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Saturday, 16 January 2016

देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है : प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर

देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है  
प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर 
उच्च शिक्षा की व्यवस्था में ऐसे बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है शिक्षा का सही उपयोग हम अपने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से कर सकें। रिपोर्ट के अनुसार हायर एजुकेशन देश का अगला पॉपुलर सेक्टर होने जा रहा है। अर्नेस्ट ऐंड यंग की ताजा रिपोर्ट (ईडीजीई 2011) के मुताबिक, भारत में उच्चशिक्षा खर्च 46, 200 करोड़ रुपये का आंकड़ा छू चुका है। 2020 तक इसमें सालाना 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी का अनुमान है। 10 साल बाद यह खर्च 2,32,500 करोड़ रु के आसपास होगा। देश में फिलहाल 27,478 उच्चशिक्षा संस्थान हैं (एक दशक पहले 11,146 थे) जो दुनिया में सर्वाधिक है। यह संख्या चीन से 7 गुना और अमेरिका से 4 गुना अधिक है । 2009-10 के सत्र में देसी संस्थानों में 1.6 करोड़ युवा पढ़ाई कर रहे थे। ग्रॉस एनरोलमेंट के लिहाज से यह 12 प्रतिशत है जो ग्लोबल एवरेज से काफी कम है। देश में उच्चशिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है, राज्य के 34 जिलों में से 29 ग्रॉस एनरोलमेंट(12%) से भी नीचे है। केंद्र ने 2020 तक 30 प्रतिशत एनरोलमेंट का लक्ष्य रखा है। 
रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार उच्चशिक्षा पर जीडीपी का महज 0.6 प्रतिशत खर्च करती है, जबकि फिनलैंड और स्वीडन क्रमश: 1.6 और 1.4 प्रतिशत खर्च कर रहे हैं। इस मामले में हम अमेरिका, रूस और ब्राजील से भी पीछे हैं। देश में प्राइवेट कॉलेजों की तादाद तेजी से बढ़ी है और उच्च शिक्षा खर्च में प्राइवेट संस्थानों का हिस्सा दो तिहाई पहुंच गया है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल 26,470 उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में चीन में महज 4,000 और अमेरिका में 6,707 संस्थान ही हैं। इसी तरह भारत में केंद्रीय विश्वविद्यालय 42, डीम्ड विश्वविद्यालय 230, राष्ट्रीय महत्व के संस्थान 53,निजी विश्वविद्यालय 443 और स्वायत्त संस्थान 25,957, कॉलेज -26 हजार हैं। काँग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गाँधीजी की पहल पर सप्रग सरकार ने उच्च शिक्षा के विस्तार पर बहुत जोर दिया गया था । इस दौरान 30 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय, 8 नए आईआईटी, 7 नए आईआईएम, 37 अन्य तकनीकी संस्थान और जिला स्तर पर 373 नए कॉलेज स्थापित   (राजस्थान में अभी तक एक माडल कॉलेज स्थापित नहीं ) करने का प्रावधान किया गया था, जिसके लिए 80,000 करोड़ रुपये की राशि भी आबंटित की गई। इनमें से ज्यादातर संस्थान औपचारिक रूप से शुरू कर दिए गए हैं, लेकिन अब भी उनमें पर्याप्त भवन, शिक्षक और विद्यार्थियों का अभाव है। नए संस्थानों के लिए आबंटित 80,000 करोड़ रुपये में से मात्र 30,000 करोड़ रुपये का अभी तक उपयोग हो पाया है।
विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं को लें तो वहां प्रश्नपत्रों के निर्माण से लेकर उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच तक का काम एक ऐसी यांत्रिक प्रक्रिया में कसा-बंधा है कि जिसे ढर्रा कह देने का मन करता है। यह यांत्रिकता विद्यार्थी के उचित एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन अथवा प्रोत्साहन के प्रति कितनी सजग और संवेदनशील है? यह प्रश्न विविध स्तरों पर व्यवस्था की पोल खोलता है। और उत्तर की खोज नये प्रश्न उत्पन्न करती है। वर्ष में 365 दिन होते हैं, विश्वविद्यालयों में 180 दिन पढ़ाई की मांग आये दिन होती है। पढ़ाई के दिन सैकड़े के आंकड़े को मुश्किल से छू पाते हैं। मगर ये पढ़ाई के दिन भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाते हैं। छात्र कक्षाओं में नहीं जाते हैं और शिक्षक कक्षाओं में नहीं आते हैं- जैसी शिकायतें अब सामान्य  होती जा रही हैं। इसलिए, महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे चार या पांच सप्ताह जिनमें परीक्षाओं की तिथियां होती हैं और धीरे-धीरे वे पांच या सात दिन महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनमें परीक्षाएं होती हैं। फिर महत्वपूर्ण हो जाते हैं सिर्फ वे पांच प्रश्न जिनके हल करने से अधिकतम अंक मिल जाते हैं। इन प्रश्नों को हल करने के सारे रास्ते बाजार ने आसान कर दिए हैं- चैम्पियन, गाइड, गेस पेपर्स, सिलेक्टिव क्वेश्चन्स इत्यादि। और अंतत: ये सभी चक्र महत्वहीन हो जाते हैं और महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे पांच या सात मिनट जिसमें परीक्षक अपने मूड, मन और कार्याधिक्य आदि का दबाव, प्रभाव लेकर मूल्यांकन करता है। निश्चित ही इस मूल्यांकन प्रक्रिया की वैज्ञानिकता संदेह के घेरे में है।
सच यह है कि विद्यार्थी परीक्षार्थी बनता जा रहा है। कहते हैं शिक्षा व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देती है, उसे टाइप बना देती है। इस बात को सही मानते हुए यदि कारण खोजे जायें तो स्पष्ट होता है कि शिक्षा में परीक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है जिसका उद्देश्य प्रतिभा-प्रोत्साहन और गुणावलोकन है, किन्तु व्यवहारत: यह विद्यार्थी के वैशिष्टय को नकार कर उसे टाइप मान लेने का खुल्लमखुल्ला उदाहरण है। बड़े-बड़े शहरों में तो 80-90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे भी अपमानित होते हैं, क्योंकि अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलने के लिए इतने अंक भी पर्याप्त नहीं ठहरते हैं। नव-जीवन के साथ यह व्यवहार अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और परीक्षा की पूरकता को नये सिरे से, नये विकल्पों एवं आयामों के परिप्रेक्ष्य में सोचने-समझने के प्रयास तेज किये जाएं। वास्तव में पूरी शिक्षा-प्रणाली परीक्षा-केन्द्रित हो गई है और परीक्षावमन क्रियाजैसी रटने पर आधारित परिपाटी बनती जा रही है। ऐसे में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में इस प्रणाली से कुछ भिन्न और उदार, शायद थोड़े व्यावहारिक प्रयोग भी मौजूद हैं, जो सुधार का आह्वान करते हैं। कोठारी आयोग (1964-66) और माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-92) में कहा गया था कि मूल्यांकन संस्थागत होना चाहिए तथा उन्हीं के द्वारा होना चाहिए जो शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इसमें परीक्षाओं पर निर्भरता कम करने की बात भी कही गयी थी। अंको की जगह ग्रेडिंग प्रणाली लाने के सुझाव भी समय-समय पर आये हैं। जानकारों का कहना है कि ग्रेडिंग प्रणाली से टयूशन जैसी व्यवस्था कमजोर पड़ेगी और परीक्षा में सफलता की गारण्टी का धन्धा करने वाले बाजार की विकृत भूमिका भी समाप्त होगी।
