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Friday, 20 July 2018

नोटबंदी के दो साल : ढाक के तीन पात


संपादकीय : भाषिकी
नोटबंदी के दो साल : ढाक के तीन पात
नोटबंदी के एक साल बाद भी जो उबर नहीं पाए ... आज एक साल बाद भी व्यापार 30-40% कम है । ये नुकसान बहुत ज़्यादा है । 'अघोषित संपत्ति' या दूसरे शब्दों में कहें तो 'बेनामी धन-दौलत' को सिस्टम से बाहर करने की कोशिश में भारत नाकाम रहा है । रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की सालाना रिपोर्ट के 195 पन्ने पर उन सवालों के जवाब खोजे जा सकते हैं जो पिछले दस महीनों से हर हिंदुस्तानी पूछ रहा है । आरबीआई ने नोटबंदी को लेकर अपनी रिपोर्ट दी है जिसमें बताया गया है कि पिछले साल नोटबंदी के बाद सरकारी बैंकों में पांच सौ और एक हज़ार के पुराने नोटों में से लगभग 99 फ़ीसदी बैंकिंग सिस्टम में वापस लौट आए हैं । मैं इसे असफल मानता हूं । नोटबंदी का उद्देश्य काले धन को सिस्टम से बाहर करना था, अगर वो किसी न किसी रूप में बैंक में आ गया तो इसका मतलब है कि धन किसी तरह से काले धन में बदला गया है और सफेद धन बनकर बैंकिंग सिस्टम में आ गया है । ये इसकी असफलता दर्शाता है । केंद्र सरकार के पास न कोई सोच है, न समझ है, न कोई प्रयास है और मेरे हिसाब से इसी का नतीजा है कि नोटबंदी पूरी तरह फेल हो गई है । नकदी आधारित अर्थव्यवस्था की बात करें तो फ़ायदा तो हुआ है लेकिन मैं कहूंगा कि यदि देश में सौ ट्रांज़ेक्शन होते थे उसमें से दस डिजिटल ट्रांज़ेक्शन की तरफ़ गए हो सकते हैं लेकिन बाक़ी 90 फ़ीसदी को नकद में ही चल रहा है ।
 ‘द गार्जियन’ की ताज़ा रिपोर्ट्स के अनुसार स्वीडन दुनिया का सबसे पहला कैशलेस लेनदेन वाला देश माना जाता है जिसमें 96 प्रतिशत तक नक़द भुगतान  किये जाते हैं जिन्हें 2020 तक 0.05 फ़ीसदी तक किये जाने का लक्ष्य है । इसके बाद बेल्जियम में 93, फ़्रांस में 92, कनाडा में 90, ब्रिटेन में 89, आस्ट्रेलिया में 86,  प्रतिशत तक नक़द भुगतान किये जाते हैं। उसके बाद क्रमश: नीदरलैंड 85, अमेरिका 80, जर्मनी 76 और दक्षिण कोरिया का 70 फ़ीसदी के साथ नंबर आता है उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार प्रधानमंत्री की नोटबंदी की घोषणा तक भारत में केवल 2 फ़ीसदी केशलेस लेनदेन किया जाता रहा है । सवाल है कि भारत जैसे बड़े देश में शत प्रतिशत कैशलेश लेनदेन कैसे संभव है ? जहाँ 2011 की जनगणना के अनुसार 640,867 गांव हैं। देश की 68.84 फीसदी आबादी गांवों में रहती है।  40 फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा के से नीचे रहते हैं। गाँवों 94 फीसदी लोग कम्पूटर से अनभिज्ञ हैं, यहाँ तक कि देश की डिजिटल साक्षरता दर मात्र 11.4 फीसदी है। मोदी सरकार स्मार्टफोन चलाने और कैशलेस बनाने के दिन में सपने देख रही है। गांवों में रहने वालों की बात तो छोड़िए देश के महानगरों में एटीएम की लाइन में लगे 20-25 फीसदी लोग पैसे निकालने के लिए दूसरे की मदद ले रहे हैं। वे अक्सर कागज के टुकड़े पर पिन नंबर लिखकर रखे होते हैं। इतना ही नहीं देश में 40 फीसदी से अधिक जनप्रतिनिधि अपने मोबाईल सेटों से एसएमएस तक नहीं कर सकते हैं, ऐसे में 'डिजिटल ट्रांजेक्शन" कितना सुरक्षित है समझा जा सकता है।
