|| D.Litt.in Media, Ph-D.in Linguistics, M.Phil in Linguistics(Gold Medal), Post Graduation in Linguistics (Gold Medal) || Area of Interest: Language, Linguistics, Applied Linguistics, Transformational Generative Grammar, Dialect-geography, Translation Studies, Machine Translation, Functional Hindi, Media Studies and Literary Analysis || DEAN & PROFESSOR, CENTRAL UNIVERSITY OF RAJASTHAN, NH-8, KISHANGARH, AJMER, RAJASTHAN, INDIA ||
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Sunday, 27 April 2014
Professor Ram Lakhan Meena: Hindi Is The Largest Spoken Language In The World
Professor Ram Lakhan Meena: Hindi Is The Largest Spoken Language In The World: Hindi Is The Largest Spoken Language I n The World Professor Ram Lakhan Meena, School of Humanities and Languages, Central University ...
Hindi Is The Largest Spoken Language In The World
Hindi Is The Largest Spoken Language In The World
Professor Ram Lakhan Meena, School of Humanities and Languages, Central University of Rajasthan
There
are approximately 6900 languages currently spoken around the world, the
majority of which have only a small number of speakers. About 4 billion of the
earth's 6.5 billion people, or over 60% of the earth's population, speak one of
the following 30 languages as their native tongue.
Languages are ordered in the table below by
numbers of native speakers. Numbers of second-language speakers are given where
known. Second language speakers are those whose native language is typically a
minority language of the country in which they live and who learn the second
language because it is the official national language of the country where they
reside. Hindi is the second most spoken language in the world in twentieth century .
It is spoken by more than 800 million people all over the
world. Hindi is the official and national language of India, the country with
the second largest population in the world. The demand to speak Hindi has grown by 85%
in last 15 years. Every year, Millions of tourist across the world visits India.
The ability to speak & understand Hindi increase the opportunity of
enjoying with Indian culture, history and people. Hindi language
skill makes their journey more easy and interesting.
1
|
Hindi
|
880
|
1,028M
|
2
|
Mandarin
|
863
|
1025M
|
3
|
Spanish
|
352
|
522 M
|
4
|
English
|
335
|
511 M
|
5
|
Bengali
|
200
|
247 M
|
6
|
Arabic
|
200
|
285 M
|
7
|
Portuguese
|
173
|
207 M
|
8
|
Russian
|
168
|
301 M
|
9
|
Japanese
|
125
|
176 M
|
10
|
German
|
99
|
166 M
|
11
|
French
|
75
|
197 M
|
12
|
Malay-Indonesian
|
57
|
196 M
|
The only language that had more speakers
was Hindi with 551.4 million. This includes 422 million, who list it as the
primary language, 98.2 million for whom it was a second language and 31.2
million who listed it as their third. English was the
primary language for barely 2.3 lakh Indians at the time of the census, more
than 86 million listed it as their second language and another 39 million as
their third language. This puts the number of English speakers in India at the
time to more than 125 million.
The rise of English puts Bengali, once
India's second largest language in terms of primary speakers, in distant third
place. Those who spoke Bengali as their first, second or third language add up
to 91.1 million, far behind English. Telugu with 85 million speakers in all and
Marathi with 84.2 million retain their position behind Bengali as does Tamil
with 66.7 million and Urdu with 59 million.
Gujarati now falls behind Kannada though
it has a sizeable number of primary speakers — 6.1 million — compared to Kannada's
37.9 million. Karnataka's linguistic diversity means that many list other
languages as their first and Kannada as a second language. This adds 11.5
million to the ranks of Kannada speakers and another 1.4 million use it as a
third language. In total, Kannada had 50.8 million speakers in 2001 compared to
Gujarati's 50.3 million.
Oriya overtakes Malayalam thanks to the
3.3 million people who listed it as their second language and 3.2 lakh who said
it was their third language. The total number of Oriya speakers was 36.6
million against 33.8 million who spoke Malayalam. Punjabi, with 31.4 million
speakers, and Assamese with 18.9 million are among India's most spoken
languages. Unfortunately, the census asked people to list a maximum of three
languages, so it is not known how many speak more languages.
The data covers only those over five
because the census assumed that younger children would only know their mother
tongue. As expected, urban Indians are more likely to be multi-lingual but as
many as 136.7 million rural Indians speak at least two languages.
The
vast majority of Hindi speakers are in India, where it is the official
language, and especially popular in northern and central India. The Indian
census of 2011 puts the number of first-language speakers of Hindi at 551.4
million, although this is a broader definition of Hindi than is used elsewhere,
and includes dialects that would be considered by many linguists to be distinct
languages. The Indian figure, plus speakers numbering hundreds of thousands in
South Africa, Fiji, the United States, Bangladesh, Yemen, Nepal and Malaysia,
makes the world total around 680 million people, including speakers in at least
18 territories. This makes Hindi the second largest language by number of
speakers, after Mandarin Chinese. Spoken Hindi is very similar to Urdu, such
that speakers of the two languages can usually understand one another. However,
influences of other languages in India and Pakistan, and socio-linguistic
considerations, mean that they are usually considered as separate languages.
Hindi borrows words from the Sanskrit language.
