30 जून 1914के दिन गाँधी जी के जीवन के प्रेरक प्रसंग
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प्रोफ़ेसर (डा.) रामलखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर(राजस्थान)
30 जून 1914 को आज ही के दिन बापू दक्षिण अफ्रीका में भारत के अधिकारों के लिए संघर्ष
करते हुए गिरफ्तार हुए थे। बापू के संघर्ष की आज शताब्दी वर्षगांठ हैं। गांधीजी के निःस्वार्थ
कार्यों और वहाँ जमी वकालत को देखते हुए तो ऐसा लगने लगा था कि जैसे वह नाताल में
बस गये हों। सन् 1896
के मध्य में वह अपने पूरे परिवार को अपने साथ नाताल ले जाने के
उद्देश से भारत आये। अपनी इस यात्रा के दौरान उनका लक्ष्य दक्षिण अफ्रीका के
भारतीयों के लिए देश में यथाशक्ति समर्थन पाना और जनमत तैयार करना भी था।
राजकोट में रहकर उन्होंने
प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक पुस्तक लिखी और उसे छपवाकर देश के प्रमुख समाचार
पत्रों में उसकी प्रतियाँ भेजी। इसी समय राजकोट में फैली महामारी प्लेग अपना उग्र रूप
धारण कर चुकी थी। गांधीजी स्वयंसेवक बनकर अपनी सेवाँए देने लगें। वहाँ की दलित
बस्तियों में जाकर उन्होंने प्रभावितों की हर संभव सहायता की।
अपनी यात्रा के दौरान उनकी
मुलाकात देश के प्रखर नेताओं से हुई। बदरुद्दीन तैय्यब, सर
फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य
जिलक, गोखले आदि नेताओं के व्यक्तित्व का उन पर गहरा प्रभाव
पड़ा। इन सभी के समक्ष उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को रखा। सर फिरोजशहा
मेहता की अध्यक्षता में गांधीजी द्वारा भाषण देने का कार्यक्रम बंबई में संपन्न
हुआ। इसके बाद कलकत्ता में गांधीजी द्वारा एक जनसभा को संबोधित किया जाना था।
लेकिन इससे पहले कि वे ऐसा कर पाते, दक्षिण अफ्रीका के
भारतीयों का एक अत्यावश्यक तार उन्हें आया। इसके बाद वे अपनी पत्नी और बच्चों के
साथ वर्ष 1896 के नवंबर महीने में डरबन के लिए रवाना हो गये।
भारत में गांधीजी ने जो
कुछ किया और कहा उसकी सही रिपोर्ट जो नाताल नहीं पहुँची। उसे बढ़ा-चढ़ाकर
तोड़-मरोड़ कर वहाँ पेश किया गया। इसे लेकर वहाँ के गोरे वाशिंदे गुस्से से आग
बबुला हो उठे थे। 'क्रूरलैंड` नामक जहाज से जब गांधीजी नाताल पहुँचे तो
वहाँ के गोरों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। उन पर सड़े अंडों और कंकड़ पत्थर
की बौछार होने लगी। भीड़ ने उन्हें लात-घूसों से पीटा। अगर पुलिस सुपरिंटेंडंट की
पत्नी ने बीच-बचाव न किया होता तो उस दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गये होते। उधर लंदन
के उपनिवेश मंत्री ने गांधीजी पर हमला करने वालों पर कार्रवाई करने के लिए नाताल
सरकार को तार भेजा। गांधीजी ने ओरपियों को पहचानने से इंकार करते हुए उनके विरुद्ध
कोई भी कार्रवाई न करने का अनुरोध किया। गांधीजी ने कहा, "वे गुमराह किये गये हैं, जब उन्हें सच्चाई का पता
चलेगा तब उन्हें अपने किये का पश्चाताप खुद होगा। मैं उन्हें क्षमा करता
हूँ।" ऐसा लग रहा था जैसे ये वाक्य गांधीजी के न होकर उनके भीतर स्पंदित हो
रहे किसी महात्मा के हों।
अपनी दक्षिण अफ्रीका की
दूसरी यात्रा के बाद गांधीजी में अद्भुत बदलाव आया। पहले वे अँग्रेजी बैरिस्टर के
माफिक जीवन जीते थे। लेकिन अब वे मितव्ययिता को अपने जीवन में स्थान देने लगे।