शिक्षक-मूल्यांकन का सवाल भी इन दिनों बड़ी शिद्दत से उभरा है। शिक्षा को सीखने पर आधारित बनाने और सिखाने पर जोर कम करने की बात भी एक आशापूर्ण आलोक है। प्रख्यात चिंतक एवं साहित्यकार रोमां रोला ने कहा था किसत्य उनके लिए है, जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।शिक्षा-जगत को इस शक्ति का सृजन करना होगा तथा शिक्षा और परीक्षा के संदर्भ से शुरू कर शिक्षा के व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार होना होगा। परीक्षा-प्रणाली में बदलाव या उसके विकल्प तलाशने के मुद्दे का समाज-शास्त्रीय पहलू भी है। किसी भी समाज में किसी भी वर्ग के लिए असहजता आरोपित करने वाले आयोजन उसे दुर्बल एवं असमर्थ बनाते हैं। स्वत: ही इस प्रकार के आरोपण झेलने वाला समाज या उसका विशेष-वर्ग जाने-अनजाने कुंठा या कमजोरी का शिकार हो जाता है। उसका सर्वांगीण नैसर्गिक विकास बाधित होता है। परीक्षाओं काआपातकालसामाजिक रूप से हमारे आत्मविश्वास, आत्मबल को आशंकाग्रस्त एवं भययुक्त वातावरण की ओर ले जाता है। छात्र और अभिभावक दोनों इस यंत्रणा को झेलते हुए शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का  अनुभव करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए अस्वस्थता का वार्षिक आयोजन कोई अच्छा लक्षण नहीं है। परीक्षाओं में नकल माफियाओं के हाईटेक तरीके से नकल कराकर फर्जी अभ्यर्थियों को रोकने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा।
भारत सरकार की सांविधिक निकाय विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) संसद के अधिनियम के द्वारा भारत में विश्‍वविद्यालय/उच्‍च शिक्षा के समन्‍वयन निर्धा‍रण और स्‍तर के रख-रखाव करने के लिए  दिये गये  आदेश के बावजूद राज्य सरकार द्वारा उच्च शिक्षा परिषद की स्थापना अब तक भी नहीं की गयी है ।  उच्च शिक्षा परिषद की स्थापना के विभिन्‍न उद्देश्‍यों में  विश्‍वविद्यालयी शिक्षा का संवर्धन और समन्‍वयन करना,विश्‍वविद्यालयों में शिक्षण, परीक्षा और अनुसंधान का मानक निर्धारित करना,शिक्षा के न्‍यूनतम स्‍तर संबंधी विनियम बनाना,महाविद्यालयीन और विश्‍वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में विकास की निगरानी करना,संघ और राज्‍य सरकारों और उच्‍च शिक्षण संस्‍थाओं आदि के बीच महत्‍वपूर्ण कड़ी का कार्य करना शामिल हैं । मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री शशि थरूर छात्रों को परीक्षा हॉल में किताब देखकर परीक्षा  ( परीक्षा की ओपन बुक प्रणाली शुरू करने का प्रस्ताव) देने की अनुमति एवं शिक्षकों को भी बहुपद्धतियों का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित करने के बारे में सोच रहें  है। वे छात्रों पर दबाव ब़ढाने की बजाय, एक ऐसी परीक्षा जिसमें रट कर याद करने की जरूरत नहीं है और उन पर मौजूदा दबाव के स्तर को कम करने की वकालत करते नहीं थकते हैं । शहर के मुकाबले यदि हम गांव की बात करें तो वहां शिक्षा का स्तर और भी नीचे है। हाईस्कूलों में पढ़ाई नाममात्र को होती है। योग्य शिक्षकों का भी भारी अकाल है। जब तक शिक्षा विभाग में व्याप्त खामियों को दूर करने के लिए कठोर कदम उठाना और राज्यों में शिक्षा के स्तर में सुधार उनकी प्राथमिकताओं में शुमार नहीं है ।
भारत में उच्च शिक्षा की व्यवस्था काफी पुरानी हो चुकी है। आज की स्थितियों से उसका कोई तालमेल नहीं रह गया है। अब उसमें ऐसे बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि इस शिक्षा का सही उपयोग हम अपने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से कर सकें। हमारे सभी उद्योग धंधों के लिए मानव पूंजी की जरूरत है। इस पूंजी का निर्माण शिक्षा के माध्यम से ही हो सकता है। लेकिन आज यहां सिर्फ पागल बनाने वाली ऐसी डिग्रियों की भीड़ है, जो उपयोगिता की दृष्टि से बहुत काम की नहीं साबित हो रही हैं । दिल्ली विश्वविद्यालय की तर्ज पर शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को उद्योग जगत के साथ बैठकर उनकी जरूरतो के मुताबिक बनाने की दरकार है। भारत में शिक्षा, उच्च शिक्षा और अनुसंधान के रास्ते में एक बड़ी बाधा है धन की कमी । यदि कोई केंद्रीय वित्त मंत्री उच्च शिक्षा के लिए बजट का 24 प्रतिशत हिस्सा इस मद में आवंटित कर दे, तो यहां का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा । यदि ऐसा हो, तो शायद भारतीय छात्रों को विदेशी संस्थानों में नहीं भागना पड़े । शिक्षा में अनुसंधान का पाठ्यक्रम काफी पुराना है और अब वह अनुपयोगी हो चुका है । हम नए अनुसंधानों को अपने पाठ्यक्रमों में तुरंत शामिल करने का प्रयास नहीं करते । यहाँ तक कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में किये गये शोधों की सूची तक प्रकाशित नहीं की जाती है । किसी भी बदलाव को लंबी औपचारिकताओं से गुजरना पड़ता है। शिक्षक अपने आप को नवीनतम जानकारियों से लैस नहीं करते इससे जो छात्र डिग्री लेकर बाहर निकलते हैं, उनकी जानकारी का कोई उपयोग हमारे उद्योग धंधों, व्यापार और सामाजिक विकास के क्षेत्र में नहीं हो पाता। पुराने पाठ्यक्रमों को पढ़ने से वर्तमान शिक्षा का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। 
हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कोई भी छात्र अपनी रचनात्मकता को मारता है और भाग्य को साथी मानकर परिस्थितियों को सहन करना सीखता है । इससे ऊर्जा व समय-दोनों का अपव्यय होता है । हमारा वर्तमान उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम एक जैसा कार्य करने के लिए तो ठीक है,क्योंकि उसमें बहुत समय से कोई बदलाव नहीं आया है । जैसे ऑफिसों में होने वाला कामकाज। लेकिन उद्योग क्षेत्र में काम करने के लिए ऐसी पढ़ाई को लगातार अपग्रेड करने, उसे अनुसंधानपरक बनाने और उसे प्रैक्टिल ट्रेनिंग पर आधारित बनाने की आवश्यकता है। यहां सिफारिश के आधार पर नियुक्तियां होती हैं । घटिया किताबों को पाठ्यक्रमों में लगाने की सिफारिश की जाती है । उपस्थिति और काम के बारे में सख्त नियम नहीं लागू किए जाते, न ही उनकी मॉनिटरिंग की जाती है । राज्य में दिल्ली विश्वविद्यालय की तर्ज पर आन्तरिक मूल्यांकन की प्रक्रिया लागू होनी ही चाहिए । यहां मौलिक रिसर्च बहुत कम होता है। सेमिनार, प्रशिक्षण कार्यशालाओं और संबंधित संकाय द्वारा विकास कार्यक्रमों का अनुपात काफी कम रहता है। मानवीय कोणों से अध्ययन करने में भी तेजी से गिरावट आ रही है। और हमारे विश्वविद्यालय आज राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं। वहां के चुनाव पार्टी लाइन पर लड़े जा रहे हैं। कुलपतियों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है । शैक्षिक सत्रों में हड़तालें की जाती हैं । इस स्थिति को बदलने के लिए विश्वविद्यालयों में मूल्यांकन प्रक्रिया में आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है । याद रखें कि एक प्रबुद्ध शिक्षक और कुशल छात्र ही हमारी मानव पूंजी का विकास करता है, अन्यथा वह बोझ बन कर रह जाता है। कॉलेज के पाठ्यक्रमों और शिक्षकों की गुणवत्ता के मूल्यांकन की तत्काल जरूरत है । 
सप्रग सरकार की योजना राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क (एनकेएन) की स्थापना का लक्ष्य सशक्त और सुदृढ़ आंतरिक भारतीय नेटवर्क स्थापित करना हैजो सुरक्षित और विश्वसनीय कनेक्टीविटी में सक्षम होगा जिसमें हाई-स्पीड बैकबोन कनेक्टीविटी की स्थापना करनाज्ञान और सूचना के आदान-प्रदान में सक्षम समान व्यवस्था एवं सहयोगपूर्ण अनुसंधानविकास और नवरचना संभव बनाना तथा अभियांत्रिकीविज्ञानचिकित्सा आदि जैसे विशिष्‍ट क्षेत्रों में उच्च दूरस्थ शिक्षा में सहयोग करना और ई-गवर्नेंस के लिए अल्ट्रा हाई स्पीड बैकबोन सुगम बनाना है । इसमें भागीदारी दर्ज करने हेतु उचित समय पर कदम उठाने के लिए राज्य सरकार को तत्पर रहना होगा अन्यथा माडल कालेज खोलने की परियोजना की भाँति राज्य उसमें भी पिछड़ जायेगा । वांछनीय सामाजिक बुराई बन चुकी नौकरशाही और सरकारी हुक्मरानों की कूपमन्डूकता की भेंट चढी इस योजना में विज्ञान, प्रौद्योगिकीउच्च शिक्षास्वास्थ्य संबंधी देखभालकृषि और शासन से सम्बद्ध सभी हितधारकों को समान मंच पर लाने और  देशभर के वैज्ञानिकोंशोधकर्ताओं और छात्रों को महत्वपूर्ण एवं उभरते क्षेत्रों में मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर काम करने में सक्षम बनाना के सटीक प्रावधान किये गये थे जिसमें राज्य के महाविद्यालयों को एकमुस्त तीन से पाँच सौ करोड़ रुपयों की धनराशि मिल सकती थी।
अत: समाज के लिए समर्पित शिक्षा तंत्र को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी सरकार को ही उठानी होगी । आज आवश्यकता एक ऐसे केन्द्रीय संस्थान की है जो सम्मिलित प्रयास से चल रही शिक्षा व्यवस्था को उच्चस्तरीय प्रकाशन सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही आवश्यक विपणन एवं तकनीकी सहयोग भी दे । उनकी नीतियों में तालमेल बिठाए और उनके लिए वह सब कुछ करे जिससे वे सार्थक सामाजिक बदलाव के सशक्त माध्यम बन सकें। उनमें इतनी ताकत आ जाए कि वे धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र में भी मजबूती के साथ स्वयं को स्थापित कर सकें। अधिकतर लोगों के लिए ये बातें कपोलकल्पना हो सकती हैं । लेकिन, यदि सही लोग सही दिशा में काम करें तो यह सब संभव है और जब ऐसा होगा तब शिक्षा का अर्थ बदल जाएगा । शिक्षा लोकतंत्र के विकास छत बन जाएगी, जिसकी छाया में समाज प्रगति की नित नई ऊंचाइयां छूएगा ।

Saturday, 21 November 2015

शिक्षा का भगवाकरण और सांप्रदायिक-उन्माद मोदी की प्राथमिकता प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना



शिक्षा का भगवाकरण और सांप्रदायिक-उन्माद मोदी की प्राथमिकता
प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना 



 ‘भारतीय संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। उसके विपरीत संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है। शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए समस्त विश्व को एक इकाई समझकर ही शिक्षा का प्रबन्धन किया जाना चाहिये। मानव की जाति एक होनी चाहिये। मानव इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त देशों की नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हँसाने व गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ना सिर्फ एक उत्कृष्ट अध्यापक थे बल्कि भारतीय संस्कृति के महान ज्ञानी, दार्शनिक, वक्ता और  विज्ञानी हिन्दू विचारक भी थे। राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए। उनके जन्मदिन को आज भी पूरे भारत वर्ष में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन अपनी प्रतिभा का लोहा बनवा चुके थे। उनकी योग्यता को देखते हुए ही उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया था।  उन्हें आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श शिक्षक के रूप में याद किया जाता है। वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो हम यह साफ देख सकते हैं कि कुछ समय पहले जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार एक धर्म समझा जाता था आज अध्यापक, छात्रों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह केवल खानापूर्ति के लिए ही करते हैं। लेकिन भारत जैसे महान देश में एक शिक्षक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान का प्रसार केवल पैसा कमाने के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों को सही मार्ग पर चलाने और उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए किया।
