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Saturday, 21 November 2015

शिक्षा का भगवाकरण और सांप्रदायिक-उन्माद मोदी की प्राथमिकता प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना



शिक्षा का भगवाकरण और सांप्रदायिक-उन्माद मोदी की प्राथमिकता
प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना 



 ‘भारतीय संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। उसके विपरीत संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है। शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए समस्त विश्व को एक इकाई समझकर ही शिक्षा का प्रबन्धन किया जाना चाहिये। मानव की जाति एक होनी चाहिये। मानव इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त देशों की नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हँसाने व गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ना सिर्फ एक उत्कृष्ट अध्यापक थे बल्कि भारतीय संस्कृति के महान ज्ञानी, दार्शनिक, वक्ता और  विज्ञानी हिन्दू विचारक भी थे। राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए। उनके जन्मदिन को आज भी पूरे भारत वर्ष में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन अपनी प्रतिभा का लोहा बनवा चुके थे। उनकी योग्यता को देखते हुए ही उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया था।  उन्हें आज भी शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श शिक्षक के रूप में याद किया जाता है। वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो हम यह साफ देख सकते हैं कि कुछ समय पहले जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार एक धर्म समझा जाता था आज अध्यापक, छात्रों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह केवल खानापूर्ति के लिए ही करते हैं। लेकिन भारत जैसे महान देश में एक शिक्षक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान का प्रसार केवल पैसा कमाने के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों को सही मार्ग पर चलाने और उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए किया।
स्वाधीनता के राष्ट्रीय आन्दोलन से ही कांग्रेस की विचारधारा आदर्शवादी एवं प्रयोजनवादी रही हैं क्योंकि उस विचारधारा के अनुयायियों का यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक मत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः गांधीजी का शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। उनका मूलमंत्र था - 'शोषण-विहीन समाज की स्थापना करना'। गांधीजी के द्वारा दिये गये आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक, नागरिकता का उद्देश्य साथ ही साथ सर्वोदय समाज की स्थापना जिसके अंतर्गत श्रम का महत्व होगा, धन का नहीं, स्नेह और सहयोग की भावनाएं होंगी, घृणा एवं पृथकता नहीं, शोषण के स्थान पर परहित एवं संचय की प्रवृत्ति के स्थान पर त्याग की प्रवृत्ति होगी। जबकि भाजपा और संघ द्वारा वर्तमान में शोषण, घृणा, स्वार्थ सिद्धि जैसे कुधारणा के कारण मारकाट, विनाश तथा मानवता का हनन हो रहा है। अतएव गांधीजी के द्वारा दिये गये शिक्षा के सिद्धांत, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षणविधि आज भी बालकों तथा बालिकाओं, विद्यालय तथा समाज के लिए उतने ही आवश्यक है जितने पहले उनकी महत्वपूर्ण कृति बुनियादी शिक्षा अथवा बेसिक शिक्षा बच्चों को, चाहे वे नगरों के हों या ग्रामों के, समस्त सर्वोत्तम एवं स्थाई बातों से संबंध रखती है। एवं बालकों को स्वावलम्बी बनाने में मददगार सिद्ध हुई है। उनकी शिक्षा केवल मानसिक विकास की ओर ही ध्यान नहीं देती बल्कि शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिये भी उयोगी हुई है।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।
गांधीजी, नेहरूजी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और दूसरे नेताओं ने आज़ादी का भारी मन से स्वागत किया क्योंकि देश का बंटवारा हो गया था । डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलित लोगों को बराबरी का अधिकार दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। यही कारण है कि आज भी जब दलितों के कल्याण की बात आती है तो सर्वप्रथम बाबा साहब का ही नाम लिया जाता है। वर्तमान परिदृश्य में राजनेताओं के लिए दलित और पिछड़ा वर्ग केवल वोट बैंक बढ़ाने का एक जरिया मात्र बन कर रह गए हैं। कोई भी राजनेता ना तो उनकी दशा सुधारने का प्रयत्न करता है और ना ही उन्हें मुख्यधारा में शामिल किए जाने के लिए कुछ खास प्रयास किए जाते हैं। आज गरीब लोगों के दर्द को समझने वाले लोग कम हैं लेकिन आजादी के समय बहुत से ऐसे नेता हुए जिन्होंने गरीबी को समझा भी और असहाय लोगों को समान अधिकार के साथ जीने का एक मौका भी दिलवाया।
