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Wednesday, 24 May 2017

भाषिकी के 67वें अंक (शोधार्थी विशेषांक) के लिए आलेख-आमंत्रण !!

भाषिकी के 67वें अंक (शोधार्थी विशेषांक) के लिए आलेख-आमंत्रण !!
भाषिकी के 67वें अंक (शोधार्थी विशेषांक) के अतिथि संपादक महेंद्र जाट राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर और सुनील कुमावत राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर होंगे.. सभी आलेख <skumawat903@gmail.com>, <mahendrajaat943@gmail.com>, <prof.ramlakhan@gmail.com>पर भेजे
भाषिकी ISSN 2454-4388: भाषा, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान,शिक्षा-अध्ययन, अनुवाद, मीडिया तथा साहित्य-विश्लेषण की संदर्भ अनुशंसित अंतरराष्ट्रीय रिसर्च त्रैमासिक संवाहिका है जो पिछले 16 वर्षों से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है जिसमें भाषा एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं की बालियों और उसके व्याकरण संबंधी पहलू ,भाषा-भूगोल, भाषाविज्ञान, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, मीडिया-अध्ययन, अनुवाद-अध्ययन,शिक्षा-अध्ययन, सांस्कृतिक-अध्ययन, तुलनात्मक-साहित्य, विशेषज्ञों द्वारा नव प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा, साहित्यिक आलोचना, साहित्यिक-विश्लेषण इत्यादि सहित अन्य विभिन्न क्षेत्रों एवं प्रासंगिक विषयों के शोध-पत्र प्रकाशित आमंत्रित किए जाते हैं।
‘भाषिकी’ वैज्ञानिक इंडेक्सिंग सर्विसेज (एसआईएस), यूनिवर्सल इंपैक्ट फैक्टर (यूआईएफ), डायरेक्टरी ऑफ रिसर्च जर्नल इंडेक्सिंग (डीआरजेआई), शैक्षणिक संसाधन सूचकांक और अन्य बहुत से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय रिसर्च-जर्नल्स की इंडेक्सिंग में शामिल है ।
भाषिकी रिसर्च संवाहिका पूरी तरह अवैतनिक और अव्यावसायिक है जिसका प्राथमिक और मौलिक उददेश्य उच्च शैक्षणिक संस्थानों के अद्यतन रिसर्च-कार्यों को वैश्विक स्तर पर ले जाना है । भाषिकी के प्रकाशन में सदैव अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मापदंडों को ध्यान में रखा गया है ।
यह रिसर्च जर्नल द्विभाषी प्रारूप (हिंदी-अंग्रेजी, अंग्रेजी-हिंदी) में छपती है । यह रिसर्च-जर्नल केवल प्रिंट संस्करण पर उपलब्ध है और अपने लेखकों के लिए यह ऑनलाइन उपलब्ध है एवं वर्तमान अंकों को ऑनलाइन देखा जा सकता है ।
शोध-आलेख लेखकों को अपने स्व-लिखित आलेखों की संक्षिप्ति (ABSTRACT) हिंदी और अंग्रेजी में vice-a-varsa ( हिंदी आलेख का अंग्रेजी और अंग्रेजी का हिंदी में ) भेजने का प्रयास करना होगा । प्रकाश्य आलेख के साथ संपादक के नाम अनापत्ति प्रमाण अनिवार्यत: भेजना पड़ेगा ।
प्रत्येक अंक के लेखकों को रिव्यू पैनल की अनुशंषा के अनुरूप उचित मानदेय देय होगा । शोध-आलेख प्रकाशन से पूर्व संबंधित लेखकों को भाषिकी रिसर्च संवाहिका की कोई एक सदस्यता अनिवार्य रूप से लेना जरूरी होगा ।
लेखकों द्वारा प्रेषित सभी आलेख मौलिक होने चाहिए और अन्यत्र प्रकाशन के लिए विचाराधीन नहीं हो ।
प्रधान संपादक :भाषिकी

Saturday, 15 April 2017

संपादकीय : मूकनायक पाक्षिक बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का ऐतिहासिक भाषण आगरा, 18 मार्च 1956 समाज के जिम्मेदार लोगों से बाबासाहब की अपील



