भारत में उच्च शिक्षा मूल्य आधारित बने!
प्रोफ़ेसर (डा.) रामलखन मीना, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर(राजस्थान)
भारत में उच्च शिक्षा की व्यवस्था काफी पुरानी हो चुकी है। आज की स्थितियों से उसका कोई
तालमेल नहीं रह गया है। अब उसमें ऐसे बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि इस शिक्षा का सही उपयोग हम अपने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के
क्षेत्र में प्रभावी ढंग से कर सकें। हमारे सभी उद्योग धंधों के लिए मानव पूंजी की
जरूरत है। इस पूंजी का निर्माण शिक्षा के माध्यम से ही हो सकता है। लेकिन आज यहां
सिर्फ पागल बनाने वाली ऐसी डिग्रियों की भीड़ है, जो
उपयोगिता की दृष्टि से बहुत काम की नहीं साबित हो रही हैं। हमारी आबादी में 25
वर्ष तक के युवाओं की संख्या 51 प्रतिशत है,
लेकिन इनमें से मात्र 12-14 प्रतिशत लोग ही (18-24
साल तक के छात्र) उच्च शिक्षा के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों में
प्रवेश लेते हैं। चीन की तुलना में यह आंकड़ा काफी कम है। दूसरे विकसित देशों से
तो कोई तुलना ही नहीं है। जैसे अमेरिका में 82 प्रतिशत और
रूस में 75 प्रतिशत छात्र उच्च शिक्षा के लिए अपना नामांकन
कराते हैं। भारत में शिक्षा, उच्च
शिक्षा और अनुसंधान के रास्ते में एक बड़ी बाधा है धन की कमी। यदि कोई केंद्रीय
वित्त मंत्री उच्च शिक्षा के लिए बजट का 24 प्रतिशत हिस्सा
इस मद में आवंटित कर दे, तो यहां का पूरा परिदृश्य ही बदल
जाएगा। यदि ऐसा हो, तो शायद भारतीय छात्रों को विदेशी
संस्थानों में नहीं भागना पड़े।
21वीं सदी की उच्च
शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो. स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले
एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब)
के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है. आने वाले
दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज
बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का
स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है. भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी
शख़्सियत और ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक
अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और
संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है." इंफ़ोसिस के प्रमुख नारायण
मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी
कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है. इस सबके
पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है. 'आजकल
वैश्विक अर्थ व्यवस्था, विकास, धन
उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है.'
स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा का विस्तार
हुआ है लेकिन क्या यह हमारे देश की उच्च शिक्षा, छात्रों को जीवन दृष्टि देने में या उनकी भौतिक आवश्यकताओं की
पूर्ति करने में सफल हुई है। यह एक बडा प्रश्न है! यूनेस्कों की डेलर्स कमेटि ने
अपनी रिपोर्ट में कहा है कि किसी भी देश की शिक्षा का स्वरुप कैसा हो? उस देश की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरुप हो। वर्तमान में हमारे देश की
शिक्षा का स्वरुप इस प्रकार का है क्या? देश की उच्च शिक्षा
को शिक्षा की मूलभूत संकल्पना के साथ आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार ढालना होगा। इस
हेतु इसके अनुरूप पाठयक्रम,पाठयचर्या की रचना हो। शोधकार्य
को बढावा देने] शिक्षा की गुणवत्ता बढाने, देश की उच्च
शिक्षा मूल्य आधारित बने, शिक्षा स्वायत्ता हो, उच्च शिक्षा की आर्थिक व्यवस्था कैसे हो। मानविकी शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकि शिक्षा के समन्वय की
बात उठायी गयी थी। आज भी वह समयानुकूल है।
- ºछात्रों में समाज व देश के प्रति संवेदनशीलता जागृत की जाय।
- ºसामाजिक तथा नागरिक दायित्व का बोध हो।
- ºसामाजिक कार्य को अनिवार्य करना- इस हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोग का गठन किया जाय तथा उच्च शिक्षा के प्रत्येक संस्थान को गांवों से या शहरी झुग्गी झोपड़ी से जोड़ा जाय।
- ºहमारी सांस्कृतिक धरोहर एवं प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सभी स्तर पर अनिवार्य किया जाए।
- ºव्यावहारिक तथा व्यसायिक शिक्षा को पाठयक्रमों में शामिल किया जाय।
- ºसभी पाठयक्रम, पाठयपुस्तकों में व्याप्त विकृतियों एवं विसंगतियों जिसके द्वारा अपनी संस्कृति, परम्परा, धर्म एवं महापुरुषों को अपमानित किया जा रहा है। -उसको दूर किया जाए।
