|| D.Litt.in Media, Ph-D.in Linguistics, M.Phil in Linguistics(Gold Medal), Post Graduation in Linguistics (Gold Medal) || Area of Interest: Language, Linguistics, Applied Linguistics, Transformational Generative Grammar, Dialect-geography, Translation Studies, Machine Translation, Functional Hindi, Media Studies and Literary Analysis || DEAN & PROFESSOR, CENTRAL UNIVERSITY OF RAJASTHAN, NH-8, KISHANGARH, AJMER, RAJASTHAN, INDIA ||
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Tuesday, 31 December 2019
Wednesday, 26 June 2019
Professor Ram Lakhan Meena Syndicate Member Rajasthan University Jaipur
Interview of Professor Ram Lakhan Meena
Syndicate Member Rajasthan University Jaipur
Tuesday, 12 February 2019
13पॉइंट रोस्टर सदियों तक बहुजनों को उच्च शिक्षा से बाहर कर देगा : प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
13पॉइंट रोस्टर सदियों तक बहुजनों को उच्च शिक्षा से बाहर कर देगा
जनेऊ का षडयंत्र क्या है.? संविधान का चीरहरण कैसे हुआ इसे ठीक से समझाना होगा.!
प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
उच्च शिक्षा में आरक्षण को लागू करने के घटनाक्रम पर एक नजर
1950
एससी-एसटी को मिला आरक्षण उच्च शिक्षा में औने-पौने तरीके
से लागू हो पाया 1997 में । 1993 में ओबीसी को मिला
आरक्षण उच्च शिक्षा में,
औने-पौने तरीके से लागू हो पाया 2007 में । आरक्षण लागू न
हो सके,
इसके लिए दर्जनों कोर्ट केस, फिर
भी लागू करना पड़ा तो रोस्टर गलत । किसी तरह गलत तरीके से 200 प्वाइंट रोस्टर लागू
हो सका,
लेकिन शॉर्टफॉल बैकलाग खत्म । 5 मार्च 2018 को 200 प्वाइंट
रोस्टर हटाकर विभागवार यानी 13 प्वाइंट रोस्टर कोर्ट के जरिए लागू हुआ । सड़क से
संसद तक भारी विरोध के चलते 19 जुलाई को नियुक्तियों पर रोक, सरकार द्वारा दो एसएलपी दायर । सरकार और यूजीसी की एसएलपी पर
सुनवाई टलती रही। मीडिया व संसद में मंत्री ने अध्यादेश की बात की । मोदिसरकर
द्वारा भारत सरकार के वकीलों द्वारा कमजोर पैरवी करवाकर 22 जनवरी 2019 को दोनों एसएलपी
ख़ारिज करवाना बहुजनों के साथ गहरी साजिश थी। संसद के आख़िरी सत्र तक कोई अध्यादेश
नहीं लाना भी उससे बड़ी साजिश है क्योंकि तब तक विश्वविद्यालयों / कॉलेजों में ख़ाली
पड़े आरक्षित पदों को सवर्णों से भर लिया जावेगा । 10% सवर्ण आरक्षण 48 घंटों में
पास होकर लागू भी हो गया। संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019 संविधान की मूल संरचना के ख़िलाफ है और इसलिए असंवैधानिक है। निम्नांकित
तथ्यों के आधार पर इसे चुनौती दी जा सकती है!
· अनुच्छेद 16 (1) के तहत अन्य वर्ग के लोगों को आरक्षण
दिया जा सकता है आर्थिक आधार पर किसी वर्ग के निर्धारण की इजाजत नहीं है और ऐसा
करना संविधान के अनुच्छेद 15(1) एवं 16 (1) का उल्लंघन है और पिछले दरवाजे
से संविधान के मौलिक स्वरूप पर हमला है ।
· संविधान की मौलिक संरचना को संसद में पारित किसी संशोधन अधिनियम से बदला नहीं
जा सकता, संविधान सर्वोपरि है। केशवानंद भारती
मामले में 03जजों की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा था कि संशोधन तो किया जा
सकता है पर संविधान की मौलिक संरचना को नष्ट नहीं किया जा सकता।
· इंद्रा साहनी केस में 09जजों की संविधान पीठ ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का एक वर्ग बनाना संविधान की मूल संरचना के
ख़िलाफ है और 10 प्रतिशत आरक्षण देने में घोर उल्लंघन किया गया है । RSS की पाठशाला गुजरात सरकार ने 4 अगस्त 2016 को ऐसा ही एक अध्यादेश जारी किया था जिसको
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है और यह सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।
तमिलनाडु में दिया 69% आरक्षण भी सुप्रीमकोर्ट में विचाराधीन है ।
· संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय की बात कही गयी है। 124वें संविधान
संशोधन द्वारा ‘आर्थिक रूप से पिछड़े’ नामक जो एक नया वर्ग
बनाया गया है उसका जिक्र ना तो संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में इसका कहीं भी जिक्र
नहीं है।
· 1963 में बाला जी और 1993 के मंडल कमीशन केस में सुप्रीम कोर्ट की 09जजों की पीठ ने कहा था कि किस-किस आधार पर भारतीय संविधान के तहत आरक्षण दिया जा सकता है और आरक्षण की सीमा
50% से अधिक नहीं हो सकती है ।
· यदि आरक्षण को 50%सीमा को लांघा जाता है तो सवाल उठता है कि वर्तमान में OBC62%, SC17% और ST10%
की जनसंख्या के अनुपात में इनका आरक्षण क्यों
नहीं बढ़ना चाहिए क्योंकि कमजोर वर्गों में सिर्फ एससी, एसटी और ओबीसी आते हैं। सिर्फ इन्हीं वर्गों के लोगों को हर तरह के सामाजिक
अन्याय और शोषण से बचाए जाने की जरूरत है। (ऐसा देखा गया है कि किसी समुदाय को
किसी राज्य में आरक्षण है तो किसी अन्य राज्य या केंद्र में नहीं, इन वजहों से भी इनका जनसंख्या% बढ़ सकता है )