संपादकीय : मूकनायक पाक्षिक
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का ऐतिहासिक भाषण आगरा, 18 मार्च 1956
समाज के जिम्मेदार लोगों से बाबासाहब की अपील

संपादक 
प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, डी.लिट्- मीडिया
prof.ramlakhan@gmail.com / + 91 94133 00222
Follow us: www.facebook.com/MOOKNAYAK100
18 मार्च 1956 को आगरा में भारत रत्न बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया जिसमें समाज के हर एक तबके से भारत के नव-निर्माण में उनके योगदान की अपेक्षा की । उस समय उन्होंने कहा कि मैं पिछले तीस वर्षों से तुम लोगों को राजनैतिक अधिकार के लिए मैं संघर्ष कर रहा हूँ । मैंने तुम्हें संसद और राज्यों की विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व दिलवाया । मैंने तुम्हारे बच्चों की शिक्षा के लिए उचित प्रावधान करवाये। आज, हम प्रगित कर सकते है। अब यह तुम्हारा कर्त्तव्य है कि शैक्षणिक, आथिर्क और सामाजिक गैर-बराबरी को दूर करने हेतु एक जुट होकर इस संघर्ष को जारी रखें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए तुम्हें हर प्रकार की कुर्बानियों के लिए तैयार रहना होगा, यहाँ तक कि खून बहाने के लिए भी।
आप सब-के-सब एकजुट होकर ऐसे जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करें जो अपने वैयक्तिक लोभ और लालच से ऊपर उठकर आम जन के हित में कल्याणकारी कार्यों को आगे बढाएं । यदि कोई तुम्हें अपने महल में बुलाता है तो स्वेच्छा से जाओ, लेकिन अपनी झौपड़ी में आग लगाकर नहीं । यदि वह राजा किसी दिन आपसे झगड़ता है और आपको अपने महल से बाहर धकेल देता है, उस समय तुम कहां जाओगे? यदि तुम अपने आपको बेचना चाहते हो तो बेचो, लेकिन किसी भी हालत में अपने संगठन को बर्वाद होने की कीमत पर नहीं । मुझे दूसरों से कोई खतरा नहीं है, लेकिन मैं अपने लोगों से ही खतरा महसूस कर रहा हूँ। मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ । मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ । मैं उनकी दु:ख और तकलीफों को नजरन्दाज नहीं कर पा रहा हूँ। उनकी तबाहियों का मुख्य कारण उनका भूमिहीन होना है । इसलिए वे अत्याचार और अपमान के शिकार होते रहते हैं और वे अपना उत्थान नहीं कर पाते। मैं इसके लिए संघर्ष करने की आपसे अपील करूंगा । यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूंगा और इनकी वैधानिक लड़ाई लडूँगा । लेकिन किसी भी हालात में भूमिहीन लोगों को जमीन दिलवाने का प्रयास करूंगा ।
बहुत जल्दी ही मैं तथागत बुद्ध के धर्म को अंगीकार कर लूंगा । यह प्रगतिवादी धर्म है। यह समानता, स्वतंत्रता एवं वंधुत्व पर आधारित है । मैं इस धर्म को बहुत सालों के प्रयासों के बाद खोज पाया हूँ । अब मैं जल्दी ही बुद्धिस्ट बन जाऊंगा । तब एक अछूत के रूप में मैं आपके बीच नहीं रह पाऊँगा, लेकिन एक सच्चे बुद्धिस्ट के रूप में तुम लोगों के कल्याण के लिए संघर्ष जारी रखूंगा । मैं तुम्हें अपने साथ बुद्धिस्ट बनने के लिए नहीं कहूंगा, क्योंकि मैं आपको अंधभक्त नहीं बनाना चाहता हूँ। किन्तु, जिन्हें इस महान धर्म की शरण में आने की तमन्ना है, वे बौद्ध धर्म अंगीकार कर सकते हैं जिससे वे इस धर्म में दृढ विश्वास के साथ रहें और बौद्धाचरण का अनुसरण करें। बौद्ध धम्म महान धर्म है। इस धर्म के संस्थापक तथागत बुद्ध ने इस धर्म का प्रसार किया और अपनी अच्छाईयों के कारण यह धर्म भारत में दूर-दूर तक गली-कूचों और विदेशों में पहुंच सका । लेकिन महान उत्कर्ष पर पहुंचने के बाद यह धर्म 1213 ई. में भारत से विलुप्त हो गया जिसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदूवादी प्रचारकों के कई षडयंत्रों और लालच की वजह से बौद्ध भिक्षु विलासतापूर्ण एवं आराम-तलब जिदंगी जीने के आदी हो गये थे । धर्म प्रचार हेतु स्थान-स्थान पर जाने की बजाय उन्होंने विहारों में आराम करना शुरू कर दिया तथा रजवाड़ों की प्रशंसा में पुस्तकें लिखना शुरू कर दिया ।