स्वाधीनता के राष्ट्रीय आन्दोलन से ही कांग्रेस की विचारधारा आदर्शवादी एवं प्रयोजनवादी रही हैं क्योंकि उस विचारधारा के अनुयायियों का यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक मत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः गांधीजी का शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। उनका मूलमंत्र था - 'शोषण-विहीन समाज की स्थापना करना'। गांधीजी के द्वारा दिये गये आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक, नागरिकता का उद्देश्य साथ ही साथ सर्वोदय समाज की स्थापना जिसके अंतर्गत श्रम का महत्व होगा, धन का नहीं, स्नेह और सहयोग की भावनाएं होंगी, घृणा एवं पृथकता नहीं, शोषण के स्थान पर परहित एवं संचय की प्रवृत्ति के स्थान पर त्याग की प्रवृत्ति होगी। जबकि भाजपा और संघ द्वारा वर्तमान में शोषण, घृणा, स्वार्थ सिद्धि जैसे कुधारणा के कारण मारकाट, विनाश तथा मानवता का हनन हो रहा है। अतएव गांधीजी के द्वारा दिये गये शिक्षा के सिद्धांत, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षणविधि आज भी बालकों तथा बालिकाओं, विद्यालय तथा समाज के लिए उतने ही आवश्यक है जितने पहले उनकी महत्वपूर्ण कृति बुनियादी शिक्षा अथवा बेसिक शिक्षा बच्चों को, चाहे वे नगरों के हों या ग्रामों के, समस्त सर्वोत्तम एवं स्थाई बातों से संबंध रखती है। एवं बालकों को स्वावलम्बी बनाने में मददगार सिद्ध हुई है। उनकी शिक्षा केवल मानसिक विकास की ओर ही ध्यान नहीं देती बल्कि शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिये भी उयोगी हुई है।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।
गांधीजी, नेहरूजी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और दूसरे नेताओं ने आज़ादी का भारी मन से स्वागत किया क्योंकि देश का बंटवारा हो गया था । डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलित लोगों को बराबरी का अधिकार दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। यही कारण है कि आज भी जब दलितों के कल्याण की बात आती है तो सर्वप्रथम बाबा साहब का ही नाम लिया जाता है। वर्तमान परिदृश्य में राजनेताओं के लिए दलित और पिछड़ा वर्ग केवल वोट बैंक बढ़ाने का एक जरिया मात्र बन कर रह गए हैं। कोई भी राजनेता ना तो उनकी दशा सुधारने का प्रयत्न करता है और ना ही उन्हें मुख्यधारा में शामिल किए जाने के लिए कुछ खास प्रयास किए जाते हैं। आज गरीब लोगों के दर्द को समझने वाले लोग कम हैं लेकिन आजादी के समय बहुत से ऐसे नेता हुए जिन्होंने गरीबी को समझा भी और असहाय लोगों को समान अधिकार के साथ जीने का एक मौका भी दिलवाया।
राजीव गाँधी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि उन्होंने घोरतम आलोचनाओं के वाबजूद 1986 में आजादी के बाद राष्ट्रीय नीति के माध्यम से समग्र शिक्षा नीति देश भर में बिना किसी पूर्वाग्रह के लागू की जिसका एक मात्र उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करना था। उसमें शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया था। साथ ही उस शिक्षा नीति में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर तथा शिक्षा और जीवन में गहरा रिश्ता कायम करने पर भी ध्यान दिया गया था। यही कारण है कि देश-दुनिया में आज कंप्यूटर एवं सूचना-प्रौद्योगिकी में युवाओं का डंका बज रहा है इसके विपरीत आज भारत राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें परम्परागत मूल्यों के हृस का खतरा पैदा हो गया है और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र तथा व्यावसायिक नैतिकता के लक्ष्यों की प्राप्ति में लगातार बाधाएं आ रही हैं। समान सांस्कृतिक धरोहर, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरूषों के बीच समानता, पर्यावरणका संरक्षण, सामाजिक समता, सीमित परिवार का महत्त्व और वैज्ञानिक तरीके के अमल की जरूरत के वाबजूद शिक्षा के भगवाकरण की पुरजोर कोशिश की जा रही है । शिक्षा या भगवा शिक्षा के बजाये यदि इस बात पर बहस हो की  विश्वविद्यालयों को नए अनुसन्धान करने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये तो यह देश के लिए अधिक सार्थक है । 
'राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' और 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट' के मुताबिक आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है। रिपोर्ट के मुताबिक गरीब ग्रामीण भारत के संसाधनों का दोहन लगातार जारी है, दलित-आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों  और इसकी वजह से पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों में संघर्ष की स्तिथियां पैदा हो रही हैं। भाजपा और संघ दोनों भगवाकरण की आड़ में सांप्रदायिक-उन्माद फ़ैलाने की जुगत में है, इन दोनों के आनुषांगिक संगठनों ने उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्ता पर किये जा रहे हमलों ने आगमन घी डालने का काम किया है   जो एक मानसिक रोग है जिसका रोगी चाहे वह व्यक्ति हो या विचारधारा अपनी वास्तविकता और अंतरबोध से कट जाता है और ऐसी दुनिया में पहुंच जाता है जहां उसके लिए सब कुछ प्रसन्न करने वाला होता है,  जिसके लक्षण समाज की संरचना पर निर्भर करते हैं। भारत में इसके अधिकांश लक्षणों में धार्मिक अंतर्वस्तु मिलती है। सत्ता का चरित्र रहता है कि वह एक सीमा के आगे अपने विरोध को सहती नहीं है और जब भी मौका लगता है विरोधियों को दबाने से बाज नहीं आती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां सत्ता की जड़ें आज भी सामंती मूल्यों और मानसिकता में गहरी पैठी हैं विरोध लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बल्कि शत्रुता का पर्याय माना जाता है। इस पर भी, भाजपा नेतृत्ववाली इस सरकार की विगत सवा साल के शासन की प्रकृति को देखा जाए तो, उसे प्रतिशोध और दमन जैसे अलोकतांत्रिक शब्दों की सीमा में ही व्याख्यायित किया जा सकता है। ऐसा लगता है मानो लोकतांत्रिक तरीके से जीत कर आई सरकार भूल ही गई है कि उसके जीवनकाल का फैसला फिर से चार वर्ष बाद होगा। पर जो हो रहा है, और जिसके एक नहीं कई उदाहरण हमारे सामने हैं, वे कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं देते हैं।ऐसा लगता है भाजपा शासित राज्यों की नीति ही हो गई है कि स्वयंत्र विवेक वाले किसी भी व्यक्ति को न तो बोलने दिया जाए और न ही काम करने। सरकारी कर्मचारियों से तो संविधान नहीं बल्कि भाजपा की नीतियों और उसके नेताओं के प्रति समर्पित अंध समपर्ण की अपेक्षा की जा रही है।