Saturday, 26 April 2014
भारतीय सिनेमा की चिंतन-परम्परा और आधुनिकता के सौ साल
भारतीय सिनेमा की चिंतन-परम्परा और आधुनिकता के सौ साल
प्रोफ़ेसर ( डा .) रामलखन मीना , अध्यक्ष,हिंदी विभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय,अजमेर
1940 में फ़िल्म "औरत" में महबूब एक आम हिंदुस्तानी
औरत के संघर्ष और हौसले को सलाम करते हैं और उसे एक ऐसी जीवन वाली महिला के रूप में
पेश करते हैं, जो विपरीत हालात में भी डटकर खड़ी रहती है। इस फ़िल्म में एक गाँव की
कहानी है, जिसमें एक कुटिल और लालची साहूकार अपनी हवस पूरी करने के लिए किसान परिवार
की एक स्त्री पर अत्याचार करता है। दो
आँखें बारह हाथ जिसमें गांधी जी के ‘हृदय परिवर्तन’ के दर्शन
से प्रेरित होकर छह कैदियों के सुधार की कोशिश की जाती है। दो आँखें बारह हाथ 1957 में प्रदर्शित हुई थी। वी शांताराम ने सरल और सादे से कथानक पर बिना किसी लटके झटके के साथ एक कालजयी फ़िल्म
बनाई थी। इस फ़िल्म में युवा जेलर आदिनाथ का किरदार खुद शांताराम ने निभाया। और उनकी
नायिका बनीं संध्या। इसके अलावा कोई ज्यादा मशहूर कलाकार इस फ़िल्म में नहीं था। भरत व्यास ने फ़िल्म के गीत लिखे और संगीत वसंत
देसाई ने दिया था। मुंबई में ये फ़िल्म लगातार पैंसठ हफ्ते चली थी। कई शहरों में इसने गोल्डन
जुबली मनाई थी… सत्रह साल बाद यानी 1957 में महबूब ने इसी फ़िल्म का नया संस्करण
"मदर इंडिया" शीर्षक के साथ बनाया। "औरत" की तरह "मदर इंडिया"
को भी अपार सफलता हासिल हुई और इस फ़िल्म ने महबूब को भारतीय सिने इतिहास में अमर कर
दिया। नया दौर जो 1957 में बनी थी वो उस ज़माने की बहुत बड़ी सफल फ़िल्म थी।
नया दौर दिलीप कुमार और वैजयंती माला के अभिनय से सजी भारतीय सिनेमा
इतिहास की सुप्रसिद्ध फ़िल्म है, बी. आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म ने जो संदेश उस समय दिया
था वो आज के समय में भी उतना ही प्रसिद्ध है। उस समय की ये एक क्रांतिकारी फ़िल्म मानी
गयी थी जैसा की इसके नाम से ही ज़ाहिर होता है नया दौर।नया दौर चोपड़ा संभवतः उनकी
सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। मनुष्य बनाम मशीन जैसे ज्वलंत विषय को उन्होंने
बहुत संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है और उस पर ओ.पी. नैयर का पंजाबियत लिया सुरीला संगीत
जैसे विषय को नये अर्थ दे रहा हो। मुग़ल-ए-आज़म हिन्दी सिनेमा की सार्वकालिक क्लासिक, जो 1960 में भारतीय सिनेमा में एक ऐसी फ़िल्म बनी जो आज भी
पुरानी नहीं लगती। चाहे मधुबाला की दिलकश अदाएँ हों या फिर दिलीप कुमार की बग़ावती शख़्सियत या फिर हो
बादशाह अकबर बने पृथ्वीराज कपूर की दमदार आवाज़, फ़िल्म में सब कुछ था ख़ास। साथ ही ख़ास था
फ़िल्म में नौशाद साहब का संगीत। मुग़ल-ए-आज़म के ज़्यादातर
गाने गाये सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने। महान फ़िल्मकार बिमल राय की फ़िल्मों के संपासक रहे ऋषिकेश मुखर्जी जब आगे चलकर स्वयं निर्देशक बने तो उन्होंने अपनी फ़िल्मों
के माध्यम से सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ जीवन की बड़ी सहज और स्वाभाविक परिस्थितियों
को अपनी रचनाशीलता का आधार बनाया। एक सम्पादक के रूप में उनकी दृष्टि की गहराई हम बिमल
राय की अनेक फ़िल्मों में देख सकते हैं। 'अनुराधा' हृषिकेश मुखर्जी की तीसरी फ़िल्म
थी। 'मुसाफिर' और 'अनाड़ी' के बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने 'अनुराधा' बनायी थी जिसमें पण्डित रविशंकर का संगीत था।
नमक हराम सन 1973 में बनी सुपरहिट हिन्दी फ़िल्म है। इस
फ़िल्म ने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए थे। फ़िल्म के निर्देशक ऋषिकेश
मुखर्जी थे। 'नमक हराम' फ़िल्म का संगीत मशहूर संगीतकार राहुल
देव बर्मन ने तैयार किया था। फ़िल्म के मुख्य कलाकारों में राजेश
खन्ना, अमिताभ
बच्चन, रेखा, सिम्मी ग्रेवाल और असरानी आदि ने यादगार
भूमिकाएँ अदा की थीं। इस फ़िल्म के गीत 'दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं', 'मैं शायर
बदनाम' आदि बहुत प्रसिद्ध हुए थे। फ़िल्म के गीत आज भी लोगों की यादों में ताजा हैं।
'ऋषिकेश दा' के नाम से प्रसिद्ध ऋषिकेश मुखर्जी भारतीय सिनेमा जगत में अपने विशिष्ट
योगदान के लिए जाने जाते हैं। उनकी फ़िल्मों में वास्तविक हिन्दुस्तान के दर्शन होते
थे। सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ जीवन की स्वाभाविक व सहज परिस्थितियाँ उनकी फ़िल्मों
का आधार होती थीं। सत्यकाम, ऋषिकेश
मुखर्जी की सबसे अच्छी फ़िल्मों में से है। उन्होंने बहुत ही अच्छे विषय को लेकर एक
