संपादकीय : मूकनायक पाक्षिक
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का ऐतिहासिक भाषण
आगरा,
18 मार्च 1956
समाज के जिम्मेदार लोगों
से बाबासाहब की अपील
संपादक
प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, डी.लिट्-
मीडिया
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आप सब-के-सब एकजुट होकर ऐसे
जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करें जो अपने वैयक्तिक लोभ और लालच से ऊपर उठकर आम जन के
हित में कल्याणकारी कार्यों को आगे बढाएं । यदि कोई तुम्हें अपने महल में बुलाता
है तो स्वेच्छा से जाओ, लेकिन अपनी झौपड़ी में आग लगाकर नहीं । यदि वह राजा किसी
दिन आपसे झगड़ता है और आपको अपने महल से बाहर धकेल देता है, उस समय तुम कहां जाओगे?
यदि तुम अपने आपको बेचना चाहते हो तो बेचो, लेकिन
किसी भी हालत में अपने संगठन को बर्वाद होने की कीमत पर नहीं । मुझे दूसरों से कोई
खतरा नहीं है, लेकिन मैं अपने लोगों से ही खतरा महसूस कर रहा
हूँ। मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ । मैं उनके
लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ । मैं उनकी दु:ख और तकलीफों को नजरन्दाज नहीं कर
पा रहा हूँ। उनकी तबाहियों का मुख्य कारण उनका भूमिहीन होना है । इसलिए वे
अत्याचार और अपमान के शिकार होते रहते हैं और वे अपना उत्थान नहीं कर पाते। मैं
इसके लिए संघर्ष करने की आपसे अपील करूंगा । यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा
उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूंगा और इनकी वैधानिक लड़ाई लडूँगा ।
लेकिन किसी भी हालात में भूमिहीन लोगों को जमीन दिलवाने का प्रयास करूंगा ।
बहुत जल्दी ही मैं तथागत बुद्ध के धर्म को अंगीकार कर लूंगा
। यह प्रगतिवादी धर्म है। यह समानता, स्वतंत्रता एवं वंधुत्व पर आधारित है । मैं
इस धर्म को बहुत सालों के प्रयासों के बाद खोज पाया हूँ । अब मैं जल्दी ही
बुद्धिस्ट बन जाऊंगा । तब एक अछूत के रूप में मैं आपके बीच नहीं रह पाऊँगा,
लेकिन एक सच्चे बुद्धिस्ट के रूप में तुम लोगों के कल्याण के लिए
संघर्ष जारी रखूंगा । मैं तुम्हें अपने साथ बुद्धिस्ट बनने के लिए नहीं कहूंगा,
क्योंकि मैं आपको अंधभक्त नहीं बनाना चाहता हूँ। किन्तु, जिन्हें इस
महान धर्म की शरण में आने की तमन्ना है, वे बौद्ध धर्म अंगीकार कर सकते हैं जिससे
वे इस धर्म में दृढ विश्वास के साथ रहें और बौद्धाचरण का अनुसरण करें। बौद्ध धम्म
महान धर्म है। इस धर्म के संस्थापक तथागत बुद्ध ने इस धर्म का प्रसार किया और अपनी
अच्छाईयों के कारण यह धर्म भारत में दूर-दूर तक गली-कूचों और विदेशों में पहुंच
सका । लेकिन महान उत्कर्ष पर पहुंचने के बाद यह धर्म 1213 ई.