नोटबंदी के दो उद्देश्य थे। पहला कालेधन को खत्म करना और दूसरा कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाना। पहले उद्देश्य की हवा उसी वक्त निकल गई थी जब आरबीआई ने 99 फीसदी नोटों के सिस्टम में वापस आने की पुष्टि की थी। वहीं हालिया जानकारी से यह भी साबित हो गया कि नोटबंदी का दूसरा उद्देश्य भी फेल हो गया है। देश की जनता के हाथ में इस समय 18.5 लाख करोड़ की नकदी है जबकि नोटबंदी से पहले 5 जनवरी 2016 को यह राशि 17 लाख करोड़ रुपये थी। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों से यह जानकारी सामने आई है। नोटबंदी के दौर की बात करें तो उस दौरान जनता के हाथ में नकदी सिमट कर करीब 7.8 लाख करोड़ रुपये रह गई थी। आरबीआई के मुताबिक, 1 जून 2018 को 19.3 लाख करोड़ रुपये से अधिक की मुद्रा चलन में थी। यह एक वर्ष के पहले की तुलना में 30 फीसदी अधिक है और छह जनवरी 2017 के 8.9 लाख करोड़ रुपये की तुलना में दोगुने से अधिक है। वहीं मई 2018 तक लोगों के हाथ में 18.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक की मुद्रा थी, जो कि एक वर्ष पहले की तुलना में 31 प्रतिशत अधिक है। यह 9 दिसंबर 2016 के आंकड़े 7.8 लाख करोड़ रुपये के दोगुने से अधिक है।
इसका कारण ये है कि वो बहुत शर्मिंदा हैं । उनको और सरकार को ये ग़लतफ़हमी थी कि काले धन का मतलब है कैश । अगर हम कैश को निकाल देंगे तो काला धन निकल जाएगा । जबकि कैश या नकद जो होता है वो काले धन का 1% होता है । अगर उसमे से भी 2-3 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आता, तो हम कह सकते थे कि चलो एक-दो प्रतिशत काला धन वापस नहीं आया । जो नोटबंदी है उसका असर काले धन पर नहीं पड़ा और जो काली कमाई होती थी उस पर कोई असर नहीं पड़ा । ये इतना बड़ा शर्मिंदा करने वाला तथ्य है कि आपने इतना बड़ा फैसला लिया और उसके वजह से कई लोगों को परेशानी हुई । लोग लाइनों में मरे और इसका अर्थव्यवस्था पर बुरा असर हुआ । अर्थात ये इस पर पूरी तरह फेल हो गए, लेकिन वे इसको स्वीकार नहीं करना चाहते हैं । अब अगर 99 प्रतिशत कैश वापस आ गया है, तो हमको जैसे पता है कि सहकारी सोसाइटी और बैंक हैं उनमें 8,000 करोड़ रुपये पड़ा हुआ था । अटॉर्नी जनरल ने यहां तक कह दिया कि 3-4 लाख करोड़ रुपये वे इस्तेमाल करते हैं । सिर्फ 40 करोड़ आया, तो इसका मतलब नोटबंदी का असर न नकली नोटों पर हुआ और न ही आतंकवाद पर हुआ ।
आतंकवादी गतिविधियां जो पूर्वोत्तर में चल रही हैं या कश्मीर में, उस पर कोई असर नहीं हुआ है वो उसी तरह चल रहा है । सरकार ने नोटबंदी का जो फायदा बताया है दरअसल वो हुआ नहीं और सरकार बहुत ही शर्मिंदा है इसलिए वो बता नहीं रहे हैं । हमारा जो 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र है, जहां लगभग 93 प्रतिशत लोग काम करते हैं, उनको बहुत बड़ा धक्का लगा । वहां कैश में काम चलता है और जब उनके पास कैश की कमी आ गई, तो उनका जो लागत पूंजी थी, वो कम हो गई, जिसका असर अभी भी दिख रहा है । सीएमई ने दिखाया कि 1.50 करोड़ से 6 करोड़ लोगों का रोज़गार चला गया है । यह तो वो बता रहे हैं, जिनका डेटा उनके पास है । असंगठित क्षेत्र में डेटा के अनुसार 60 से लेकर 80 प्रतिशत तक गिरावट थी । उसकी वजह से मनरेगा की डिमांड बढ़ी, क्योंकि लोग शहरों से गांव गए, उनके पास काम नहीं था तो उन्होंने वहां काम लिया । मनरेगा की डिमांड 4-5 गुना बढ़ गई । 95 प्रतिशत ब्लैक मनी जमीन और सोने में है और जेटली का कहना है कि वो अब उस पर नकेल कसेंगे ।