उन्होंने अपने खर्च और अपनी आवश्यकताओं को कम कर दिया। गांधीजी ने 'जीने की
कला` सीखी। कपड़ा इत्री करने कपड़ा सिलने आदि काम वे खुद
करने लगे। वे अपने बाल खुद काटते। साफ-सफाई भी करते। इसके अलावा वे लोगों की सेवा
के लिए भी समय निकाल लेते। वे प्रतिदिन दो घंटे का समय एक चैरिटेबल अस्पताल में
देते, जहाँ वे एक कंपाउंडर की हैसियत से काम करते थे। वे
अपने दो बेटों के साथ-साथ भतीजे को भी पढ़ाते थे।
वर्ष 1899 में
बोअर-युद्ध छिड़ा। गांधीजी की पूरी सहानुभूति बोअर के साथ थी जो अपनी आजादी के लिए
लड़ रहे थे। गांधीजी ने सभी भारतीयों से उनका सहयोग देने की अपील की। उन्होंने
लोगों को इकठ्ठा किया और डॉ. बूथ की मद्द से भारतीयों की एक एंबुलैंस टुकड़ी बनाई।
इस टुकड़ी में 1,100 स्वयंसेवक थे जो कि सेवा के लिए तत्पर
थे। इस टुकड़ी का कार्य घायलों की देखभाल में जुटना था। गांधीजी के नेतृत्व में
सभी स्वयंसेवकों ने अपनी अमूल्य सेवाएँ दी। गांधीजी जाति, धर्म,
रूप, रंग भेद से दूर रहकर केवल मानवता की सेवा
में जुटे थे। उनके इस कार्य की प्रशंसा में वहाँ के समाचार पत्रों ने खूब लिखा।
1901 में युद्ध समाप्त हो गया।
गांधीजी ने भारत वापसी का मन बना लिया था। शायद उन्हें दक्षिण अफ्रीका में अच्छी
सफलता मिली थी, लेकिन वे 'रूपयों के
पीछे न भागने लगें` इस भय के कारण भी वे भारत आने के पक्ष
में थे। लेकिन नाताल के भारतीय उन्हें सरलता से छोड़ने वाले नहीं थे। आखिर इस शर्त
पर उन्हें इजाजत दी गई कि यदि साल-भर के अंदर अगर उनकी कोई आवश्यकता आ पड़ी तो वे
भारतीय समाज के हित के लिए पुनः लौट आयेंगे।
वे भारत लौटे। सबसे पहले
कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभा में शामिल हुए। यहाँ पर पहली बार
उन्हें ऐसे लगा जैसे भारतीय राजनेता बोलते अधिक हैं और काम कम करते हैं। गोखले के
यहाँ कुछ दिन बिताने के बाद वे भारत यात्रा के लिए निकल पड़े। उन्होंने तीसरे
दर्जे के डिब्बे में यात्रा करने का निश्चय किया ताकि वे लोगों (गरीबों) की
तकलीफें जानने के साथ-साथ स्वयं भी उसके अनुरूप ढल सकें। उन्हें इस बात दुख हुआ कि
तीसरे दर्जे में भारतीय रेल अधिकारीयों द्वारा काफी लापरवाही बरती जाती है। इसके
इलावा यात्रियों की गंदी आदतें भी डिब्बे की दुर्दशा के लिए प्रमुख रूप से
जिम्मेदार थीं।
अब गांधीजी भारत में ही
रहना चाहते थे। बम्बई लौटकर उन्होंने अदालत में काम करने की कोशिश की, लेकिन
ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को उनकी जरूरत आ पड़ी।
"जोसेफ चैम्बरलेन दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं, कृपया जल्द
लौटें।" दक्षिण अफ्रीका के भारतीय द्वारा भेजे गये इस तार को पाते ही गांधीजी
अपने वचन का पालन करते हुए वहाँ के लिए चल पड़े। भारतीयों के लिए जोसेफ के मन में
घृणा और उपेक्षा की भावना थी। उसने घोषणा कर दी थी कि यदि भारतीयों को वहाँ रहना
है तो यूरोपीय लोगों को 'संतुष्ट` रखना
ही होगा। भारतीयों की समस्याओं को लेकर गांधीजी चैम्बरलेन से मिले, किंतु गांधीजी को निराश होना पड़ा। इसके बाद गांधीजी ने जोहान्सबर्ग में
रहकर वहाँ के सुप्रीम कोर्ट में वकालत के लिए प्रवेश लिया। यहाँ रहकर उन्होंने
अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की।
यहाँ के जुलू युद्ध से
उनके मन में जो द्वंद्व उपजा था उसने उनके निजी असमंजस-ब्रह्मचर्य को सुलझा दिया
था। उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि उन्हें जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत
ले लेना चाहिए। गांधीजी के लिए इस व्रत का अर्थ न केवल शरीर की शुद्धि से था, अपितु यह
मन के शुद्धिकरण का भी माध्यम था, और वे वर्षों तक अपने चेतन
या अचेतन मस्तिष्क से कामासक्ति के शारीरीक आनंद के नामो-निशान को मिटाने के लिए
संघर्ष करते रहे।
गांधीजी ने सुबह उठते ही
गीता पढ़ने का नियम बना रखा था। वे उसके विचारों का अपने दैनिक जीवन में प्रयोग
करने लगे। 'अव्यावसायिकता' की जो बात गीता में की गई है,
उसे उन्होंने अपने भीतर आत्मसात करने का निश्चय किया। गीता के बाद
रसकिन की पुस्तक 'अन टु दी लास्ट' का
गहरा प्रभाव उन पर पड़ा। इस पुस्तक का अध्ययन उन्होंने फीनिक्स कॉलनी में अपना
योगदान दिया।
लेकिन गांधीजी फीनिक्स में
अधिक दिनों तक नहीं टिके। वे जोहान्सबर्ग गये, जहाँ बाद में उन्होंने एक
आदर्श कॉलनी की स्थापना की, जो कि शहर से बीस मील की दूरी पर
थी। उन्होंने इसका नाम 'टालस्टाय फार्म` रखा। समूचे भारत में आज बड़ी तेजी से बुनियादी शिक्षा की जो प्रणाली जड़ें
जमाती जा रही हैं, उसको टालस्टाय फार्म में बड़ी मेहनत से विकसित
किया गया था। एक बार जब फीनिक्स बस्ती में एक 'नैतिक भूल`
का पता चला, तो गांधीजी ने अपना सभी सामाजिक
कार्य बंद कर दिया और वे ट्रंसवाल से नाताल चले गये। जहाँ युवाओं के पाप का
प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सात दिन का उपवास रखा।
ट्रंसवाल की सरकार ने एक कानून
बनाने की घोषणा की थी,
जिसके मुताबिक आठ वर्ष की आयु से अधिक के हर भारतीय को अपना पंजीकरण
कराना होगा। उसकी अंगुलियों के निशान लिये जायेंगे और उसे प्रमाण पत्र लेकर हमेशा
अपने पास रखना होगा। गांधीजी ने इस काले कानून का विरोध किया। लोगों को जुटाकर
सभाएँ की। जनवरी 1908 में गांधीजी को नके अन्य सत्याग्रहियों
के साथ दो महीने के लिए जेल भेज दिया गया।
इसके बाद जनरल स्मटस् ने
गांधीजी के सामने प्रस्ताव रखा - यदि भारतीय स्वेच्छा से पंजीकरण करवा लेंगे, तो
अनिवार्य पंजीकरण का कानून रद्द कर दिया जाएगा। समझौता हो गया और स्मटस् ने
गांधीजी सं कहा कि अब वे आजाद हैं। जब गांधीजी ने अन्य भारतीय बंदियों के बारे में
पूछा तब जनरल ने कहा कि बाकी लोगों को अगली सुबह रिहा कर दिया जायेगा। गांधीजी
जनरल के वचन को सत्य मानकर जोहान्सबर्ग लौटे।
इधर स्मटस् ने अपना वचन
भंग कर दिया। इसे लेकर भारतीय आग बबूला हो उठे। जोहान्सबर्ग में 16 अगस्त 1908
को विशाल सभा हुई, जिसमें काले कानून के प्रति
विरोध प्रदर्शित करते हुए लोगों ने पंजीकरण प्रमाण पत्रों की होली जलाई। गांधीजी
खुद कानून का उल्लंघन करने के लिए आगे बढ़े। एक बार फिर 10 अक्तूबर
1908 को वे गिरफ्तार हुए। इस बार उन्हें एक महीने के कठोर
श्रम कारावास की सजा सुनाई गई। गांधीजी का संघर्ष जारी था। फरवरी 1909 में एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने के कठोर कारावास की सजा दी
गई। इस बार की जेल यात्रा में उन्होंने काफी वाचन किया। यहाँ वे नित्य प्रार्थना
भी करते थे।
वर्ष 1911 में
गोखलेजी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर आये। बोअर जनरलों ने गांधीजी और गोखले से