- ºप्रत्येक तीन वर्षों में पाठयचर्या की समीक्षा अनिवार्य की जाय।मूल्यों का पाठयक्रम में समावेश हो।स्वतंत्र भारत में शिक्षा से संबन्धित सभी आयोगों,सभी पंथ सम्प्रदायों एवं महापुरूषों ने इसकी आवश्यकता को रेखांकित किया है।
- ºमूल्य शिक्षा हेतु अलग से पुस्तकों की आवश्यकता नहीं। उच्च शिक्षा के हर विषय की पाठयचर्या में ही मूल्यों का समावेश होना चाहिये।
- ºइस हेतु सभी संकायो (faculty) में शुरु में उन संकाय की दृष्टि से शिक्षा प्राप्त करने के पीछे का राष्ट्रीय एवं सामाजिक दृष्टिकोण छात्रों के समक्ष आना चाहिए।
- ºव्यवहारिक ज्ञान हेतु कार्यक्रमों की योजना भी छात्रों के स्तर के अनुसार आवश्यक है।
आज
विश्वभर में है, देश-विदेश में घटने वाली कई घटनाओं
में अनुभव आ रहा है कि जिसका उत्तार विज्ञान में नहीं मिल रहा। दूसरी और विज्ञान
और तकनीकी का जिस प्रकार विकास एवं विस्तार हो रहा है जिसमें आध्यात्म के साथ
समन्वय नहीं किया गया तो विज्ञान और तकनीकी मानवता के विकास के बदले विनाश की ओर
ले जाएगा। हमें केवल अपने राष्ट्र की अखण्डता ही सुरक्षित नहीं रखनी है, उसके साथ अपनी
सांस्कृतिक परम्पराओं को भी अक्षुण्ण रखना होगा। समय आ गया है अब आध्यात्म और
विज्ञान का समन्वय करने का। यह समन्वय ही हमें आण्विक युग में सुरक्षा प्रदान कर
विकास की ओर उन्मुख कर सकेगा। देश की
अर्थव्यवस्था बिलकुल सही दिशा में जा रही है और 8 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त की जा सकती है,
जो कि हमारे जैसे बड़े देश के लिए काफी महत्वपूर्ण है। विश्व
अर्थव्यवस्था पुनः पटरी पर आ रही है जिससे घरेलू माँग भी बढ़ने की पूर्ण उम्मीद है
और इसका असर सभी सेक्टर्स पर पड़ेगा। सामाजिक व
अधोसंरचनात्मक क्षेत्र में सरकार की तरफ से ज्यादा से ज्यादा ध्यान दिया जाना और
विभिन्न योजनाओं के आने से भी आगे आने वाले दिनों में सकारात्मक असर पड़ेगा। चीन के
बाद भारत ही तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था मानी जाती है। परंतु जिस प्रकार से देश
प्रगति कर रहा है और विभिन्न प्रोजेक्ट्स आ रहे हैं उससे यह बात निश्चित है कि
वर्ष 2018 तक हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। प्रत्यक्ष
विदेशी निवेश भी बढ़ रहा है। इस प्रकार अगले 4 वर्षों में ही हम विश्व की सबसे तेजी से
बढ़ती अर्थव्यवस्था बन जाएँगे। ऑटोमोबाइल व इससे जुड़े अन्य उद्योग, इस्पात, खनिज, अधोसंरचना,
निर्माण के क्षेत्र में काफी तेजी देखने में आएगी। टेलीकॉम, बैंकिंग, कमोडिटी तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी
फैलाव होगा।
सुपर पावर बनने के लिए अच्छी
शिक्षा जरूरी देश को अगर 2020 तक सुपर पावर बनना है तो उसके लिए पढ़े-लिखे तथा दक्ष कर्मियों की जरूरत
है। हमें काफी बड़ी संख्या में इनकी जरूरत और इसके लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में
सख्त परिवर्तनों की जरूरत है। हमें ज्ञान को दूसरों से लेना नहीं है बल्कि हमारा
लक्ष्य होना चाहिए कि हम स्वयं कैसे ज्ञानवान बनें। दुर्भाग्य से देश में जो उच्च शिक्षा का स्तर
है वह सही नहीं है अगर इसे समय रहते नहीं बदला गया तब इसके देश को गंभीर परिणाम
भुगतने पड़ेंगे। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार सभी विकास सूचकांकों में हम शिक्षा
के क्षेत्र में अंतिम 15 देशों की सूची में आते हैं। सरकार ने देश में ऐसे संस्थानों को काली सूची
में डालना आरंभ कर दिया है, जो एक निर्धारित स्तर की शिक्षा
नहीं दे पा रहे हैं। यह हमारी असफलता ही है कि हम उच्च गुणवत्ता
वाले शिक्षा केंद्रों को आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं और साथ ही विदेशी संस्थाओं को भी
हमने देश में आने से रोके रखा। अगर हम गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, तब विद्यार्थी विदेश शिक्षा
प्राप्त करने के लिए जाएँगे ही। इससे देश का कितना नुकसान हो रहा है।
उच्च शिक्षा की तस्वीर
तथ्य 1: स्कूल की
पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च
शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी
सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात
को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए
भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का
ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3: हाल ही में
नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से
एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने
के योग्य हैं. (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की
सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल
जाती है.