राजीव गाँधी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि उन्होंने घोरतम आलोचनाओं के वाबजूद 1986 में आजादी के बाद राष्ट्रीय नीति के माध्यम से समग्र शिक्षा नीति देश भर में बिना किसी पूर्वाग्रह के लागू की जिसका एक मात्र उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करना था। उसमें शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया था। साथ ही उस शिक्षा नीति में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर तथा शिक्षा और जीवन में गहरा रिश्ता कायम करने पर भी ध्यान दिया गया था। यही कारण है कि देश-दुनिया में आज कंप्यूटर एवं सूचना-प्रौद्योगिकी में युवाओं का डंका बज रहा है इसके विपरीत आज भारत राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें परम्परागत मूल्यों के हृस का खतरा पैदा हो गया है और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र तथा व्यावसायिक नैतिकता के लक्ष्यों की प्राप्ति में लगातार बाधाएं आ रही हैं। समान सांस्कृतिक धरोहर, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरूषों के बीच समानता, पर्यावरणका संरक्षण, सामाजिक समता, सीमित परिवार का महत्त्व और वैज्ञानिक तरीके के अमल की जरूरत के वाबजूद शिक्षा के भगवाकरण की पुरजोर कोशिश की जा रही है । शिक्षा या भगवा शिक्षा के बजाये यदि इस बात पर बहस हो की  विश्वविद्यालयों को नए अनुसन्धान करने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये तो यह देश के लिए अधिक सार्थक है । 
'राइट्स एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव' और 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट' के मुताबिक आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की आशंका है। रिपोर्ट के मुताबिक गरीब ग्रामीण भारत के संसाधनों का दोहन लगातार जारी है, दलित-आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों  और इसकी वजह से पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों में संघर्ष की स्तिथियां पैदा हो रही हैं। भाजपा और संघ दोनों भगवाकरण की आड़ में सांप्रदायिक-उन्माद फ़ैलाने की जुगत में है, इन दोनों के आनुषांगिक संगठनों ने उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्ता पर किये जा रहे हमलों ने आगमन घी डालने का काम किया है   जो एक मानसिक रोग है जिसका रोगी चाहे वह व्यक्ति हो या विचारधारा अपनी वास्तविकता और अंतरबोध से कट जाता है और ऐसी दुनिया में पहुंच जाता है जहां उसके लिए सब कुछ प्रसन्न करने वाला होता है,  जिसके लक्षण समाज की संरचना पर निर्भर करते हैं। भारत में इसके अधिकांश लक्षणों में धार्मिक अंतर्वस्तु मिलती है। सत्ता का चरित्र रहता है कि वह एक सीमा के आगे अपने विरोध को सहती नहीं है और जब भी मौका लगता है विरोधियों को दबाने से बाज नहीं आती है। पर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां सत्ता की जड़ें आज भी सामंती मूल्यों और मानसिकता में गहरी पैठी हैं विरोध लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बल्कि शत्रुता का पर्याय माना जाता है। इस पर भी, भाजपा नेतृत्ववाली इस सरकार की विगत सवा साल के शासन की प्रकृति को देखा जाए तो, उसे प्रतिशोध और दमन जैसे अलोकतांत्रिक शब्दों की सीमा में ही व्याख्यायित किया जा सकता है। ऐसा लगता है मानो लोकतांत्रिक तरीके से जीत कर आई सरकार भूल ही गई है कि उसके जीवनकाल का फैसला फिर से चार वर्ष बाद होगा। पर जो हो रहा है, और जिसके एक नहीं कई उदाहरण हमारे सामने हैं, वे कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं देते हैं।ऐसा लगता है भाजपा शासित राज्यों की नीति ही हो गई है कि स्वयंत्र विवेक वाले किसी भी व्यक्ति को न तो बोलने दिया जाए और न ही काम करने। सरकारी कर्मचारियों से तो संविधान नहीं बल्कि भाजपा की नीतियों और उसके नेताओं के प्रति समर्पित अंध समपर्ण की अपेक्षा की जा रही है।