वस्तुत: यूटर्न की सरकार असहमति का सम्मान करने के स्वांग और एक राजनीतिक छलावे के रूप में देखता है। जिस तरह की मंशा होगी, जैसी परिकल्पना या सपना होगा वैसा ही अंतत: आकार बनेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े  बत्रा दिल्ली से शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास चलाते हैं। इसी संस्थान ने मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ भी अभियान चलाया था और उनका जीना दूभर कर दिया था। वह शिक्षा संस्कृति को पूरी तरह से आरएसएस जैसी मानसिकता और समझ में ढालना चाहते हैं और भारतीय समाज को मध्यकालीन दौर में पहुंचाने में लगे हुए हैं। जैसा कि हमने शुरू में कहा था, बिंदुओं के पीछे जिस तरह की मंशा होगी, जैसी परिकल्पना या सपना होगा, वैसा ही अंतत: चित्र बनेगा। स्पष्ट है कि जो चित्र उभर रहा है वह डरावना है। इसके खतरों का अनुमान कोई बहुत कठिन भी नहीं है। सब कुछ अपने बर्बर रूप में सामने आ रहा है। यह समय चुप बैठने का नहीं है। मोदी सरकार के आने के बाद ही शिक्षा के भगवाकरण की कवायद शुरू कर दी गई है। दीनानाथ बत्रा की किताबों को गुजरात के स्कूलों पढाया जा ही रहा था और अब उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की तैयारी है। संघ के नेता मानव संसाधन मंत्री के साथ मुलाकात कर रहे हैं और भाजपा के नेता रोमिला थापर जैसे इतिहासकार की किताबों को जलाने की अपील।
शिक्षा और संस्कृति का भगवाकरण हमेशा ही फासिस्टों के एजेण्डा में सबसे ऊपर होता है। शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का फासिस्ट एजेण्डा जनता को गुलामी में जकड़े रखने की साज़िश का हिस्सा है, ऐसा लगता है सरकार की दिलचस्पी शालाओं में शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाए इस तरह के विवादित फैसलों को लागू करने में ज्यादा रहती है, अगर सरकार इसी तत्परता के साथ शिक्षा की स्थिति को लेकर गंभीर होती, तो देश में शिक्षा का हाल इतना बदहाल नहीं होता। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इतिहास बदलने की तैयारी है और सांप्रदायिक तनाव को चरम पर ले जाने के लिए शिक्षा का सहारा लिया जा रहा। प्रधानमंत्री ने इन सभी मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है।  देश में शिक्षण संस्थानों में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू किया जा रहा है। इसकी बानगी देखने को मिली जब मध्य प्रदेश में अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था। किंतु भारी विरोध के डर के चलते बड़ी आनन-फानन में यह निर्णय वापस लेना पड़ा। इसी तरह केंद्र सरकार ने सभी शासकीय शिक्षण संस्थानों  में योग के नाम पर सूर्य नमस्कारअनिवार्य कर दिया था, बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया। इसी तरह स्कूल शिक्षकों के लिए ऋषि संबोधन चुना गया । इतना ही नहीं स्कूलों में मिड डे मील के पहले सभी बच्चे भोजन मंत्र पढ़ेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था। विस्तार में न जाकर इतना कहा जा सकता है कि ये पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी हिंदू धार्मिक मान्यताओं से भरी हैं जो अंधविश्वास, स्त्री-पुरुष असमानता, नस्लवाद का प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में समर्थन करती हैं। कुल मिलाकर ये हर तरह के भेदभाव और असहिष्णुता को बढ़ावा देती हैं।
इसका तत्काल और हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए पर इससे भी बड़ी बात यह है कि उन प्रगतिशील ताकतों को जो वस्तुनिष्ठता, तार्किकता और वैज्ञानिकता में विश्वास रखती हैं उन्हें इस संगठनों से सीखना चाहिए कि किस तरह से उन बातों का विरोध किया जाए जिनसे हम सहमत नहीं हैं और कैसे उन बातों को जनता तक पहुंचाया जाए। ऐसा लगता है जैसे बुद्धिजीवियों ने तुलनात्मक रूप से उदार कांग्रेसी और उसके नेतृत्ववाली सरकारों की सत्ता से जुड़कर अपने स्तर की हर तरह की पहल और सक्रियता खो दी है। हम जिस दौर में प्रवेश कर चुके हैं उसके रहते ऐसा नहीं लगता कि अब वह समय लौट पाएगा जब कि प्रगतिशील चिंतक, इतिहासकार, समाजविज्ञानी और रचनाकार पहली जैसी सुरक्षा और सुविधाओं के साथ अपने काम और विचारों को आगे बढ़ा सकेंगे। इसलिए जरूरी है कि प्रगतिशील ताकतें जल्दी से जल्दी अपने मंच बनाएं और उनके माध्यम से अपने कामों को आगे बढ़ाएं। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमें अपनी बातों को जनता के सामने ले जाने के रास्ते भी खोजने होंगे, अन्यथा बहुत देर हो जायेगी।
शिक्षा का अधिकार देने को लेकर अभी कितना लंबा सफर तय करना है, लेकिन वर्तमान सरकार की दिलचस्पी देश में शिक्षा की स्थिति सुधारने की बजाय किसी खास विचारधारा का एजेंडा लागू करने में ज्यादा दिख रही है। देश के बच्चों और शिक्षा व्यवस्था के लिए यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण  है कि शालाओं को इस तरह की राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है। पाखंडी और कपोलकल्पित ऐसे ही अनेकानेक ज्ञान के मोतियों से बत्रा की किताबें भरी हुई हैं। इतना ही नहीं संघियों का सारा साहित्य ऐसे दावों से भरा हुआ है। इनके अनुयायी अब  सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एआर दवे जैसों के रूप में न्याय व्यवस्था में भी घुस आये जिनकी ख्वाहिशें देश के तानाशाह होने, पहली कक्षा से ही पाठ्यक्रम में गीता और महाभारत को लागू करवाने और गुरु-शिष्य जैसी परम्पराएँ की वकालत करने, प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं की तरफ वापस लौटाने की है । दरअसल दवे जैसे लोग उस बात को शब्द दे रहे हैं जो तमाम फासिस्ट मन ही मन करना चाहते हैं। भारतीय गुरुकुल परम्परा और ऋषि व्यवस्था के ढोल पीटने वाले खुद वल्लक धारण करके कन्दराओं में क्यों नहीं चले जाते ताकि विज्ञान में और भी प्रगति हो?