में भारत से विलुप्त हो गया जिसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण यह भी है कि
हिंदूवादी प्रचारकों के कई षडयंत्रों और लालच की वजह से बौद्ध भिक्षु विलासतापूर्ण
एवं आराम-तलब जिदंगी जीने के आदी हो गये थे । धर्म प्रचार हेतु स्थान-स्थान पर
जाने की बजाय उन्होंने विहारों में आराम करना शुरू कर दिया तथा रजवाड़ों की प्रशंसा
में पुस्तकें लिखना शुरू कर दिया ।
इसलिए जन साधारण में से अच्छे लोगों को भी इस धर्म प्रसार
हेतु आगे आना चाहिये और इनके संस्कारों को ग्रहण करना चाहिये । हमारे समाज की
शिक्षा में कुछ प्रगति हुई है । शिक्षा प्राप्त करके कुछ लोग उच्च पदों पर पहुँच गये
हैं परन्तु इन पढ़े लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है । मैं आशा कर रहा था कि उच्च
शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे समाज की सेवा करेंगे, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि छोटे और बड़े
क्लर्कों की एक भीड़ एकत्रित हो गयी है, जो अपनी तौदें (पेट)
भरने में व्यस्त हैं। मेरा आग्रह है कि जो लोग शासकीय सेवाओं में नियोजित हैं,
उनका कर्तव्य है कि वे अपने वेतन का 20वां भाग
(5%) स्वेच्छा से समाज सेवा के कार्य हेतु दें । तभी समग्र
समाज प्रगति कर सकेगा अन्यथा केवल चन्द लोगों का ही सुधार होता रहेगा । कोई भी
होनहार बालक जब किसी गांव में शिक्षा प्राप्त करने जाता है तो संपूर्ण समाज की आशाएँ
उस पर टिक जाती हैं। एक शिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता समाज के लिए वरदान साबित
हो सकता है । अत्यंत दुःख का विषय है कि आज मेरे अपने लोग ब्राहमणवाद की तर्ज पर
नवब्राहमण दलित, आदिवासी और पिछड़े समाजों में न केवल पनप रहे हैं बल्कि अपनी आमदनी
का मोटा हिस्सा देवी-देवताओं और मंदिरों में खर्च कर रहे हैं जो आरक्षण के खात्मे
का प्रमुख कारण बना हुआ है, जबकि उस अकूत धन का सदुपयोग दलित-वंचित समाजों के
युवाओं के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर पैदा करने में कर सकते हैं ।
मेरी आखरी उम्मीद होनहार छात्र है उन्हें शिक्षा प्राप्त
करने के बाद किसी प्रकार की क्लर्की करने के बजाय उसे अपने गांव की अथवा आस-पास के
लोगों की सेवा करना चाहिये, जिससे अज्ञानता से उत्पत्र शोषण एवं अन्याय को रोका जा
सके । आपका उत्थान समाज के उत्थान में ही निहित है। बाबासाहब ने यह भी कहा कि "आज मेरी स्थिति एक
बड़े खंभे की तरह है, जो विशाल टेंटों को संभाल रही है । मैं
उस समय के लिए चिंतित हूँ कि जब यह खंभा अपनी जगह पर नहीं रहेगा। मेरा स्वास्थ ठीक
नहीं रहता है । मैं नहीं जानता कि मैं कब आप लोगों के बीच से चला जाऊँ । मैं किसी
एक ऐसे नवयुवक को नहीं ढूंढ पा रहा हूँ, जो इन करोड़ों असहाय
और निराश लोगों के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी ले सके। यदि कोई नौजवान इस
जिम्मेदारी को लेने के लिए आगे आता है, तो मैं चैन से मर
सकूंगा ।"
आज बाबासाहब का डर हक़ीकत बन गया है देश के पांच फ़ीसदी से
भी कम आबादी वाले संभ्रांत तबके ने संविधान ही नहीं देश के लोकतंत्र को भी को
हाईजैक कर लिया हैं और 95 फ़ीसदी तबके को उसका लाभ नहीं मिल रहा है। आज़ादी के बाद ही देश में जिस
तरह पॉलिटिकल फ़ैमिलीज़ पैदा हो गईं और पूरी सत्ता उन्हीं के आसपास घूम रही है ।
संविधान से उन्हीं की हित पूर्ति हो रही है और उनके परिवार या उनसे ताल्लुक रखने
वाले ही लाभ ले रहे हैं, इससे साफ लग रहा है कि बाबासाहब अंबेडकर
की आशंका कतई ग़लत नहीं थी । राजनीति में 'एक व्यक्ति
एक मत' और 'एक मत एक आदर्श' के सिद्धांत को मानेंगे। मगर सामाजिक-आर्थिक संरचना के आदर्श सिद्धांत को
नहीं मानेंगे । आख़िर कब तक हम अंतर्विरोधों के साथ जिएंगे? कब तक सामाजिक-आर्थिक समानता को नकारते रहेंगे ? अगर लंबे समय तक ऐसा किया
गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा । इसलिए, हमें यथाशीघ्र
यह अंतर्विरोध ख़त्म करना होगा, वरना असमानता से पीड़ित लोग
उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्वस्त कर देंगे, जिसे बहुत मुश्किल से तैयार
किया गया है ।'' आओ
! सब मिलकर बाबासाहब के बलिदान और उनके सपनों को पूर्ण ईमानदारी और समर्पित भाव से
आगे बढाएं ...