इसलिए जन साधारण में से अच्छे लोगों को भी इस धर्म प्रसार हेतु आगे आना चाहिये और इनके संस्कारों को ग्रहण करना चाहिये । हमारे समाज की शिक्षा में कुछ प्रगति हुई है । शिक्षा प्राप्त करके कुछ लोग उच्च पदों पर पहुँच गये हैं परन्तु इन पढ़े लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है । मैं आशा कर रहा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे समाज की सेवा करेंगे, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि छोटे और बड़े क्लर्कों की एक भीड़ एकत्रित हो गयी है, जो अपनी तौदें (पेट) भरने में व्यस्त हैं। मेरा आग्रह है कि जो लोग शासकीय सेवाओं में नियोजित हैं, उनका कर्तव्य है कि वे अपने वेतन का 20वां भाग (5%) स्वेच्छा से समाज सेवा के कार्य हेतु दें । तभी समग्र समाज प्रगति कर सकेगा अन्यथा केवल चन्द लोगों का ही सुधार होता रहेगा । कोई भी होनहार बालक जब किसी गांव में शिक्षा प्राप्त करने जाता है तो संपूर्ण समाज की आशाएँ उस पर टिक जाती हैं। एक शिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता  समाज के लिए वरदान साबित हो सकता है । अत्यंत दुःख का विषय है कि आज मेरे अपने लोग ब्राहमणवाद की तर्ज पर नवब्राहमण दलित, आदिवासी और पिछड़े समाजों में न केवल पनप रहे हैं बल्कि अपनी आमदनी का मोटा हिस्सा देवी-देवताओं और मंदिरों में खर्च कर रहे हैं जो आरक्षण के खात्मे का प्रमुख कारण बना हुआ है, जबकि उस अकूत धन का सदुपयोग दलित-वंचित समाजों के युवाओं के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर पैदा करने में कर सकते हैं ।  
मेरी आखरी उम्मीद होनहार छात्र है उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी प्रकार की क्लर्की करने के बजाय उसे अपने गांव की अथवा आस-पास के लोगों की सेवा करना चाहिये, जिससे अज्ञानता से उत्पत्र शोषण एवं अन्याय को रोका जा सके । आपका उत्थान समाज के उत्थान में ही निहित है। बाबासाहब ने यह भी कहा कि "आज मेरी स्थिति एक बड़े खंभे की तरह है, जो विशाल टेंटों को संभाल रही है । मैं उस समय के लिए चिंतित हूँ कि जब यह खंभा अपनी जगह पर नहीं रहेगा। मेरा स्वास्थ ठीक नहीं रहता है । मैं नहीं जानता कि मैं कब आप लोगों के बीच से चला जाऊँ । मैं किसी एक ऐसे नवयुवक को नहीं ढूंढ पा रहा हूँ, जो इन करोड़ों असहाय और निराश लोगों के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी ले सके। यदि कोई नौजवान इस जिम्मेदारी को लेने के लिए आगे आता है, तो मैं चैन से मर सकूंगा ।"
आज बाबासाहब का डर हक़ीकत बन गया है देश के पांच फ़ीसदी से भी कम आबादी वाले संभ्रांत तबके ने संविधान ही नहीं देश के लोकतंत्र को भी को हाईजैक कर लिया हैं और 95 फ़ीसदी तबके को उसका लाभ नहीं मिल रहा है। आज़ादी के बाद ही देश में जिस तरह पॉलिटिकल फ़ैमिलीज़ पैदा हो गईं और पूरी सत्ता उन्हीं के आसपास घूम रही है । संविधान से उन्हीं की हित पूर्ति हो रही है और उनके परिवार या उनसे ताल्लुक रखने वाले ही लाभ ले रहे हैं, इससे साफ लग रहा है कि बाबासाहब अंबेडकर की आशंका कतई ग़लत नहीं थी । राजनीति में 'एक व्‍यक्‍ति एक मतऔर 'एक मत एक आदर्शके सिद्धांत को मानेंगे। मगर सामाजिक-आर्थिक संरचना के आदर्श सिद्धांत को नहीं मानेंगे । आख़िर कब तक हम अंतर्विरोधों के साथ जिएंगेकब तक सामाजिक-आर्थिक समानता को नकारते रहेंगे ? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा । इसलिए, हमें यथाशीघ्र यह अंतर्विरोध ख़त्म करना होगा, वरना असमानता से पीड़ित लोग उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्‍वस्‍त कर देंगे, जिसे बहुत मुश्किल से तैयार किया गया है ।''  आओ ! सब मिलकर बाबासाहब के बलिदान और उनके सपनों को पूर्ण ईमानदारी और समर्पित भाव से आगे बढाएं ...                 