· अधिनियम में अनुच्छेद 46 की शर्तों को पूरा करने के लिए जिन उद्देश्यों
और कारणों को गिनाया गया है, वह वस्तुतः RSS BJP के स्वयंभू संविधान विशेषज्ञों का मानसिक दिवालियापन, शरारतपूर्ण, संदिग्ध, और गलत हैं और ये सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के हितों को हानि
पहुँचाने वाले हैं, उनका हक़ छीनने को उतारू हैं पर बहुजन अब
एकजुट हो रहे हैं ।
· संविधान में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों की कोई
परिभाषा नहीं दी गयी है जैसी परिभाषा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों की
परिभाषा अनुच्छेद 340, 341, 342 और 366 (25) में दी गयी है।
· आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए किसी भी तरह के आयोग नहीं बनाए गए हैं जैसा
कि पिछड़ा वर्ग,
एससी और एसटी के लिए किया गया है। यद्यपि सरकार ने
सामाजिक-आर्थिक आधार पर 2011 में जनगणना की गयी पर इसे प्रकाशित नहीं किया गया है
और इसलिए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की क्या हालत है इसके बारे में कुछ भी ज्ञात
नहीं है।
· आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण में मजदूरी करने वालों, कृषि मजदूरों,
ऑटो चालकों, टैक्सी ड्राइवरों, कुलियों,
खोमचावालों आदि को लाभ नहीं मिलने का अंदेशा है क्योंकि ये
आर्थिक रूप से कमजोर अन्य वर्ग के लोगों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते जिनकी आय 8
लाख रुपए तक है,
5 एकड़ कृषि योग्य जमीन है और शहरी क्षेत्र में 1000 वर्ग
फूट और ग्रामीण क्षेत्र में 200 गज में
बना घर है।
· साथ ही, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को किसी भी तरह
का सामाजिक अन्याय,
शोषण, छुआछूत और अत्याचार नहीं
झेलना पड़ा है।
· वस्तुतः 10% सवर्ण आरक्षण सवर्णों के साथ भी धोखाधड़ी है क्योंकि जिस आधार पर
आरक्षण दिया गया है उसमें देश के 45% सवर्ण आ जाते हैं अर्थात यह आरक्षण
5%धनाढ्यों और उच्च नौकरशाहों की संतानों को 40% आरक्षण देने का षडयंत्र है जिसे अभी
गरीब सवर्ण भी नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि सुप्रीमकोर्ट पहले ही दे चुका है कि
आरक्षितों को उनके कोटे में ही कंसिडर किया जाएगा ।
· जस्टिस आर भानुमति और जस्टिस एएम खानविल्कर की पीठ ने दीपा पीवी बनाम यूनियन
ऑफ इंडिया मामले में डीओपीटी की 1 जुलाई 1999 की कार्यवाही के नियम तथा ओएम को सही करार देते हुए कहा कि आरक्षित वर्ग के
उम्मीदवार को आरक्षित वर्ग में ही नौकरी मिलेगी, चाहे
उसने सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों से ज्यादा अंक क्यों न हासिल किए हों।
· सुप्रीम कोर्ट ने अप्रेल, 2017 में कहा था कि आरक्षित वर्ग
के अभ्यर्थियों को आरक्षित वर्ग में ही नौकरी मिलेगी, चाहे उसके सामान्य अभ्यर्थियों से ज्यादा अंक हों। जिसके बाद सीबीएसई ने देश
भर के 470
मेडिकल कॉलेजों की 65,170 सीटों पर यह नई व्यवस्था लागू की।
· परिणामस्वरूप ओबीसी को 27% की जगह 2.8%, एससी को
15% की जगह 1.6 और एसटी को 7.5% की जगह .72% सीटें मिली, किसी
के जूं तक नहीं रेंगी।
· वस्तुतः होता क्या है कि न्यायालयों में सभी तरह के जजिज हैं जिनमें अधिकाँश
आरक्षण विरोधी है और वे मौके पर चौका मारकर अपने जुडिशल करतब दिखाते हैं और
अधिकांशत: आरक्षण के विरोध में अपने निर्णय देते हैं और जैसे ही आरक्षण के विरोध
में निर्णय देते हैं, मनुवादी ताकतें उन निर्णयों को लागू करने हेतु पूरे शबाब में आ
जाती हैं और बहुजन एक-दूसरे की तरफ ताकते रहते हैं।
· ध्यान भटकाने के लिए न्यायालयों द्वारा आरक्षण के पक्ष में एक-आध फौरे निर्णय भी दिये जाते रहे हैं, पर जब आरक्षण के पक्ष में ऐसे निर्णय आते हैं तो मनुवादी
प्रशासनिक-व्यवस्था उन पर कुंडली मारकर बैठ जाती है।
अत: संविधान
(103वां संशोधन) अधिनियम,
2019 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 15 में उपबन्ध 6 और 16 में
उपबन्ध 6 को जोड़ना संविधान की प्रस्तावना और इसकी मूल संरचना के ख़िलाफ है। यह
संविधान के अनुच्छेद 368 के प्रावधानों का उल्लंघन खुला उल्लंघन है क्योंकि जिस
प्रावधान का जिक्र ही संविधान में नहीं है उसे बिना विधान सभाओं में पारित करवाये
कानून कैसे बनाया जा सकता है?
200पॉइंट रोस्टर
- बाबासाहब डॉ भीम राव अम्बेडकर की जातिवाद पर प्रहार की धार बहूत तीखी और चुभने वाली थी। वे भक्तजनों से कहते है ‘तुम्हारे ये दीन दुबले चेहरे देखकर और करुणाजनक वाणी सुनकर मेरा ह्रदय फटता हैं। अनेक युगों से तुम गुलामी के गर्त में पिस रहे हो, गल रहे हो, सड़ रहे हो और फिर भी तुम ये ही सोचते हो कि तुम्हारी ये दुर्गती देव-निर्मित हैं- ईश्वर के संकेत के अनुसार है ।’
- तुम अपनी माँ के गर्भ में ही क्यों नहीं मरे, कम-से-कम धरा को बोझ तो नहीं सहना पड़ता! प्रतिनिधित्व की दुर्दशा और बहुजनों के मुरझाए चेहरों से बाबासाहब की यह बात आज सच साबित हो रही है । आखिरकार बहुजनों को साँप क्यों सूंघ गया है ?
