“आदिवासी
बचाओ-पर्यावरण बचाओ”
SAVE TRIBES, SAVE ENVIRONMENT
प्रोफ़ेसर ( डा .) राम लखन मीना , अध्यक्ष,हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
एक बार गांधीजी ने दातुन
मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति
पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, जब
छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने
व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी। गांधीजी
की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने
से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने
का यही एकमात्र रास्ता है। 5 जून को पर्यावरण दिवस
मनाने की परंपरा का भी बखूबी पालन होगा। ऐसा लगता है कि पूरी दुनिया को वाकई पर्यावरण
की बेहद चिंता है और वह भिन्न दिवसों, सेमिनारों, भाषणों, रैलियों आदि-आदि के जरिए
अपनी चिंता जताते भी रहती है। लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता यह है कि जिन्हें वाकई जल, जंगल,
जमीन, जानवर और जीवन की चिंता है और वह है हमारा आदिवासी समाज, पर! उनकी चिंता किसी को
नहीं है।
सच यही
है कि सदियों से जंगलों के साथ जीवन का रिश्ता निभा रहे आदिवासी ही वह एकमात्र कड़ी
हैं जो आज भी घटते जंगल और बिगड़ते पर्यावरण को बचाने में हमारी मदद कर सकते हैं। पर
इनकी सुनता कोन है। उलटे इन आदिवासियों को जंगल बचाने के नाम पर अपने जीवन से बेदखल
करने के प्रयास दुनिया भर में जारी है जंगलों से आदिवासियों का रिश्ता। आदिवासी तमाम नारों, देशी-विदेशी अनुदानों या सरकारी, गैर
सरकारी संस्थाओं, आंदोलनों में शामिल हुए बगैर जंगल बचाना चाहते हैं, ताकि उनका अपना
अस्तित्व बचा रह सके। ये उनके लिए प्रोजेक्ट नहीं जीवन का प्रश्न है। आदिवासी पेड़ों की कीमत भले न जाने पर उसका
मोल अच्छे से जानते हैं। इनके हाथों शायद ही कभी महुए, आम, इमली ,सरगी का पेड़ कटता
हो पर शहरी लोगों की पहली पसंद बने सागौन के लट्ठों की बाड़ बांस से बनी झोपड़ी के
इर्द-गिर्द जरुर देखने को मिल जाएगी। इनकी परंपराओं में जल, जंगल जमीन को भगवान का
दर्जा मिला हुआ है। वनों को सहजने में सबसे बड़ा योगदान यहां के आदिवासियों
का हैं। शादी से लेकर हर शुभ कार्य में पेड़ों को साक्षी बनाया जाता है। आदिवासियों
के वैवाहिक समारोह में सेमल के पेड़ के पत्तों का होना जरुरी रस्म है इसके बिना शादी
में मुश्किल खड़ी हो सकती है। आदिवासियों की जीवनशैली में जीवन में पेड़ों का आर्थिक
महत्व भी हैं। वनोपज संग्रहण से परिवार की बड़ी जरूरतें पूरी होती हैं।पेड़ों का इनके
सामाजिक व आर्थिक जीवन में अलग ही महत्व हैं। इनकी वजह से आज भी कई इलाकों में वन हैं
जिससे पर्यावरण सुरक्षित है। आदिवासियों
के आत्मसम्मान, स्वयंनिर्णय, स्वावलम्बन,मानवप्रतिष्ठा, संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। आजादी मिलने के बाद
पूंजीवादी विकास मॉडल के तहत् शहर के चंद लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन व खनिज स्त्रोतों को सीमित लोगों के लिए लुटाया
जा रहा है।
पर्यावरण
प्रबंधन का तात्पर्य पर्यावरण के प्रबंधन से नहीं है, बल्कि आधुनिक मानव समाज के पर्यावरण
के साथ संपर्क तथा उसपर पड़ने वाले प्रभाव के प्रबंधन से है. प्रबंधकों को प्रभावित
करने वाले तीन प्रमुख मुद्दे हैं राजनीति (नेटवर्किंग), कार्यक्रम (परियोजनायें), और
संसाधन (धन, सुविधाएँ, आदि)। पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता को कई दृष्टिकोणों से देखा
जा सकता है। पर्यावरण हमारे जीवन को प्रभावित
करने वाले सभी जैविक और अजैविक तत्वों, तथ्यों, प्रक्रियाओं और घटनाओं के समुच्चय से
निर्मित इकाई है। यह हमारे चारों ओर
व्याप्त है और हमारे जीवन की प्रत्येक घटना इसी के अन्दर सम्पादित होती है तथा हम मनुष्य
