बिरसा मुंडा का ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ राज’ का सपना कब पूरा होगा!
प्रोफ़ेसर
डॉ राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, एनएच-8, अजमेर
ईमेल:prof.ramlakhan@gmail.com
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प्रमुख आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व
में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी दशक में मुंडाओं के महान आन्दोलन
उलगुलान के बीज डाले थे। उलगुलान का शाब्दिक अर्थ 'भारी कोलाहल व उथल-पुथल' होता है; उलगुलान सृजन के लिए, उलगुलान शोषण के खिलाफ़,
उलगुलान अपने हक़ों के लिए, उलगुलान झूठ और
फरेब के खिलाफ़, उलगुलान ब्रितानी और सामंती व्यवस्था के
खिलाफ़। 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज' अर्थात
हमारे देश में हमारा शासन का नारा देकर भारत वर्ष के छोटानागपुर क्षेत्र के
आदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की हुकुमत के सामने कभी घुटने नहीं
टेके, ना ही सर झुकाया बल्कि जल, जंगल
और जमीन के हक के लिए अंग्रेजी के खिलाफ 'उलगुलान' अर्थात क्रांति का आह्वान किया। वे स्वयं महारानी विक्टोरिया के पुतले पर
तीरों से वार करके तीरंदाजी का अभ्यास किया करते थे।
उलगुलान लोकसत्ता को स्थापित करने हेतु। बिरसा
के आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार को आदिवासी हित के लिए कानून लाने पर मजबूर किया और
साथ ही आदिवासियों का विश्वास जगाया कि 'दिकुओं’ के खिलाफ वे खुद अपनी लड़ाई लड़ने में काबिल
हैं। बिरसा ने लोगों को एकजुट करने के लिए चयनित एवं गुप्त स्थानों में सभा करवाई,
प्रार्थनाओं को रचा और अंग्रेजी शासन के अंत के लिए हर संभव प्रत्यन
किये । बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं। “धरती-अबा”
(धरती-पिता) नाम से हर होठ ने उन्हें पुकारा और पूजा । 1886-87 में अंग्रेजों के
दलाल और उनके मुंडा सरदारों ने जब 13 की उम्र में भूमि वापसी का आंदोलन की बगावत
को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके
पिता चाईबासा से वापस आ गए। 1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना
उनके व्यक्तितत्व का निर्माण काल था। 1890 में चाईबासा छोडऩे के बाद बिरसा और उसके
परिवार ने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ दी क्योंकि मुंडाओं/सरदारों का आंदोलन
मिशन के विरूद्ध था ।
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी
ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई
छेड़ी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था।
यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए
संग्राम था। उलगुलान नाम से मुंडा विद्रोह झारखण्ड का सबसे बड़ा और अंतिम
रक्ताप्लावित जनजातीय विप्लव था, जिसमे हजारों की संख्या में
मुंडा आदिवासी शहीद हुए। बिरसा मुंडा ने मुंडा आदिवासियों के बीच अंग्रेजी सरकार
की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक करना शुरू किया और कहा “Our land is blowing away as the dust blows away in
the storm” “हमारी धरा वैसे ही चली गयी जैसे तूफान में धूल उड़ चली
हो”
आदिवासी वैसे भी पुराणों से
भी पुराने और भारत के वास्तविक बाशिंदे हैं। मगर विकास की अंधदौड़ में उन्हें हमेशा
ही दरकिनार किया गया। उनसे उनके ही संसाधनों को छीन कर गुलामों का जीवन जीने को