- आखिर उनकी कुंभकर्णी-नींद कब टूटेगी जब मनुवादियों और प्रतिनिधित्व-विरोधी मानसिकताओं द्वारा सब कुछ खत्म कर दिया जाएगा। शायद आज का युवा-वर्ग नहीं जानता कि जब देश का संविधान बाबासाहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी की अध्यक्षता में बन रहा था तब सामाजिक अन्याय को रोकने के लिए कई कानून बने थे।
- उसी कड़ी में सामाजिक अन्याय रोकने के लिये जातिगत आरक्षण अनुसूचित जाति (SC) और समाज से वंचित व जंगलो में कठिन परिस्थितियों में रहने वाली जातियों को क्षेत्र आधार पर अनुसूचित जनजातियों (ST) में रखा गया और तमाम विरोधी-मंशाओं के बावजूद बाबासाहब अम्बेडकर और जयपाल मुंडा ने अपने बौद्धिक-कौशल से आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
- संविधान निर्माताओं ने क्रमिक असमानता की लगभग 6,000 जातीयों वाले देश में एक आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना अपने आप में एक कठिन काम था। इसलिए संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण में वंचितों को देश के संसाधनों में हिस्सेदार बनाने के लिए 15 (4), 16 (4), 335, 340, 341, 342 अनुच्छेदों में भी विशेष प्रावधान किए हैं ।
- इन्हीं प्रावधानों के आधार पर आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं जिसके तहत बहुजनों (दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग) का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया है। लेकिन बहुजनों के प्रतिनिधित्व को कैसे लागू किया जाये, इसको लेकर देशभर के विश्वविद्यालय सत्तापक्ष की मिलीभगत से अड़ंगेबाजी करते रहे हैं।
- इसका परिणाम रहा कि दलित-आदिवासियों और पिछड़ों का रिजर्वेशन विश्वविद्यालयों में महज कागज की शोभा बनकर रह गया। यही हाल मण्डल कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर लागू हुए ओबीसी रिजर्वेशन का रहा।
- विश्वविद्यालय लंबे समय तक अपनी स्वायत्तता का हवाला देकर प्रतिनिधित्व लागू करने से ही मना करते रहे, लेकिन जब सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव बनने लगा तो उन्होंने प्रतिनिधित्व लागू करने की हामी तो भरी, पर आधे-अधूरे मन से और इसमें तमाम ऐसे चालबाजी कर दी, जिससे कि यह प्रभावी ढंग से लागू ही न हो पाये।
- इसलिए वे 200 पॉइंट रोस्टर को लागू होने देने नहीं चाहते हैं क्योंकि बैकलॉग के पदों पर बहुजनों की नियुक्तियाँ होनी है । और यदि अबकी बार सवर्ण कामयाब हो गये तो आने वाले 50 वर्षों तक आरक्षितों को ये नौकरियाँ मिलाने वाली नहीं है । नई रोस्टर प्रणाली के तहत वंचित समाज के छात्र छात्राओं को बड़ा नुकसान होगा।
- 200 और 13 पॉइंट रोस्टर की कहानी आपके समक्ष प्रतुत कर रहा हूँ कि इस फैसले से पहले सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शिक्षक पदों पर भर्तियां पूरी यूनिवर्सिटी या कॉलजों को इकाई मानकर होती थीं। इसके लिए संस्थान 200 प्वाइंट का रोस्टर सिस्टम मानते थे।
- इसमें एक से 200 तक पदों पर रिजर्वेशन कैसे और किन पदों पर होगा, इसका क्रमवार ब्यौरा होता है। 2012 में हमने लंबी लड़ाई लड़ी और संप्रग सरकार पर दवाब बनाकर 200 पॉइंट्स रोस्टर को सभी शिक्षण-संस्थानों को सांविधिक इकाई मानकर आरक्षण लागू करवाया जिसे मनुवादी न्याय-व्यवस्था ने इलाहबाद उच्च न्यायालय ने खत्म कर दिया।
- 2 अप्रेल 2018 के देशव्यापी आंदोलन से डरकर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की। किंतु, बहुजनों का सरकार पर जैसे ही दवाब कम हुआ मोदीसरकार ने सुप्रिन कोर्ट में कमजोर पैरवी करवाकर याचिका खारिज करवा दी ।
- इस चालबाजी को दिलीप मंडल ने बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है कि मनुवादियों ने 13 पॉइंट रोस्टर का नियम बनाया कि चौथा पद शंबूक को देंगे। फिर उन्होंने सिर्फ तीन पदों की वेकेंसी निकाली और इस तरह अपने लिए पुण्य कमाया। सातवें पद पर मातादीन भंगी और 15वें पद पर एकलव्य को आना था। वे इंतजार करते रह गए।
- मनुस्मृति फिर से लागू होने से ख़ुश होकर देवताओं ने प्रधानमंत्री कार्यालय और सुप्रीम कोर्ट पर पुष्प वर्षा की और अप्सराओं ने डाँस किया। सरल भाषा में इसे ही 13 प्वाइंट का रोस्टर कहा जाता है। संवैधानिक भाषा में इसके तहत चौथा पद ओबीसी को, सातवां पद एससी को, आठवां पद ओबीसी को दिया जाएगा। 14वां पद अगर डिपार्टमेंट आता है, तभी वह एसटी को मिलेगा। इनके अलावा सभी पद अनरिजर्व घोषित कर दिए गए। अगर
- इस सिस्टम में पूरे संस्थान को यूनिट मानकर रिजर्वेशन लागू किया जाता है, जिसमें 49.5 परसेंट पद आरक्षित और 59.5% पद अनारक्षित होते थे अब उसमें 10% सवर्ण आरक्षण अलग से लागू होगा । लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि रिजर्वेशन डिपार्टमेंट के आधार पर दिया जाएगा।
- इसके लिए 13 प्वाइंट का रोस्टर बनाया गया । 13 प्वाइंट के रोस्टर के तहत रिजर्वेशन को ईमानदारी से लागू कर भी दिया जाए तो भी वास्तविक रिजर्वेशन 30 परसेंट के आसपास ही रह जाएगा, जबकि अभी केंद्र सरकार की नौकरियों में एससी-एसटी-ओबीसी के लिए 49.5% रिजर्वेशन का प्रावधान है। साथ ही, मनुवादियों ने कैसे-कैसे षडयंत्र रचे देखिए ;
» विभाग को इकाई मानकर प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए पहला
षडयंत्र
» जैसे ही कोई निर्णय आरक्षण के विरुद्ध आता ही बहुत दिनों से
चुपचाप बैठे सरकारी विभाग ध् विश्वविद्यालय हरकत में आत्र हैं और जल्दी-जल्दी
विज्ञापन निकालते हैं, जिसमें रिजर्व पोस्ट या तो नहीं होते हैं या बेहद कम होते हैं।
» एक एक रिजर्व पद के लिए विशेष योग्यता जोड़ना ताकि उम्मीदवार
ही न मिले
» नए कोर्सों में पद सृजित करने जहाँ दलित, आदिवासी, पिछड़े उम्मीदवार ही ना मिले
» विभागों को छोटा-छोटा करना ताकि आरक्षित वर्ग के लिए कभी
सीट ही नहीं आए
» साक्षात्कार बोर्डों में अधिकाँश सवर्ण विशेषज्ञों को और
चापलूस व लालची आब्जर्वर रखना ताकि आसानी से एनएफएस (NFS) किया जा सके
» अन्य अनगिनत ऐसी मनुवादी टेक्टिक्स अपनायी जाती है जिनको
साक्षात्कार के समय ही देखा-परखा जा सकता है
- ऐसी अनेकानेक चालबाजियों का परिणाम होता है कि विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व रूपी आरक्षण या तो लागू ही नहीं हुआ या फिर आरक्षित वर्ग को न्यूनतम सीटें मिलें।
- इस तरह की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी विश्वविद्यलयों में आरक्षित समुदाय के प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है।
- अभी हाल ही में राष्ट्रीय मीडिया में छपी और एनडीटीवी द्वारा प्रसारित रिपोर्टस में बताया गया है कि देशभर के विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू होने के बावजूद भी आरक्षित समुदाय के प्राध्यापकों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है।
रोस्टर की जरूरत क्यों पड़ी.?