भारतीयों के खिलाफ अधिक भेदभाव वाली कुव्यवस्थाओं को समाप्त करने का वादा किया।
लेकिन व्यक्ति कर की व्यवस्था बंद नहीं की गई। गांधीजी संघर्ष करने के लिए तैयार
हो गये। महिलाएँ जो अब तक आंदोलन में सक्रिय नहीं थीं, गांधीजी
के आवाहन पर उठ खड़ी हुईं। उनमें बलिदान की मशाल जल उठी। अब सत्याग्रह नये तेवर के
रूप में सामने आ रहा था। गांधीजी ने निश्चय किया कि महिलाओं का एक जत्था कानून की
धज्जियाँ उड़ाते हुए ट्रंसवाल से नाताल जायेगा। वह भी बिना कर दिये। महिलाएँ इस
संघर्ष यज्ञ में बढ़-चढ़कर शामिल हुईं। उनकी पत्नी कस्तूरबा भी इसमें शामिल हुईं।
इस कानून को तोड़ने का
प्रयास कर रहीं महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीजी के मार्गदर्शन में कई
जगह हड़तालें हुईं। अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए गांधीजी ने अपना सत्याग्रह शुरू
किया। गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। कई सत्याग्रही कमर कस चुके थे। गांधीजी का
सत्याग्रह रंग ले चुका था। कई लोगों ले अपनी गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस की पिटाई और
भुखमरी के बावजूद सत्याग्रही अपने मार्ग पर अटल थे।
गांधीजी का सत्याग्रह एक
अचूक हथियार सिद्ध हुआ। अंततः समझौता हुआ और "भारतीय राहत विधेयकृ पास हुआ।
कानून में यह प्रावधान किया गया कि बिना अनुमति भारतीय एक प्रांत से दूसरे प्रांत
में तो नहीं जा सकते,
लेकिन यहाँ जन्में भारतीय केप कॉलनी में जाकर रह सकेंगे। अलावा इसके
भारतीय पद्धति के विवाहों को वैध घोषित किया गया। अनुबंधित श्रमिकों पर से व्यक्ति
कर हटा लिया गया, साथ ही बकाया रद्द कर दिया गया।
अब दक्षिण अफ्रीका में
गांधीजी का कार्य पूर्ण हो चुका था। 18 जुलाई 1914 को वे गोखले के बुलावे पर समुद्री मार्ग से अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड
रवाना हुए। जाने से पहले जेल में अपने द्वारा बनाई गई चपलों की जोड़ी उन्होंने
स्मटस् को भेंट दी। जनरल स्मटस् ने इसे पच्चीस वर्षों तक पहना। बाद में उन्होंने
लिखा, "तब से मैंने कई गर्मियों में इन चपलों को पहना
है, हालांकि मुझे यह अहसास है कि इतने महान व्यक्ति की मैं
किसी प्रकार बराबरी नहीं कर सकता।"
गाँधी जी के जीवन के
प्रेरक प्रसंग
प्रसंग 1
गाँधी जी देश भर में भ्रमण कर
चरखा संघ के लिए धन इकठ्ठा
कर रहे थे. अपने दौरे के दौरान वे ओड़िसा में किसी सभा को
संबोधित करने पहुंचे . उनके
भाषण के बाद एक
बूढी
गरीब महिला खड़ी हुई,
उसके बाल सफ़ेद हो चुके थे ,
कपडे फटे हुए थे और वह कमर से झुक कर चल रही थी
,
किसी तरह वह भीड़ से होते
हुए गाँधी जी के पास तक पहुची.
” मुझे गाँधी जी को देखना है.”
उसने आग्रह किया और उन तक पहुच कर उनके पैर छुए.
फिर उसने
अपने साड़ी के पल्लू में बंधा एक ताम्बे का
सिक्का निकाला और गाँधी जी के
चरणों में रख दिया. गाँधी जी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया. उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे. उन्होंने गाँधी जे से वो
सिक्का माँगा,
लेकिन गाँधी जी ने उसे देने से माना कर दिया.
” मैं चरखा संघ के लिए हज़ारो
रूपये के चेक संभालता हूँ”, जमनालाल जी हँसते हुए कहा ”
फिर भी आप मुझपर इस सिक्के
को लेके यकीन नहीं कर रहे हैं.”
” यह ताम्बे का सिक्का उन
हज़ारों से कहीं कीमती है,” गाँधी जी बोले.