वस्तुत: यूटर्न की सरकार असहमति का सम्मान करने के स्वांग और एक राजनीतिक छलावे के रूप में देखता है। जिस तरह की मंशा होगी, जैसी परिकल्पना या सपना होगा वैसा ही अंतत: आकार बनेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े  बत्रा दिल्ली से शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास चलाते हैं। इसी संस्थान ने मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ भी अभियान चलाया था और उनका जीना दूभर कर दिया था। वह शिक्षा संस्कृति को पूरी तरह से आरएसएस जैसी मानसिकता और समझ में ढालना चाहते हैं और भारतीय समाज को मध्यकालीन दौर में पहुंचाने में लगे हुए हैं। जैसा कि हमने शुरू में कहा था, बिंदुओं के पीछे जिस तरह की मंशा होगी, जैसी परिकल्पना या सपना होगा, वैसा ही अंतत: चित्र बनेगा। स्पष्ट है कि जो चित्र उभर रहा है वह डरावना है। इसके खतरों का अनुमान कोई बहुत कठिन भी नहीं है। सब कुछ अपने बर्बर रूप में सामने आ रहा है। यह समय चुप बैठने का नहीं है। मोदी सरकार के आने के बाद ही शिक्षा के भगवाकरण की कवायद शुरू कर दी गई है। दीनानाथ बत्रा की किताबों को गुजरात के स्कूलों पढाया जा ही रहा था और अब उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की तैयारी है। संघ के नेता मानव संसाधन मंत्री के साथ मुलाकात कर रहे हैं और भाजपा के नेता रोमिला थापर जैसे इतिहासकार की किताबों को जलाने की अपील।
शिक्षा और संस्कृति का भगवाकरण हमेशा ही फासिस्टों के एजेण्डा में सबसे ऊपर होता है। शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण का फासिस्ट एजेण्डा जनता को गुलामी में जकड़े रखने की साज़िश का हिस्सा है, ऐसा लगता है सरकार की दिलचस्पी शालाओं में शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाए इस तरह के विवादित फैसलों को लागू करने में ज्यादा रहती है, अगर सरकार इसी तत्परता के साथ शिक्षा की स्थिति को लेकर गंभीर होती, तो देश में शिक्षा का हाल इतना बदहाल नहीं होता। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इतिहास बदलने की तैयारी है और सांप्रदायिक तनाव को चरम पर ले जाने के लिए शिक्षा का सहारा लिया जा रहा। प्रधानमंत्री ने इन सभी मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है।  देश में शिक्षण संस्थानों में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू किया जा रहा है। इसकी बानगी देखने को मिली जब मध्य प्रदेश में अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था। किंतु भारी विरोध के डर के चलते बड़ी आनन-फानन में यह निर्णय वापस लेना पड़ा। इसी तरह केंद्र सरकार ने सभी शासकीय शिक्षण संस्थानों  में योग के नाम पर सूर्य नमस्कारअनिवार्य कर दिया था, बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया। इसी तरह स्कूल शिक्षकों के लिए ऋषि संबोधन चुना गया । इतना ही नहीं स्कूलों में मिड डे मील के पहले सभी बच्चे भोजन मंत्र पढ़ेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था। विस्तार में न जाकर इतना कहा जा सकता है कि ये पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी हिंदू धार्मिक मान्यताओं से भरी हैं जो अंधविश्वास, स्त्री-पुरुष असमानता, नस्लवाद का प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में समर्थन करती हैं। कुल मिलाकर ये हर तरह के भेदभाव और असहिष्णुता को बढ़ावा देती हैं।
इसका तत्काल और हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए पर इससे भी बड़ी बात यह है कि उन प्रगतिशील ताकतों को जो वस्तुनिष्ठता, तार्किकता और वैज्ञानिकता में विश्वास रखती हैं उन्हें इस संगठनों से सीखना चाहिए कि किस तरह से उन बातों का विरोध किया जाए जिनसे हम सहमत नहीं हैं और कैसे उन बातों को जनता तक पहुंचाया जाए। ऐसा लगता है जैसे बुद्धिजीवियों ने तुलनात्मक रूप से उदार कांग्रेसी और उसके नेतृत्ववाली सरकारों की सत्ता से जुड़कर अपने स्तर की हर तरह की पहल और सक्रियता खो दी है। हम जिस दौर में प्रवेश कर चुके हैं उसके रहते ऐसा नहीं लगता कि अब वह समय लौट पाएगा जब कि प्रगतिशील चिंतक, इतिहासकार, समाजविज्ञानी और रचनाकार पहली जैसी सुरक्षा और सुविधाओं के साथ अपने काम और विचारों को आगे बढ़ा सकेंगे। इसलिए जरूरी है कि प्रगतिशील ताकतें जल्दी से जल्दी अपने मंच बनाएं और उनके माध्यम से अपने कामों को आगे बढ़ाएं। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमें अपनी बातों को जनता के सामने ले जाने के रास्ते भी खोजने होंगे, अन्यथा बहुत देर हो जायेगी।