Wednesday, 1 March 2017

Invitation for publication of Research Papers in BHASHIKI INTERNATIONAL ISSN 2454-4388



Dear Researcher,
Invitation for publication of Research Papers in ISSN: 2454-4388 (Print) BHASHIKI: Quarterly International Refereed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Media, Translation and Literary Analysis.
            The BHASHIKI: Quarterly International Refreed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Media, Translation and Literary Analysis is a peer-reviewed journal, published by Siddhi Vinayak Publication [The unit of Gramin Vikas Samiti Manoli registered NGO under society act 1960].
We are indexed with Scientific Indexing Services (SIS), Universal Impact Factor (UIF), Directory of Research Journals Indexing (DRJI) , Academic Resource Index and many more  International and National indexing are in processThe journal publishes research papers in the fields of Language, Dialect-geography of Indian-languages and its Grammatical aspect, Various Aspect of Linguistics, Applied Linguistics, Media-studies, Translation-studies, Cultural-studies, Comparative-literature, Book-review and Literary Criticism, Literary-analysis and other relevant subjects.
The journal is published in bilingual format with printed and it is available online for authors. The journal is available only on print edition and the current issue can be viewed online. Emphasis is given to papers that address controversial topics and which have a sound theoretical base and/or practical applications. All papers submitted should be original contributions and not under consideration for publication elsewhere.
We have listed the topics that fall under the very scope of the journal for the ease of our authors:
Kindly submit us your manuscripts by attaching them into e-mails and send to bhashiki.research@outlook.com  or profrlmeena@hotmail.com We normally take a week for getting an article reviewed. We do not take any charge for an article for  publishing it in BHASHIKI Quarterly International Refreed Research Journal of Language, Applied Linguistics, Media, Translation and Literary Analysis.
Professor Dr. Ram Lakhan Meena
Editor-in-Chief 
BHASHIKI INTERNATIONAL 

Saturday, 25 February 2017

A Memory of Anupam Mishra : An Editorial Published in 65th Issue of BHASHIKI अनुपम मिश्र : स्मृतिशेष (भाषिकी के 65वें अंक में प्रकाशित संपादकीय) खरे तालाबों की पवित्रता और गाँधी-मार्ग के प्रहरी : अनुपम मिश्र प्रोफेसर डॉ. राम लखन मीना, प्रधान संपादक, भाषिकी



A Memory of Anupam Mishra : An Editorial Published in 65th Issue of BHASHIKI
अनुपम मिश्र : स्मृतिशेष, भाषिकी के 65वें अंक में प्रकाशित संपादकीय
खरे तालाबों की पवित्रता  और गाँधी-मार्ग के प्रहरी : अनुपम मिश्र
प्रोफेसर डॉ. राम लखन मीना, प्रधान संपादक, भाषिकी