अपनी समस्त क्रियाओं से इस पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार एक जीवधारी
और उसके पर्यावरण के बीच अन्योन्याश्रय का संबंध भी होता है।पर्यावरण के जैविक संघटकों
में सूक्ष्म जीवाणु से लेकर कीड़े-मकोड़े, सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधे
आ जाते हैं और इसके साथ ही उनसे जुड़ी सारी जैव क्रियाएँ और प्रक्रियाएँ भी। अजैविक
संघटकों में जीवनरहित तत्व और उनसे जुड़ी प्रक्रियाएँ आती हैं, जैसे: चट्टानें, पर्वत, नदी, हवा
और जलवायु के तत्व इत्यादि।
सामान्यतया पर्यावरण को
मनुष्य के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है और मनुष्य को एक अलग इकाई और उसके चारों
ओर व्याप्त अन्य समस्त चीजों को उसका पर्यावरण घोषित कर दिया जाता है। किन्तु यहाँ
यह भी ध्यातव है कि अभी भी इस धरती पर बहुत सी मानव सभ्यताए हैं जो अपने को पर्यावरण
से अलग नहीं मानतीं और उनकी नज़र में समस्त प्रकृति एक ही इकाई है जिसका मनुष्य भी एक हिस्सा
है। वस्तुतः मनुष्य को पर्यावरण से अलग मानने वाले वे हैं जो तकनीकी रूप से विकसित
हैं और विज्ञान और तकनीक के व्यापक प्रयोग से अपनी प्राकृतिक दशाओं
में काफ़ी बदलाव लाने में समर्थ हैं। तकनीकी
रूप से विकसित मनुष्य द्वारा
आर्थिक उद्देश्य और जीवन में विलासिता के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रकृति के साथ
व्यापक छेड़छाड़ के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक पर्यावरण का संतुलन नष्ट किया है जिससे प्राकृतिक
व्यवस्था या प्रणाली के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न हो गया है। इस तरह की समस्याएँ
पर्यावरणीय अवनयन कहलाती हैं। पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन इत्यादि मनुष्य को अपनी जीवनशैली के बारे
में पुनर्विचार के लिये प्रेरित कर रहे हैं और अब पर्यावरण
संरक्षण और पर्यावरण प्रबंधन की चर्चा है। मनुष्य वैज्ञानिक और तकनीकी रूप से अपने
द्वारा किये गये परिवर्तनों से नुकसान को कितना कम करने में सक्षम है, आर्थिक और राजनैतिक
हितों की टकराहट में पर्यावरण पर कितना ध्यान दिया जा रहा है और मनुष्यता अपने पर्यावरण
के प्रति कितनी जागरूक है, यह आज के ज्वलंत प्रश्न हैं
भारत
में करीब तीन हजार की संख्याँ में विभिन्न जातियों और उप-जातियाँ निवास करती है. सभी
का रहन-सहन,रीति-रिवास एवं परम्पराएं अपनी विशिष्ट विशेषताओं को दर्शाती है.कई आदिवासी
जातियाँ जंगलॊं मे आनादिकाल से निवास करती आ रही है. सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति
जंगलो से होती है. इन जातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनितिक एवं कुटुम्ब व्यवस्था की
अपनी अलग पहचान रही है. इन लोंगो में वन-संरक्षण करने की प्रबल वृत्ति है. अतः वन एवं
वन्य-जीवों से उतना ही प्राप्त करते हैं,जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके और आने वाली
पीढी को भी वन-स्थल धरोहर के रुप में सौप सकें. इन लोगों में वन संवर्धन, वन्य जीवों
एवं पालतू पशुओं का संरक्षण करने की प्रवृत्ति परम्परागतो है. इस कौशल दक्षता एवं प्रखरता
के फ़लस्वरुप आदिवासियों ने पहाडॊं, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को संतुलित बनाए
रखा. स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासी क्षेत्र
से छॆड-छाड नहीं किया करते थे. लेकिन अग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्था
को तहस-नहस कर डाला, क्योंकि यूरोपीय देशों में स्थापित उद्दोगों के लिए वन एवं वन्य-जॊवों
पर कहर ढा दिया. जब तक आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक वातावरण में सेंध नहीं लगी थी,
तब तक हमारी आरण्यक-संस्कृति बरकरार बनी रही. आधुनिक भौतिकवादी समाज ने भी कम कहर नहीं
ढाया. इनकी उपस्थिति से उनके परम्परागत मूल्यों एवं सांस्कृतिक मूल्यों का जमकर ह्रास
हुआ है.
