाए रखने की कोशिश करना और उनके साथ अपने
अनुभवों को साझा करना ।
·
अपनी जानकारियों को दूसरे साथियों
के साथ साझा करना।
·
विभिन्न मुद्दों पर द्वितीयक
सामग्री के लिए अन्य साथियों से चर्चा करना।
·
स्थानीय मीडिया संवाद का आयोजन
करना।
·
विभिन्न मुद्दों पर स्थानीय मीडिया
संवाद के आयोजन के लिए पहल करना।
·
प्रमुख एवं सामयिक मुद्दों के
कव्हरेज के लिए योजना बनाना और उसे क्रियांवयित करना ।
विकास के मुद्दों पर स्वयं के प्रकाशित लेखों एवं
समाचारों को अन्य साथियों के पास भेजना और उसकी कॉपी विकास संवाद को भी भेजना ताकि
उसे वेबसाइट पर डाउनलोड किया जा सके, जिससे कि उसका
उपयोग अधिकतम लोग कर सके।
·
सामाजिक विकास से जुड़े मुद्दों पर
लेख एवं समाचार जारी करने वाली एजेंसियों को समाचार एवं लेख भेजना।
·
मीडिया संवाद का आगामी स्वरूप कैसा
हो, को लेकर चर्चा करना और उससे विकास संवाद को अवगत कराना।
उल्लेखनीय है कि विकास संवाद ने पिछले वर्ष पचमढ़ी
में एक राज्य स्तरीय मीडिया संवाद की शुरुआत छोटे समूह के साथ की थी। उसके बाद
मध्यप्रदेश के विभिन्न प्रमुख शहरों के उन पत्रकारों को एक मंच पर लाने की कोशिश
की गई जो सामाजिक सरोकार एवं विकास पत्रकारिता के प्रति गंभीर हैं। कई क्षेत्रीय
मीडिया संवाद के आयोजन भी किए गए। महज एक वर्ष में सैकड़ों पत्रकार मीडिया संवाद
से जुड़ चुके हैं और विकास के विभिन्न मुद्दों पर विष्लेषणात्मक और तथ्यपरक
समाचारों एवं लेखों का प्रकाशन एवं प्रसारण कर रहे हैं। विकास संवाद द्वारा
विभिन्न मुद्दों पर जारी सरकारी एवं गैर सरकारी रिपोर्ट्स, सर्वे, आंकड़ों आदि का विष्लेषण कर समय-समय पर
पत्रकारों को उपलब्ध कराया जाता है।
सोशल
मीडिया के जरिए ऐसी सामग्रियों का प्रसारण बड़ी आसानी से किया जा सकता है जो देश
की एकता और अखंडता को बाधित करने में पूर्ण सक्षम हैं। यही वजह है कि अब सोशल
मीडिया पर नियंत्रण लगाने जैसी कवायद जोर पकड़ने लगी है। परंतु सोशल मीडिया
अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा माध्यम और उदाहरण है, इसीलिए अनेक बुद्धिजीवियों का यह मानना है कि अगर सोशल मीडिया को भी
नियंत्रित कर दिया गया तो यह अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मौलिक अधिकार पर आघात होगा।
अनियंत्रित सोशल मीडिया के पक्षधरों का कहना है कि भले ही सोशल मीडिया के
माध्यम से अनेक विवादास्पद सामग्रियां सार्वजनिक की जा सकती हैं लेकिन इससे आम
जनता अपने द्वारा चुनी गई सरकार और राजनेताओं की वास्तविकता से परिचित हो सकती है।
आसपास घटने वाली वारदातों और सामाजिक सच्चाई से भी जनता बिना किसी परेशानी के
रूबरू हो सकती है। अनेक बुद्धिजीवियों का मानना है कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण
लगाकर हम कभी भी हकीकत तक नहीं पहुंच सकते।
वहीं
दूसरी ओर बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो पूरी तरह नियंत्रित सोशल मीडिया के पक्षधर
हैं। इस वर्ग के लोगों का यह साफ कहना है कि बिना नियंत्रण के कभी कोई चीज लाभप्रद
नहीं हो सकती। सोशल मीडिया पर प्रसारित सामग्रियों पर कोई निगरानी ना होने के कारण
राष्ट्रीय अखंडता पर हर समय खतरा मंडराता रहता है। कभी भी कोई भी व्यक्ति कुछ भी
ऐसा संचालित कर सकता है जो सामुदायिक या जातिगत भावनाओं को आहत कर सकता है। सोशल
मीडिया पर नियंत्रण रखने की मांग करने वालों का यह भी कहना है कि निजता का पूर्ण
हनन अनियंत्रित सोशल मीडिया का बड़ा दुष्प्रभाव है।
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