गांधीवादी और मशहूर पर्यावरणविद, सुप्रसिद्ध लेखक, मूर्धन्य संपादक, छायाकार अनुपम मिश्र अब हमारे बीच नहीं रहे। 19 दिसंबर 2016 की सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर एम्स अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। वे 68 साल के थे। उनका जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में सन् 1948 में सरला और भवानी प्रसाद मिश्र के घर में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968 में संस्कृत पढ़ने के बाद गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, के प्रकाशन विभाग में सामाजिक काम और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया। तब से आज तक वही काम, वहीं पर। गाँधी मार्ग पत्रिका का संपादन किया। अनेक लेख, और कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी। जल संरक्षण पर लिखी गई उनकी किताब आज भी खरे हैं तालाबकाफी चर्चित हुई और देशी-विदेशी कई भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ। आज भी खरे हैं तालाबको खूब प्यार मिला जिसकी दो लाख से भी अधिक प्रतियां बिकी। अनुपम मिश्र पिछले सालभर से कैंसर से पीड़ित थे। मिश्र के परिवार में उनकी पत्नी, एक बेटा, बड़े भाई और दो बहनें हैं। उनको इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार, जमना लाल बजाज पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
अपने पिता भवानी प्रसाद मिश्र के पदचिह्नों पर चलने वाले अनुपम जी की रचनाओं में  गाँधीवाद की स्वच्छता, पावनता और नैतिकता का प्रभाव तथा उसकी झलक उनकी कविताओं में साफ देखी जा सकती है। उनका अपना कोई घर नहीं था। वह गांधी शांति फाउंडेशन के परिसर में ही रहते थे। उनके पिता भवानी प्रसाद मिश्र प्रख्यात कवि थे। वे गांधी शांति प्रतिष्ठान के ट्रस्टी एवं राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के उपाध्यक्ष थे। वे प्रतिष्ठान की पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक रहे और अंतिम साँस तक  छोड़ा नहीं। उनकी अन्य चर्चित किताबों में राजस्थान की रजत बूंदेंऔर हमारा पर्यावरणहै। हमारा पर्यावरणदेश में पर्यावरण पर लिखी गई एकमात्र किताब है। अनुपम मिश्र चंबल घाटी में साल 1972 में जयप्रकाश नारायण के साथ डकैतों के खात्मे वाले आंदोलन में भी सक्रिय रहे। डाकुओं के आत्मसमर्पण पर प्रभाष जोशी, श्रवण गर्ग और अनुपम मिश्र द्वारा लिखी किताब चंबल की बंदूके गांधी के चरणों में काफी चर्चित रही। पिछले कई महीनों से वे कैंसर से जूझ रहे थे, लेकिन मृत्यु की छाया में समानांतर चल रहा उनका जीवन पानी और पर्यावरण के लिए समर्पित ही रहा। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यानाकर्षित करने की दिशा में वे तब से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के उन्होंने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली है, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवतः संभव नहीं हो पाया है। उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने अहम काम किया। गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया। वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष भी रहे। शिक्षा की सृजनात्मकता के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला शिक्षा कितना सर्जन, कितना विसर्जनआलेख अमित छाप छोड़ता रहेगा  वहीं पुरखों से संवादजो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं, की यादें तरोताजा करेगा। बरसों से काल के ये रूप पीढियों के मन में बसे- रचे हैं और रहेंगे। कल, आज और कल दृ ये तीन छोटेदृछोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता एवं तरलता से समेटे हैं।