बहुत ही प्रभावशाली फ़िल्म बनायी है। इस विषय पर इतनी अच्छी और रोचक फ़िल्म हिन्दी
सिनेमा में बहुत ही कम हैं और निस्संदेह सत्यकाम इस श्रेणी की फ़िल्मों में सर्वोच्च
स्थान रखती है। यह फ़िल्म अपने आप में जीवन मूल्यों का एक ऐसा अनूठा और आदर्श दर्शन
है जिसकी मिसाल आज भी संजीदा फ़िल्मकार और कलाकार देते हैं।
सन्
1975 में भारत के स्वतंत्रता
दिवस पर फ़िल्म 'शोले'
रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म की शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फ़िल्म
पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी। देखते ही देखते शोले सुपर हिट और फिर ऐतिहासिक
फ़िल्म हो गई। इसकी लोकप्रियता का अनुमान सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि यह फ़िल्म मुंबई के 'मिनर्वा टाकीज़'
में 286 सप्ताह तक चलती रही।
'शोले' ने भारत के सभी बड़े शहरों
मे 'रजत जयंती' मनायी। शोले ने अपने समय में 2,36,45,000,00 रुपये कमाए जो मुद्रास्फीति
को समायोजित करने के बाद 60 मिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर हैं। 'तेरा क्या होगा कालिया' संवाद आज भी सबके दिलों दिमाग पर
छाया है। प्रकाश मेहरा की निर्देशित फ़िल्म जंजीर ने अमिताभ
बच्चन को हिन्दी
सिनेमा में एक नया जीवनदान दिया। इस फ़िल्म ने रूमानी फ़िल्मों से मार-धाड़ फ़िल्मों
का दौर शुरू कर दिया था। यह अमिताभ की पहली फ़िल्म थी जिसमें वह नायक की भूमिका कर
रहे थे। फ़िल्म में गंभीर किरदार ने अमिताभ को एंग्री
यंग मैन का ख़िताब दिलाया।
आज ही रिलीज़ हुई है, कम बजट वाली 'शूद्र - द राइज़िन्ग', जिसमें
डायरेक्टर से लेकर एक्टर, म्यूज़िक डायरेक्टर और सिनेमेटोग्राफ़र तक करीब-करीब सभी लोग
पहली बार किसी फिल्म में काम कर रहे हैं... फिल्म की कहानी आपको ले जाएगी प्राचीन भारत
में, जहां छुआछूत जैसी प्रथाओं से शूद्र समाज आहत था... जहां ज़मींदारों के अन्याय के
खिलाफ शूद्र समाज के कुछ लोग हथियार उठाते हैं और ज़मींदारों के गुस्से की आग में झुलसता
है पूरा शूद्र समाज... कहानी को पर्दे पर बखूबी उतारा गया है, फिर चाहे वह पानी के
लिए जद्दोजहद हो, मंत्रों के जाप पर रोक हो या फिर शूद्र समाज की महिलाओं के साथ ज़ोर-जबरदस्ती...
शूद्र समाज पर अत्याचार की कहानियां हमने बहुत सुनी हैं, इसलिए कहानी कुछ नया तो नहीं
कहती, लेकिन बांधे रखती है... फिल्म के सभी कलाकार नए हैं, परन्तु चूंकि रंगमंच से
हैं, इसीलिए फिल्म में कहीं-कहीं उनके अभिनय में स्टेज की झलक भी ज़रूर दिखती है...
बैकग्राउंड म्यूज़िक और उसके बोल खासतौर पर प्रभाव डालते हैं... बस, इस फिल्म में दो
ही बातों की कमी महसूस हुई - पहला, फिल्म का सुर, जो एक ही लेवल पर चलता है... दूसरा,
इसके डायलॉग, जो बेहतर लिखे जा सकते थे... वैसे कुल मिलाकर एक अच्छी नीयत से बनाई गई
है यह फिल्म, जो समाज को एक संदेश देती है और साबित करती है कि कम बजट और कम सुविधाओं
के साथ भी बड़ा संदेश दिया जा सकता है...
सुधीर मिश्रा की फिल्म 'इंकार' में मुख्य भूमिका में हैं अर्जुन
रामपाल, जो एक एडवरटाइजिंग एजेंसी के सीईओ का रोल निभा रहे हैं और फिल्म में उनके किरदार
का नाम है राहुल। दूसरी तरफ हैं चित्रांगदा सिंह, जिनके किरदार का नाम है माया और वह
अर्जुन की ही कंपनी में काम करती हैं। राहुल, माया को आगे बढ़ाने के लिए काफी प्रोत्साहन
देते हैं और माया को हर वो हुनर सिखाते हैं, जो एक एडवरटाइजिंग एजेंसी के लिए जरूरी
होता है। इसी दौरान दोनों के बीच एक रिश्ता पनपता है, लेकिन जैसे-जैसे माया का कंपनी
में ओहदा बढ़ता जाता है, वह राहुल को भूलने लगती है। वह यह भी भूल जाती है कि उनकी तरक्की
राहुल की ही देन है। इसके चलते दोनों में होते हैं कई झगड़े और माया, राहुल पर यौन
शोषण का आरोप लगा देती हैं। इस मामले की छानबीन करने के लिए बुलाया जाता है मिसेज कामदार
यानी दिप्ती नवल को। अब सवाल यह है कि माया का आरोप सही है या ग़लत। इसका जवाब आपको
फ़िल्म देखकर ही मिलेगा…लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि सुधीर मिश्रा ने बहुत ही अच्छा
विषय चुना है, जो बताता है कि यौन शोषण की सीमा कहां से शुरू होती है और कहां खत्म।
वहीं, फिल्म की बात करें तो विषय सही ढंग से निकलकर पर्दे पर नहीं दिखता। फ़िल्म में
छानबीन ज्यादा नज़र आती है। बार-बार फ्लैशबैक में जाना पड़ता है, जो दर्शकों का कुछ हद
तक मनोरंजन नहीं कर पाता। अर्जुन का अभिनय कहीं-कहीं बेहतरीन लगता है, पर चित्रांगदा
अपनी एक्टिंग से खास प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। फिल्म का संगीत कहानी के साथ नहीं जाता,