सपने देखने का हक़ सभी को है, सपने देखने के हक़ को छीना भी नहीं जा सकता है और छीनना चाहिए भी नहीं वरना ये आम जनता के मौलिक अधिकारों का होगा क्योंकि आम इंसान अपनी जिंदगी का तीन चौथाई हिस्सा सपने देखकर ही पूरा करता है फ़िर भी, प्रधानमंत्री की मंशाओं के अनुरूप देश की समृद्ध अर्थव्यवस्था के लिए केशलेस लेनदेन (अंतरण) के विभिन्न उपायों को अमल में लाने की आवश्यकता है और प्रत्येक जिले, तालुके एवं गाँव-ढाणियों  में डिजीटल आर्मी का निर्माण करते हुए इस दिशा में ई-क्रांति की सृजना करनी होगी ताकि देश सही मायनों में केशलेस व डिजीटल इंडिया बन सके। लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा है कि नेशनल ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क प्रोग्राम, जो पाँच-सात साल पीछे चल रहा है। सरकार को ये समझना होगा कि जब आप गांव-गांव तार बिछाने जाएंगे तो आप उन लोगों को ये काम नहीं सौंप सकते जो पिछले 50 साल से कुछ और बिछा रहे हैं। सरकार को वो लोग लगाने होंगे जो ऑप्टिक फ़ाइबर नेटवर्क की तासीर समझते हैं।
नीति आयोग की कार्ययोजना के अनुसार एंड्राईड फोन को माईक्रोएटीएम की भांति उपयोग करने के लिए एक विशिष्ट डिवाईस विकसित किया गया है जो बायोमेट्रिक पहचान का काम करेगा और यह जल्द ही देशभर में आम उपयोग में आने लगेगा । इसके माध्यम से बैंक के क्रेडिट और डेबिट कार्ड्स, यूएसएसडी मोबाईल बैंकिंग, आधार के माध्यम से भुगतान, यूपीआई के तहत बैंकएप्पस का प्रयोग, ई-वालेट्स तथा पोस (POS) के माध्यम से केशलेस अंतरण हो सकेगा। डिजिटल इंडिया के तहत सरकारी विभागों को देश की जनता से जोड़ना है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना भी है कि बिना कागज के इस्तेमाल के सरकारी सेवाएं इलेक्ट्रॉनिक रूप से जनता तक पहुंच सकें। इस योजना उद्देश्यों में  ग्रामीण इलाकों को हाई स्पीड इंटरनेट के माध्यम से जोड़ने साथ-साथ डिजिटल आधारभूत ढाँचे का निर्माण करना, इलेक्ट्रॉनिक रूप से सेवाओं को जनता तक पहुंचाना और डिजिटल साक्षरता प्रमुख हैं। योजना को 2019 तक कार्यान्वयित करने का लक्ष्य है। इसमें एक टू-वे प्लेटफॉर्म का निर्माण किया जाएगा जहाँ सेवा प्रदाता और उपभोक्ता को लाभ होगा। किंतु, इसमें लीगल फ्रेमवर्क, गोपनीयता का अभाव, डाटा सुरक्षा नियमों की कमी, नागरिक स्वायत्तता हनन, तथा भारतीय ई-सर्विलांस के लिए सटीक और कारगर निगरानी की कमी तथा भारतीय साइबर असुरक्षा जैसी कई महत्वपूर्ण कमियाँ भी हैं। डिजिटल इंडिया को कार्यान्वयित करने से पहले इन सभी कमियों को दूर करना होगा।
'भारत ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड' नेशनल ऑप्टिकल फाइबल नेटवर्क जैसी परियोजना की कार्यान्विति में तेजी लानी होगी क्योंकि यही डिजिटल इंडिया कार्यक्रम की देखरेख करेगा । बीबीएऩएल ने यूनाइटेड टेलीकॉम लिमिटेड को 2,50,000 गाँवों को एफटीटीएच ब्रॉडबैंड आधारित तथा जीपीओएन के द्वारा जोड़ने का आदेश दिया है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो यह 2017 के अंत तक (अपेक्षित) पूर्ण होने वाली डिजिटल इंडिया परियोजना को सभी आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराएगी। यह भी माना जा रहा है कि ई-कॉमर्स डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट को सुगम बनाने में मदद करेगा। जबकि, इसे कार्यान्वित करने में कई चुनौतियाँ और कानूनी बाधाएं भी आ सकती हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि देश में डिजिटल इंडिया सफल तबतक नहीं हो सकता जबतक कि आवश्यक