‘200 पॉइंट्स रोस्टर की कहानी, जन-जन को है समझनी’
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
बाबासाहब डॉ भीम राव अम्बेडकर की जातिवाद पर प्रहार की धार बहूत तीखी और चुभने वाली थी। वे भक्तजनों से कहते है ‘तुम्हारे ये दीन दुबले चेहरे देखकर और करुणाजनक वाणी सुनकर मेरा ह्रदय फटता हैं। अनेक युगों से तुम गुलामी के गर्त में पिस रहे हो, गल रहे हो, सड़ रहे हो और फिर भी तुम ये ही सोचते हो कि तुम्हारी ये दुर्गती देव-निर्मित हैं- ईश्वर के संकेत के अनुसार है ।’ तुम अपनी माँ के गर्भ में ही क्यों नहीं मरे, कम-से-कम धरा को बोझ तो नहीं सहना पड़ता! प्रतिनिधित्व की दुर्दशा और बहुजनों के मुरझाए चेहरों से बाबासाहब की यह बात आज सच साबित हो रही है । आख़िरकार बहुजनों को साँप क्यों सूंघ गया है ?
आखिर उनकी कुंभकर्णी-नींद कब टूटेगी जब मनुवादियों और प्रतिनिधित्व-विरोधी मानसिकताओं द्वारा सब कुछ ख़त्म कर दिया जाएगा। शायद आज का युवा-वर्ग नहीं जानता कि जब देश का संविधान बाबासाहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी की अध्यक्षता में बन रहा था तब सामाजिक अन्याय को रोकने के लिए कई कानून बने थे। उसी कड़ी में सामाजिक अन्याय रोकने के लिये जातिगत आरक्षण अनुसूचित जाति (SC) और समाज से वंचित व जंगलो में कठिन परिस्थितियों में रहने वाली जातियों को क्षेत्र आधार पर अनुसूचित जनजातियों (ST) में रखा गया और तमाम विरोधी-मंशाओं के बावजूद बाबासाहब अम्बेडकर और जयपाल मुंडा ने अपने बौद्धिक-कौशल से आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
संविधान निर्माताओं ने क्रमिक असमानता की लगभग 6,000 जातीयों वाले देश में एक आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना अपने आप में एक कठिन काम था। इसलिए संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण में वंचितों को देश के संसाधनों में हिस्सेदार बनाने के लिए 15 (4), 16 (4), 335, 340, 341, 342 अनुच्छेदों में विशेष प्रावधान किए हैं । इन्हीं प्रावधानों के आधार पर आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं जिसके तहत बहुजनों (दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग) का पर्य़ाप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया है। लेकिन बहुजनों के प्रतिनिधित्व को कैसे लागू किया जाये, इसको लेकर देशभर के विश्वविद्यालय सत्तापक्ष की मिलीभगत से अड़ंगेबाजी करते रहे हैं।
इसका परिणाम रहा कि दलित-आदिवासियों और पिछड़ों का रिज़र्वेशन विश्वविद्यालयों में महज कागज की शोभा बनकर रह गया। यही हाल मण्डल कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर लागू हुए ओबीसी रिज़र्वेशन का रहा। विश्वविद्यालय लंबे समय तक अपनी स्वायत्तता का हवाला देकर प्रतिनिधित्व लागू करने से ही मना करते रहे, लेकिन जब सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी दबाव बनने लगा तो उन्होंने प्रतिनिधित्व लागू करने की हामी तो भरी, पर आधे-अधूरे मन से और इसमें तमाम ऐसे चालबाजी कर दी, जिससे कि यह प्रभावी ढंग से लागू ही न हो पाये। इसलिए वे 200 पॉइंट रोस्टर को लागू होने देने नहीं चाहते हैं क्योंकि बैकलॉग के पदों पर बहुजनों की नियुक्तियाँ होनी है । और यदि अबकी बार सवर्ण कामयाब हो गये तो आने वाले 50 वर्षों तक आरक्षितों को ये नौकरियाँ मिलाने वाली नहीं है ।