·
2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी प्रतिनिधित्व लागू करने के दौरान
विश्वविद्यालय में नियुक्तियों का मामला
केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के सामने आया।
·
चूंकि
इस बार प्रतिनिधित्व उस सरकार के समय में लागू हो रहा था, जिसमें आरजेडी, डीएमके, पीएमके, जेएमएम जैसे पार्टियां शामिल थीं, जो कि सामाजिक न्याय की पक्षधर रहीं हैं, इसलिए पुराने खेल की गुंजाइश काफी कम हो गयी थी।
· अतः केंद्र सरकार के डीओपीटी मंत्रालय ने यूजीसी को दिसंबर 2005 में एक पत्र भेजकर विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू
करेने में आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा। उस पत्र के अनुपालन में
यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक
प्रोफेसर रावसाहब काले जो कि आगे चलकर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक
कुलपति भी बनाए गए थे, की अध्यक्षता में प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए एक फॉर्मूला बनाने हेतु एक
तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था, जिसमें कानूनविद प्रोफेसर जोश वर्गीज और यूजीसी के तत्कालीन
सचिव डॉ आरके चौहान सदस्य थे।
·
प्रोफेसर
काले समिति ने भारत सरकार के डीओपीटी
मंत्रालय की 02 जुलाई
1997 की गाइडलाइन जो कि सुप्रीम कोर्ट के सब्बरवाल जजमेंट के
आधार पर बनी है, को ही
आधार बनाकर 200 पॉइंट
का रोस्टर बनाया। इस रोस्टर में किसी विश्वविद्यालय के सभी विभाग में कार्यरत
असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर का तीन स्तर पर कैडर बनाने की सिफारिश की गयी।
· इस समिति ने विभाग
के बजाय,
विश्वविद्यालयध्कालेज को यूनिट मानकर प्रतिनिधित्व लागू
करने की सिफारिश की, क्योंकि उक्त पदों पर नियुक्तियां विश्वविद्यालय करता है, न कि उसका विभाग। अलग-अलग विभागों में नियुक्त प्रोफेसरों
की सैलरी और सेवा शर्तें भी एक ही होती हैं, इसलिए भी समिति ने
उनको एक कैडर मानने की सिफारिश की थी।
रोस्टर 200 पॉइंट्स का क्यों,
100 पॉइंट का क्यों नहीं?
- काले समिति ने रोस्टर को 100 पॉइंट पर न बनाकर 200 पॉइंट पर बनाया, क्योंकि अनुसूचित जातियों को 7.5 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व है। अगर यह रोस्टर 100 पॉइंट पर बनता है तो अनुसूचित जातियों को किसी विश्वविद्यालय में विज्ञापित होने वाले 100 पदों में से 7.5 पद देने होते, जो कि संभव नहीं है।
- अतः समिति ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को 100 प्रतिशत में दिये गए क्रमशः 7.5, 15, 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व को दो से गुणा कर दिया, जिससे यह निकलकर आया कि 200 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को क्रमशरू 15, 30, 54 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिलेगा।
- यानि अगर एक विश्वविद्यालय में 200 सीट हैं, तो उसमें अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, और ओबीसी को क्रमशः 15, 30, और 54 सीटें मिलेंगी, जो कि उनके 7.5, 15, 27% प्रतिनिधित्व के अनुसार हैं।
- सीटों की संख्या का गणित सुलझाने के बाद समिति के सामने यह समस्या आई की यह कैसे निर्धारित किया जाये कि कौन सी सीट किस समुदाय को जाएगी? इस पहेली को सुलझाने के लिए समिति ने हर सीट पर चारों वर्गों की हिस्सेदारी देखने का फॉर्मूला सुझाया।
- मसलन, अगर किसी संस्थान में केवल एक सीट है, तो उसमें अनारक्षित वर्ग की हस्सेदारी 50.5% होगी, ओबीसी की हिस्सेदारी 27% होगी, एससी की हिस्सेदारी 15% होगी, और एसटी की हिस्सेदारी 7.5% होगी। चूंकि इस विभाजन में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए पहली सीट अनारक्षित रखी जाती है।
- पहली सीट के अनारक्षित रखने का एक और लॉजिक यह है कि यह सीट सैद्धांतिक रूप से सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए खुली होगी।
- v यह अलग बात है कि धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि अनारक्षित सीट का मतलब सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण हुआ जो कि संवैधानिक रूप से गलत है क्योंकि वस्तुतः एससी, एसटी और ओबीसी को उनकी वास्तविक जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया है ।
- अत: ऐसी सीटों पर सबका अधिकार होगा जो कि प्रतियोगिता और उसके परिणाम का निर्धारण वर्टिकल रूप में तय हो । प्रो.काले समिति ने 200 सीटों का कैटेगरी के अनुसार 200पॉइंट का रोस्टर तैयार किया उसे ही 200पॉइंट्स रोस्टर कहा जाता है ।
- किंतु, मेरा मानना है कि पहली पांच सीटों का वितरणय पहली दिव्यांग, दूसरी एससी, तीसरी एसटी, चौथी ओबीसी और पाँचवी ऑपन कैटेगरी की होनी चाहिए ताकि सभी वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल सके और उसके बाद 200पॉइंट्स रोस्टर के फॉर्मूले के आधार पर सीटों का निर्धारण करने के लिए 200 नंबर का एक चार्ट बना दिया जाए । प्रोफेसर काले समिति द्वारा तैयार रोस्टर के अनुसार अगर किसी संस्था / विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल 200 पदों का वितरण के अनुसार निम्न प्रकार है।
ओबीसी 04,08,12,16,19,23,26,30,34,38,42,45,49,52,56,60,63,67,71,75,78,82,
86,89,93,97,100,104,109,112,115,119,123,126,130,134,138,141,145,149,152,156,161,163,167,171,176,178,182,186,189,193,197,200वां पद
एससी 7,15,20,27,35,41,47,54,61,68,74,81,87,94,99,107,114,121,127,135,
140,147,154,162,168,174,180,187,195,199वांपद
एसटी 14,28,40,55,69,80,95,108,120,136,148,160,175,188,198वां पद
विवाद की वजह
o प्रो. काले समिति
द्वारा बनाए गए इस रोस्टर ने विश्वविद्यालों द्वारा निकाली जा रही
नियुक्तियों में आरक्षित वर्ग की सीटों की चोरी को लगभग नामुमकिन बना दिया, क्योंकि इसने यह तक तय कर दिया कि आने वाला पद किस समुदाय
के कोटे से भरा जाना है।
o इस वजह से बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय सहित अधिकाँश विश्वविद्यालय इस रोस्टर
के खिलाफ हो गए थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह रोस्टर एससी-एसटी के लिए 1997 और ओबीसी के लिए 2006 से लागू माना जाना था, साथ ही एससीएसटी को बैकलॉग भी देना था ।
o
मान
लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से अपने यहां आरक्षण लागू किया, लेकिन उसने अपने यहां उसके बाद भी किसी एसटी, एससी, ओबीसी को नियुक्त नहीं किया।
o ऐसी सूरत में उस विश्वविद्यालय में 2005 के बाद नियुक्त हुए सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की सीनियरिटी के अनुसार तीन
अलग-अलग लिस्ट बनेगी।
o अब मान लीजिए कि अगर उस विश्वविद्यालय ने असिस्टेंट