जिसकी वजह से फ़िल्म की कहानी के साथ आप भावनात्मक सफ़र नहीं तय कर पाते, बल्कि दर्शक
बनकर मुद्दे की जड़ तक पहुंचने का इंतज़ार करते रहते हैं और इंतज़ार किसी खास अंजाम तक
नहीं पहुंचाता। लेकिन मैं कहूंगा कि सुधीर मिश्रा ने एक ईमानदार कोशिश की है। फ़िल्म
कुछ ऐसे सवाल उठाती है, जिसके बारे में आप गहराई तक सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।
फिल्मकार प्रकाश झा ने अपनी आगामी फिल्म ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद
का मुद्दा उठाया है। चूंकि ये भारत के अंदर की लड़ाई है इसलिए इसे युद्ध तो नहीं कहा
जा सकता है, लेकिन मोटे तौर पर यह एक तरह से युद्ध ही है। दुश्मन भी हमारा अपना ही
है। कुछ लोगों में अन्याय, शोषण और भेदभाव को लेकर आक्रोश है। उनकी बात सुनी नहीं जा
रही है इसलिए वे हिंसा का सहारा ले रहे हैं। ‘चक्रव्यूह’
की कहानी छ: किरदारों आदिल खान (अर्जुन रामपाल), कबीर (अभय देओल), रेहा मेनन (ईशा गुप्ता),
रंजन (मनोज बाजपेयी), जूही (अंजलि पाटिल) और गोविंद सूर्यवंशी (ओमपुरी) के इर्दगिर्द
घूमती है। भारत के दो सौ से अधिक जिलों में नक्सलवाद फैल चुका है और कोई
दिन भी ऐसा नहीं जाता जब इस आपसी संघर्ष में भारत की धरती खून से लाल नहीं होती है।
नक्सलवाद दिन पर दिन फैलता जा रहा है। कई प्रदेश इसके चपेट में हैं, लेकिन अब तक इसका
कोई हल नहीं निकल पाया है। एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जिसे भेदना मुश्किल होता जा
रहा है। इस मुद्दे को लेकर प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ फिल्म बनाई है। चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के
पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है,
लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने
में लगे हुए हैं और इनकी लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहे हैं।वह आदिवासियों के मन से
माओवादियों का डर निकालना चाहता है। उसका मानना है कि बंदूक के जरिये कभी सही निर्णय
नहीं किया जा सकता है। उसे अपने उन पुलिस वाले साथियों की चिंता है जो माओवादी की तलाश
में जंगलों की खाक छान रहे हैं। अपने परिवार से दूर अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं।
चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल
रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति
विकराल हो जाएगी।
पान सिंह तोमर का इंटरव्यू ले रहा पत्रकार पूछता है कि आप डाकू
कब बने, तो वह नाराज हो जाता है। वह कहता है ‘डकैत तो संसद में बैठे हैं, मैं तो बागी
हूं।‘ उसे अपने आपको बागी कहलाना पसंद था। समाज जब उसे न्याय नहीं दिला पाया तो उसे
बागी बनना पड़ा। अपनी रक्षा के लिए बंदूक उठाना पड़ी। उसे इस बात का अफसोस भी था। बागी
बनकर बीहड़ों में भागने की बजाय उसे रेस के मैदान में भागना पसंद था… जब उसने देश का
नाम खेल की दुनिया में रोशन किया तो कभी उसका नाम नहीं लिया गया। कोई पत्रकार उससे
इंटरव्यू लेने के लिए नहीं आया, लेकिन बंदूक उठाते ही उसका नाम चारों ओर सुनाई देने
लगा है। पान सिंह तोमर की जिंदगी दो हिस्सों में बंटी हुई है। खिलाड़ी और फौजी वाला
हिस्सा उसकी जिंदगी का उजला पक्ष है तो बंदूक उठाकर बदला लेने वाला डार्क हिस्सा है…
राष्ट्रीय रेकॉर्ड बनाता है और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी हिस्सा लेता है… फौज
से रिटायरमेंट के बाद गांव में शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहता है, लेकिन चचेरे भाइयों
से जमीन के विवाद के कारण उसे बागी बनना पड़ता है। बंदूक उठाने के पहले वह भाइयों की
शिकायत कलेक्टर से करता है। थाने जाता है। थानेदार को जब वह अखबारों की कटिंग दिखाता
है तो ‘स्टीपलचेज़’ पढ़कर थानेदार पूछता है कि पानसिंह तुम किसको चेज़ करते थे। उसकी
बात नहीं सुनी जाती है और सारे मेडल फेंक दिए जाते हैं। एथलीट पान सिंह की कहानी में
कई उतार-चढ़ाव है… फिल्म के अंत में उन खिलाड़ियों के नाम देख आंखें नम हो जाती
है, जिन्होंने खेलों की दुनिया में भारत का नाम रोशन किया, लेकिन उनमें से किसी ने
बंदूक उठा ली, किसी को अपना पदक बेचना पड़ा तो कई इलाज के अभाव में दुनिया से चल बसे।
पान सिंह भी इनमें से एक था।
‘द डर्टी पिक्चर’ बनाने वालों ने बड़ी चतुराई के साथ ऐसा विषय
चुना है, जो हर तरह के दर्शक वर्ग को अपील करे। चूंकि सिल्क और बोल्डनेस एक-दूसरे के
पर्यायवाची हैं, इस कारण ‘द डर्टी पिक्चर’ के बोल्ड सीन में हल्कापन नहीं लगता। हालांकि