200 Vs 13 पॉइंट रोस्टर की कहानी आपके समक्ष प्रतुत कर रहा हूँ कि इस फैसले से पहले सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शिक्षक पदों पर भर्तियां पूरी यूनिवर्सिटी या कॉलजों को इकाई मानकर होती थीं। इसके लिए संस्थान 200 प्वाइंट का रोस्टर सिस्टम मानते थे। इसमें एक से 200 तक पदों पर रिज़र्वेशन कैसे और किन पदों पर होगा, इसका क्रमवार ब्यौरा होता है। 2012 में हमने लंबी लड़ाई लड़ी और संप्रग सरकार पर दवाब बनाकर 200 पॉइंट्स रोस्टर को सभी शिक्षण-संस्थानों को सांविधिक इकाई मानकर आरक्षण लागू करवाया जिसे मनुवादी न्याय-व्यवस्था ने इलाहबाद उच्च न्यायालय ने ख़त्म कर दिया। 2 अप्रेल 2018 के देशव्यापी आंदोलन से डरकर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की । किंतु, बहुजनों का सरकार पर जैसे ही दवाब कम हुआ मोदीसरकार ने सुप्रिन कोर्ट में कमजोर पैरवी करवाकर याचिका ख़ारिज करवा दी ।
इस चालबाजी को दिलीप मंडल ने बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है कि मनुवादियों ने 13 पॉइंट रोस्टर का नियम बनाया कि चौथा पद शंबूक को देंगे। फिर उन्होंने सिर्फ़ तीन पदों की वेकेंसी निकाली और इस तरह अपने लिए पुण्य कमाया। सातवें पद पर मातादीन भंगी और 15वें पद पर एकलव्य को आना था। वे इंतज़ार करते रह गए। मनुस्मृति फिर से लागू होने से ख़ुश होकर देवताओं ने प्रधानमंत्री कार्यालय और सुप्रीम कोर्ट पर पुष्प वर्षा की और अप्सराओं ने डाँस किया। सरल भाषा में इसे ही 13 प्वाइंट का रोस्टर कहा जाता है। संवैधानिक भाषा में इसके तहत चौथा पद ओबीसी को, सातवां पद एससी को, आठवां पद ओबीसी को दिया जाएगा। 14वां पद अगर डिपार्टमेंट आता है, तभी वह एसटी को मिलेगा। इनके अलावा सभी पद अनरिज़र्व घोषित कर दिए गए। अगर
इस सिस्टम में पूरे संस्थान को यूनिट मानकर रिज़र्वेशन लागू किया जाता है, जिसमें 49.5 परसेंट पद रिज़र्व और 59.5% पद अनरिज़र्व होते थे (अब उसमें 10% सवर्ण आरक्षण अलग से लागू होगा) । लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि रिज़र्वेशन डिपार्टमेंट के आधार पर दिया जाएगा। इसके लिए 13 प्वाइंट का रोस्टर बनाया गया । 13 प्वाइंट के रोस्टर के तहत रिज़र्वेशन को ईमानदारी से लागू कर भी दिया जाए तो भी वास्तविक रिज़र्वेशन 30 परसेंट के आसपास ही रह जाएगा, जबकि अभी केंद्र सरकार की नौकरियों में एससी-एसटी-ओबीसी के लिए 49.5% रिज़र्वेशन का प्रावधान है। साथ ही, मनुवादियों ने कैसे-कैसे षडयंत्र रचे देखिए ;
1) विभाग को इकाई मानकर प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए पहला षडयंत्र
2) जैसे ही कोई निर्णय आरक्षण के विरुद्ध आता ही बहुत दिनों से चुपचाप बैठे सरकारी विभाग / विश्वविद्यालय हरकत में आत्र हैं और जल्दी-जल्दी विज्ञापन निकालते हैं, जिसमें रिजर्व पोस्ट या तो नहीं होते हैं या बेहद कम होते हैं।
3) एक एक रिजर्व पद के लिए विशेष योग्यता जोड़ना ताकि उम्मीदवार ही न मिले
4) नए कोर्सों में पद सृजित करने जहाँ दलित, आदिवासी, पिछड़े उम्मीदवार ही ना मिले
5) विभागों को छोटा-छोटा करना ताकि आरक्षित वर्ग के लिए कभी सीट ही नहीं आए
6) साक्षात्कार बोर्डों में अधिकाँश सवर्ण विशेषज्ञों को और चापलूस व लालची आब्जर्वर रखना ताकि आसानी से एनएफएस (NFS) किया जा सके
7) अन्य अनगिनत ऐसी मनुवादी टेक्टिक्स अपनायी जाती है जिनको साक्षात्कार के समय ही देखा-परखा जा सकता है
ऐसी अनेकानेक चालबाजियों का परिणाम होता है कि विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व रूपी आरक्षण या तो लागू ही नहीं हुआ या फिर आरक्षित वर्ग को न्यूनतम सीटें मिलें। इस तरह की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी विश्वविद्यलयों में आरक्षित समुदाय के प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय मीडिया में छपी और एनडीटीएफ द्वारा प्रसारित रिपोर्टस में बताया गया है कि देशभर के विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू होने के बावजूद भी आरक्षित समुदाय के प्राध्यापकों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है।
रोस्टर की जरूरत क्यों पड़ी.?