साफ़-सुथरी हवा में विचरने वाले,जंगल में मंगल मनाने
वाले इन भॊले भाले आदिवासियों का जीवन में जहर सा घुल गया है. आज इन आदिवासियों
को पिछडॆपन, अशिक्षा,गरीबी,बेकारी एवं वन-विनाशक के प्रतीक के सुप में देखा जाने लगा
है. उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक और लालची उद्दोगपति खुले आम लूट रहे हैं.
जंगल का राजा अथवा राजकुमार कहलाने वाला यह आदिवासीजन आज दिहाडी मजदूर के रुप में काम
करता दिखलायी देता है. चंद सिक्कों में इनके श्रम-मूल्य की खरीद-फ़ारोख्त की जाती है
और इन्हीं से जंगल के पेडॊं और जंगली पशु-पक्षियों को मारने के लिए अगुअ बनाया जाता
है. उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी की पीढी दर पीढी जिन जंगलों में वे रह
रहे थे, उनके सारे अधिकारों को ग्रहण लग जाएगा. विलायती हुकूमत ने सबसे पहले उनके अधिकारों
पर प्रहार किया और नियम प्रतिपादित किया कि वनॊं की सारी जिम्मेदारी और कब्जा सरकार
की रहेगी और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है. वे अब भी “झूम खेती”
करते है. पेडॊं कॊ जलाते नहीं है, जिसके फ़लों की उपयोगिता है. महुआ का पॆड इनके लिए
किसी कल्पवृक्ष” से कम नहीं है. जब इन पर फ़ल पकते हैं तो वे इनका संग्रह करते हैं और
पूरे साल इनसे बनी रोटी खाते है. इन्हीं फ़लों को सडाकर वे उनकी शराब भी बनाते हैं.
शराब की एक घूंट इनमें जंगल में रहने का हौसला बढाता है.
देश
की स्वतंत्रता के उपरान्त पंचवर्षीय योजनाओं की स्थापनाएं, बुनियादी उद्दोगों की स्थापनाएं
एवं हरित क्रांति जैसे घटकों के आधार पर विकास की नींव रखने वाले तथाकथित बुद्दिजीवियों
ने हडबडाहट में “एकानामी” एवं “एकालाजी”के सह-संबंधों को भूल जाने अथवा जानबूझकर “इगनोर”
करने की प्रवृति के चलते, हमारे सम्मुख पारिस्थितिकी की विकट समस्या पैदा कर दी हैं.
