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Monday, 30 June 2014

गुनाहों की माफ़ी का महीना है रमजान

गुनाहों की माफ़ी का महीना है रमजान 

रोजा का अर्थ तकवा है। इंसान रोजा रख कर अपने आप को ऐसा इंसान बनने का प्रयास करता है, जैसा उसका रब चाहता है। तकवा यानी अपने आप को बुराइयों से बचाना, और भलाई को अपनाना है। रोजा केवल भूखे प्यासे रहने का नाम नहीं है। रोजा इंसान के हर एक भाग का होता है। रोजा आंख का है, मतलब बुरा मत देखो। गलत बात न सुनो। मुंह से अपशब्द न निकले। हाथ से अच्छा काम ही हो। पांव सिर्फ अच्छाई की राह पर चले। अल्लाह को किसी को भूखा प्यासा रखने से कोई मतलब नहीं है, बल्कि वह इंसान से वह सारे अमल कराना चाहता है, जिसे करने को उसने हुक्म दिया है। इसलिए बुराई से बचने और भलाई के रास्ते पर चलने का नाम रोजा है।
खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना ‘माह-ए-रमजान’ न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का वकफा है बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है। मौजूदा हालात में रमजान का संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है। इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाता है और भूखे-प्यासे रहकर खुदा की इबादत करने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं। इस माह में दोजख (नरक) के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत की राह खुल जाती है।
 रोजा अच्छी जिंदगी जीने का प्रशिक्षण है जिसमें इबादत कर खुदा की राह पर चलने वाले इंसान का जमीर रोजेदार को एक नेक इंसान के व्यक्तित्व के लिए जरूरी हर बात की तरबियत देता है। पूरी दुनिया की कहानी भूख, प्यास और इंसानी ख्वाहिशों के गिर्द घूमती है और रोजा इन तीनों चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है। रमजान का महीना तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है ताकि रोजेदारों में भले-बुरे को समझने की सलाहियत पैदा हो। बुराई से घिरी इस दुनिया में रमजान का संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है। 
हर तरफ झूठ, मक्कारी, अश्लीलता और यौनाचार का बोलबाला हो चुका है। ऐसे में मानव जाति को संयम और आत्मनियंत्रण का संदेश देने वाले रोजे का महत्व और भी बढ़ गया है। रोजे के दौरान झूठ बोलने, चुगली करने, किसी पर बुरी निगाह डालने, किसी की निंदा करने और हर छोटी से छोटी बुराई से दूर रहना अनिवार्य है। रोजे रखने का असल मकसद महज भूख-प्यास पर नियंत्रण रखना नहीं है बल्कि रोजे की रूह दरअसल आत्म संयम, नियंत्रण, अल्लाह के प्रति अकीदत और सही राह पर चलने के संकल्प और उस पर मुस्तैदी से अमल में बसती है। अमूमन साल में 11 महीने तक इंसान दुनियादारी के झंझावातों में फँसा रहता है लिहाजा अल्लाह ने रमजान का महीना आदर्श जीवनशैली के लिए तय किया है।
 रमजान का उद्देश्य साधन सम्पन्न लोगों को भी भूख-प्यास का एहसास कराकर पूरी कौम को अल्लाह के करीब लाकर नेक राह पर डालना है। साथ ही यह महीना इंसान को अपने अंदर झाँकने और खुद का मूल्यांकन कर सुधार करने का मौका भी देता है। दुनिया के लिए रमजान का महीना इसलिए भी अहम है क्योंकि अल्लाह ने इसी माह में हिदायत की सबसे बड़ी किताब यानी कुरान शरीफ का दुनिया में अवतरण शुरू किया था। रहमत और बरकत के नजरिए से रमजान के महीने को तीन हिस्सों (अशरों) में बाँटा गया है। इस महीने के पहले 10 दिनों में अल्लाह अपने रोजेदार बंदों पर रहमतों की बारिश करता है। दूसरे अशरे में अल्लाह रोजेदारों के गुनाह माफ करता है और तीसरा अशरा दोजख की आग से निजात पाने की साधना को समर्पित किया गया है। 
माहे रमजान को नेकियों का मौसमे बहार कहा गया है। जिस तरह मौसमे बहार में हर तरफ सब्जा ही सब्जा नजर आता है। हर तरफ रंग-बिरंगे फूल नजर आते हैं। इसी तरह रमजान में भी नेकियों पर बहार आई होती है। जो शख्स आम दिनों में इबादतों से दूर होता है, वह भी रमजान में इबादतगुजार बन जाता है। यह सब्र का महीना है और सब्र का बदला जन्नात है। यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद बंदों के साथ हमदर्दी का महीना है। इस महीने में रोजादार को इफ्तार कराने वाले के गुनाह माफ हो जाते हैं। पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. से आपके किसीसहाबी (साथी) ने पूछा- अगर हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो तो एक खजूर या पानी से ही इफ्तार करा दिया जाए।
यह महीना मुस्तहिक लोगों की मदद करने का महीना है। रमजान के तअल्लुक से हमें बेशुमार हदीसें मिलती हैं और हम पढ़ते और सुनते रहते हैं लेकिन क्या हम इस पर अमल भी करते हैं। ईमानदारी के साथ हम अपना जायजा लें कि क्या वाकई हम लोग मोहताजों और नादार लोगों की वैसी ही मदद करते हैं जैसी करनी चाहिए? सिर्फ सदकए फित्र देकर हम यह समझते हैं कि हमने अपना हक अदा कर दिया है। जब अल्लाह की राह में देने की बात आती है तो हमारी जेबों से सिर्फ चंद रुपए निकलते हैं, लेकिन जब हम अपनी शॉपिंग के लिए बाजार जाते हैं वहाँ हजारों खर्च कर देते हैं। कोई जरूरतमंद अगर हमारे पास आता है तो उस वक्त हमको अपनी कई जरूरतें याद आ जाती हैं। यह लेना है, वह लेना है, घर में इस चीज की कमी है। बस हमारी ख्वाहिशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं।
खासतौर से हमारी बहनें ईद की शॉपिंग का जायजा लें कि वह अपने लिबास पर कितना कुछ खर्च करती हैं। जरा रुक कर सोचें हममें से कई जरूरतमंद लोग दुनिया में मौजूद हैं जिनके पास तन ढँकने के लिए कपड़ा मौजूद नहीं। अगर इस महीने में हम अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को कुछ कम कर लें और यही रकम जरूरतमंदों को दें तो यह हमारे लिए बेहत अज्र और सिले का बाइस होगा। क्योंकि इस महीने में की गई एक नेकी का अज्र कई गुना बढ़ाकर अल्लाह की तरफ से अता होता है।
जो शख्स नमाज के रोजे ईमान और एहतेसाब (अपने जायजे के साथ) रखे उसके सब पिछले गुनाह माफ कर दिए जाएँगे। रोजा हमें जब्ते नफ्स (खुद पर काबू रखने) की तरबियत देता है। हममें परहेजगारी पैदा करता है। लेकिन अब जैसे ही माहे रमजान आने वाला होता है, लोगों के जहन में तरह-तरह के चटपटे और मजेदार खाने का तसव्वुर आ जाता है।

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