2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी प्रतिनिधित्व लागू करने के दौरान विश्वविद्यालय में नियुक्तयों का मामला केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के सामने आया। चूंकि इस बार प्रतिनिधित्व उस सरकार के समय में लागू हो रहा था, जिसमें आरजेडी, डीएमके, पीएमके, जेएमएम जैसे पार्टियां शामिल थीं, जो कि सामाजिक न्याय की पक्षधर रहीं हैं, इसलिए पुराने खेल की गुंजाइश काफी कम हो गयी थी। अतः केंद्र सरकार के डीओपीटी मंत्रालय ने यूजीसी को दिसंबर 2005 में एक पत्र भेजकर विश्वविद्यालयों में प्रतिनिधित्व लागू करेने में आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए कहा। उस पत्र के अनुपालन में यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वीएन राजशेखरन पिल्लई ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर रावसाहब काले जो कि आगे चलकर गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी बनाए गए थे, की अध्यक्षता में प्रतिनिधित्व लागू करने के लिए एक फॉर्मूला बनाने हेतु एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था, जिसमें कानूनविद प्रोफेसर जोश वर्गीज़ और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ आरके चौहान सदस्य थे।
प्रोफेसर काले समिति ने भारत सरकार के डीओपीटी मंत्रालय की 02 जुलाई 1997 की गाइडलाइन जो कि सुप्रीम कोर्ट के सब्बरवाल जजमेंट के आधार पर बनी है, को ही आधार बनाकर 200 पॉइंट का रोस्टर बनाया। इस रोस्टर में किसी विश्वविद्यालय के सभी विभाग में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर का तीन स्तर पर कैडर बनाने की सिफारिश की गयी। इस समिति ने विभाग के बजाय, विश्वविद्यालय/कालेज को यूनिट मानकर प्रतिनिधित्व लागू करने की सिफारिश की, क्योंकि उक्त पदों पर नियुक्तियां विश्वविद्यालय करता है, न कि उसका विभाग। अलग-अलग विभागों में नियुक्त प्रोफेसरों की सैलरी और सेवा शर्तें भी एक ही होती हैं, इसलिए भी समिति ने उनको एक कैडर मानने की सिफारिश की थी।
रोस्टर 200 पॉइंट्स का क्यों, 100 पॉइंट का क्यों नहीं?