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के अपने अभियान के तहत नयी सरकार ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद जैसी सम्मानित संस्था का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया है जिसका इतिहासकार के तौर पर बस यही काम है कि महाभारत और रामायण को ऐतिहासिक घटनाएँकैसे सिद्ध किया जाये। यहाँ पर दो चीजें हैं, पहली है हमारी भारतीय संस्कृति की महानता  का सवाल। क्या वाकई हमारे यहाँ विज्ञान की तमाम खोजें हजारों साल पहले ही हो चुकी हैं? यह स्पष्ट कर दें कि दर्शन, नाट्य शास्त्र, गणित, भाषा विज्ञान, खगोल शास्त्र से लेकर विज्ञान की तमाम शाखाओं में हमारे यहाँ उल्लेखनीय काम हुआ था और भरत, पाणिनि, कणाद, कपिल, आर्यभट्ट, सुश्रुत, चरक आदि पर कोई भी गर्व कर सकता है और करना भी चाहिए किन्तु पूरी दुनिया को मूर्ख साबित करना और ज्ञान-विज्ञान का ठेका खुद ही उठा लेना आदि-आदि संघियों के झूठ का तूमार बाँध देना जैसे दिमागी कुपोषण को ही दिखाता है। हालाँकि प्राचीन भारत की महानता का दावा करने वाले ये लोग कभी यह नहीं बताते कि एकलव्य के अंगूठे, दलितों का मंदिरों में प्रवेश, संघियों द्वारा आदिवासियों के मानसिक और शारीरिक शोषण करने पर  ज़ाहिर है, इन जैसे सवालों के जवाब संघ परिवार वालों के पास नहीं हैं। दरअसल, वे जवाब दे ही नहीं सकते। उन्हें अपना एजेण्डा को लागू करने के लिए उन्हें लोगों की सोच को पिछड़ा बनाये रखने की दरकार होती है।
मिथकों को इतिहास बनाकर पेश करना उनका ख़ास एजेण्डा होता है ताकि लोग आगे की ओर देखने के बजाय पीछे ही देखते रहें। ताकि आम जनता बेहतर भविष्य के लिए लड़ने के बजाय गुज़रे हुए अतीत की यादों में ही खोयी रहे। यही इनके इतिहास लेखन के पुनर्लेखन का पहला सिद्धांत है। किन्तु प्राचीन इतिहास को अतिश्योक्ति अलंकार की प्रयोगस्थली बना देना और इतिहास के अँधेरे खण्डहरों में कूपमण्डूकता की टार्च लेकर घूमना कहाँ की समझदारी है? किसी लेखक का कर्तव्य यही होना चाहिये कि वह अच्छाइयों और बुराइयों दोनों का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करे और उन्हें समाज के सामने रखे। किन्तु तमाम तरह के फ़ासीवादी और कट्टरता के समर्थक झूठ और तथ्यों को मनमाने ढंग से प्रस्तुत करके अपना उल्लू सीधा करने की फ़ि‍राक में रहते हैं। उनको ऐतिहासिक सच्चाइयों और इतिहास के प्रति एक सही नज़रिये से कोई मतलब नहीं होता। बल्कि मिथकों को पूजनीय बनाना और धार्मिक प्रतीकों का अपनी दक्षिणपंथी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना इनका मुख्य शगल होता है। प्राचीन परम्परा से प्रेरणा लेना ठीक है लेकिन खच्चर की तरह आस-पास की चीजों को न देखना लकीर की फ़कीरी को ही दर्शाता है।
गिरती इकॉनोमी से लोगों का ध्यान बाँटने के लिए मेक इन इंडिया का झाँसा दिया जा रहा और छुपे से पिचले दरवाजों से शिक्षा के भगवाकरण का एजेंडा लागु किया जा रहा है। संघ की तुलना जर्मन के नाजीवाद से की जा सकती जहां किसी को अपनी बात रखने और विरोध करने का आजादी नहीं थी। वास्तव में भगवाकरण संघियों और उनके अनुयायियों के ज्ञान का अज्ञानीकरण है जिसे वे मंदबुद्धियों में बंटाना चाहते हैं । उच्च शिक्षा का क्या होने वाला है? नीति संबंधी बात करने का यह वक़्त नहीं लेकिन सबसे ज़्यादा और सबसे तेज़ प्रशासन वाली इस सरकार के साथ महीनों गुजरने के बाद भी 2009 में बने केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति के पद खाली पड़े हैं और जो भरे गये हैं उनमें अधिकाँश नौ ढोबे के पावहैं । तथाकथित 'सही विचारों' वाले लोगों की तलाश जारी है। अनेक शिक्षा संस्थानों के प्रमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया और प्रचारकों के दरबार में जाकर वहाँ से उपदेश ग्रहण कर रहे हैं। उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बहुत कुछ वे ख़ुद ही कर डालेंगे, क्या उन्हें किसी सरकारी फ़रमान की ज़रूरत पड़ेगी? यही कह सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी की अवधारणा के रूप में बेचारा ज्ञान ठंड में खड़ा ठिठुर रहा है और उसे पनाह की ज़रूरत है, हमें पहल करनी ही होगी ।
विडंबना कहा जाए या त्रासदी कि वर्तमान सरकार उन बौद्धिक संस्थाओं के लिए, जिन्हें लेकर उसका राजनीतिक और बौद्धिक संगठन जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है, ऐसे व्यक्तियों को भी नहीं ढूंढ पा रहा है जो इन संस्थाओं का पद संभालने के लिए उपयुक्त हों। नहीं जो कुलपति बनाये हैं उनमें एक भी दलित-आदिवासी नहीं है। इतना ही मोदी के नेतृत्व में उनकी सरकार भारत सरकार की आरक्षण नीति और सामाजिक न्याय  का खुल्लमखुल्ला उलंघन हो रहा है और सरकार हाथ-पर-हाथ रखकर बैठी हैं। संघ के इशारे पर सरकार में बैठे नुमाइन्दों ने उनकी सोच के अनुरूप षड्यंत्र रचकर 2009  में स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने की प्रक्रिया को बदल दिया और सभी विश्वविद्यालयों विश्वविद्यालय स्तर पर कुलपतियों की भारती निकलवायी क्योंकि यदि केंद्र के स्तर पर उक्त पदों का विज्ञापन दिया जाता तो कुल 14 कुलपतियों में से क्रमश: 3, 2 और 1 पद ओ बी सी , एस सी और एस टी के लिए आरक्षित होते, विगत यूपीए सरकार ने ऐसा ही किया था जिसमें आरक्षण की भावना का पूर्णत: अनुपालन हुआ था । इसरो के मूर्धन्य वैज्ञानिक काकोडकर द्वारा पद-त्याग करना मोदी सरकार और उनके कूपमंडूक अनुयायियों के मुँह पर करारा तमाचा है । आईआईटीज,आईआईएम, एमएनआईटीज के निदेशक और वरिष्ठ प्रोफेसरों द्वारा अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपने पदों से स्तीफा दिया जा रहा है क्योंकि स्मृति ईरानी द्वारा उन्हें मंत्रालय में बुलवाकर न केवल जलील किया गया और निरंतर किया जा रहा है । इतना ही नहीं, एक दर्जन से अधिक आईएएस और आईपीएस अपने पदों से इस्तीफ़े दे चुके हैं और कई अन्य भाजपा और संघियों की करतूतों के करना स्वेच्छिक सेवा निवृत्ति के लिए तैयार हो रहे हैं ।