कुछ अश्लील संवादों से बचा जा सकता था, जिसकी छूट फिल्म मेकर ने सिल्क के नाम पर ली
है। पुरुष बोल्ड हो तो इसे उसका गुण माना जाता है, लेकिन यही बात
महिला पर लागू नहीं होती। पुरुष प्रधान समाज महिला की बोल्डनेस से भयभीत हो जाता है।
जो सुपरस्टार रात सिल्क के साथ गुजारता है दिन के उजाले में उसके पास आने से डरता है…
सिल्क के जीवन में तीन पुरुष आते हैं। एक सिर्फ उसका शोषण करना चाहता है। दूसरा उसे
अपनाने के लिए तैयार है, लेकिन सिल्क के बिंदासपन और अपने भाई से डरता है। अपने हिसाब
से उसे बदलना चाहता है। तीसरा उससे नफरत करता है। उसे फिल्मों में आई गंदगी बताता है,
लेकिन अंत में उसकी ओर आकर्षित होता है… सुपरस्टार बनी सिल्क को समझ में आ जाता है
कि सभी पुरुष उसकी कमर पर हाथ रखना चाहते हैं। सिर पर कोई हाथ नहीं रखना चाहता। बिस्तर
पर उसे सब ले जाना चाहते हैं घर कोई नहीं ले जाना चाहता… फिल्म में सिल्क की कहानी
मनोरंजक तरीके से पेश की गई है… ‘सूफियाना’ और ‘ऊह ला ला’ गाने के लिए सही सिचुएनशन
बनाई है… फिल्म इंडस्ट्री को नजदीक से देखने का अवसर मिलता है। वह दौर पेश किया गया
जब सिंगल स्क्रीन हुआ करते थे, चवन्नी क्लास में दर्शक गाना पसंद आने पर जेब में रखी
चिल्लर फेंका करते थे। सिल्क की कलरफुल लाइफ के साथ-साथ उसके दर्द और उदासी को भी निर्देशन
मिलन लथुरिया ने बेहतरीन तरीके से सामने रखा है।
कुल मिलाकर ‘आरक्षण’ उन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती जो रिलीज
होने के पहले दर्शकों ने इससे की थी… आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हर उम्र और वर्ग
के लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं। वर्षों से इस पर अंतहीन बहस चली आ रही है। इसी
मुद्दे को निर्देशक प्रकाश झा ने अपनी फिल्म के जरिये भुनाने की कोशिश की है… फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई बन जाती है… फिल्म तब तक ठीक
लगती है जब तक आरक्षण को लेकर सभी में टकराव होता है। दलित वर्ग क्यों आरक्षण चाहता
है, इसको सैफ के संवादों से दर्शाया गया है। जिन्हें आरक्षण नहीं मिला है, उन्हें इसकी
वजह से क्या नुकसान उठाना पड़ा है, इसे आप प्रतीक द्वारा बोले गए संवादों और एक-दो
घटनाक्रम से जान सकते हैं। प्रभाकर आनंद की
बीवी का कहना है कि बिना आरक्षण दिए भी दलित वर्ग का उत्थान किया जा सकता है। उन्हें
आर्थिक सहायता दी जाए, मुफ्त में शिक्षा दी जाए, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार
किया जाए। इस पर प्रभाकर का कहना है कि ये सब बातें नहीं हो पाई हैं, इसीलिए आरक्षण
किया गया है… शुरुआत में सैफ के इंटरव्यू देने वाला सीन, अमिताभ-सैफ, सैफ-प्रतीक के
बीच फिल्माए गए सीन उम्दा हैं। सैफ के विदेश जाते ही फिल्म की रौनक गायब हो जाती है।
यहां पर झा कोचिंग क्लासेस द्वारा शिक्षा को व्यापार बनाए जाने का मुद्दा उठाते हैं
जो बेहद ड्रामेटिक है। यह पार्ट ज्यादा अपील इसलिए नहीं करता क्योंकि बार-बार यह अहसास
होता रहता है कि फिल्म दिशाहीन हो गई है
निर्देशक विनय शुक्ला की फिल्म ‘मिर्च’ सेक्स में स्त्री-पुरुष
की बराबरी की बात करती है। सेक्स को लेकर पुरुषों की अपनी भ्रांतियाँ है। वह इसे केवल
अपना ही अधिकार समझता है। यदि स्त्री पहल करे या सेक्स संबंधी अपनी इच्छा को जाहिर
करे तो उसे चालू बता दिया जाता है। सुंदर पत्नी के पति अक्सर शक ही करते रहते हैं…
फिल्मों में स्त्री को ज्यादातर आदर्श रूप में ही पेश किया जाता है, जबकि पुरुष लंपट
हो सकते हैं। वे धोखा दे सकते हैं। लेकिन ‘मिर्च’ की स्त्रियाँ अपने पति को धोखा देती
है और रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद चतुराई से बच निकलती हैं… फिल्म में एक संवाद
है कि पुरुषों की तुलना में स्त्री ज्यादा होशियार रहती हैं और इसी वजह से अपनी शारीरिक
शक्ति के जरिये पुरुष उन्हें दबाते रहते हैं। फिल्म में इन बातों को गंभीरता से नहीं
बल्कि मजेदार तरीके से चार कहानियों के जरिये कहा गया है और इन चारों कहानियों को एक
और कहानी से जोड़ा गया है… पहली कहानी पंचतंत्र से प्रेरित है, जिसमें एक महिला दूसरे
पुरुष से संबंध बनाने जा रही है और खाट के नीचे छिपे अपने पति को देख लेती। बड़ी चतुराई
से वह अपने आपको निर्दोष साबित करती है… दूसरी कहानी इटालियन क्लासिक ‘द डेनकेमेरॉन’
से प्रेरित है जिसमें एक बूढ़ा अपने से उम्र में बहुत छोटी स्त्री से शादी कर लेता
है ताकि जमाने के सामने अपने दमखम को साबित कर सके। उसकी पत्नी आखिर एक इंसान है और उसकी भी अपनी ख्वाहिश है। वह अपने सेवक से संबंध
बनाती है जो उसके आगे तीन शर्तें रखता है। इंटरवल के पहले दिखाई ये दोनों कहानियाँ