समझ से परे है कि विकास के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित कर उन्हें घुम्मकड की श्रेणी
में ला खडा कर दिया है और द्रुतगति से वनों की कटाई करते हुए बडॆ-बडॆ बांधों का निर्माण
करवा दिया है.. यदि आदिवासियों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भी दृष्टि में
रखकर इन सभी योजनाओं का क्रियान्वित किया जाता, तो संभव है कि पर्यावरण की समस्या विकट
नहीं होती और न ही प्रकोप होता, जैसा कि अभी हाल ही में आए प्राकृतिक प्रकोप ने “उत्तराखण्ड”
को खण्ड-खण्ड कार दिया,से बचा जा सकता था. यह भी सच है कि हमें विश्व संस्कृति के स्तर
पर देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ बनाते हुए समानान्तर स्तर पर लाना है,लेकिन
“अरण्य़ संस्कृति” को विध्वंश करके किये जने की परिकल्पना कालान्तर में लाभदायी सिद्ध
होगी,ऎसा सोचना कदापि उचित नहीं माना जाना चाहिए. हमें अपने परम्परागत सांस्कृतिक
मूल्यों, सामाजिक परम्प्राओं क विनाश न करते हुए आदिवासियों की वन एवं वन्य-जीव
संस्कृति को बगैर छेड-छाड किए संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए. एक स्थान से दूसरे स्थान
पर विस्थापन न तो आदिवासियों को भाता है और न ही वन्य जीव-जन्तुओं को, लेकिन ऎसा बडॆ
पैमाने पर हो रहा है, इस पर अंकुश लगाए जाने की जरुरत है. अगर ऎसा नहीं किया गया तो
निश्चित जानिए कि वनों का विनाश तो होगा ही, साथ ही पारिस्थितिकी असंतुलन में भी वृद्धि
होगी. अगर एक बार संतुलन बिगडा तो सुधारे सुधरने वाला नहीं है संविधान में आद्दिवासियों
को यह वचन दिया गया है कि वे अपनी विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए राष्ट्र की विकासधारा
से जुड सकते हैं. अतः कडा निर्णय लेते हुए सरकार को आगे आना होगा,जिससे उनकी प्राकृतिक
संस्कृति पर कोई प्रतिकूल असर न पडॆ.
हम
सब जानते हैं कि उनकी भूमि अत्यधिक उपजाऊ नहीं है और न ही खेती के योग्य है. फ़िर भी
वे वनों में रहते हुए वनॊं के रहस्य को जानते हैं और “झूम” पद्दति से उतना तो पैदा
कर ही लेते हैं,जितनी कि उन्हें आश्यकता होती है. यदि इससे जरुरतें पूरी नहीं हो सकती
तो वे महुआ को भोजन के रुप में ले लेते हैं या फ़िर आम की गुढलियों कॊ पीसकर रोटी बनाकर
अपना उदर-पोषण कर लेते हैं, लेकिन प्रकृति से खिलवाड नहीं करते., फ़िर वे हर पौधे-पेडॊं
से परिचित भी होते हैं, कि कौनसा पौधा किस बिमारी में काम में आता है, कौनसी जडी-बूटी
किस बिमारी पर काम करती है, को भी संरक्षित करते चलते है. विंध्याचल-हिमालय व
अन्य पर्वत शिखर हमारी संकृति के पावन प्रतीक हैं.. इन्हें भी वृक्षविहीन बनाया जा
रहा है.,क्योंकि वनवासियों को उनके अधिकरों से वंचित किया ज सके. इन पहाडियों पर पायी
जाने वाली जडी बूटियां, ईंधन, चारा एवं आवश्यक्तानुसार इमारती लकडी प्रचूर मात्रा में
प्राप्त होती रहे..आदिवासियों को जंगल धरोहर के रुप में प्राप्त हुए थे, वे ही ठेकेदारों
के इशारे पर जंगल काटने को मजबूर हो रहे हैं.. यद्दपि पर्वतीय क्षेत्रों में
अनेकों विकास कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं लेकिन उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरुप से
उन्हें फ़ायद होने वाला नहीं है. आदिवासियों को संरक्षण प्राप्त नहीं होने से केवल वन
संस्कृति एवं वन्य-जीव सुरक्षा का ही ह्रास नहीं हो रहा है बल्कि देश की अखण्डता को
खंडित करने वाले तत्व अलग-अलग राज्यों की मांग करने को मजबूर हो रहे हैं.इन सबके पीछे
आर्थिक असंतुलन एवं पर्यावरण असंतुलन जैसे प्रमुख कारण ही जड में मिलेंगे.