गजेंद्र सिंह चौहान प्रसंग ने भाजपा सरकार और संघ परिवार की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। ये सीमाएं दो तरह की हैं। पहली यह कि उनके साथ जो लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी हैं वे किस औसत दर्जे के हैं, और दूसरा भाजपा नेतृत्ववाली सरकार और संघ परिवार अपनी सोच में किस हद तक संकीर्ण हैं। या इस हद तक भयाक्रांत हैं कि अपने दायरे से बाहर के किसी भी व्यक्ति पर विश्वास करने को ही तैयार नहीं हैं। आखिर वे प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों से इतना डरे हुए क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि देश की फिल्म कला की शिक्षा देने वाली सर्वोच्च संस्था, जिसका भारतीय फिल्म उद्योग और रचनात्मकता को महत्त्वपूर्ण योगदान है और जिसके शीर्ष पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लोग रहे हों, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया एफटीआईआईके लिए उन्हें एक ऐसा आदमी ही मिला है ।
हर व्यक्ति या संस्था को अपनी कमियों और गलतियों से सीखना होता है। यह एक मानवीय और लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। हमारी सरकार में इस्तीफा नहीं दिया जाता!पर सरकार भूल रही है कि गलतियों और वे भी ऐसी जो जन-जन की निगाह में हों, पर अड़ना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कम नहीं साबित होगा। उसका खामियाजा सरकार संसद के ठप होने के रूप में भुगत चुकी है। आरोपों को प्रत्यारोपों से काटने की रणनीति सीधे-सीधे सिद्ध करती है कि आप अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, भ्रष्टाचार को तो उचित ठहरा ही रहे हैं बल्कि जो भी कदम आप उठा रहे हैं उसके पीछे देशहित नहीं बल्कि बदले की भावना ही सर्वोपरी है।  सरकारी हठधर्मिता के दो पक्ष हो सकते हैं; पहला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव कि चाहे कुछ हो उनके आदमियों को सत्ता के साथ जोड़ा जाना चाहिए। हठधर्मिता का दूसरा पक्ष नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों की यह समझ है कि किसी भी निर्णय पर पुनर्विचार करना हार मानना है। यह अपने आप में तानाशाही न भी कहें तो भी अत्यंत पिछड़ी मानसिकता का द्योतक है। इसी तरह किसी व्यक्ति या संस्था में इस तरह का विश्वास होना कि उससे कोई गलती हो ही नहीं सकती या किसी दूसरे को उसकी गलती पर अंगुली उठाने का कोई अधिकार नहीं है, अलोकतांत्रिक मानसिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है? दूसरे शब्दों में यह स्वयं को अतिमानव मानने जैसा है, ये स्वयंभू , अहम ब्रह्मास्मि है ।
भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक कलाकार, फिल्मकार, नाट्यकर्मी, साहित्यकार, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और चिंतक पैदा किए हैं और कर रहा है। सवाल है, आखिर भारतीय दक्षिण पंथ के पास ऐसे बुद्धिजीवी क्यों नहीं हैं जिनकी सार्वजनिक मान्यता निर्विवाद हो? या उनकी पूरी सोच को सामयिक वैचारिक आधार देने वाले ऐसे लोग क्यों नहीं हैं जो कला, साहित्य, फिल्म, नाटक, शिक्षा, मानविकी, अर्थशास्त्र, विज्ञान और चिंतन आदि के क्षेत्र में सक्रिय हों? जो हैं वे भी दोयम या तियम दर्जे हैं ?  इस संकट का दूसरा पहलू यह है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, जिसके बदलने की कोई संभावना नहीं लग रही है, तो भाजपा सरकार अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले भारतीय लोकतंत्र की उन सभी संस्थाओं का विनाश कर जाएगी जो अपनी सारी सीमाओं के बावजूद समकालीन चुनौतियों को समझने और व्याख्यायित करने की कोशिश करती रही हैं। विगत संसद सत्र में लोकसभा के हंगामे के बीच राज्य मंत्री श्रीप्रसाद यासो नायक ने बतलाया था कि सीएसआइआर (विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद) आरएसएस की नागपुर स्थित संस्था गौ विज्ञान अनुसंधान केंद्र के साथ मिल कर गोमूत्र के गुणों पर अनुसंधान कर रहा है। इस तरह के विवेकहीन अवैज्ञानिक अनुसंधानों की शुरुआत वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान हुई थी। भाजपा शासित राज्यों में जो हो रहा है वह भी कम निराशाजनक नहीं है। भोपाल का भारत भवन आज छुट्ट भईयों का अड्डा हो गया है। जयपुर का पत्रकारिता विश्वविद्यालय इसलिए बंद किया जा रहा है क्योंकि वहां उदार मानसिकता के लोग हैं। इसी तरह का व्यवहार इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यट के साथ भी हुआ है। इसके अलावा टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज, आईआईएम जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान और नेशनल म्यूजियम इसी तरह के संकटों का समाना कर रहे हैं।
इसका कारण संभवत: यह है कि हर संगठन की सीमा उसकी अपनी आधारभूत संरचना होती है। यानी जो तत्व उसकी शक्ति होते हैं वही उसकी कमजोरी भी बनते हैं। दूसरे शब्दों में भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा अगर उसे सत्ता में पहुंचाने में सफल हुई है तो उसकी सीमा भी वही है। यानी उसके पतन का कारण भी बनेगी। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी समाज में कौन-सा चिंतन फले-फूलेगा इसका फैसला भी अंतत: उस समाज की भौतिक स्थितियां ही करती हैं। यह सही है कि आज एक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल देश की सत्ता संभाले है पर अगर इसे सही वैचारिक आधार नहीं मिलेगा तो यह दल भविष्य में ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा। क्योंकि अंतत: किसी भी गतिशील समाज को ऐसा चिंतन चाहिए जो उसे शेष दुनिया के समानांतर आगे ले जा सके। भारतीय समाज जिस तरह की विविधता सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक से निर्मित है उसमें संकीर्णता नहीं चल सकती।
भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों की सीमा यह है कि वे मूलत: सामाजिक यथास्थिति और धार्मिक बहुमत के पक्षपाती हैं। ये ऐसे तत्व हैं जो समाज में स्थिरता नहीं पैदा कर सकते। दूसरा, समकालीन उच्च प्रौद्योगिकी की हर पल सिमटती दुनिया में, जहां धार्मिक, नस्ली और अंतर- सांस्कृतिक मिश्रण की गति लगातार बढ़ती जा रही हो, किसी भी तरह की सामाजिक संकीर्णता आखिर कैसे चल सकती है। इसलिए चरम प्रश्न यह है कि सामान्य बौद्धिकता तक की जो दरिद्रता हिंदूवादी संगठनों में नजर आ रही है वह क्यों है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ज्ञान भविष्य की ओर देखता है और हमें प्रगति की ओर ले जाता है। अनुसंधान मूलत: हमारी पूर्व मान्यताओं को बदलते हैं और यथार्थ को विश्लेषित करते हैं। इसलिए वे लगातार स्थापित मूल्यों और समझ को चुनौती दे रहे होते हैं। जबकि धर्म आधारित ज्ञान यथास्थिति का पोषक होता है। भाजपा और संघ दो हजार साल पुराने मनुस्मृति के सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं , इनके लिए चरक संहिता चिकित्साशास्त्र का अंतिम ग्रंथ है, तो इससे ज्यादा हास्यास्पद बात क्या हो सकती है!