काले समिति ने रोस्टर को 100 पॉइंट पर न बनाकर 200 पॉइंट पर बनाया, क्योंकि अनुसूचित जातियों को 7.5 प्रतिशत ही प्रतिनिधित्व है। अगर यह रोस्टर 100 पॉइंट पर बनता है तो अनुसूचित जातियों को किसी विश्वविद्यालय में विज्ञापित होने वाले 100 पदों में से 7.5 पद देने होते, जो कि संभव नहीं है। अतः समिति ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को 100 प्रतिशत में दिये गए क्रमशः 7.5, 15, 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व को दो से गुणा कर दिया, जिससे यह निकलकर आया कि 200 प्रतिशत में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और ओबीसी को क्रमश: 15, 30, 54 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिलेगा। यानि अगर एक विश्वविद्यालय में 200 सीट हैं, तो उसमें अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, और ओबीसी को क्रमशः 15, 30, और 54 सीटें मिलेंगी, जो कि उनके 7.5, 15, 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व के अनुसार हैं।
सीटों की संख्या का गणित सुलझाने के बाद समिति के सामने यह समस्या आई की यह कैसे निर्धारित किया जाये कि कौन सी सीट किस समुदाय को जाएगी? इस पहेली को सुलझाने के लिए समिति ने हर सीट पर चारों वर्गों की हिस्सेदारी देखने का फॉर्मूला सुझाया। मसलन, अगर किसी संस्थान में केवल एक सीट है, तो उसमें अनारक्षित वर्ग की हस्सेदारी 50.5 प्रतिशत होगी, ओबीसी की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत होगी, एससी की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत होगी, और एसटी की हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत होगी। चूंकि इस विभाजन में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए पहली सीट अनारक्षित रखी जाती है।
पहली सीट के अनारक्षित रखने का एक और लॉजिक यह है कि यह सीट सैद्धांतिक रूप से सभी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए खुली होगी। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे यह माना जाने लगा है कि अनारक्षित सीट का मतलब सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण हुआ जो कि संवैधानिक रूप से ग़लत है क्योंकि वस्तुतः एससी, एसटी और ओबीसी को उनकी वास्तविक जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया है । अत: ऐसी सीटों पर सबका अधिकार होगा जो कि प्रतियोगिता और उसके परिणाम का निर्धारण वर्टिकल रूप में तय हो । प्रो.काले समिति ने 200 सीटों का कैटेगरी के अनुसार 200पॉइंट का रोस्टर तैयार किया उसे ही 200पॉइंट्स रोस्टर कहा जाता है ।
किंतु, मेरा मानना है कि पहली पांच सीटों का वितरण; पहली दिव्यांग, दूसरी एससी, तीसरी एसटी, चौथी ओबीसी और पाँचवी ऑपन कैटेगरी की होनी चाहिए ताकि सभी वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल सके और उसके बाद 200पॉइंट्स रोस्टर के फॉर्मूले के आधार पर सीटों का निर्धारण करने के लिए 200 नंबर का एक चार्ट बना दिया जाए । प्रोफ़ेसर काले समिति द्वारा तैयार रोस्टर के अनुसार अगर किसी संस्था / विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कुल 200 पदों का वितरण के अनुसार निम्न प्रकार है।
ओबीसी: 04,08,12,16,19,23,26,30,34,38,42,45,49,52,56,60,63,67,71,75,78,82, 86,89,93,97,100,104,109,112,115,119,123,126,130,134,138,141,145,149,152,156,161,163,167,171,176,178,182,186,189,193,197,200वां पद
एससी: 7,15,20,27,35,41,47,54,61,68,74,81,87,94,99,107,114,121,127,135, 140,147,154,162,168,174,180,187,195,199वांपद
एसटी : 14,28,40,55,69,80,95,108,120,136,148,160,175,188,198वां पद
विवाद की वजह