प्रोफेसर पर अब तक 43 लोगों की नियुक्ति हुई जिसमें कोई भी एससी-एसटी और ओबीसी नहीं है, तो रोस्टर के अनुसार उस विश्वविद्यालय में अगले 11 पद ओबीसी, 06 पद एससी, और 03 पद एसटी उम्मीदवारों से भरने ही पड़ेंगे, और जब तक आरक्षित पद नहीं भरे जाएँगे तब तक उक्त
विश्वविद्यालय कोई भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर अनारक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं
कर सकता है।
o
यहीं
से नियुक्तियों का पैच फँस गया क्योंकि मनुवादियों के सरे चोर दरवाजे बंद हो गये
जिसको वे आरक्षण-विरोधी मानसिकताओं के जजों, कुलपतियों और न्यायालयों के माध्यम से भरना चाहते हैं और
इलाहबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीमकोर्ट के अभी हाल ही में आये निर्णय इसी की परिणिति
है ।
o परिणामस्वरूप कई विश्वविद्यालयों ने तो रोस्टर मानने से ही
इनकार कर दिया । चूंकि ज्यादातर विश्वविद्यालयों ने अपने यहां प्रतिनिधित्व सिर्फ
कागज पर ही लागू किया था, इसलिए इस रोस्टर के आने के बाद वे बुरी तरह फंस गए और अब फड़फड़ा रहे हैं ।
o
सबसे
बड़ी बात तो यह भी है कि उच्च शिक्षण संस्थानों / विश्वविद्यालयों में 70 के दशक में लगी नौकरियों में सवर्ण लोगों ने कब्जा किया
हुआ है और वे अब सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो एक तरफ वे उच्च शिक्षण संस्थानों में
उनके वर्चस्व वे बनाये रखना चाहते हैं । दूसरी तरफ खाली हुए अधिकाँश पदों पर
एससी-एसटी का बैकलॉग बनेगा, जो सवर्णों को फूटी आँख नहीं सुहा रहा है ।
o साथ ही, चूंकि वो नया पद अनारक्षित वर्ग के लिए तब तक नहीं निकाल
सकते थे,
जब तक कि पुराना बैकलॉग भर न जाय। ऐसे में इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, बीएचयू, डीयू, और शांति निकेतन समेंत तमाम विश्वविद्यालयों ने इस रोस्टर
को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू किए जाने का विरोध करने लगे। उन्होंने विभाग स्तर
पर ही रोस्टर लागू करने की मांग की।
o इन विश्वविद्यालयों ने 200 पॉइंट रोस्टर को जब लागू करने से मना कर दिया, तो यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने
प्रो. राव साहब काले की ही अध्यक्षता में इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों के खिलाफ
जांच समिति बैठा दी तो दिल्ली
विश्वविद्यालय का फंड तक रोक दिया था।
o
दिल्ली
विश्वविद्यालय का फंड तब प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप से ही रिलीज हो पाया
था। चूंकि उन दिनों केंद्र की यूपीए सरकार के तमाम घटक दलों में क्षेत्रीय
पार्टियां थीं, इसलिए
तब इन विश्वविद्यालयों में विरोध परवान नहीं चढ़ पाया था।
मोदी सरकार आने के बाद आरक्षण विरोधियों और आरएसएस के हौसले बुलंद
·
इसी
बीच 2014 के आम चुनाव बाद बनीं केंद्र में सरकार की मेहरबानियों की
वजह से विश्वविद्यालयों की नियामक संस्था, यूजीसी में 200 पॉइंट रोस्टर का विरोधी रहा तबका, प्रमुख स्थानों पर विराजमान हो गया।
·
वस्तुतः
किसी भी उच्च न्यायालय का निर्णय उसके न्याय-क्षेत्र (ज्यूरीडिक्शन) में ही लागू
होता है पर दुर्भावनावश यूजीसी ने उसको सारे देश में लागू कर दिया। फिर बहुजनों का
सड़क और संसद में हंगामा होता है, और मामले को शांत करने के लिए उच्चतम न्यायालय में एसएलपी
दायर हुई।
· मोदीसरकार के वकीलों ने आरएसएस के नेतृत्व में केस की बहुत
ही कमजोर पैरवी की और दायर याचिका खारिज हुई । परंतु यह देखना है कि क्या केंद्र
सरकार इस मामले में अध्यादेश लाती है, या फिर कई और वादों की तरह मुकर जाती है।
·
आजादी
के बाद से 70
वर्षों से सामाजिक अन्याय बहुत हो चुका हैं अब हम इस अन्याय को सहन नहीं कर सकते
हैं। अब सामाजिक न्याय के लिए इस बार सरकार से सड़क से संसद तक संघर्ष करेंगें और
साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करेंगे।
·
200पॉइंट्स रोस्टर वाले मसले का फिलहाल एकमात्र समाधान मानव संसाधन विकास
मंत्रालय द्वारा अध्यादेश लाकर या कानून बनवाकर, देश के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में सभी वर्गों का
संवैधानिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करवाना ही है।
·
इसीलिए
हम सबकी कोशिश यही होनी चाहिए कि जबतक लोकसभा चुनाव की अधिसूचना नहीं जारी हो जाती
तब तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर दबाव बनवाकर अध्यादेश या कानून बनवाया जाय
ताकि वंचित वर्गों के साथ 70 सालों से जो सामाजिक अन्याय हो रहा हैं उसे रोका जा सके और वंचित वर्गों को
सामाजिक न्याय मिल सकें।
देखिए मेरिटधारियों के
सिविल सेवा में सफल होने के कारनामे.! ब्राह्मणों का UPSC में
फ्रॉड जानिये कैसे कम अंक पाकर भी IAS IPS बन जाते है जनेऊधारी
वर्ष 2012 से देश
की प्रतिष्ठित लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा (UPSC) के
आंकड़ों पर गौर करें तो हम एक अलग ही हकीकत से रूबरू होते हैं !!
लिखित परीक्षा में सबसे अधिक मैरिट 42.96% SC, 42.66% ST,
41.03% OBC की और General Category की 39.60%
रही ।
लिखित परीक्षा में 590/1750 यानि
मात्र 33.71%अंक पाकर सामान्य वर्ग(General Category)
वाले चयनित हो गये, जबकि 621/1750 यानि 35.48% अंक पाकर अन्य पिछडी जाति वर्ग (OBC)
660/1750 यानि 37.71%अंक पाकर अनु जनजाति (ST)
और 664/1750 यानि 37.94 % अंक पाकर अनुसूचित जाति वर्ग (SC) वाले अभ्यर्थी
चयनित हुए।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि
सामान्य वर्ग (General
Category) के अभ्यर्थी से 74 अधिक अंक प्राप्त
कर अनुसूचित जाति (SC) के अभ्यर्थी चयनित होने से वंचित रह
गये, जबकि 74 अंक कम लाकर भी सामान्य
वर्ग (General Category) के अभ्यर्थी IAS बन गये ।
कुल 1091 रिक्तयों
के सापेक्ष 998 अभ्यर्थी चयनित किए गये जिनमें- General
के 550 , OBCs के 295, SC के 169 व ST के 77 उम्मीदवार शामिल हैं। अक्सर ही साक्षात्कार में भेदभाव व जातिगत भावनाओं
के आरोप लगते रहते हैं।
आइये जरा इसकी भी समीक्षा
करें :
साक्षात्कार (कुल अंक 300) में से
SC बच्चों को 200 या 200 से अधिक अंक केवल 21 अभ्यर्थियों यानि 12.4% को ही दिये गये।
लिखित परीक्षा में General Category से 70 अंक अधिक लाने वाले अभ्यर्थी साक्षात्कार में
अचानक एकदम फिस्सडी कैसे हो गये इसी प्रकार ST के 77 बच्चों में से 21 यानि 27.27%, OBCs के 295 में से 72 यानी 24.4%
और General Category के 190 यानी 41.5% अभ्यर्थी 200 या 200
से अधिक अंक लाने में कामयाब रहे।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि
लिखित परीक्षा में न्यूनतम अंक लाने वाले सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी साक्षात्कार
में धमाल मचा देते हैं और लिखित परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाने वाले OBC/SC/ST's के अभ्यर्थियों को नाकों चने चबा देते हैं सोचिये आख़िर क्यों ?