साहित्य अकादमी में नेमिचंद स्मृति व्याख्यान पर दिया दुनिया का खेलाभाषण अनुपम मिश्र के मिलन-संकोच  और अपरिचय की दीवार को नयी ऊंचाईयों पर सदैव रखेगा। साध्य, साधन और साधनाअगर साध्य ऊंचा हो और उसके पीछे साधना हो, तो सब साधन जुट सकते हैं। रावण सुनाए रामायणमें अभिव्यक्त काव्ययुक्ति सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है, वह है नदी धर्म गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों के लिए मिल का पत्थर साबित होगा और पहले उन्हेंइस धर्म को मानना पड़ेगा। क्या हमारा धर्म नदी के धर्म को फिर से समझ सकता है? ‘प्रलय का शिलालेखनदियों के तांडव को सदैव प्रस्थापित करता रहेगा। सन् 1977 में अनुपम मिश्र का लिखा एक यात्रा वृतांत, ‘जड़ेंजड़ता की आधुनिकता को जड़ों की तरफ मुड़ने से पहले हमें अपनी जड़ता की तरफ भी देखना होगा, झांकना होगा, झांकी इतनी मोहक है कि इसका वजन ढोना भी हमें सरल लगने लगता है। बजाय इसे उतार फेंकने के, हम इसे और ज्यादा लाद लेते हैं अपने ऊपर। भाषा और पर्यावरणमें हमारी भाषिक नीरसता को अभिव्यक्त किया है क्योंकि हमारा दिलो-दिमाग बदल रहा है। 
राजस्थानी संस्कृति से उनका विशेष लगाव रहा ल्हास खेलनेका भावार्थ स्वेच्छा से उत्सवपूर्वक सामूहिक श्रमदान करने की स्मृतियों को सदैव जीवंत रखेगा। आग लगने पर कुआं खोदनाके माध्यम से अकाल अकेले नहीं आता की संवेदनशीलता को कुशल चितेरे के रूप में उकेरा और कहा कि अकाल से पहले अच्छे विचारोंय अच्छी योजनाएं, अच्छे काम का अकाल पड़ने लगता है। अनुपम जी के बिना अब हमें बदलते मौसम की रवानी से कौन सतर्क करेगा कि मौसम बदलता था तो हमारे दादा दादी हमको कहते थे मौसम बदल रहा है थोड़ी सावधानी रखो, लेकिन आज जब धरती का मौसम बदल रहा है तो ऐसे दादा दादी बचे नहीं जो हमें बता सके कि मौसम बदल रहा है, इसके लिए थोड़ी सावधानी रखो। उल्टे दुनिया के दादा लोग ही मौसम में हो रहे इस बदलाव के लिए कारण हैं।  वे धरती के बुखार को लेकर हमेशा चिंतित रहे कि धरती का बुखार न बढ़े इसके लिए तैयार रहने की जरूरत है। लेकिन जिस तरह की तैयारी दादा देश कर रहे हैं वह पर्यावरण को होनेवाली क्षति को कम नहीं करेगा बल्कि उनको उपभोग का एक नया मौका प्रदान कर देगा।
इतना ही नहीं वे मन्ना, यानी की भवाई भाई (भवानी प्रसाद मिश्र) के मूल्यों की परछाई ही थे। भवानीप्रसाद की काव्यपंक्तियाँ जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।उनके लिए सदैव आधार वाक्य रही वे जैसा जीते थे, वैसा ही लिखते थे और दूसरों को भी वही सीख देते थे। पिता का मन उनके जीवन में उतर गया था।  उनका पूरा जीवन जैसा था, वैसा का वैसा उनके लिखे हुए में दिखता था। उन्होंने जीवन भर अपने बाल अपने हाथ से काटे। पिता मन्ना ने ही बाल काटना सिखाया था। जीवन को कम आवश्यकताओं के बीच परिभाषित करने वाले अनुपम जी ने कम के बीच ही जीवन को सदा भरा-पूरा रखा। उनका जीवन कम के बीच अपार की कहानी था। उनमें अद्भुत साहस था, ऐसा साहस केवल रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले और थके हुए जिंदगी भर पानी की खोज में जुटे रहने वाले यात्रियों में ही ढूंढा जा सकता है। समाजवादियों के साथ वे जुड़े थे पर सत्ता के समाजवाद को अपनी निष्कपट ईमानदारी के नजदीक फटकने तक नहीं दिया। अनुपम जी का यूं चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति इसलिए है कि जिस गांधी मार्ग पर वे अपने स्नेहियों और शुभचिंतकों की जमात को साथ लेकर चल रहे थे वह अब सूना हो जाएगा।