शिक्षा का अधिकार देने को लेकर अभी कितना लंबा सफर तय करना है, लेकिन वर्तमान सरकार की दिलचस्पी देश में शिक्षा की स्थिति सुधारने की बजाय किसी खास विचारधारा का एजेंडा लागू करने में ज्यादा दिख रही है। देश के बच्चों और शिक्षा व्यवस्था के लिए यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण  है कि शालाओं को इस तरह की राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है। पाखंडी और कपोलकल्पित ऐसे ही अनेकानेक ज्ञान के मोतियों से बत्रा की किताबें भरी हुई हैं। इतना ही नहीं संघियों का सारा साहित्य ऐसे दावों से भरा हुआ है। इनके अनुयायी अब  सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एआर दवे जैसों के रूप में न्याय व्यवस्था में भी घुस आये जिनकी ख्वाहिशें देश के तानाशाह होने, पहली कक्षा से ही पाठ्यक्रम में गीता और महाभारत को लागू करवाने और गुरु-शिष्य जैसी परम्पराएँ की वकालत करने, प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं की तरफ वापस लौटाने की है । दरअसल दवे जैसे लोग उस बात को शब्द दे रहे हैं जो तमाम फासिस्ट मन ही मन करना चाहते हैं। भारतीय गुरुकुल परम्परा और ऋषि व्यवस्था के ढोल पीटने वाले खुद वल्लक धारण करके कन्दराओं में क्यों नहीं चले जाते ताकि विज्ञान में और भी प्रगति हो?
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के अपने अभियान के तहत नयी सरकार ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद जैसी सम्मानित संस्था का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया है जिसका इतिहासकार के तौर पर बस यही काम है कि महाभारत और रामायण को ऐतिहासिक घटनाएँकैसे सिद्ध किया जाये। यहाँ पर दो चीजें हैं, पहली है हमारी भारतीय संस्कृति की महानता  का सवाल। क्या वाकई हमारे यहाँ विज्ञान की तमाम खोजें हजारों साल पहले ही हो चुकी हैं? यह स्पष्ट कर दें कि दर्शन, नाट्य शास्त्र, गणित, भाषा विज्ञान, खगोल शास्त्र से लेकर विज्ञान की तमाम शाखाओं में हमारे यहाँ उल्लेखनीय काम हुआ था और भरत, पाणिनि, कणाद, कपिल, आर्यभट्ट, सुश्रुत, चरक आदि पर कोई भी गर्व कर सकता है और करना भी चाहिए किन्तु पूरी दुनिया को मूर्ख साबित करना और ज्ञान-विज्ञान का ठेका खुद ही उठा लेना आदि-आदि संघियों के झूठ का तूमार बाँध देना जैसे दिमागी कुपोषण को ही दिखाता है। हालाँकि प्राचीन भारत की महानता का दावा करने वाले ये लोग कभी यह नहीं बताते कि एकलव्य के अंगूठे, दलितों का मंदिरों में प्रवेश, संघियों द्वारा आदिवासियों के मानसिक और शारीरिक शोषण करने पर  ज़ाहिर है, इन जैसे सवालों के जवाब संघ परिवार वालों के पास नहीं हैं। दरअसल, वे जवाब दे ही नहीं सकते। उन्हें अपना एजेण्डा को लागू करने के लिए उन्हें लोगों की सोच को पिछड़ा बनाये रखने की दरकार होती है।
मिथकों को इतिहास बनाकर पेश करना उनका ख़ास एजेण्डा होता है ताकि लोग आगे की ओर देखने के बजाय पीछे ही देखते रहें। ताकि आम जनता बेहतर भविष्य के लिए लड़ने के बजाय गुज़रे हुए अतीत की यादों में ही खोयी रहे। यही इनके इतिहास लेखन के पुनर्लेखन का पहला सिद्धांत है। किन्तु प्राचीन इतिहास को अतिश्योक्ति अलंकार की प्रयोगस्थली बना देना और इतिहास के अँधेरे खण्डहरों में कूपमण्डूकता की टार्च लेकर घूमना कहाँ की समझदारी है? किसी लेखक का कर्तव्य यही होना चाहिये कि वह अच्छाइयों और बुराइयों दोनों का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करे और उन्हें समाज के सामने रखे। किन्तु तमाम तरह के फ़ासीवादी और कट्टरता के समर्थक झूठ और तथ्यों को मनमाने ढंग से प्रस्तुत करके अपना उल्लू सीधा करने की फ़ि‍राक में रहते हैं। उनको ऐतिहासिक सच्चाइयों और इतिहास के प्रति एक सही नज़रिये से कोई मतलब नहीं होता। बल्कि मिथकों को पूजनीय बनाना और धार्मिक प्रतीकों का अपनी दक्षिणपंथी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना इनका मुख्य शगल होता है। प्राचीन परम्परा से प्रेरणा लेना ठीक है लेकिन खच्चर की तरह आस-पास की चीजों को न देखना लकीर की फ़कीरी को ही दर्शाता है।
गिरती इकॉनोमी से लोगों का ध्यान बाँटने के लिए मेक इन इंडिया का झाँसा दिया जा रहा और छुपे से पिचले दरवाजों से शिक्षा के भगवाकरण का एजेंडा लागु किया जा रहा है। संघ की तुलना जर्मन के नाजीवाद से की जा सकती जहां किसी को अपनी बात रखने और विरोध करने का आजादी नहीं थी। वास्तव में भगवाकरण संघियों और उनके अनुयायियों के ज्ञान का अज्ञानीकरण है जिसे वे मंदबुद्धियों में बंटाना चाहते हैं । उच्च शिक्षा का क्या होने वाला है? नीति संबंधी बात करने का यह वक़्त नहीं लेकिन सबसे ज़्यादा और सबसे तेज़ प्रशासन वाली इस सरकार के साथ महीनों गुजरने के बाद भी 2009 में बने केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति के पद खाली पड़े हैं और जो भरे गये हैं उनमें अधिकाँश नौ ढोबे के पावहैं । तथाकथित 'सही विचारों' वाले लोगों की तलाश जारी है। अनेक शिक्षा संस्थानों के प्रमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया और प्रचारकों के दरबार में जाकर वहाँ से उपदेश ग्रहण कर रहे हैं। उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बहुत कुछ वे ख़ुद ही कर डालेंगे, क्या उन्हें किसी सरकारी फ़रमान की ज़रूरत पड़ेगी? यही कह सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी की अवधारणा के रूप में बेचारा ज्ञान ठंड में खड़ा ठिठुर रहा है और उसे पनाह की ज़रूरत है, हमें पहल करनी ही होगी ।