यह खेल है सिस्टम में
कब्जा जमाये हुए उस वर्ग का जो किसी भी कीमत पर ओ बी सी/एस सी/एस टी को बढने ही
नहीं देना चाहते।और वे वहाँ बैठ कर OBC/SC/STs के लिए तरह-तरह से
षड्यंत्र तैयार करते हैं!!
सिस्टम में कब्जा जमाया
बैठा वर्ग OBC/ST/STs
के IAS Officers के विरुध्द फर्जी प्रकरण
बनाकर उसका CR खराब करते हैं ताकि वे सेक्रेटरी पद में नहीं
पहुँच पाए और सेक्रेटरी ही इंटरव्यू में बैठते हैं।
बाबा साहब इनके इतिहास के
कुकृत्यों से परिचित थे और उनकी नीयत को अच्छी तरह जानते थे इसीलिए उन्होंने
आर्टिकल 16(4)में प्रतिनिधित्व(आरक्षण) की व्यवस्था की।
मंडल कमिशन ओर ....
1977
में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई ब्राह्मण
थे जिनको जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए नामांकित किया था।
चुनाव में जाते समय जनता पार्टी ने अभिवचन दिया था कि यदि उनकी सरकार बनती है तो
वे काका कालेलकर कमीशन लागू करेंगे।
जब
उनकी सरकार बनी तो ओबीसी का एक प्रतिनिधिमंडल मोरारजी को मिला और काका कालेलकर
कमीशन लागू करने के लिए मांग की मगर मोरारजी ने कहा कि कालेलकर कमीशन की रिपोर्ट
पुरानी हो चुकी है,
इसलिए अब बदली हुई परिस्थिति में नयी रिपोर्ट की आवश्यकता है।
यह
एक शातिर बाह्मण की ओबीसी को ठगने की एक चाल थी। प्रतिनिधिमडंल इस पर सहमत
हो गया और बीपी मंडल जो बिहार के यादव थे, उनकी अध्यक्षता में मंडल
कमीशन बनाया गया।
बीपी
मंडल और उनके कमीशन ने पूरे देश में घूम-घूमकर 3743 जातियों को ओबीसी के तौर
पर पहचान किया जो 1931 की जाति आधारित गिनती के अनुसार भारत
की कुल जनसंख्या 52% थे। मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मोरारजी
सरकार को सौपते ही, पूरे देश में बवाल खड़ा हो गया।
जनसंघ
के 98
MPs के समर्थन से बनी जनता पार्टी की सरकार के लिए मुश्किल खङी हो
गयी। उधर अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में जनसंघ के MPs ने
दबाव बनाया कि अगर मंडल कमीशन लागू करने की कोशिश की गयी तो वे सरकार गिरा
देंगे। दूसरी तरफ ओबीसी के नेताओं ने दबाव बनाया। फलस्वरूप अटल बिहारी बाजपेयी
ने मोरारजी की सहमति से जनता पार्टी की सरकार गिरा दी।
इसी
दौरान भारत की राजनीति में एक ‘साइलेंट रिवाल्यूशन’ की भूमिका तैयार हो रही
थी जिसका नेतृत्व आधुनिक भारत के महानतम् राजनीतिज्ञ कांशीराम जी कर रहे
थे। कांशीराम साहब और डी के खापर्डे ने 6 दिसंबर 1978 में अपनी बौद्धिक बैंक बामसेफ की स्थापना की जिसके माध्यम से पूरे
देश में ओबीसी को मंडल कमीशन पर जागरण का कार्यक्रम चलाया।
कांशीराम
जी के जागरण अभियान के फलस्वरूप देश के ओबीसी को मालुम पड़ा कि उनकी
संख्या देश में 52%
हैं मगर शासन प्रशासन में उनकी संख्या मात्र 2% है। जबकि 15% तथाकथित सवर्ण प्रशासन में 80% है। इस प्रकार सारे आँकड़े मण्डल की रिपोर्ट में थे जिसको जनता के बीच ले
जाने का काम कांशीराम जी ने किया।
अब
ओबीसी जागृत हो रहा था। उधर अटल बिहारी ने जनसंघ समाप्त करके BJP बना दी।
1980 के चुनाव में RSS ने इंदिरा
गांधी का समर्थन किया और इंन्दिरा जो 3 महीने पहले स्वयं
हार गयी थी 370 सीट जीतकर आयी।
इसी
दौरान गुजरात में आरक्षण के विरोध में प्रचंड आन्दोलन चला। मजे की बात यह थी कि इस
आन्दोलन में बड़ी संख्या ओबीसी स्वयँ सहभागी था, क्योंकि ‘ब्राह्मण-बनिया मीडिया’ ने प्रचार किया कि जो
आरक्षण एससी, एसटी को पहले से मिल रहा है वह बढ़ने वाला है।
गुजरात में एससी, एसटी के लोगों के घर जलाये गये। नरेन्द्र
मोदी इसी आन्दोलन के नेतृत्वकर्ता थे।
कांशीराम
जी अपने मिशन को दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढा रहे थे। ब्राह्मण अपनी रणनीति
बनाते पर उनकी हर रणनीति की काट कांशीराम जी के पास थी। कांशीराम ने वर्ष 1981 में DS4
( DSSSS) नाम की "आन्दोलन करने वाली विंग" को
बनाया जिसका नारा था ‘ब्राह्मण बनिया ठाकुर छोड़ बाकी सब
हैं DS4!’