” यदि किसी के पास लाखों हैं
और वो हज़ार-दो हज़ार दे देता है तो उसे कोई फरक नहीं पड़ता. लेकिन ये सिक्का शायद उस
औरत की कुल जमा-पूँजी थी. उसने अपना ससार
धन दान दे दिया. कितनी उदारता दिखाई उसने…. कितना बड़ा बलिदान दिया
उसने!!! इसीलिए इस ताम्बे
के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है.”
प्रसंग 2
रात बहुत काली थी और मोहन
डरा हुआ था. हमेशा से
ही
उसे भूतों से डर लगता था. वह जब भी अँधेरे
में अकेला होता उसे लगता की कोई भूत आसा-पास है और कभी भी उसपे झपट पड़ेगा. और आज तो इतना अँधेरा था कि कुछ भी स्पष्ठ
नहीं दिख रहा था ,
ऐसे में मोहन को एक कमरे
से दूसरे कमरे में जाना था.
वह हिम्मत कर के कमरे
से निकला ,पर उसका दिल जोर-जोर से धडकने
लगा और चेहरे पर डर के भाव आ गए. घर में काम करने वाली रम्भा वहीँ दरवाजे पर खड़ी यह सब देख रही थी.
” क्या हुआ बेटा?” , उसने हँसते हुए पूछा.
” मुझे डर लग रहा है दाई,”
मोहन ने उत्तर दिया.
” डर, बेटा
किस चीज का डर
?”
” देखिये कितना अँधेरा है !
मुझे भूतों से डर लग रहा है!” मोहन सहमते हुए बोला.
रम्भा ने प्यार से मोहन का सर
सहलाते हुए कहा, ” जो कोई भी अँधेरे से डरता है वो मेरी बात सुने: राम जी
के बारे में सोचो और कोई
भूत तुम्हारे निकट आने की हिम्मत नहीं करेगा. कोई तुम्हारे सर का बाल तक नहीं छू पायेगा. राम जी तुम्हारी रक्षा करेंगे.”
रम्भा के शब्दों ने मोहन
को हिम्मत दी. राम नाम
लेते
हुए वो कमरे से निकला,
और उस दिन से मोहन ने कभी खुद को अकेला
नहीं समझा और भयभीत नहीं हुआ.
उसका विश्वास था कि जब तक राम उसके साथ हैं उसे डरने की कोई ज़रुरत नहीं.
इस विश्वास ने गाँधी जी को
जीवन भर शक्ति दी,
और मरते वक़्त भी उनके मुख से राम नाम ही निकला.
प्रसंग 3
कलकत्ता में हिन्दू-
मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे. तमाम
प्रयासों के बावजूद लोग शांत नहीं हो रहे थे. ऐसी स्थिति में गाँधी जी वहां पहुंचे और एक मुस्लिम मित्र के यहाँ ठहरे.
उनके पहुचने से दंगा कुछ शांत हुआ लेकिन कुछ ही दोनों में फिर से आग भड़क उठी. तब गाँधी जी ने आमरण
अनशन करने का निर्णय लिया और
31अगस्त 1947 को अनशन पर बैठ गए. इसी दौरान एक दिन एक अधेड़ उम्र का आदमी उनके पास
पहुंचा और बोला
,
” मैं तुम्हारी मृत्यु का पाप अपने सर पर नहीं लेना चाहता, लो रोटी
खा लो .”
और फिर अचानक ही वह रोने
लगा,
” मैं मरूँगा तो नर्क जाऊँगा!!”
“क्यों ?”, गाँधी जी ने विनम्रता से पूछा.
” क्योंकि मैंने एक आठ साल के
मुस्लिम लड़के की जान ले ली.”
” तुमने उसे क्यों मारा ?”, गाँधी जी ने पूछा.
” क्योंकि उन्होंने मेरे मासूम
बच्चे को जान से मार दिया .”, आदमी रोते हुए बोला.
गाँधी जी ने कुछ
देर सोचा और फिर बोले,” मेरे पास एक उपाय है.”
आदमी आश्चर्य से उनकी तरफ
देखने लगा .
” उसी उम्र का एक लड़का खोजो
जिसने दंगो में अपने मात-पिता खो दिए हों, और उसे अपने बच्चे
की तरह पालो. लेकिन एक चीज
सुनिश्चित कर लो की वह एक मुस्लिम होना चाहिए और उसी तरह बड़ा किया जाना चाहिए.”, गाँधी जी ने अपनी बात ख़तम
की.
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