विडंबना कहा जाए या त्रासदी कि वर्तमान सरकार उन बौद्धिक संस्थाओं के लिए, जिन्हें लेकर उसका राजनीतिक और बौद्धिक संगठन जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है, ऐसे व्यक्तियों को भी नहीं ढूंढ पा रहा है जो इन संस्थाओं का पद संभालने के लिए उपयुक्त हों। नहीं जो कुलपति बनाये हैं उनमें एक भी दलित-आदिवासी नहीं है। इतना ही मोदी के नेतृत्व में उनकी सरकार भारत सरकार की आरक्षण नीति और सामाजिक न्याय  का खुल्लमखुल्ला उलंघन हो रहा है और सरकार हाथ-पर-हाथ रखकर बैठी हैं। संघ के इशारे पर सरकार में बैठे नुमाइन्दों ने उनकी सोच के अनुरूप षड्यंत्र रचकर 2009  में स्थापित केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने की प्रक्रिया को बदल दिया और सभी विश्वविद्यालयों विश्वविद्यालय स्तर पर कुलपतियों की भारती निकलवायी क्योंकि यदि केंद्र के स्तर पर उक्त पदों का विज्ञापन दिया जाता तो कुल 14 कुलपतियों में से क्रमश: 3, 2 और 1 पद ओ बी सी , एस सी और एस टी के लिए आरक्षित होते, विगत यूपीए सरकार ने ऐसा ही किया था जिसमें आरक्षण की भावना का पूर्णत: अनुपालन हुआ था । इसरो के मूर्धन्य वैज्ञानिक काकोडकर द्वारा पद-त्याग करना मोदी सरकार और उनके कूपमंडूक अनुयायियों के मुँह पर करारा तमाचा है । आईआईटीज,आईआईएम, एमएनआईटीज के निदेशक और वरिष्ठ प्रोफेसरों द्वारा अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपने पदों से स्तीफा दिया जा रहा है क्योंकि स्मृति ईरानी द्वारा उन्हें मंत्रालय में बुलवाकर न केवल जलील किया गया और निरंतर किया जा रहा है । इतना ही नहीं, एक दर्जन से अधिक आईएएस और आईपीएस अपने पदों से इस्तीफ़े दे चुके हैं और कई अन्य भाजपा और संघियों की करतूतों के करना स्वेच्छिक सेवा निवृत्ति के लिए तैयार हो रहे हैं ।
गजेंद्र सिंह चौहान प्रसंग ने भाजपा सरकार और संघ परिवार की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। ये सीमाएं दो तरह की हैं। पहली यह कि उनके साथ जो लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी हैं वे किस औसत दर्जे के हैं, और दूसरा भाजपा नेतृत्ववाली सरकार और संघ परिवार अपनी सोच में किस हद तक संकीर्ण हैं। या इस हद तक भयाक्रांत हैं कि अपने दायरे से बाहर के किसी भी व्यक्ति पर विश्वास करने को ही तैयार नहीं हैं। आखिर वे प्रतिभाशाली और सक्षम लोगों से इतना डरे हुए क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि देश की फिल्म कला की शिक्षा देने वाली सर्वोच्च संस्था, जिसका भारतीय फिल्म उद्योग और रचनात्मकता को महत्त्वपूर्ण योगदान है और जिसके शीर्ष पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लोग रहे हों, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया एफटीआईआईके लिए उन्हें एक ऐसा आदमी ही मिला है ।
हर व्यक्ति या संस्था को अपनी कमियों और गलतियों से सीखना होता है। यह एक मानवीय और लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। हमारी सरकार में इस्तीफा नहीं दिया जाता!पर सरकार भूल रही है कि गलतियों और वे भी ऐसी जो जन-जन की निगाह में हों, पर अड़ना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कम नहीं साबित होगा। उसका खामियाजा सरकार संसद के ठप होने के रूप में भुगत चुकी है। आरोपों को प्रत्यारोपों से काटने की रणनीति सीधे-सीधे सिद्ध करती है कि आप अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, भ्रष्टाचार को तो उचित ठहरा ही रहे हैं बल्कि जो भी कदम आप उठा रहे हैं उसके पीछे देशहित नहीं बल्कि बदले की भावना ही सर्वोपरी है।  सरकारी हठधर्मिता के दो पक्ष हो सकते हैं; पहला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दबाव कि चाहे कुछ हो उनके आदमियों को सत्ता के साथ जोड़ा जाना चाहिए। हठधर्मिता का दूसरा पक्ष नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों की यह समझ है कि किसी भी निर्णय पर पुनर्विचार करना हार मानना है। यह अपने आप में तानाशाही न भी कहें तो भी अत्यंत पिछड़ी मानसिकता का द्योतक है। इसी तरह किसी व्यक्ति या संस्था में इस तरह का विश्वास होना कि उससे कोई गलती हो ही नहीं सकती या किसी दूसरे को उसकी गलती पर अंगुली उठाने का कोई अधिकार नहीं है, अलोकतांत्रिक मानसिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है? दूसरे शब्दों में यह स्वयं को अतिमानव मानने जैसा है, ये स्वयंभू , अहम ब्रह्मास्मि है ।
भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक कलाकार, फिल्मकार, नाट्यकर्मी, साहित्यकार, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और चिंतक पैदा किए हैं और कर रहा है। सवाल है, आखिर भारतीय दक्षिण पंथ के पास ऐसे बुद्धिजीवी क्यों नहीं हैं जिनकी सार्वजनिक मान्यता निर्विवाद हो? या उनकी पूरी सोच को सामयिक वैचारिक आधार देने वाले ऐसे लोग क्यों नहीं हैं जो कला, साहित्य, फिल्म, नाटक, शिक्षा, मानविकी, अर्थशास्त्र, विज्ञान और चिंतन आदि के क्षेत्र में सक्रिय हों? जो हैं वे भी दोयम या तियम दर्जे हैं ?  इस संकट का दूसरा पहलू यह है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, जिसके बदलने की कोई संभावना नहीं लग रही है, तो भाजपा सरकार अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले भारतीय लोकतंत्र की उन सभी संस्थाओं का विनाश कर जाएगी जो अपनी सारी सीमाओं के बावजूद समकालीन चुनौतियों को समझने और व्याख्यायित करने की कोशिश करती रही हैं। विगत संसद सत्र में लोकसभा के हंगामे के बीच राज्य मंत्री श्रीप्रसाद यासो नायक ने बतलाया था कि सीएसआइआर (विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद) आरएसएस की नागपुर स्थित संस्था गौ विज्ञान अनुसंधान केंद्र के साथ मिल कर गोमूत्र के गुणों पर अनुसंधान कर रहा है। इस तरह के विवेकहीन अवैज्ञानिक अनुसंधानों की शुरुआत वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान हुई थी। भाजपा शासित राज्यों में जो हो रहा है वह भी कम निराशाजनक नहीं है। भोपाल का भारत भवन आज छुट्ट भईयों का अड्डा हो गया है। जयपुर का पत्रकारिता विश्वविद्यालय इसलिए बंद किया जा रहा है क्योंकि वहां उदार मानसिकता के लोग हैं। इसी तरह का व्यवहार इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यट के साथ भी हुआ है। इसके अलावा टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज, आईआईएम जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान और नेशनल म्यूजियम इसी तरह के संकटों का समाना कर रहे हैं।
इसका कारण संभवत: यह है कि हर संगठन की सीमा उसकी अपनी आधारभूत संरचना होती है। यानी जो तत्व उसकी शक्ति होते हैं वही उसकी कमजोरी भी बनते हैं। दूसरे शब्दों में भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा अगर उसे सत्ता में पहुंचाने में सफल हुई है तो उसकी सीमा भी वही है। यानी उसके पतन का कारण भी बनेगी। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी समाज में कौन-सा चिंतन फले-फूलेगा इसका फैसला भी अंतत: उस समाज की भौतिक स्थितियां ही करती हैं। यह सही है कि आज एक दक्षिणपंथी राजनीतिक दल देश की सत्ता संभाले है पर अगर इसे सही वैचारिक आधार नहीं मिलेगा तो यह दल भविष्य में ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा। क्योंकि अंतत: किसी भी गतिशील समाज को ऐसा चिंतन चाहिए जो उसे शेष दुनिया के समानांतर आगे ले जा सके। भारतीय समाज जिस तरह की विविधता सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक से निर्मित है उसमें संकीर्णता नहीं चल सकती।
भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों की सीमा यह है कि वे मूलत: सामाजिक यथास्थिति और धार्मिक बहुमत के पक्षपाती हैं। ये ऐसे तत्व हैं जो समाज में स्थिरता नहीं पैदा कर सकते। दूसरा, समकालीन उच्च प्रौद्योगिकी की हर पल सिमटती दुनिया में, जहां धार्मिक, नस्ली और अंतर- सांस्कृतिक मिश्रण की गति लगातार बढ़ती जा रही हो, किसी भी तरह की सामाजिक संकीर्णता आखिर कैसे चल सकती है। इसलिए चरम प्रश्न यह है कि सामान्य बौद्धिकता तक की जो दरिद्रता हिंदूवादी संगठनों में नजर आ रही है वह क्यों है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ज्ञान भविष्य की ओर देखता है और हमें प्रगति की ओर ले जाता है। अनुसंधान मूलत: हमारी पूर्व मान्यताओं को बदलते हैं और यथार्थ को विश्लेषित करते हैं। इसलिए वे लगातार स्थापित मूल्यों और समझ को चुनौती दे रहे होते हैं। जबकि धर्म आधारित ज्ञान यथास्थिति का पोषक होता है। भाजपा और संघ दो हजार साल पुराने मनुस्मृति के सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं , इनके लिए चरक संहिता चिकित्साशास्त्र का अंतिम ग्रंथ है, तो इससे ज्यादा हास्यास्पद बात क्या हो सकती है!