DS4
के माध्यम से ही कांशीराम जी ने एक और प्रसिद्ध नारा दिया ‘मंडल कमीशन लागू करो वरना सिंहासन खाली करो’ इस
प्रकार के नारों से पूरा भारत गूँजने लगा। 1981 में ही
मान्यवर कांशीराम ने हरियाणा का विधानसभा चुनाव लड़ा, 1982 में
ही उन्होंने जम्मू काश्मीर का विधान सभा का चुनाव लड़ा। अब कांशीराम जी की
लोकप्रियता अत्यधिक बढ़ गयी।
‘ब्राह्मण-बनिया मीडिया’ ने उनको बदनाम करना शुरू कर दिया। उनकी बढ़ती
लोकप्रियता से इंन्दिरा गांधी घबरा गयीं। इंन्दिरा को लगा कि अभी-अभी जेपी
के जिन्नसे पीछा छूटा कि अब ये कांशीराम तैयार हो गये। इंन्दिरा जानती थी कांशीराम
जी का उभार जेपी से कहीं ज्यादा बड़ा खतरा ब्राह्मणों के लिए था। उसने संघ के साथ
मिलने की योजना बनाई।
अशोक सिंघल की एकता यात्रा जब दिल्ली के सीमा पर
पहुँची,
तब इंन्दिरा गांधी स्वयं माला लेकर उनका स्वागत करने पहुंची।
इस दौरान भारत में एक और बड़ी घटना घटी। भिंडरावाला जो खालिस्तान आंदोलन का
नेता था, जिसको कांग्रेस ने अकाल तख्त का विरोध करने
के लिए खड़ा किया था, उसने स्वर्णमंदिर पर कब्जा कर लिया।
आरएसएस और कांग्रेस ने योजना बनाई अब मण्डल
कमीशन आन्दोलन को भटकाने के लिए हिन्दुस्थान vs खालिस्थान का मामला खड़ा
किया जाय। इंन्दिरा गांधी ने आर्मी प्रमुख जनरल सिन्हा को हटा दिया और एक साऊथ के
ब्राह्मण को आर्मी प्रमुख बनाया। जनरल सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया। आर्मी
में भूचाल आ गया।
नये
आर्मी प्रमुख इंन्दिरा गांधी के कहने पर ‘ऑपरेशन ब्ल्यु स्टार’ की योजना बनाई और स्वर्ण मंदिर के अन्दर टैंक घुसा दिया। पूरी आर्मी
हिल गयी। पूरे सिक्ख समुदाय ने इसे अपना अपमान समझा और 31 अक्टूबर
1984 को इंन्दिरा गांधी को उनके दो सुरक्षागार्ड बेअन्तसिह और
सतवन्त सिंह, जो दोनों एससी समुदाय के थे, ने इंन्दिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया।
माओ
अपनी किताब ‘ऑन कंट्राडिक्शन’ में लिखते हैं कि ‘शासक वर्ग
किसी एक षडयंत्र को छुपाने के लिए दूसरा षडयंत्र करता है, पर
वह नहीं जानता कि इससे वह अपने स्वयँ के लिए कोई और संकट खड़ा कर देता है।' माओकी यह
बात भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में सटीक साबित होती है।
मंडल कमीशन को दबाने वाले षडयंत्र का बदला शासक वर्ग ने
'इंन्दिरा गांधी' की जान देकर चुकाया। इंन्दिरा
गांधी की हत्या के तुरन्त बाद राजीव गांधी को नया प्रधानमंत्री मनोनीत कर दिया
गया। जो आदमी 3 साल पहले पायलटी छोड़कर आया था, वो देश का 'मुगले आजम' बन
गया।
आरएसएस
ने इंन्दिरा गांधी की अचानक हत्या से सारे देश में सिक्खों के विरूद्ध
माहौल तैयार किया गया। दंगे हुए । अकेले दिल्ली में 3000 सिक्खों
का कत्लेआम हुआ जिसमें तत्कालीन मंत्री भी थे। उस दौरान राष्ट्रपति श्री ज्ञानी
जैल सिंह का फोन तक प्रधनमंत्री राजीव गांधी ने रिसीव नहीं किये।
उधर
कांशीराम जी अपना अभियान जारी रखे हुए थे। उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी BSP की
स्थापना की और सारे देश में साईकिल यात्रा निकाली। कांशीराम जी ने एक नया नारा
दिया ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी ऊतनी हिस्सेदारी’ कांशीराम जी मंडल कमीशन का मुद्दा बड़ी जोर शोर से प्रचारित किया, जिससे उत्तर भारत के ओबीसी वर्ग में एक नयी तरह की सामाजिक, राजनीतिक चेतना जागृत हुई।
इसी
जागृति का परिणाम था कि ओबीसी वर्ग का नया नेतृत्व जैसे कर्पुरी ठाकुर, लालु,
मुलायम का उभार हुआ। कांशीराम शोषित वंचित समाज के सबसे बड़े
नेता बनकर उभरे। वही 1984 का चुनाव हुआ पर इस चुनाव में
कांशीराम ने सक्रियता नहीं दिखाई। पर राजीव गांधी को सहानुभुति लहर का इतना फायदा
हुआ कि राजीव गांधी 413 MPs चुनवा कर लाये। जो राजीव जी के
नाना ना कर सके वह उन्होंने कर दिखाया।
सरकार
बनने के बाद फिर मण्डल का जिन्न जाग गया। ओबीसी के MPs संसद
में हंगामें शुरू कर दिये। शासक वर्ग ब्राह्मण ने फिर नयी व्युह रचना बनाने की
सोची। अब कांशीराम जी के अभियानों के कारण ओबीसी जागृत हो चुका था। अब शासक वर्ग
के लिए मंडल कमीशन का विरोध करना संभव नहीं था। 2000 साल के
इतिहास में शायद ब्राह्मणों ने पहली बार कांशीराम जी के सामने असहाय महसूस किया।
कोई
भी राजनीतिक उदेश्य इन तीन साधनों से प्राप्त किया जा सकता है वह है- 1) शक्ति
संगठन की, 2) समर्थन जनता का और 3)
दांवपेच नेता का। कांशीराम जी के पास तीनों कौशल थे और दांवपेच के
मामले में वे ब्राह्मणों से इक्कीस थे।
अब
यह समय था जब कांग्रेस और संघ की सम्पूर्ण राजनीति केवल कांशीराम जी पर ही
केन्द्रित हो गयी। 1984
के चुनावों में बनवारी लाल पुरोहित ने मध्यस्थता कर राजीव गांधी और
संघ का समझौता करवाया एवं इस चुनाव में संघ ने राजीव गांधी का
समर्थन किया।
गुप्त
समझौता यह था कि राजीव गांधी राम मंदिर आन्दोलन का समर्थन करेंगे और हम मिलकर
रामभक्त ओबीसी को मुर्ख बनाते है। राजीव गांधी ने ही बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाये, उसके
अन्दर राम के बाल्यकाल की मूर्ति भी रखवाईं ।
अब
ब्राह्मण जानते थे अगर मण्डल कमीशन का विरोध करते है तो ‘राजनीतिक
शक्ति’
जायेगी,
क्योंकि 52% ओबीसी के बल पर ही तो वे बार बार
देश के राजा बन जाते थे, और समर्थन करते हैं तो कार्यपालिका
में जो उन्होंने स्थायी सरकार बना रखी थी वो छिन जाने खा खतरा था। मगर Supreme Court ने 4
बड़े फैसले ओबीसी के खिलाफ दिये।
1)
केवल 1800 जातियों को ओबीसी माना।
2)
52%
ओबीसी को 52% देने की बजाय संविधान के विरोध
में जाकर 27% ही आरक्षण होगा।
3)
ओबीसी को आरक्षण होगा पर प्रमोशन में आरक्षण
नहीं होगा।
4)
क्रीमीलेयर होगा अर्थात् जिस ओबीसी का Income 1 लाख
होगा उसे आरक्षण नहीं मिलेगा।
इसका
एक आशय यह था कि जिस ओबीसी का लड़का महाविद्यालय में पढ़ रहा है उसे आरक्षण नहीं
मिलेगा बल्कि जो ओबीसी गांव में ढोर ढाँगर चरा रहा है उसे आरक्षण मिलेगा। यह तो
वही बात हो गयी कि दांत वाले से चना छीन लिया और बिना दांत वाले को चना देने कि
बात करता है ताकि किसी को आरक्षण का लाभ न मिले।
ये
चार बड़े फैसले सुप्रीम कोर्ट के ब्राह्मण जज जी. ए. भट्टजी ने ओबीसी के विरोध में
दिये। दुनिया की हर Court
में न्याय मिलता है जबकि भारत की Supreme Court ने 52% ओबीसी के हक और अधिकारों के विरोध का फैसला
दिया। भारत के शासक वर्ग अपने हित के लिए सुप्रीम कोर्ट जैसी महान् न्यायिक संस्था
का दुरूपयोग किया।
विरोध
करें तो खतरा,
समर्थन करें तो खतरा, करें तो क्या करें?