वह भारतीय समाज को एक धर्म विशेष पर आधारित करना चाहता है और बहुत हुआ तो रामराज्य की स्थापना। यह रामराज्य क्या है स्वयं यह स्पष्ट नहीं है। इसका कारण यह है कि किसी भी हिंदूवादी व्यवस्था में जातीय समीकरणों का किस तरह से निपटारा होगा इसका जवाब कम से कम इन संगठनों के पास तो नहीं ही है। उत्तर तो खैर इस बात का भी नहीं है कि आखिर उनकी योजना में स्त्रियों की क्या स्थिति होगी? जहां तक अर्थव्यवस्था या आर्थिक नियोजन का सवाल है उसका भी कोई मौलिक ढांचा दक्षिणपंथियों के पास नहीं है। बल्कि इसको लेकर तो वे विभाजित हैं। स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों की मांगें और सरकार की कथनी-करनी एक दूसरे के विपरीत हैं। सरकार कुल मिलाकर प्रचलित पूंजीवादी आर्थिक चिंतन के माध्यम से ही देश का उद्धार करने की जुगत में है। यह किसी से छिपा नहीं है पूंजीवादी नीतियां हमारे समाज के टकरावों और संघर्षों को और तेज कर रही हैं। वैसे भी मोदी की भाजपा सरकार विगत कांग्रेस नेतृत्ववाली यूपीए सरकार नीतियों को नाम बदल कर तेजी से लागू करने को अपना मिशन माने बैठी है।
भारतीय संविधान की आत्मा के विपरीत मोदी सरकार के मंत्रियों द्वारा आरएसएस के समक्ष घुटने टेकना, रिपोर्ट-कार्ड प्रस्तुत करना लोकतंत्र का गला घोटना है । केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी जुलाई में नागपुर में संघ परिवार द्वारा आयोजित विज्ञान भारती आयोजन में उपस्थित थीं। जहां उन्होंने मोहन भागवत सहित आरएसएस के कई नेताओं की  पद्चम्पी की। नौसिखिया ईरानी को महत्त्वपूर्ण मंत्रालय का जिम्मा देने के पीछे लोगों का मानना है कि मोदी सरकार की यह मंशा है कि मंत्रालय को परोक्ष तौर पर मन-मर्जी यानी आरएसएस के एजेंडे के अनुरूपचलाया जा सके। आरएसएस के एजेंडे पर आधारित आज जो पुस्तकें छात्रों को पढ़ाई जा रही हैं वो पूरी तरह से कूड़ा हैं। वे विशेषकर एनसीईआरटी की किताबों के पीछे पड़े  हैं जो अपनी वस्तुनिष्ठता, वैज्ञानिकता, विश्लेषण और तार्किकता के लिए बहुचर्चित हैं। इसलिए उनका मानना है कि ये किताबें छात्रों का चरित्र निर्माण नहीं करतीं बल्कि उन्हें पथभ्रष्ट करती हैं। उनके लिए शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में अनुसंधान, विश्लेषण, वस्तुनिष्ठता और विवेक पैदा करना नहीं है बल्कि तथाकथित धार्मिक-पौराणिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को छात्रों द्वारा बिना कोई प्रश्न उठाए स्वीकार करना है, यह सोच अपने आधारभूत अवधारणा में प्रगतिविरोधी ही नहीं बल्कि मानव विरोधी भी है। इसके लिए न्यास ने एक आयोग का गठन किया है। यह अपनी तरह का ऐसा आयोग है जो गैरसरकारी तौर पर एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा गठित किया गया है। इसके पीछे आरएसएस है जो सरकार पर इस संस्था के जरिए दबाव बनाना चाहता है जिससे शिक्षा के क्षेत्र में भगवाकरण जितना जल्दी हो सके उतना त्वरित किया जाए ।  
ज्ञान का क्रमिक विकास होता है। वह एक दिन में नहीं जन्मा है। हर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि के पीछे कई छोटे-छोटे आविष्कार छिपे होते हैं, मोदी द्वारा मंगलायन का श्रेय लेना एक बात है और उसके संपूर्ण अभियान को ताकत देना दूसरी । योरोप में ज्ञान-विज्ञान का विकास इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। जो बात पश्चिम से सीखने की है वह यह है कि धर्म को चुनौती दिए बगैर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता। पश्चिम ने जो ज्ञान अर्जित किया, जिस तरह से उसे प्रौद्योगिकी में बदला उसने उनके समाजों को ही नहीं बदला बल्कि दुनिया को बदल दिया है। पर हमारे दक्षिण पंथी खेमे की सीमा यह है कि वह पश्चगामी है। पर वह अपने इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से नहीं देखना चाहता। जिन स्थापनाओं और मान्यताओं को चुनौती दी जानी चाहिए, यह उन्हें महिमा मंडित करता है। ज्ञान समाजों को किस तरह शक्तिशाली बनाता है, मात्र विशाल भौगोलिक आकार और जनसंख्या आपको ताकतवर नहीं बनाती। वही ज्ञान इतिहास में लुप्त होते हैं जो अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। वे समाज जो ठहरे हुए ज्ञान में भविष्य तलाशते हैं अपनी प्रासंगिकता को नहीं बचा पाते हैं। स्पष्टत: भारतीय दक्षिण पंथ जिसका नेतृत्व आज कुल मिलाकर भाजपा के हाथ में है पश्चिमी दक्षिणपंथ से कई मायनों में अलग है। वहां दक्षिणपंथी विचारधारा मूलत: दो बातों पर टिकी है पहली, आर्थिक चिंतन या नीतियों पर और दूसरा स्थापित सामाजिक परंपराओं और मूल्यों की पक्षधरता पर। पर धर्म से उसका कोई संबंध नहीं है। कई मामलों में पश्चिमी दक्षिणपंथ भारतीय दक्षिणपंथ तो छोड़िए भारतीय मध्यमार्गी दलों से भी ज्यादा प्रगतिशील दिखलाई देता है। भारतीय दक्षिणपंथ का आधार कुल मिलाकर धर्मांधता और सांप्रदायिक-उन्माद है, नतीजा यह है कि भाजपा के पास आधुनिक समाज को लेकर कोई दूर-दृष्टि नहीं है।