वह भारतीय समाज को एक धर्म विशेष पर आधारित करना चाहता है और बहुत हुआ तो रामराज्य की स्थापना। यह रामराज्य क्या है स्वयं यह स्पष्ट नहीं है। इसका कारण यह है कि किसी भी हिंदूवादी व्यवस्था में जातीय समीकरणों का किस तरह से निपटारा होगा इसका जवाब कम से कम इन संगठनों के पास तो नहीं ही है। उत्तर तो खैर इस बात का भी नहीं है कि आखिर उनकी योजना में स्त्रियों की क्या स्थिति होगी? जहां तक अर्थव्यवस्था या आर्थिक नियोजन का सवाल है उसका भी कोई मौलिक ढांचा दक्षिणपंथियों के पास नहीं है। बल्कि इसको लेकर तो वे विभाजित हैं। स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों की मांगें और सरकार की कथनी-करनी एक दूसरे के विपरीत हैं। सरकार कुल मिलाकर प्रचलित पूंजीवादी आर्थिक चिंतन के माध्यम से ही देश का उद्धार करने की जुगत में है। यह किसी से छिपा नहीं है पूंजीवादी नीतियां हमारे समाज के टकरावों और संघर्षों को और तेज कर रही हैं। वैसे भी मोदी की भाजपा सरकार विगत कांग्रेस नेतृत्ववाली यूपीए सरकार नीतियों को नाम बदल कर तेजी से लागू करने को अपना मिशन माने बैठी है।
भारतीय संविधान की आत्मा के विपरीत मोदी सरकार के मंत्रियों द्वारा आरएसएस के समक्ष घुटने टेकना, रिपोर्ट-कार्ड प्रस्तुत करना लोकतंत्र का गला घोटना है । केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी जुलाई में नागपुर में संघ परिवार द्वारा आयोजित विज्ञान भारती आयोजन में उपस्थित थीं। जहां उन्होंने मोहन भागवत सहित आरएसएस के कई नेताओं की  पद्चम्पी की। नौसिखिया ईरानी को महत्त्वपूर्ण मंत्रालय का जिम्मा देने के पीछे लोगों का मानना है कि मोदी सरकार की यह मंशा है कि मंत्रालय को परोक्ष तौर पर मन-मर्जी यानी आरएसएस के एजेंडे के अनुरूपचलाया जा सके। आरएसएस के एजेंडे पर आधारित आज जो पुस्तकें छात्रों को पढ़ाई जा रही हैं वो पूरी तरह से कूड़ा हैं। वे विशेषकर एनसीईआरटी की किताबों के पीछे पड़े  हैं जो अपनी वस्तुनिष्ठता, वैज्ञानिकता, विश्लेषण और तार्किकता के लिए बहुचर्चित हैं। इसलिए उनका मानना है कि ये किताबें छात्रों का चरित्र निर्माण नहीं करतीं बल्कि उन्हें पथभ्रष्ट करती हैं। उनके लिए शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में अनुसंधान, विश्लेषण, वस्तुनिष्ठता और विवेक पैदा करना नहीं है बल्कि तथाकथित धार्मिक-पौराणिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को छात्रों द्वारा बिना कोई प्रश्न उठाए स्वीकार करना है, यह सोच अपने आधारभूत अवधारणा में प्रगतिविरोधी ही नहीं बल्कि मानव विरोधी भी है। इसके लिए न्यास ने एक आयोग का गठन किया है। यह अपनी तरह का ऐसा आयोग है जो गैरसरकारी तौर पर एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा गठित किया गया है। इसके पीछे आरएसएस है जो सरकार पर इस संस्था के जरिए दबाव बनाना चाहता है जिससे शिक्षा के क्षेत्र में भगवाकरण जितना जल्दी हो सके उतना त्वरित किया जाए ।  
ज्ञान का क्रमिक विकास होता है। वह एक दिन में नहीं जन्मा है। हर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि के पीछे कई छोटे-छोटे आविष्कार छिपे होते हैं, मोदी द्वारा मंगलायन का श्रेय लेना एक बात है और उसके संपूर्ण अभियान को ताकत देना दूसरी । योरोप में ज्ञान-विज्ञान का विकास इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। जो बात पश्चिम से सीखने की है वह यह है कि धर्म को चुनौती दिए बगैर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता। पश्चिम ने जो ज्ञान अर्जित किया, जिस तरह से उसे प्रौद्योगिकी में बदला उसने उनके समाजों को ही नहीं बदला बल्कि दुनिया को बदल दिया है। पर हमारे दक्षिण पंथी खेमे की सीमा यह है कि वह पश्चगामी है। पर वह अपने इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से नहीं देखना चाहता। जिन स्थापनाओं और मान्यताओं को चुनौती दी जानी चाहिए, यह उन्हें महिमा मंडित करता है। ज्ञान समाजों को किस तरह शक्तिशाली बनाता है, मात्र विशाल भौगोलिक आकार और जनसंख्या आपको ताकतवर नहीं बनाती। वही ज्ञान इतिहास में लुप्त होते हैं जो अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। वे समाज जो ठहरे हुए ज्ञान में भविष्य तलाशते हैं अपनी प्रासंगिकता को नहीं बचा पाते हैं। स्पष्टत: भारतीय दक्षिण पंथ जिसका नेतृत्व आज कुल मिलाकर भाजपा के हाथ में है पश्चिमी दक्षिणपंथ से कई मायनों में अलग है। वहां दक्षिणपंथी विचारधारा मूलत: दो बातों पर टिकी है पहली, आर्थिक चिंतन या नीतियों पर और दूसरा स्थापित सामाजिक परंपराओं और मूल्यों की पक्षधरता पर। पर धर्म से उसका कोई संबंध नहीं है। कई मामलों में पश्चिमी दक्षिणपंथ भारतीय दक्षिणपंथ तो छोड़िए भारतीय मध्यमार्गी दलों से भी ज्यादा प्रगतिशील दिखलाई देता है। भारतीय दक्षिणपंथ का आधार कुल मिलाकर धर्मांधता और सांप्रदायिक-उन्माद है, नतीजा यह है कि भाजपा के पास आधुनिक समाज को लेकर कोई दूर-दृष्टि नहीं है।
 