प्रो. काले समिति द्वारा बनाए गए इस रोस्टर ने विश्वविद्यालों द्वारा निकाली जा रही नियुक्तियों में आरक्षित वर्ग की सीटों की चोरी को लगभग नामुमकिन बना दिया, क्योंकि इसने यह तक तय कर दिया कि आने वाला पद किस समुदाय के कोटे से भरा जाना है। इस वजह से बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय सहित अधिकाँश विश्वविद्यालय इस रोस्टर के खिलाफ हो गए थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह रोस्टर एससी-एसटी के लिए 1997 और ओबीसी के लिए 2006 से लागू माना जाना था, साथ ही एससीएसटी को बैकलॉग भी देना था । मान लीजिए कि किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से अपने यहां आरक्षण लागू किया, लेकिन उसने अपने यहां उसके बाद भी किसी एसटी, एससी, ओबीसी को नियुक्त नहीं किया।
ऐसी सूरत में उस विश्वविद्यालय में 2005 के बाद नियुक्त हुए सभी असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों की सीनियरिटी के अनुसार तीन अलग-अलग लिस्ट बनेगी। अब मान लीजिए कि अगर उस विश्वविद्यालय ने असिस्टेंट प्रोफेसर पर अब तक 43 लोगों की नियुक्ति हुई जिसमें कोई भी एससी-एसटी और ओबीसी नहीं है, तो रोस्टर के अनुसार उस विश्वविद्यालय में अगले 11 पद ओबीसी, 06 पद एससी, और 03 पद एसटी उम्मीदवारों से भरने ही पड़ेंगे, और जब तक आरक्षित पद नहीं भरे जाएँगे तब तक उक्त विश्वविद्यालय कोई भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर अनारक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं कर सकता है, यहीं से नियुक्तियों का पैच फँस गया क्योंकि मनुवादियों के सरे चोर दरवाजे बंद हो गये जिसको वे आरक्षण-विरोधी मानसिकताओं के जजों, कुलपतियों और न्यायालयों के माध्यम से भरना चाहते हैं और इलाहबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीमकोर्ट के अभी हाल ही में आये निर्णय इसी की परिणिति है ।
परिणामस्वरूप कई विश्वविद्यालयों ने तो रोस्टर मानने से ही इनकार कर दिया । चूंकि ज़्यादातर विश्वविद्यालयों ने अपने यहां प्रतिनिधित्व सिर्फ कागज पर ही लागू किया था, इसलिए इस रोस्टर के आने के बाद वे बुरी तरह फंस गए और अब फड़फड़ा रहे हैं । सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि उच्च शिक्षण संस्थानों / विश्वविद्यालयों में 70 के दशक में लगी नौकरियों में सवर्ण लोगों ने कब्ज़ा किया हुआ है और वे अब सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो एक तरफ वे उच्च शिक्षण संस्थानों में उनके वर्चस्व वे बनाये रखना चाहते हैं । दूसरी तरफ ख़ाली हुए अधिकाँश पदों पर एससी-एसटी का बैकलॉग बनेगा, जो सवर्णों को फूटी आँख नहीं सुहा रहा है ।
साथ ही, चूंकि वो नया पद अनारक्षित वर्ग के लिए तब तक नहीं निकाल सकते थे, जब तक कि पुराना बैकलॉग भर न जाय। ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू, डीयू, और शांति निकेतन समेंत तमाम विश्वविद्यालयों ने इस रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू किए जाने का विरोध करने लगे। उन्होंने विभाग स्तर पर ही रोस्टर लागू करने की मांग की। इन विश्वविद्यालयों ने 200 पॉइंट रोस्टर को जब लागू करने से मना कर दिया, तो यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने प्रो. राव साहब काले की ही अध्यक्षता में इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों के खिलाफ जांच समिति बैठा दी तो दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तक रोक दिया था। दिल्ली विश्वविद्यालय का फंड तब प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेप से ही रिलीज हो पाया था। चूंकि उन दिनों केंद्र की यूपीए सरकार के तमाम घटक दलों में क्षेत्रीय पार्टियां थीं, इसलिए तब इन विश्वविद्यालयों में विरोध परवान नहीं चढ़ पाया था।
मोदी सरकार आने के बाद आरक्षण विरोधियों और आरएसएस के हौसले बुलंद