बेहद उम्दा हैं, लेकिन इसके बाद की दोनों कहानियों में वो बात नहीं है। श्रेयस को अपनी खूबसूरत पत्नी पर शक है क्योंकि वह बेहद कामुक
है। श्रेयस भेष बदलकर उसकी परीक्षा लेता है, जिससे उसकी पत्नी का दिल टूट जाता है।
इस कहानी से भी खराब है बोमन और कोंकणा वाली अंतिम कहानी। इसे सिर्फ फिल्म की लंबाई
बढ़ाने के लिए रखा गया है। ‘मिर्च’ को ‘ए
सेलिब्रेशन ऑफ वूमैनहूड’ बताने वाले निर्देशक विनय शुक्ला ने अलग तरह की थीम चुनी है
और अपनी बात को मनोरंजक तरीके से रखने की कोशिश की है। यदि वे अंतिम दो कहानियों को
भी पहली दो कहानियों की तरह रोचक बनाते तो बात ही कुछ और होती। फिर भी उन्हें इस बात
की दाद दी जा सकती है कि एक गंभीर मुद्दे को उन्होंने चतुराई, चालाकी और हास्य के साथ
पेश किया। उनके द्वारा फिल्माए गए सीन वल्गर नहीं लगे।
पीपली लाइव उन लोगों की कहानी है जो भारत के भीतरी इलाकों में
रहते हैं। ये लोग इन दिनों भारतीय सिनेमा से गायब हैं। इनकी सुध कोई भी नहीं लेता है
और चुनाव के समय ही इन्हें याद किया जाता है। तरक्की
के नाम पर शाइनिंग इंडिया की तस्वीर पेश की जाती है। चमचमाते मॉल बताए जाते हैं। लेकिन
भारत की लगभग दो तिहाई आबादी इन दूरदराज गाँवों में रहती है, जिन्हें एक समय का भोजन
भी भरपेट नहीं मिलता है। कहने को तो भारत
को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन किसानों की माली हालत बहुत खराब है। उनके लिए
कई योजनाएँ बनाई जाती हैं, लेकिन उन तक पहुँचने के पहले ही योजनाएँ दम तोड़ देती हैं।
बीच में नेता, बाबू, अफसर उनका हक हड़प लेते हैं। पिछले दिनों इन योजनाओं को लेकर श्याम
बेनेगल ने भी ‘वेल डन अब्बा’ बनाई थी और अब अनुषा ‘पीपली लाइव’ लेकर हाजिर हुई हैं…
महँगाई का बहुत ज्यादा असर समाज पर नहीं पड़ा है। पड़ता भी नहीं है। हालाँकि यह शोर हमेशा
मचा रहता है कि महँगाई बहुत बढ़ गई है और गरीब लोगों का जीना दूभर हो गया है। जब एक रुपए का बीस सेर आटा मिलता था, तब भी लोग कहते थे कि हाय
क्या जमाना आ गया है, आटा रुपए का बीस सेर हो गया है, वो भी क्या दिन थे कि जब एक रुपए
में पचास सेर आटा मिला करता था। पुरानी फिल्में,
पुराने उपन्यास, पुरानी कहानियाँ... किसी में भी यह नहीं है कि वर्तमान समय बहुत अच्छा
है, महँगाई बिलकुल नहीं है, गरीबों की बहुत पूछ-परख है, बेईमान मजे में नहीं हैं वगैरह-वगैरह। मनोज कुमार की फिल्म "रोटी कपड़ा और मकान" का गाना
"महँगाई मार गई" हिट था और आमिर खान की फिल्म "पीपली लाइव" का "महँगाई डायन"
भी। मनोज कुमार की फिल्म सन 74 में रिलीज हुई थी और आमिर खान की 2010 में। 2040 में
भी महँगाई पर रचा हुआ गाना हिट ही रहेगा… महँगाई शायद बाजार का एक नियम है, कुदरत का
एक औजार है। महँगाई बढ़ती है और उसके असर में आने वाली हर चीज महँगी हो जाती है। अगर
आपका श्रम या काम समाज के लिए हितकारी है, तो आपके काम का दाम भी बढ़ जाता है…महँगाई
से तकलीफ केवल उन्हें ही होती है, जो निठल्ले हैं। निठल्ले और अकर्मण्य लोग हमेशा ही
तकलीफ में रहते हैं। क्या सौ साल पहले लोग भीख नहीं माँगा करते थे? सौ साल पहले तो
हर चीज बहुत सस्ती थी…भूख पैदा होती है जिंदगी के खालीपन से, व्यर्थता से। महँगाई पहले
भी बहुत मायने नहीं रखती थी और अब भी नहीं रखती।
‘माई नेम इज खान’ में एक आकर्षक प्रेम कहानी है, धर्म की बात
है और पृष्ठभूमि में एक ऐसी घटना है जिसने दुनिया को हिला कर रख दिया है। यह सिर्फ
मनोरंजन ही नहीं करती बल्कि दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है… ‘माई नेम इज खान’ वर्तमान
दौर का आइना है। ऐसा एक भी दिन नहीं जाता जब हम आतंकवादियों के हमले द्वारा मारे गए
मासूमों की खबर पढ़ते/सुनते या देखते नहीं हैं। हर वक्त एक डर-सा लगा रहता है।
9/11 के बाद दुनिया एक तरह से बँट गई है। यह फिल्म दृढ़ता से कहती है कि सारे मुसलमान
आतंकवादी नहीं होते हैं और बुराई कितनी भी शक्तिशाली हो अंत में जीत अच्छाई की ही होती
है… ‘कभी अलविदा ना कहना’ के बाद करण ने गियर बदला और एक ऐसी फिल्म बनाई जिसका वास्तविकता
से नाता है। यह फिल्म किसी एक का पक्ष नहीं लेती। यदि फिल्म का नायक कहता है ‘मेरा
नाम खान है और मैं आतंकवादी नहीं हूँ’, तो यह उन लोगों को भी एक्सपोज करती है जो युवाओं
को गलत राह पर चलने के लिए उकसाते हैं। इस तरह के मुद्दे पर फिल्म बनाना आसान नहीं
है, लेकिन करण ने सफलतापूर्वक इसका निर्वाह किया।
दीपा मेहता की ताज़ा फिल्म "विदेश" उनकी पिछली फिल्मों
के मुकाबले ज्यादा बारीक बुनावट की है। उसमें कलागत जटिलताएँ भी अधिक हैं। सो फिल्म