Saturday, 24 October 2015

आओ देश भर में हो रहे दलित- उत्पीड़न के विरोध में मिलकर आवाज उठाएं...

आओ देश भर में हो रहे दलित- उत्पीड़न के विरोध में मिलकर आवाज उठाएं...
वैसे तो दलित-उत्पीड़न की घटनाएं हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन चुकी हैं, फिर भी बीच-बीच में ऐसी कुछ घटनाएं घट जाती हैं कि आमतौर पर निर्लिप्त रहने वाला समाज चिंतित हो उठता है। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के लगभग दो वर्षों का सफर पूरा कर लिया है और देश में उत्तारोतर भय का वातावरण बढ़ता जा रहा है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि निरंतर तार-तार हो रही है ।
यदि सिर्फ दलित उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाए तो पिछले दो वर्षो में दलितों का सामाजिक बहिष्कार, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, उनकी बेदखली आदि घटनाएं हुई हैं वहीं नन्हें नौनिहालों को भी जिंदा जलाया जा रहा है जो बहुत ही शर्मनाक हैं। ऐसी घटनाओं का सिलसिला थमा नहीं है और देश के कर्इ हिस्सों में विशेष रूप से भाजपा शासित राज्यों में दलितों पर अत्याचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हैं ।
ऐसी बहुत ही कम घटनाओं की जानकारी भी हमें मिलाती है वह भी जब उत्पीड़ित दलित किसी तरह जिला प्रशासन तक पहुँच पाते हैं या उनके बारे में किसी स्रोत से देर-सवेर जानकारी मिलती है। घटनाएं जब हमारे सामने होती हैं तब वह कई दिन पुरानी भी हो चुकी होती है। फरीदाबाद में बच्चों को जिंदा जलाना, नोएडा में एक दलित परिवार की महिलाओं सहित परिवार के अन्य सदस्यों को पुलिस की मौजूदगी में नंगा करना जैसी लोमहर्षक घटनाओं ने तो अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी... भारतीय सभ्य समाज के जागरुक नागरिक के रूप हम इसकी घोर निंदा करते हैं...
यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि हमारा सिस्टम एक ढोंगी साधु के सपने को पूरा करने के लिए सोने की खोज में फावड़ा-कुदाल लेकर दौड़ पड़ता है,करोड़ों खर्च भी कर देता है जिसमें कुछ भी हाथ नहीं लगता और बाबा अंबेडकर के समतावादी सपने को पूरा करने की संवैधानिक प्रतिबद्धता के प्रति उदासीन रहता हैऔर फूटी कोढ़ी भीखर्च नहीं करता है...
आज के भारत का सुखद पहलू यह है कि मंगल मिशन के तहत मंगलयान का सफल परीक्षण करके विज्ञान के क्षेत्र में हम दुनिया के सामने मिसाल बन रहे हैं और दुखद पहलू यह है कि समाज में मनुवादी मिशन के मंसूबों ने एक ऐसा मनोरोगी वर्ग पैदा कर दिया है, जो अपने ही देश, समाज एवं बस्तियों में जन्में दलितों एवं आदिवासियों को प्रताड़ित करने में गर्व का अनुभव करता है...
वस्तुतः वह गर्व नहीं शर्मिंदगी की पराकाष्ठा है

Saturday, 26 September 2015

Professor Ram Lakhan Meena: मीणा बनाम मीना : अर्थ-भेदकता अवैज्ञानिक

Professor Ram Lakhan Meena: मीणा बनाम मीना : अर्थ-भेदकता अवैज्ञानिक: मीणा बनाम मीना : अर्थ-भेदकता अवैज्ञानिक   प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर न्यायपालिका की कार्य ...

Sunday, 20 September 2015

INVITATION for Participation in the INTERNATIONAL Seminar on 'Quality Control of Research Works of Hindi at International Context' Organized by Central University of Rajasthan, AJMER on 19 to 20 January 2016

INVITATION for Participation in the INTERNATIONAL Seminar on 'Quality Control of Research Works of Hindi at International Context' Organized by Central University of Rajasthan, AJMER on 19 to 20 January 2016 
Your presence highly appreciated.  

Monday, 14 September 2015

दिनांकः 14.09.2015 प्रोफ़ेसर राम लखन मीना का दैनिक नवज्योति में हिंदी दिवस पर प्रकाशित विशेष आलेख

दिनांकः 14.09.2015 प्रोफ़ेसर राम लखन मीना का दैनिक नवज्योति में हिंदी दिवस पर प्रकाशित विशेष आलेख