विवश किया जाता रहा है। इसी लूट से लड़ने के लिए बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज के
बीच “उलगुलान” के बीज डाले थे क्योंकि उलगुलान लोकसत्ता को स्थापित करने बहुत
जरूरी हेतु है। वे यह जानते थे कि आदिवासियों से उनके संसाधन की लूट के खिलाफ़ “उलगुलान”
ही उनका हथियार व जवाब होगा। जब सरकार द्वारा उन्हें रोका गया और गिरफ्तार कर
लिया तो उसने धार्मिक उपदेशों द्वारा आदिवासियों में राजनीतिक चेतना फैलाना शुरू
किया। उसने मुंडा समुदाय में धर्म व समाज सुधार के कार्यक्रम शुरू किये और तमाम
कुरीतियों से मुक्ति कर प्रण लिया। बिरसा कहते थे, आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं, बिरसा के विचार मुंडाओं और
पूरी आदिवासी कौम को संघर्ष की राह दिखाते रहे। आज भी आदिवासियों के लिए बिरसा का
सबसे बडा स्थान है।
पादरी नोतरोत ने एक दिन बिरसा
मुंडा की उपस्थिति में कहा : ये मुंडा सरदार लोग बेइमान होते हैं। (धर्म परिवर्तन
में बाधक होने के कारण) तुरंत बिरसा मुंडा ने इस पर प्रतिवाद किया-मुंडा लोग तो
बेइमान क्या होता है उसे जानते भी नहीं और आज हमें बेइमान कह रहे हैं। जरा बताइए
तो हम मुंडाओं ने किसकी धरती लूटी, किसका धन लूटा, किसका धर्म लूटा,
किसकी धाक (राज्य) लूटी? ये सब तो आप लोग लूट
रहे हैं। हमारा आदि धरम तक आप ने लूट लिया और हमें बेइमान कहते हैं। मुंडाओं ने
1895- 1900 में बिरसा के नेतृत्व में खूंटकट्टी के अधिकार को समाप्त करने के
विरुद्ध उलगुलान किया। 1907-1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बना। वे उलगुलान
द्वारा अलग झारखंड राज्य की स्थापना चाहते थे। यदि सही मायने में देखा जाये,
तो बिरसा मुंडा उस समय के राजनीतिक - सामाजिक परिस्थितियों की उपज
थे। उनके पूर्व ही छोटानागपुर के आदिवासी सरदारों ने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी।
उनके प्रखर नेतृत्व का उभरना तत्कालीन समय की मांग थी।
बिरसा मुंडा ने तीन
महत्वपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उलगुलान किया। प्रथम, वे जल, जमीन और जंगल जैसे संसाधनों की रक्षा करना चाहते थे। दूसरा, नारी की यश - प्रतिष्ठा की रक्षा और सुरक्षा करना चाहते थे। तीसरा,
धर्म और संस्कृति की मर्यादा को बना कर रखना चाहते थे। उनके पूर्व कोल,
संथाल, मुंडा, सरदार जितने भी विद्रोह हुए, सब जमीन की रक्षा
के लिए ही हुए जबकि बिरसा मुंडा ने इन तीनों मुद्दों के लिए अपनी शहादत दी। यही
कारण है कि आज वे लोगों के बीच 'भगवान बिरसा’ और 'धरती अब्बा’ (पृथ्वी पिता) के रूप में स्थापित हैं। तत्कालीन
मुंडा और आदिवासी समाज में बिरसा मुंडा का आगमन एक सामाजिक और धार्मिक सुधारवादी
नेता के रूप में हुआ। ईसाई धर्म उन पर थोपने की कोशिशें हुईं व वैष्णव धर्म में उन्हें
दीक्षित करने के षडयंत्र हुए थे। लेकिन उनकी अंतरात्मा आदिवासी संस्कृति में
रची-बसी हुयी थी और वे आदिवासी 'सिंगबोंगा’ को परमात्मा के
रूप में पूजा करते रहे। बिरसा मुंडा एक लोकप्रिय नेता के रूप में उभर कर आये,
क्योंकि उन्होंने जमीन की रक्षा के लिए और शोषण के खिलाफ और
आदिवासी-जीवन मूल्यों के लिए उलगुलान किया।
2500
वर्षों में ब्राहमणवादी संकीर्ण सोच की ही वजह से भारत के अब तक 24 टुकड़े हो चुके
हैं। 'राइट्स एंड
रिसोर्सेज इनीशिएटिव' और 'सोसाइटी फॉर
प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट' के मुताबिक आने वाले 15
सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते भारत में संघर्ष और अशांति की
आशंका है। आदिवासियों को मुख्यधारा में लाये बिना इस देश में परिवर्तन की कोई बात
बेमानी है। यह आर्थिक
अश्वमेध और हिंदुत्वनामी-हिंसा के समय में
सबसे बड़ी चुनौती है। हिंदुत्ववादी लोग उन्हें मूलधारा यानी हिंदुत्व की विकृतियों
और संकीर्णताओं से जोड़ने पर तुले हैं और उनको रोजी-रोटी के मुद्दे से ध्यान हटा कर
अलगाव की ओर धकेला जा रहा है।
आरएसएस
ने धारदार हथियारों और आयुध-भंडार से अपने को समृद्ध किया हुआ है जिसका उपयोग वे
मूलवासियों को समूल नष्ट करने में अवश्य करेंगे।
जिस तरह मूलवासियों / आदिवासियों पर
अत्याचार बढ़ रहे थे /अभी भी जारी हैं और उपनिवेशवादी नीतियाँ सरकारी नीतियाँ बन
रही (थी) हैं, बिरसा का इतिहास और
उनके सिद्धांत भविष्य के आदिवासी
आन्दोलनों के लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण पेश करता रहेगा। आदिवासी कौन है ? आदिवासी कौन-सा धर्म मानता है ? आदिवासी की परम्पराएं
क्या है ? आदिवासियों की कोई भी परम्परा अन्य धर्मों से
मेल क्यों नहीं खाती है ? ऐसे अनेकों प्रश्न है जो यह सोचने
पर मजबूर करते है कि आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों किया जा रहा है, इन सबका खुलासा
होना जरूरी है।
मकेर स्टेवार्ट-हारावीरा ने अपनी पुस्तक ‘नव साम्राज्यिक व्यवस्था : मूल देशजों का भूमंडलीकरण को प्रति उत्तर’ (दी न्यू इंपीरियल आर्डर : इंडीजिनॅस रेसपॉन्स टू ग्लोबाईजेशन) में हाशिए अर्थात मूलदेशज लोगों की त्रासदियों के कारण और उनके प्रतिरोध की गहनता को विश्व में हो रहे राजनीतिक-आर्थिक संरचनात्मक परिवर्तनों के मद्देनजर समझने-समझाने का प्रयास किया है। भारत की जनगणना की शुरूआत अंग्रेजों ने
1871-72 में की थी, तब से लेकर
आज तक प्रत्येक 10 वर्ष में यह जनगणना सम्पन्न कराई जाती है। जनगणना के आँकड़ों
के हिसाब से आदिवासी को क्या कहा गया है। 1871 से लेकर 1941 तक की जनगणना में
आदिवासी को अन्य धमों से अलग धर्म में गिना गया है, जिसे Aborgines (1871-1901), Aborigional (1911),
Animist (1921), Triabal Religion (1931), Tribes (1941) आदि कहा
गया है। आदिवासियों की गणना सदैव हिंदुओं से अलग ग्रुप में की गई है ।
लेकिन 1951 की जनगणना से आदिवासी
को Scheduled Tribe बना कर अलग गिनती करना बन्द कर दिया गया
है और एक राजनीतिक षडयंत्र के जरिए हिंदू बना दिया । साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र
ने ‘पाप के चार हथियार’ में
ब्राहमणवादी-षडयंत्र को बखूबी विश्लेषित किया है। साथ ही, मूलवासियों के साथ हो रहे घिनोने खेल को समझने
के लिए राममनोहर लोहिया किताब, ‘हिंदू बनाम हिंदू’ का अध्ययन ज़रूरी है। आदिवासियों को हिंदू बनाने का षडयंत्र जम्बूद्वीपे
/कालासागर (यूरेशिया) के निवासियों; जो निर्दयता और बर्बरता के लिए विख्यात स्कूटी
समुदाय (एक क्रूर और अत्याचारी मानव
जाति) एक शाखा ने कालांतर में हिंदूकुश के रास्ते भरतखण्डे
(भारतवर्ष) के बंगाल प्रांत में प्रवेश से किया और अपनी देवी इनन्ना की संकल्पना
को दोहराते हुए महिषासुर को पहले शिकार बनाया तथा इसी ब्रह्म
पुराण, अध्याय 18,
श्लोक 21, 22, 23 संकल्प को मूलवासियों को
चिरकाल तक मानसिक गुलाम बनाये रखने के क्रम में यज्ञों-अनुष्ठानों के नाम पर सदैव दोहराते हैं ।
वहीं, दूसरी शाखा खाड़ी-देशों में होते हुए इजरायल, दोनों का डीएनए एक-सा है ।