बनाने की दीपा मेहता की जो शैली है, उसकी तारीफ की जा सकती है, पर पूरी फिल्म इस तरह
की नहीं बन पाई कि आम आदमी उसे बिना घड़ी देखे, देख ले। दीपा मेहता कैमरे को कलम बना लेती हैं… फिल्म के ज़रिए दीपा मेहता
एक बात तो यह बताना चाहती हैं कि विदेश स्वर्ग नहीं है। लोग अपनी बेटियों को विदेश
ब्याह देते हैं और विदेश में बेटी को तरह-तरह से सताया जाता है। विदेश में नौकर महँगे
पड़ते हैं, सो इंडियन बीवी बाहर से भी कमा कर लाती है, घर का काम भी करती है और बच्चे
भी पैदा करती है, जिसके लिए दूसरे देश की लड़कियाँ आसानी से तैयार नहीं होतीं… इंडियन
लड़की के संस्कारों की वजह से उसे पीटा भी जा सकता है, गालियाँ भी सुनाई जा सकती हैं,
वो बेचारी गऊ कुछ नहीं कहेगी। विदेशी लड़की एक मिनट में सबको अंदर करा सकती है। मगर
फिल्म में दीपा मेहता ने जो कुछ बताया है, वो अतिशयोक्ति है। अगर विदेश को स्वर्ग कहना
एक अति है, तो विदेश फिल्म में दीपा ने जो बताया है, वो दूसरी अति है।
सफलता पाने के लिए इनसान को कितने संघर्षों का सामना करना पड़ता
है, यह बात हॉलीवुड निर्देशक डैनी बोयले ने अपनी फिल्म 'द स्लम डॉग मिलियनेयर' में
बखूबी बताई है। फिल्म में मुंबई की झोपड़ पट्टी में रहने वाले युवक
को प्यार और पैसा पाने के लिए संघर्ष करते दिखाया गया है। एक मसाला फिल्म होने पर भी
इस फिल्म ने विदेशों में और खासकर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी धूम मचाई
है। ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ जो पुरस्कार और प्रशंसा हासिल कर रही है
और जो करने वाली है, उसकी वो पूरी तरह से हकदार है। इस फिल्म के जरिये भारत की गरीबी
को विदेश में न तो बेचा गया है और न ही मजाक उड़ाया गया है। मुंबई की गंदी गलियों को इस फिल्म में दिखाया गया है। इसमें
गलत क्या है? क्या मुंबई में ये गंदी गलियाँ नहीं हैं? क्या हमें इसका विरोध इसलिए करना
चाहिए क्योंकि इसे किसी गोरे व्यक्ति ने बनाया है? क्या कोई भारतीय इसे बनाता तो हम
इसका विरोध करते? नहीं, तो फिर दोहरी मानसिकता क्यों? स्लमडॉग... दिल से निकली हुई
प्रेम कहानी है, जिसे निर्देशक डैनी बॉयले ने किसी बॉलीवुड की फिल्म की तरह बनाया है।
सिमोन ब्यूफॉय ने इतना उम्दा स्क्रीनप्ले लिखा है कि दर्शक को हर फ्रेम बेहतरीन लगती
है। यह फिल्म उन लोगों के लिए आशा की किरण लाती है जो जिंदगी में प्यार और सुख-संपत्ति
के मामले में दुर्भाग्यशाली हैं… 18 वर्षीय
और मुंबई की गंदी बस्तियों में रहने वाला अनाथ जमाल (देव पटेल) के नाम पर एक भी पैसा
नहीं है, लेकिन एक घंटे में उसकी किस्मत बदल जाती है। भारत के सबसे लोकप्रिय गेम शो
‘हू वांट्स टू बि ए मिलियनेयर’ की खिताबी रकम से वह महज एक प्रश्न दूर है, लेकिन जमाल
की जिंदगी में कुछ भी आसान नहीं रहा और ये भी आसान नहीं था… कम उम्र में ही जमाल और
उसके बड़े भाई सलीम ने अपनी माँ को खो दिया था। उनकी माँ की मौत मुस्लिमों पर हुए हमले
की वजह से हुई थी। दोनों भाई गलत आदमियों के हाथ लग जाते हैं। जमाल की मुलाकात लतिका
से होती है और वह उसे चाहने लगता है लेकिन इसके बाद भी कई मुश्किलें उसका इंतजार कर
रही थीं…उसे धोखाधड़ी के आरोप में पुलिस गिरफ्तार कर लेती है। जमाल से पूछताछ होती
है। पुलिस को यकीन नहीं है कि जमाल को इतना ज्ञान है कि वो इस गेम में इतना आगे तक
जाए। जमाल उन्हें यकीन दिलाने के लिए अपनी कहानी बचपन से सुनाता है… तमाम मुश्किलों
से लड़ते हुए जमाल अपना इतना ज्ञान बढ़ाता है कि उसे गेम शो में पूछे जाने वाले प्रश्नों
के उत्तर देने में आसानी हो।
राजश्री प्रोडक्शन ने अपनी फिल्मों में हमेशा भावना, परंपरा
और भारतीय संस्कृति को महत्व दिया है। ‘एक विवाह ऐसा भी’ इसका अपवाद नहीं है। इसकी कहानी उन्होंने अपने ही बैनर द्वारा निर्मित फिल्म ‘तपस्या’
(राखी, परीक्षित साहनी) से ली है, जो त्याग और भावनाओं से भरी है। यह फिल्म उन लोगों
को अच्छी लगेगी जो पारिवारिक और भावनात्मक फिल्मों को पसंद करते हैं क्योंकि फिल्म
में कई ऐसे दृश्य हैं जो दिल को छूते हैं और आँखें गीली करते हैं। मेट्रो शहर में रहने
वाले लोगों को हो सकता है कि इसकी कहानी आज के दौर के मुकाबले पिछड़ी लगे… एक समय पारिवारिक
फिल्में हिंदी फिल्मों का अहम हिस्सा हुआ करती थीं, जो इन दिनों परिदृश्य से गायब है।
‘एक विवाह... ऐसा भी’ उस दौर की याद ताजा करती है।चाँदनी और प्रेम की सगाई तय हो जाती
है, लेकिन उसी दिन चाँदनी के पिता की मृत्यु हो जाती है। चाँदनी पर दु:खों का पहाड़
टूट पड़ता है। अचानक वह घर की सबसे बड़ी सदस्य बन जाती है। एक तरफ उसके हाथ मेहँदी