इसी बीच 2014 के आम चुनाव बाद बनीं केंद्र में सरकार की मेहरबानियों की वजह से विश्वविद्यालयों की नियामक संस्था, यूजीसी में 200 पॉइंट रोस्टर का विरोधी रहा तबका, प्रमुख स्थानों पर विराजमान हो गया। बदले प्रशासनिक माहौल में यह रोस्टर इलाहाबाद हाईकोर्ट में चैलेंज होता है, और वहां से निर्णय आता है कि रोस्टर को विश्वविद्यालय स्तर पर लागू न करके विभाग स्तर पर लागू किया जाये। वस्तुतः किसी भी उच्च न्यायालय का निर्णय उसके ज्यूरीडिक्शन में ही लागू होता है पर दुर्भावनावश यूजीसी ने उसको सारे देश में लागू कर दिया। फिर बहुजनों का सड़क और संसद में हंगामा होता है, और मामले को शांत करने के लिए उच्चतम न्यायालय में एसएलपी दायर हुई और मोदीसरकार के वकीलों ने आरएसएस के नेतृत्व में केस की बहुत ही कमजोर पैरवी की और दायर याचिका ख़ारिज हुई । परंतु यह देखना है कि क्या केंद्र सरकार इस मामले में अध्यादेश लाती है, या फिर कई और वादों की तरह मुकर जाती है।
आजादी के बाद से 70 वर्षों से सामाजिक अन्याय बहुत हो चुका हैं अब हम इस अन्याय को सहन नहीं कर सकते हैं। अब सामाजिक न्याय के लिए इस बार सरकार से सड़क से संसद तक संघर्ष करेंगें और साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करेंगे। 200Point रोस्टर वाले मसले का फिलहाल एकमात्र समाधान मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अध्यादेश लाकर या कानून बनवाकर, देश के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में सभी वर्गों का संवैधानिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करवाना ही है। इसीलिए हम सबकी कोशिश यही होनी चाहिए कि जबतक लोकसभा चुनाव की अधिसूचना नहीं जारी हो जाती तब तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर दबाव बनवाकर अध्यादेश या कानून बनवाया जाय ताकि वंचित वर्गों के साथ 70 सालों से जो सामाजिक अन्याय हो रहा हैं उसे रोका जा सके और वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय मिल सकें।
मोदीसरकार के पास अब विकल्प क्या है?
1) मोदीसरकार के पास अब तीन ही रास्ते हैं और तीनों का वैचारिक आधार अलग है। सरकार सुप्रीमकोर्ट का फैसला लागू करे और रिज़र्वेशन का अंत कर दे! अगर सरकार को लगता है कि सवर्णों को खुश करने से उसका काम चल जाएगा और आरक्षण विरोधी नज़र आना उसके लिए फायदेमंद होगा, तो सरकार को अब कुछ नहीं करना चाहिए।
2) सुप्रीमकोर्ट का फैसला अपने आप लागू हो जाएगा और विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में बहुजनों का आरक्षण खत्म हो जाएगा, वे वापस पेशवाई-युग में जीने लगेंगे तो आरएसएस की आत्मा को संतुष्टि मिल जाएगी। मनुस्मृति ख़ुद-ब-ख़ुद लागू हो जाएगी पर सरकार ये फैसला तभी लेगी, जब उसे भरोसा होगा कि एससी-एसटी-ओबीसी इसका संगठित रूप से विरोध नहीं करेंगे। वे कमर में झाड़ू और गले में थूक-पात्र लगाने को तैयार नहीं होंगे, पर क्या चुनाव करीब होने के कारण सरकार यह फैसला लेगी?
3) या मोदीसरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच के पास जाए। सरकार चाहे तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका या किसी और याचिका के माध्यम के ज़रिए अपील करे और बड़ी बेंच के सामने सुनवाई की अपील करे। ऐसा करने से सरकार को थोड़ा समय मिल जाएगा और एससी-एसटी-ओबीसी का गुस्सा भी मैनेज हो जाएगा। चूंकि सरकार 10% आरक्षण के ज़रिए सवर्णों के सामने गाजर लटका ही चुकी है, इसलिए उसे सवर्णों की नाराज़गी का डर नहीं होगा।
4) या फिर मोदीसरकार तत्काल अध्यादेश या सत्र के दौरान कानून लाकर सुप्रीमकोर्ट के फैसले को पलट दे और विश्वविद्यालयों में नियुक्ति-प्रक्रियाओं पर तब तक पाबंदी लगाकर रखे जब तक अध्यादेश या कानून प्रभावी नहीं हो । अगर सरकार संविधान की भावना के मुताबिक काम करना चाहती है और चाहती है कि आरक्षण लागू हो, तो उसके पास मात्र कानून बनाने या अध्यादेश लाने का विकल्प खुला है। सरकार ऐसा तभी करेगी, जब उसे इस बात का भय होगा कि ऐसा न करने से एससी-एसटी-ओबीसी नाराज़ हो सकते हैं।
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