आप सब जानते हैं भारत देश की
जनगणना केन्द्र सरकार द्वारा प्रत्येक 10 वर्ष के अन्तराल पर सम्पन्न कराई
जाती है। जनगणना में सभी प्रकार के आँकड़े मौजूद रहते है। बिरसा आंदोलन के मूल में भी
यही आर्थिक, सामाजिक,
धार्मिक और सांस्कृतिक कारक प्रमुख थे । वह आंदोलन भूमि से लेकर धर्म-सम्बंधी तमाम
समस्याओं के खिलाफ जनसंघर्ष था और साथ ही उन समस्याओं के राजनीतिक समाधन का प्रयास
भी । वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आंतरिक बुराइयों और कमजोरियों को दूर करने
का सामूहिक अभिक्रम भी था। बिरसा ने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जो प्रयास
किया, वह अंग्रेज हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बनी। बिरसा के
नेतृत्व में आदिवासी समाज ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी । इस क्रम में
बिरसा ने मुंडा जनजाति और पूरे आदिवासी समाज की उन सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान
की दिशा में पहल की, जो आदिवासी संस्कृति पर हिंदू, मुसलमान और ईसाई पंथ के बढ़ते 'दबाव' की वजह से पैदा हुई और हो रही थीं ।
प्रश्न उठता है कि क्यों आदिवासियों का अलग
धर्म खत्म कर दिया गया ? 1951 की
जनगणना के पेज नम्बर 136 पर लिखा है कि ‘In 1901
Animism was treated as separate religion in 1931. Animism
was replaced by the Tribal religion and in 1941 the concept of religion gave
place to that of community.’ इसका मतलब साफ है
कि 1951 में आकर सरकार ने आदिवासियों से उनकी अस्मिताओं को बलात छिनकर उन्हें जबरदस्ती
अपने राजनैतिक फायदे के लिए अन्य धर्मों विशेष रूप से हिंदू धर्म में शामिल कर
दिया, जबकि इससे पहले आदिवासी की गणना अलग धर्म के
रूप में ही हो रही थी। बिडंबना देखिए आदिवासियों को लगभग सभी धर्म अपना हिस्सा बनाने
में लगे हैं किंतु, उनकी जठराग्नि (पेट की भूख) और अस्मिताओं
का साथी कोई भी नहीं बनना चाहता है। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों
के शोषण-दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहा था। कहा जाता है कि जब गांव के
एक व्यक्ति की मृत्यु हुई थी उस मृत शव के साथ चावल और कुछ पैसे भी गाड़ दिये गये
थे। (आदिवासी समाज में शव के साथ कपड़ा, थोड़ा चावल व पैसा
डाला जाता है)।
भूखे पेट की वजह से बिरसा (बालपन में) उस पैसे को कब्र से निकालने पर
मजबूर हुए। उस पैसे से उन्होंने चावल खरीद कर मां को पकाने के लिए दिया था। इस
गरीबी के बावजूद भी बिरसा मुंडा ने कभी घुटने नहीं टेके। बिरसा ने नारा दिया कि “महारानी
राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” अर्थात '(ब्रिटिश) महारानी का
राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो’। इस तरह बिरसा ने
आदिवासी स्वायत्ता, स्वशासन पर बल दिया। बिरसा मुंडा समाज पर
आने वाले खतरों को वह पहले से ही अवगत कराते रहे थे। जब अंग्रेजों का दमन बढ़ने
वाला था तब उन्होंने अपने लोगों से कहा कि ‘होयो दुदुगर हिजुतना रहडी को छोपाएपे
(अंग्रेजों का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ)।’ बिरसा मुंडा के
आंदोलन ने अंगरेज शासकों को महसूस करा दिया कि आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा जरूरी है और वे बखूबी करना
जानते है उन्हें किसी का मोहताज होने की कतई ज़रूरत नहीं है । बिरसा ने महसूस किया
था झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है ‘यह उनका घर आंगन है।’ नदियां जितनी दूर
तक बह रही है ‘उतना लंबा इस समाज का इतिहास है।’ पहाड़ की ऊंचाई के जैसी ऊंची हमारी
संस्कृति है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
उनकी पहली गिरफ्तारी अंगरेज प्रशासन के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक जीआरके
मेयर्स के नेतृत्व में 24 अगस्त 1895 को चलकद से हुई। उन्हें 19 नवंबर 1895 को
भारतीय दंड विधान की धारा 505 के तहत दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी।
30 नवंबर 1897 को रिहा किया गया। 1897 में रांची जिले में भारी अकाल पड़ा और 1898
में हैजा की महामारी फैली। 1899 की रबी फसल भी अच्छी नहीं हुई। तत्कालीन सरकार ने
आदिवासियों की कोई परवाह नहीं की। ऐसे संकट के समय स्थानीय जमींदार व साहूकारों ने
भी आदिवासियों का शोषण मनमाने ढंग से किया। इन स्थितियों को देख कर बिरसा मुंडा ने
फिर से विद्रोह का रास्ता अख्तियार किया। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ 'इंडियन फारेस्ट एक्ट’
1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए। उलगुलान
शुरू हो गया था।
बिरसा मुंडा ने आंदोलन का नेतृत्व जंगलों में छुपते हुए किया। उनके सैकड़ों
अनुयायी गिरफ्तार किये गये। उन्होंने जोर देकर कहा कि इतिहास गवाह है कि इस राज्य
की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छू से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के
जल, जंगल, जमीन पर हमारा खूंटकट्टी
अधिकार है। कोई भी यहां की जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि
भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विशेष अधिकार मिला है, यह है पांचवीं अनुसूची क्षेत्र। इसे 5वीं अनुसूची क्षेत्र में आदिवासियों
के जंगल, जमीन, पानी, गांव, समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित,
विकसित एवं नियंत्रित करने का अधिकार है।
आंदोलन के परिणामस्वरूप बिरसा की गिरफ्तारी के लिए स्ट्रीटफील्ड ने फिर
चेतावनी दी कि तुरंत आत्मसमर्पण करें नहीं तो गोंलियां चलायी जायेगी। लेकिन
आंदोलनकारी निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों की गोंलियों से छलनी घायल एक-एक कर
गिरते गये। डोंबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाशें बिछ गयी। कहते हैं खून से तजना नदी
का पानी लाल हो गया। जब बिरसा को खोजने अंगरेज सैनिक सामने आये, तो आदिवासी महिला माकी
मुंडा एक हाथ से बच्चा संभाले दूसरे हाथ से टांगी थामे सामने आयी। जब सैनिकों ने
उनसे पूछा कि तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए कहा कि तुम
कौन होते हो मेरे ही घर में पूछने वाले कि मैं कौन हूं?
3/4 फरवरी 1900 को जराई केला के रोगतो गांव के 07
मुंडाओं ने 500 रुपये इनाम के लालच में सोते हुए बिरसा को
खाट सहित बांधकर बंदगांव लाकर अंग्रेजों को सौंप दिया। अदालत में बिरसा पर झूठा
मुकदमा चला और उसके बाद उन्हें जेल में डाल दिया गया। वहां उन्हें अंग्रेजों ने
धीमा जहर दिया, जिससे 9 जून 1900
को बिरसा की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने यह संदेश देने की कोशिश की
उनकी मृत्यु स्वभाविक हुई, क्योंकि बिरसा की मौत की बजाय
हत्या की खबर फैलती तो आदिवासियों के गुस्से को रोक पाना असंभव हो जाता। बिरसा
मुंडा के उलगुलान का आह्वान किया था दिकू राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना (दिकू