तथ्य 4: राष्ट्रीय
मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का
स्तर बहुत कमज़ोर है.
आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण
संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पाते.
तथ्य 5: भारतीय
शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित
संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी
शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 6: भारतीय
विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन
तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं.
तथ्य 7: आज़ादी के
पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी
संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों
में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.
तथ्य 8: अच्छे
शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़
प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है. इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम
ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था.
तथ्य 9: अध्ययन
बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या
करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.
तथ्य 10: भारतीय
छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43
हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों
में पढ़ाई का स्तर घटिया है.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक
आंतरिक अध्ययन में कहा गया है कि वाइस चांसलरों के ‘वाइस’ (यानी पाप) में एक निश्चित सांचा दिखाई देता है जो कि कुछ इस तरह है-
- जाली डिग्रियों की बिक्री: इस तरह की बहुत सी शिकायतें हैं कि वीसी के दफ़्तर रजिस्ट्रार के साथ मिल कर परीक्षा के रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ कर जाली डिग्री दे रहे हैं, ख़ास कर इंजीनियरिंग कॉलेजों में.
- विश्वविद्यालय के पैसे का ग़बन: अधिकतर कुलपति बाहरी एजेंसियों से विश्वविद्यालय का ऑडिट कराने से हिचकते हैं.
- नियुक्तियों और प्रवेश परीक्षा में धाँधली: कॉलेजों में नियुक्ति के रैकेट की शुरुआत अक्सर वाइस चांसलर के दफ़्तर से होती है.
- फ़्रेंचाइज़ी की दुकान: अक्सर कुलपति ग़लत लोगों को फ़्रेंचाइज़ का अधिकार देते हैं जो पैसा लेकर डिप्लोमा बेचते हैं.
‘तीखी प्रतिस्पर्धा की इस दुनिया में भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र का भौतिक
ढांचा पर्याप्त नहीं है। इस ढांचे के विस्तार के लिए निजी और सरकारी क्षेत्र को एक
साथ कदम उठाने होंगे।’ कई बार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भौतिक विस्तार में मुश्किलें पेश आती
हैं। ऐसे में इस मकसद को पूरा करने के लिए ई-कक्षाओं और सूचना प्रौद्योगिकी के
दूसरे आधुनिक साधनों की सहायता ली जानी चाहिए।राष्ट्रपति ने कहा, ‘18 से 24 वर्ष
के आयु वर्ग में जर्मनी के उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले का अनुपात 21 प्रतिशत
है। अमेरिका में यह अनुपात 34 प्रतिशत है। भारत में यह अनुपात केवल सात प्रतिशत
है। लिहाजा मुझे लगता है कि हमें देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुविधाओं को
काफी फैलाना होगा, क्योंकि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था वक्त की जरूरत है। देश
में उच्च शिक्षा को आर्थिक तौर पर वहनीय बनाने के लिए छात्रवृत्तियों में इजाफे के
साथ शिक्षा ऋण योजनाओं को बढ़ावा दिया गया है। लेकिन इस सिलसिले में अब भी बहुत
कुछ किया जाना बाकी है, क्योंकि दुनिया बेहद प्रतिस्पर्धी है।दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों
में आज अपने देश का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। यह स्थिति बदलनी चाहिए।हमारी
उच्च शिक्षा प्रणाली की खोई हुई गरिमा को लौटा पाना संभव है, लेकिन
इसके लिए हमें उस तरीके में बदलाव करना होगा, जिसके जरिए उच्च शिक्षण संस्थानों का प्रशासन
चलाया जाता है। अकादमिक प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं में हमें निश्चित तौर पर
पर्याप्त लचीलेपन को स्वीकार करना चाहिए।
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