हमारे
देश की अरण्य संस्कृति अपनी विशेषता लिए हुए थी,जो शनैः-शनैः अपनी हरीतिमा खोती जा
रही है. जहां-जहां के आदिवासियों ने अपना स्थान छोड दिया है,वहां के वन्य-जीवों पर
प्रहार हो रहे हैं,बल्कि यह कहा जाए कि वे लगभग समाप्ति की ओर हैं, उसके प्रतिफ़ल हमें
सूखा पडने या कहें अकाल पडने जैसी स्थिति की निर्मिति बन गई है..फ़िर सरकार को करोडॊ
रुपया राहत के नाम पर खर्च करने होते हैं. लाखों की संख्या में बेशकीमती पौधे रोपने
के लिए दिए जाते हैं, लेकिन उसके आधे भी लग नहीं पाते. यदि लग भी गए तो पर्याप्त पानी
और खाद के अभाव में मर जाते हैं. जाब शहरों के वृक्ष सुरक्षित नहीं है तो फ़िर कोसो
दूर जंगल में उनकी परवरिश करने वाला कौन है? हम अपने पडौस के देशो में जाकर देखें,
उन्होंने प्रभावी ढंग से सफ़लतापूर्वक अनुकरणीय़ कार्य किया है और पेडॊं की रक्षा करते
हुए हरियाली को बचाए रखा है.
जब
आदिवासियों से वन-सम्पदा का मालिकाना हक छीनक्रर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के हाथॊ
में चले जाएंगे तो केवल विकास के नाम पर बडॆ-बडॆ बांध बांधे जाएंगे और बदले में उन्हें
मिलेगा बांधो से निकलने वाली नहरें, नहरों के आसपास मचा दलदल और भूमि की उर्वरा शक्ति
को कम करने वाली परिस्थिति और विस्थापित होने की व्याकुलता और जिन्दगी भर की टीस, जो
उसे पल-पल मौत के मुंह में ढकेलने के लिए पर्याप्त होगी. आदिवासी क्षेत्रों
में होने वाले विध्वंस से जलवायु एवं मौसम में परिवर्तन द्रुत गति से हो रहा है. कभी
भारत में 70% भूमि वनों से आच्छादित थी आज घटकर 17-18 प्रतिशत रह गई है. वनो के यह
चिंता का विषय है. वनों की रक्षा एवं विकास के नाम पर पूरे देश में अफ़सरों और कर्मचरियों
की संख्यां में बेतरतीब बढौतरी हुई हैं,उतने ही अनुपात में वन सिकुड रहे हैं. सुरक्षा
के नाम पर गश्ति दल बनाए गए हैं,फ़िर भी वनों की अंधाधुंध कटाई निर्बाधगति से चल रही
है. कारण पूछे जाने पर एक नहीं,वरन अनेकों कारण गिना दिए जाते हैं.,उनमे प्रमुखता से
एक कारण सुनने में आता है कि जब तक ये आदिवासी जंगल में रहेंगे, तब तक वन सुरक्षित
नहीं हो सकते. कितना बडा लांझन है इन भेले-भाले आदिवासियों पर, जो सदासे धरती को अपनी
मां का दर्जा देते आए हैं. रुखा-सूखा खा लेते हैं, मुफ़लिसी में जी लेते हैं,लेकिन धरती
पर हल नहीं चलाते, उनका अपना मानना है कि हल चलाकर वे धरती का सीना चाक नहीं कर सकते.
पर्यावरण भौतिक वातावरण
का द्योतक है। आजकल के यान्त्रिक और औद्योगिक
युग में इसको दूषण से बचाना
अनिवार्य है। सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म
लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत
हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय
समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने
लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है। प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी
समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और
मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण
हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि)
का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह
प्रभाव नामक वायुमंडलीय
प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय
बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित
गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के
खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव
में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार
बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढ़ने लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल
का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर
बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष
की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बंग्लादेश जैसे
निचाईवाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में
सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा
बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों
की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने
वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश
में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 1050 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और
हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं। उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या
है जल प्रदूषण। बहुत बार
उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया
जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं,
जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों
(मुख्यतः मल-मूत्र) के सड़ने से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित
होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित
जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा
हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं
गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों
लोग हर साल मरते हैं।
एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर
वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश
के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का
कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बढ़े पैमाने पर होने लगा है। फसल का
अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों
का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र
और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए,
मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात
यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु
द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध
होते हैं। आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की
अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति
के नियमों को तोड़ने लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक
उससे लिया जाए।
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