राज खत्म हो गया-हमलोगों का राज शुरू हुआ)।
देश के स्वतंत्रता संग्राम के मैदान में बिरसा मुंडा, डोंका मुंडा सहित सिदो,
कान्हू, चाँद, भैंरों फूलो झानो, सिंदराय
बिंदराय, गया मुंडा माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी शहादत दी।
तिलका मांझी, सिंदराय बिंदराय जैसे आदिवासी शहीद देश के
इतिहास के पहले संग्रामी थे। (1856-1900 का दशक)। बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड ही
नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जननायक रहे हैं। इनके बलिदान और
संघर्षों के परिणामस्वरूप वर्ष 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू हुआ,
जिसमें आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा का प्रावधान किया गया। आज
बिरसा मुंडा हमारे बीच सशरीर विद्यमान नहीं, पर पूरे देश में
आदिवासी-स्वतंत्रता की उनकी अकुलाहट की अनुगूंज अब भी बाकी है।
आदिवासियों की दुर्दशा का प्रमुख कारण संविधान के अनुच्छेद 244 (1)
पाँचवीं और छठी अनुसूचियों का सटीक अनुपालना नहीं होना है ! बिडंबना देखिए अनुसूचित
क्षेत्र के ‘आदिवासी समाज’ शिक्षित होने के बाद भी अपने अधिकारों
के प्रति अनिभिज्ञ है ! ‘ट्राइबल डेवलपमेंट’ तथा ‘सुरक्षा ‘के लिए ‘भारत के संविधान में दर्जनों प्रावधानों के बावजूद इनका अपेक्षित लाभ
इन्हें नहीं मिल रहा है। संविधान प्रदत्त अधिकारों की उपेक्षा लंबे अरसे से की जा
रही है, लेकिन ‘आदिवासी समाज’ में जो ‘शिक्षित वर्ग’ संविधान
के प्रावधानों की जानकारी रखता है, उनमें इच्छाशक्ति का इतना
अभाव है कि वे समय-समय पर संविधान की उपेक्षा के कारण उत्पन्न होने वाले प्रतिकूल
परिणामों को महसूस करते हुए भी समस्याओं के समस्याओं की दिशा में कोई कारगर पहल
नहीं करते। यह हमारी विडम्बना रही है - " जो जानते है ! वे बोलते नहीं और जो
बोलते है वो जानते नहीं।”
आदिवासियों को बिरसा मुंडा जैसे अपने पूर्वजों का शत-शत नमन करना चाहिए, जिनके कठिन संघर्षो एवं
दूरदृष्टि के कारण आज ‘आदिवासी समाज’ का
अस्तित्व जीवित है। संविधान में दिए गए प्रावधानों के अनुपालन की जिम्मेवारी
निश्चित तौर पर उन आदिवासी राजनेताओं की थी, जिन्हें राज्य
चलाने का जनादेश आम जनता ने दिया और सरकार की कुर्सी पर सम्मान के साथ बिठाया गया।
मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि हमारे ट्राइबल्स नेताओं ने अपने
कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया। इसे जानबूझ कर उनकी उपेक्षा कहे या अज्ञानता। जिस
संविधान को गढ़ने में संविधान निर्माताओं को करीब 185 वर्ष
लगे हो, उनकी गंभीरता ऐसे ही समझ में आती है। इन 185 सालों में संविधान निर्माता बाबासाहब अम्बेडकर और जयपाल मुण्डा ने दिन-रात
मेहनत करके ट्राइबल समाज के सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक एवं अस्मिता से जुड़े हुए पहलुओं को एकत्रित कर ट्राइबल्स के हित
में संविधान निर्माण की जिम्मेदारी को पूरा किया। इसके बाद यदि संविधान का मकसद
आजादी की 70 सालो में धूमिल हो जाए तो यह एक गंभीर समस्या
है। इस पर चिंतन की आवश्यकता है।
भारतीय संविधान में 'पांचवी अनुसूची' के अनुच्छेद 244
(1) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और
नियंत्रण के अधिकार का कानून है। लेकिन विडम्बना यह है की इस कानून को पूर्णरूप से
आज तक लागु नहीं किया गया ! भारत के नौ प्रांतो में कई अनुसूचित क्षेत्र है लेकिन