तब कांग्रेस और संघ मिलकर ओबीसी पर विहंगम दृष्टि डाली तो उनको पता
चला कि पूरा ओबीसी रामभक्त है। उन्होंने मंडल के आन्दोलन को कमंडल की तरफ मोड़ने का
फैसला किया। सारे देश में राम मंदिर अभियान छेड़ दिया। बजरंग दल का राष्ट्रीय
अध्यक्ष बनाया गया जो ओबीसी था।
कल्याण सिंह, रितंभरा, ऊमा भारती, गोविन्दाचार्य आदि वो मूर्ख ओबीसी थे
जिनको संघ ने सेनापति बनाया। जिस प्रकार ये लोग हजारों सालो से ये पिछड़ों
में विभीषण पैदा करते रहे इस बार भी इन्होंने ऐसा ही किया।
मंडल
को रोकने के लिए कई हथकंडे अपनाऐ हुए थे जिसमें राम मंदिर आन्दोलन बहुत बड़ा हथकंडा
था। उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने मजबूरी में कल्याण सिंह जो कुर्मी थे उनको
मुख्यमंत्री बनाया। आपको बताता चलूं की कांशीराम जी के उदय के पश्चात् ब्राह्मणों
ने लगभग हर राज्य में ओबीसी मुख्यमंत्री बनाना शुरू किये ताकि ओबीसी का जुड़ाव
कांशीराम जी के साथ न हो।
इसी
वजह से एक कुर्मी को मुख्यमंत्री बनाया गया। आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली। नरेन्द्र
मोदी आडवाणी के हनुमान बने। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मंडल विरोधी निर्णय 16 नवम्बर 1992
को दिया और शासक वर्ग ने 6 दिसम्बर 1992
को बाबरी मस्जिद गिरा दी। बाबरी मस्जिद गिराने में कांग्रेस ने
बीजेपी का पूरा साथ दिया। इस प्रकार सुप्रिम कोर्ट के निर्णय के बारे में ओबीसी
जागृत न हो सके, इसीलिए बाबरी मस्जिद गिराई गयी।
शासक
वर्ग ने तीर मुसलमानों पर चलाया पर निशाना ओबीसी थे। जब भी उन पर संकट आता है वे
हिन्दु और मुसलमान का मामला खड़ा करते हैं। बाबरी मस्जीद गिराने के बाद कल्याणसिंह
सरकार बर्खास्त कर दी गयी।
दूसरी
तरफ कांशीराम जी UP
के गांव गांव जाकर षडयंत्र का पर्दाफाश कर रहे थे। उनका मुलायम सिंह
से समझौता हुआ। विधानसभा चुनाव हुए कांशीराम जी की 67 सीट
एवं मुलायम सिंह को 120 सीटें मिली। बसपा के सहयोग से मुलायम
सिंह मुख्यमंत्री बने।
UP
के ओबीसी और एससी के लोगों ने मिलकर नारा लगाया "मिले
मुलायम कांशीराम हवा में ऊड़ गये जय श्री राम।" शासक जाति को खासकर
ब्राह्मणवादी सत्ता को इस गठबन्धन से और ज्यादा डर लगने लगा।
इंडिया
टुडे ने कांशीराम भारत के अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं ऐसा ब्राह्मणों को सतर्क
करने वाला लेख लिखा। इसके बाद शासक वर्ग अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया।
लगभग हर राज्य का मुख्यमंत्री ऊन्होनेँ शूद्र(ओबीसी) बनाना शुरू कर दिये।
साथ
ही उन्होंने दलीय अनुशासन को कठोरता से लागू किया ताकि निर्णय करते वक्त वे
स्वतंत्र रहें। 1996
के चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी और दो तीन अल्पमत वाली सरकारें
बनी। यह गठबन्धन की सरकारें थी। इन सरकारों में सबसे महत्वपुर्ण सरकार एचडी
देवेगौड़ा (ओबीसी) की सरकार
थी जिनके कैबिनेट में एक भी ब्राह्मण मंत्री नहीं था।
आजाद
भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री के केबिनेट में एक भी
ब्राह्मण मंत्री नहीं था। इस सरकार ने बहुत ही क्रांतिकारी फैसला लिया। वह फैसला
था ओबीसी की गिनती करने का फैसला जो मंडल का दूसरी योजना थी, क्योंकि 1931
के आँकड़े बहुत पुराने हो चुके थे।
ओबीसी
की गिनती अगर होती तो देश में ओबीसी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति क्या है और
उसके सारे आँकड़े पता चल जाते। इतना ही नहीं 52% ओबीसी अपनी
संख्या का उपयोग राजनीतिक ऊद्देश्य के लिए करता तो आने वाली सारी सरकारें ओबीसी की
ही बनती। शासक वर्ग के समर्थन से बनी देवगोड़ा की सरकार फिर गिरा दी गयी।
शासक
वर्ग जानता है कि जब तक ओबीसी धार्मिक रूप से जागृत रहेगा तब तक हमारे जाल में
फँसता रहेगा जैसे 2014
में फंसा। शायद जाति आधारित गिनती ओबीसी की करने का निर्णय देवेगौड़ा
सरकार ने नहीं किया होता तो शायद उनकी सरकार नहीं गिरायी जाती। ब्राह्मण अपनी
सत्ता बचाने के लिये हरसंभव प्रयत्न में लगे रहे। वे जानते थे कि अगर यही हालात
बने रहे थे तो ब्राह्मणों की राजनीतिक सत्ता छीन ली जायेगी।
उधर
अटल बिहारी कश्मीर पर गीत गाते गाते 1999 में फिर प्रधानमंत्री
हुए। अगर कारगिल नहीं हुआ होता तो अटल बिहारी फिर शायद चुनकर आते। सरकार बनाते ही अटल
बिहारी ने संविधान समीक्षा आयोग बनाने का निर्णय लिया। अरूण शौरी ने
बाबासाहब अम्बेडकर को अपमानित करने वाली किताब 'वर्शिप ऑफ
फाल्स गॉडस' लिखी। इसके विरोध में सभी संगठनों ने विरोध
किया। विशेषकर बामसेफ के नेतृत्व में 1000 कार्यक्रम सारे
देश में आयोजित किये गये। अटल सरकार ने अपना फैसला वापस (पीछे) ले लिया। ये भी नया
हथकंडा था वास्तविक मुद्दो को दबाने का।
फिर
2011
में जनगणना होनी थी। मगर ओबीसी की जनगणना नहीं करने का फैसला किया
गया। इसलिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संख्याबल के हिसाब से शासक बनने वाला
ओबीसी वर्ग सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवादी / मनुवादी शासकों का पिछलग्गू बन कर रह
गया है। वो अपना नुकसान तो कर ही रहा है साथ में अपने एससी, एसटी
भाई बंधुओं का भी नुकसान कर रहा है जो ब्राह्मणवादी सत्ता को समाप्त करने को
निरंतर प्रयत्नशील हैं।
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