बीसीबी ई-गवर्नेंस को लागू न किया जाए तथा एकमात्र राष्ट्रीय ई-शासन योजना (National e-Governance Plan) का अपूर्ण क्रियान्वयन भी इस योजना को प्रभावित कर रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुमली-घोषनाओं का तो अम्बार लगा दिया, जिसमें नौ क्षेत्रों; ब्रॉडबैंड हाइवे, सबके पास फोन की उपलब्धता, पब्लिक इंटरनेट एक्सेस प्रोग्राम, ई-गवर्नेंस, ई-क्रांति, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन, आईटी फ़ॉर जॉब्स के ज़रिए नौकरियां पैदा करने के लिए हर ब्लॉक स्तर पर रूरल बीपीओ खोलने थे तथा अर्ली हार्वेस्ट प्रोग्राम पर ध्यान देना लाजमी था । पर अब उन सभी को पूरा करने की चुनौती का सामना नहीं कर पा रहे हैं, गांव में डिजीटल तकनीक को लेकर अब तक जो काम हुआ है, उसके आधार पर कह सकते हैं कि अगर सब-कुछ सटीक और ठीक उस तरह हो जाए जैसा कागज़ों पर दिखता है तब भारतीय परिस्थितियों में इन लक्ष्यों को पूरा होने में कम से कम दस साल लगेंगे। निजता सुरक्षा, डाटा सुरक्षा, साइबर कानून, टेलीग्राफ, ई-शासन तथा ई-कॉमर्स आदि के क्षेत्र में भारत का कमजोर नियंत्रण है। कई कानूनी विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि बिना साइबर सुरक्षा के ई-प्रशासन और डिजिटल इंडिया व्यर्थ है। भारत के साइबर सुरक्षा चलन ने भारतीय साइबर स्पेस की कमियों को बख़ूबी उजागर किया है।  यहाँ तक कि अबतक राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा योजना 2013 अभी तक क्रियान्वित नहीं हो पायी है। इन सभी वर्तमान परिस्थियों में महत्वपूर्ण आधारभूत सुरक्षा का प्रबंधन करना भारत सरकार के लिए कठिन कार्य होगा तथा इस प्रोजेक्ट में उचित ई-कचरा प्रबंधन के प्रावधान की भी कमी है।
ऑनलाइन या साइबर फ्रॉड एक अलग तरह का अपराध होता है इसलिए इससे निपटने के लिए अलग अदालत बनाई गई है लेकिन बिना जज के अदालत का कोई मतलब नहीं और बिना न्याय व्यवस्था का कोई मतलब नहीं । देश के किसी भी राज्य के न्यायिक अधिकारी के फैसले को दिल्ली के साइबर अपीलेट ट्रिब्यूनल में चुनौती दी जा सकती । यानी अगर तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल, कश्मीर या राजस्थान में भी आपके साथ कोई धोखाधड़ी हो तो न्यायिक अधिकारी के फैसले को दिल्ली में ही चुनौती दें सकते हैं । आमतौर पर अगर आप सीधे हाइकोर्ट में भी जाते हैं तो कोर्ट मामला साइबर अपीलेट ट्रिब्यूनल में भेज देती है ।
देश में आजकल सरकार खूब डिजिटल इंडिया और ऑनलाइन पैसे के लेनदेन पर शिफ़्ट करने के लिए लोगों को मजबूर और प्रेरित कर रही है लेकिन अगर ऑनलाइन दुनिया में आपके साथ कोई धोखाधड़ी हो जाए तो उसके लिए न्यायलय की क्या व्यवस्था है, उससे मन सिहर जाता है! और कई बुनियादी सवाल खड़े करता है  एक, प्रधानमंत्री की नाक के नीचे दिल्ली के कनॉट प्लेस में साइबर अपीलेट ट्रिब्यूनल में 30 जून 2011 के बाद किसी जज की नियुक्ति नहीं हुई है और 2011 के बाद कोई फैसला भी इस अदालत से नहीं आया है।  दूसरा, लाख कोशिशों के वाबजूद सामान्य न्याय के लिए तो आम आदमी सबूत जुटा नहीं पाता फ़िर डिजिटल सबूतों के लिए तो उसका क्या हश्र होने वाला है? मोदी सरकार के डिजिटल इंडिया और कैशलेस सोसाइटी के दावे के हक़ीक़त है। तीसरा, लोगों को इस तरफ धकेला तो जा रहा है लेकिन न्याय और सुरक्षा के इंतज़ाम कौन और कब करेंगे यक्ष प्रश्न हैं! 
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
संपादक : भाषिकी