आज भी वहां के आदिवासियों को अपने ही क्षेत्र में अपना ‘एडमिनिस्ट्रेसन
’ और ‘कंट्रोल’ प्राप्त
नहीं है। भारत में शासन का नियंत्रण दो तरीके से होता है। पहला ‘लोकल इलेक्शन’ के उपरांत सांसद , पार्षद के माध्यम से और दूसरा ‘राष्ट्रपति’ के द्वारा। अनुसूचित क्षेत्र का नियंत्रण सिर्फ भारत के ‘राष्ट्रपति’ और भारत के ‘प्रांतीय
राज्यपाल’ के द्वारा होता है। ‘अनुसूचित
क्षेत्र’ (शेड्यूल फाइव एरिया) में इलेक्शन कराये जाने का
कोई प्रावधान नहीं है क्योंकि 'पांचवी अनुसूची' भारत के आदिवासी क्षेत्रों पारम्परिक ‘ग्रामसभा’
का अपना नियंत्रण और प्रशासन होता है।
‘पांचवी
अनुसूची’ का कानून के अनुसार इस क्षेत्र में कोई भी किसी भी
तरह का संसदीय चुनाव या पार्षद पद का कोई औचित्य ही नहीं है क्योंकि सारा नियंत्रण
सिर्फ 'ग्रामसभा' के जरिए किया जाना था
। लेकिन फिर भी इन क्षेत्रों में असंवैधानिक तरीके से चुनाव कराकर अनुसूचित
क्षेत्र के लोगों से नियंत्रण और प्रशासन उनके हाथो से छीन लिया गया। भारत के सभी
राज्यों में राज्य से संबंधित संवैधानिक सामान्य कानून लागु है और वे सुचारु रूप
से चल रहे है लेकिन ‘पांचवी अनुसूची’ अभी
भी अधर पर लटका हुआ है, यही कारण है की इन क्षेत्रों में कई
राजनितिक दल जोंक की तरह चिपक कर ‘अनुसूचित क्षेत्र’ के लोगों के अधिकारों को चूस रहा है ! लीडर बन कर सभी इतराते है लेकिन जब
पांचवी अनुसूची की बात करो तो सबको साँप सूंघ जाते है ! जुबान पर ताला जड़ जाता है
!
ऐसे नक्कारे लीडर की अब कोई आवश्यकता नहीं ! 'सिलेटसाफ', पार्टियों के चापलूस और वफादार नेताओं की अब कोई जरुरत नहीं ! काम का ना
काज का दुश्मन अनाज का ! हर कोई मंत्री या राजनेता अनुसूचित क्षेत्र के विषय पर
बोलने से कतराते है। ‘पांचवी अनुसूची’ के
संवैधानिक कानून के विषय में आज लोगों के बीच किसी राजनितिक दलो ने कभी जिक्र तक
नहीं किया। जुबान मानो सील जाते है इनके ! ये क्यों बताएँगे ? इन्हें पता है की जिस दिन अनुसूचित क्षेत्र के लोगों को अपने निजी कानून
और अधिकार के बारे में ज्ञान हो गयाउस दिन इन राजनीतिक दलो को यहाँ से बोरिया
बिस्तर बांध कर भागना पड़ेगा। मैं तो कहता हूँ की 'पाँचवी
अनुसूची' को आज ही लागू करें फिर देखिये कैसे इस प्रकार की
समस्या का अंत होता है या नहीं ! संविधान की 'पांचवी अनुसूची'
के प्रावधानों को पिछले 70 वर्षों में अमल में
नहीं लाया गया। यह एक गंभीर मामला है।
‘पांचवी
अनुसूची’ क्षेत्र में आदिवासियों के बीच नियंत्रण एवं
प्रशासन के लिए 'पि –पेसा' या 'पेसा कानून' 1996 की धारा 4(0)
के तहत ‘स्वायतशासी परिषद्’ का नियमावली राज्य सरकार को बनाना था , जो विधि
सम्मत था लेकिन आजतक लागु नहीं किया गया। । आदिवासियों के कल्याण एवं उन्नति के
लिए संविधान का अनुच्छेद 275 (1) के तहत ‘केंद्रीय कोष’ की व्यवस्था है पर आज सामान्य क्षेत्र
का कानून लागू कर आदिवासियों को असीमित कोष से वंचित किया जा रहा है। आदिवासी
इलाकों के शांति एवं सुशासन के लिए अपवादों एवं उपन्तारणों के अधीन रहते हुए ‘ग्राम सभा’ को सारे अधिकार दिया जाना था लेकिन पुलिस
कानून, कोर्ट व्यवस्था, प्रखंड
व्यवस्था आदि आज इसी व्यवस्था का बोलबाला है। भारत का संविधान आदिवासियों के बीच
शांति और सुशासन देने की बात कहती है। यानि यह ‘सामान्य
कानून व्यवस्था’ अनुसूचित क्षेत्र के लिए नहीं है। फिर भी आज
हम इसी व्यवस्था से शासित हैं !