से रचे हुए हैं, जो उसे इशारा करते हैं कि वह प्रेम से शादी कर अपने सपनों को हकीकत
में बदले। दूसरी ओर चाँदनी के मासूम भाई-बहन हैं, जिनका चाँदनी के अलावा कोई और नहीं
है… स्वार्थ से परे जाकर चाँदनी शादी नहीं करने का निर्णय लेती है, ताकि वह अपने छोटे
भाई-बहनों की परवरिश कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर सके। चाँदनी के निर्णय को प्रेम
अपना समर्थन देता है। वह चाँदनी के संघर्ष, अच्छे और बुरे समय में उसका साथ है… अपने
भाई-बहन को काबिल बनाने में चाँदनी को बारह वर्ष लगते हैं, फिर भी प्रेम बारह वर्ष
तक उसका इंतजार करता है। एक लड़की का महिला बनकर संघर्ष की कठिन राह चुनना तथा पुरुष-स्त्री
के रिश्ते को इस फिल्म में महत्व दिया गया है। कुल
मिलाकर ‘एक विवाह ऐसा भी’ पास्ता और पिज्जा के जमाने में भारतीय भोजन की थाली है। रणनीति
के तहत इस फिल्म को मल्टीप्लेक्स में नहीं प्रदर्शित किया गया है क्योंकि यह माना गया
है कि मेट्रो या बड़े शहरों में रहने लोग इस फिल्म को शायद पसंद ना करें। छोटे शहरों
और अंचल में यह फिल्म अच्छा प्रदर्शन कर सकती है।
आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में उठाया है। यह कोई बच्चों के
लिए बनी फिल्म नहीं है और न ही वृत्तचित्रनुमा है। फिल्म में मनोरंजन के साथ गहरे संदेश
छिपे हुए हैं। बिना कहें यह फिल्म बहुत कुछ कह जाती है। हर व्यक्ति इस फिल्म के जरिए
खुद अपने आपको टटोलने लगता है कि कहीं वह किसी मासूम बच्चे का बचपन तो नहीं उजाड़ रहा
है… बच्चें ओस की बूँदों की तरह एकदम शुद्ध और पवित्र होते हैं। उन्हें कल का नागरिक
कहा जाता है, लेकिन दु:ख की बात है बच्चों को अनुशासन के नाम पर तमाम बंदिशों में रहना
पड़ता है। आजकल उनका बचपन गुम हो गया है। बचपन से ही उन्हें आने वाली जिंदगी की चुनौतियों
का सामना करने के लिए तैयार किया जाता है। हर घर से टॉपर्स और रैंकर्स तैयार करने की
कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि उनके मन में क्या है? वे क्या सोचते हैं?
उनके क्या विचार है? आमिर की यह फिल्म उन माता-पिता से सवाल पूछती है
कि जो अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों के नाजुक कंधों पर लादते हैं। आमिर एक संवाद बोलते
हैं ‘बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षा लादना बालश्रम से भी बुरा है‘… हर किसी को परीक्षा
में पहला नंबर आना है। 95 प्रतिशत से कम नंबर लाना मानो गुनाह हो जाता है। ईशान का
भाई टेनिस प्रतियोगिता के फाइनल में हार जाता है तो उसके पिता गुस्सा हो जाते हैं।
अव्वल नंबर आना बुरा नहीं है, लेकिन उसके लिए मासूम बच्चों को प्रताडि़त कर उनका बचपन
छिन लेना बुरा है। सवाल तो उन माता-पिताओं से पूछना चाहिए कि क्या
उन्होंने बच्चे अपने सपने पूरा करने के लिए पैदा किए हैं? क्या वे जिंदगी में जो बनना
चाहते थे वो बन पाएँ? यदि नहीं बन पाएँ तो उन्हें भी कोई हक नहीं है कि वे अपनी कुंठा
बच्चों पर निकाले। क्या हम कभी ढाबों या चाय की दुकानों में काम कर रहे छोटे-छोटे बच्चों
के बारे में सोचते हैं? क्या हमें यह खयाल आता है कि जो बच्चा हमें खाना परोस रहा है
उसका पेट भरा हुआ है या नहीं? अनुशासन और नियम
का डंडा दिखलाकर बच्चों को डराने वाले शिक्षक अपनी जिंदगी में कितने अनुशासित हैं?
वे कितने नियमों का पालन करते हैं? सभी बच्चों का दिमाग और सीखने की क्षमता एक-सी नहीं
होती है। क्या सभी बच्चों को भेड़ की तरह एक ही डंडे से हांका जाना चाहिए?
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हिन्दी फिल्मों में अब परंपरावादी फार्मूलाबद्ध फिल्में बनना
धीरे-धीरे कम हो रही हैं और नए कथानक सामने आ रहे हैं। आर बाल्की की फिल्म ‘चीनी कम’
दो प्रेमियों की कहानी है। समस्या है तो दूल्हा और दुल्हन के उम्र के बीच के अंतर की।
दोनों को इस पर कोई ऐतराज नहीं हैं, लेकिन दुल्हन के पिता को है… ‘नि:शब्द’ में भी
उम्र के अंतर को दिखाया गया था। लेकिन जहाँ ‘नि:शब्द’ गंभीर किस्म की फिल्म थी, वहीं
‘चीनी कम’ हल्की-फुल्की फिल्म है। इसमें उम्र के अंतर के साथ स्वभाव के अंतर को भी
दर्शाया गया है।
जिस 'वॉटर' फिल्म को हमारे हिन्दू कट्टरपंथियों ने देश में फिल्माने
तक नहीं दिया,फिल्म में क्या है? दरअसल, इसमें तीस के दशक में भारत में बाल विधवाओं
की दशा को दिखाया गया है कि कैसे उन्हें परिवार-समाज से काटकर विधवा आश्रम में डाल
दिया जाता है जहां न सिर्फ वे कठोर जीवन जीती हैं बल्कि वे मालदार और रसूखवालों की
जिस्मानी भूख भी शांत करती हैं।
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