कितनी विडंवना है की यह हमारा देश भारत है और सभी आदिवासी राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ़ आंध्र प्रदेश,
गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य
प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा, राजस्थान जहाँ आदिवासियों की संख्या सघन है उन्हें उनके हक़ और संवैधानिक अधिकारों
से वंचित रखा गया। है । ‘पांचवी अनुसूची’ क्षेत्र में आदिवासियों के बीच नियंत्रण एवं प्रशासन के लिए 'पिसा' या 'पेसा कानून'
1996 की धारा 4(0) के तहत ‘स्वायतशासी परिषद्’ का नियमावली राज्य सरकार को
बनाना था , जो विधि सम्मत था लेकिन आजतक लागु नहीं किया गया।
। आदिवासियों के कल्याण एवं उन्नति के लिए संविधान का अनुच्छेद 275 (1) के तहत ‘केंद्रीय कोष’ की
व्यवस्था है पर आज सामान्य क्षेत्र का कानून लागू कर आदिवासियों को असीमित कोष से
वंचित किया जा रहा है।
आदिवासी इलाकों के शांति एवं सुशासन के लिए अपवादों एवं उपन्तारणों के
अधीन रहते हुए ‘ग्राम सभा’ को सारे अधिकार दिया जाना था लेकिन पुलिस
कानून, कोर्ट व्यवस्था, प्रखंड
व्यवस्था आदि आज इसी व्यवस्था का बोलबाला है। भारत का संविधान आदिवासियों के बीच
शांति और सुशासन देने की बात कहती है। यानि यह ‘सामान्य
कानून व्यवस्था’ अनुसूचित क्षेत्र के लिए नहीं है। फिर भी आज
हम इसी व्यवस्था से शासित हैं ! कितनी विडंवना है की यह हमारा देश भारत है और सभी
आदिवासी राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ़ आंध्र प्रदेश, गुजरात ,हिमाचल प्रदेश ,मध्य
प्रदेश , महाराष्ट्र , ओडिसा ,राजस्थान जहाँ आदिवासियों की संख्या सघन है उन्हें उनके हक़ और संवैधानिक
अधिकारों से वंचित रखा गया। है । दुःखद बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में सरकार ने उद्योगपतियों को निमंत्रण देकर सरकारी खजानो से
विज्ञापन तक दे रहे है, बुला रहे है हमारा झारखण्ड, हमारा छत्तीसगढ़, हमारा मध्यप्रदेश टाइटल होता है 'द अपोरच्युनिटी ऑफ़ लेंड' कमाल है ! किसके लिए ?
आदिवासियों के लिए या उद्योगपतियों के लिए ? संवैधानिक
कानून का हनन कौन कर रहा है ? कहते है देश का संविधान
सर्वोपरि है फिर आज तक आदिवासी क्षेत्रों के कानून को 70 वर्षो
से लंबित करने का क्या प्रयोजन है ?
अधिकांश उद्योग अनुसूचित क्षेत्रों में स्थापित होने वाले हैं एक लाख एकड़
से भी अधिक आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। अब प्रश्न ये उठता है कि
जब कोई भी ‘अनुसूचित क्षेत्र’ में जमीन अधिग्रहण नहीं कर सकता
तो फिर कैसे किसी बाहरी व्यक्ति को जमीन मुहैया कराया जा रहा है ? कौन लोग है जो इन उद्यमियों को जमीन बेच रहा है ? 'ग्रामसभा'
के सहमति के बगैर कैसे कोई इन आदिवासियों की जमीन खरीद सकता है ?
सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए कि रैयती जमीन को ले जाने से
आदिवासियों का विस्थापन हो रहा है। 'पांचवी अनुसूची' के कानून के अनुसार अनुसूचित-क्षेत्र में राजनीतिक दलों एवं चुनाव का
पूर्ण निषेध है। 'पांचवी अनुसूची' आदिवासियों
के अस्तिव और जीवन को संरक्षित करने का एक मात्र उपाय है, और
इसे जल्द से जल्द पूर्णरूप से इन क्षेत्रों में लागू करके ही धरती-आबा बिरसा मुंडा
को सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं;
'बिरसा
तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो
या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम
उत्तर दक्षिण से
आकाश-पाताळ से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते हैं..!
वीर
बिरसा, भगवान बिरसा, धरती अब्बा तुम्हें कोटि-कोटि
नमन.!!
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