स्त्री-विमर्श और सामाजिक मीडिया
प्रोफ़ेसर (डॉ.)
राम लखन मीना
सामाजिक मीडिया पारस्परिक संबंध के लिए अंतर्जाल या अन्य माध्यमों
द्वारा निर्मित आभासी समूहों को संदर्भित करता है। यह व्यक्तियों और समुदायों के
साझा, सहभागी बनाने का माध्यम है। इसका उपयोग सामाजिक संबंध
के अलावा उपयोगकर्ता सामग्री के संशोधन के लिए उच्च इंटरैक्टिव प्लेटफार्म बनाने
के लिए मोबाइल और वेब आधारित प्रौद्योगिकियों के
प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है। सामाजिक
मीडिया की समालोचना विभिन्न प्लेटफार्म के अनुप्रयोग में आसानी, उनकी क्षमता, उपलब्ध जानकारी की विश्वसनीयता के आधार
पर होती रही है। हालाँकि कुछ प्लेटफॉर्म्स अपने उपभोक्ताओं को एक प्लेटफॉर्म्स से
दुसरे प्लेटफॉर्म्स के बीच संवाद करने की सुविधा प्रदान करते हैं पर कई
प्लेटफॉर्म्स अपने उपभोक्ताओं को ऐसी सुविधा प्रदान नहीं करते हैं जिससे की वे
आलोचना का केंद्र विन्दु बनते रहे हैं। वहीँ बढती जा रही सामाजिक मीडिया साइट्स के
कई सारे नुकसान भी हैं। ये साइट्स ऑनलाइन शोषण का साधन भी बनती जा रही हैं। ऐसे कई
केस दर्ज किए गए हैं जिनमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का प्रयोग लोगों को सामाजिक
रूप से हनी पहुँचाने, उनकी खिचाई करने तथा अन्य गलत
प्रवृत्तियों से किया गया।
सामाजिक मीडिया के व्यापक विस्तार
के साथ-साथ इसके कई नकारात्मक पक्ष भी उभरकर सामने आ रहे हैं। पिछले वर्ष मेरठ में
हुयी एक घटना ने सामाजिक मीडिया के खतरनाक पक्ष को उजागर किया था। वाकया यह हुआ था
कि उस किशोर ने फेसबूक पर एक ऐसी तस्वीर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तीजनक थी, इस तस्वीर के अपलोड होते ही कुछ घंटे के भीतर एक समुदाय के सैकडों
गुस्साये लोग सडकों पर उतार आए। जब तक प्राशासन समझ पाता कि माजरा क्या है,
मेरठ में दंगे के हालात बन गए। प्रशासन ने हालात को बिगडने नहीं
दिया और जल्द ही वह फोटो अपलोड करने वाले तक भी पहुँच गया । लोगों का मानना है कि पारंपरिक
मीडिया के आपत्तीजनक व्यवहार की तुलना में नए सामाजिक मीडिया के इस युग का
आपत्तीजनक व्यवहार कई मायने में अलग है। नए सामाजिक मीडिया के माध्यम से जहां
गडबडी आसानी से फैलाई जा सकती है, वहीं लगभग गुमनाम रहकर भी
इस कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि यह सच नहीं है,अगर
कोशिश की जाये तो सोशल मीडिया पर आपत्तीजनक व्यवहार करने वाले को पकडा जा सकता है
और इन घटनाओं की पुनरावृति को रोका भी जा सकता है । केवल मेरठ के उस किशोर का पकडे
जाना ही इसका उदाहरण नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया की ही देन
है कि लंदन दंगों में शामिल कई लोगों को वहाँ की पुलिस ने पकडा और उनके खिलाफ
मुकदमे भी दर्ज किए और भी कई उदाहरण है जैसे बैंकुअर दंगे के कई अहम सुराग में
सोशल मीडिया की बडी भूमिका रही । मिस्र के तहरीर चैक और ट्यूनीशिया के जैस्मिन
रिवोल्यूशन में इस सामाजिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को कैसे नकारा जा सकता है
।
सामाजिक मीडिया की आलोचना उसके
विज्ञापनों के लिए भी की जाती है। इस पर मौजूद विज्ञापनों की भरमार उपभोक्ता को
दिग्भ्रमित कर देती है तथा ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स एक इतर संगठन के रूप में
काम करते हैं तथा विज्ञापनों की किसी बात की जवाबदेही नहीं लेते हैं जो कि बहुत ही
समस्यापूर्ण है। सामाजिक मीडिया अन्य पारंपरिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से
एकदम अलग है। इसमें पहुँच ,आवृत्ति, प्रयोज्य,
ताजगी, और स्थायित्व आदि तत्व शामिल हैं।
इन्टरनेट के प्रयोग से कई प्रकार के प्रभाव होते हैं। निएलसन के अनुसार ‘इन्टरनेट प्रयोक्ता अन्य साइट्स की अपेक्षा सामाजिक मीडिया साइट्स पर
ज्यादा समय व्यतीत करते हैं’। दुनिया में दो तरह की
सिविलाइजेशन का दौर शुरू हो चुका है, वर्चुअल और फिजीकल
सिविलाइजेशन। आने वाले समय में जल्द ही दुनिया की आबादी से दो-तीन गुना अधिक आबादी
अंतर्जाल पर होगी। दरअसल, अंतर्जाल एक ऐसी टेक्नोलाजी के रूप
में हमारे सामने आया है, जो उपयोग के लिए सबको उपलब्ध है और
सर्वहिताय है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स संचार व सूचना का सशक्त जरिया हैं, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं। यही से
सामाजिक मीडिया का स्वरूप विकसित हुआ है।
समाज में यदि सच में ही समानता लानी है, तो मनुष्य को तन
और मन से सभ्य होना पड़ेगा । केवल तन की सभ्यता नैतिकता, मानवता
का अवमूल्यन मात्र है। याद कीजिये, क्या अपने कभी आर्थिक रूप
से कमजोर व्यक्ति को किसी बड़े आन्दोलन या सामाजिक बदलाव का नेतृत्व करते देखा है?
राजा राम मोहन राय,बाल गंगाधर तिलक, सर सैयद अहमद खान, भीमराव अम्बेडकर,छत्रपति शाहूजी महाराज,ज्योतिबा फुले, मोहनदास करमचंद गाँधी, कांशीराम या महिलाओं में
रज़िया सुल्तान, लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी,
सावित्रीबाई फुले, पंडिता रामाबाई, रकमाबाई, बेगम भोपाल, ज़ीनत
महल – कौन थे ये लोग ? ग़रीब-गुरबा?
नहीं! सीधी सी बात है, समाज से भिड़ने के लिए
और उसके दबाव को झेलने के लिए जो आर्थिक मज़बूती चाहिए, अगर
वह नहीं है तो आपकी सारी ‘क्रांति’ जिंदा
रहने की जुगत के हवाले हो जाती है।खुद को संभाल न पाने वाला इन्सान कैसे किसी
आर्थिक-सामाजिक विरोध और असहयोग को झेलकर समाज से टकराएगा ? एक निराश्रित, भूखे, कमजोर से
यह उम्मीद कि वह क्रांति की अलख जगाकर परिस्थितियां बदल दे, निहायत
मासूमाना मुतालबा है। लेकिन इस मामले को अगर आप स्त्री-विमर्श के हवाले से समझें
तो परत-दर-परत एक गहरी होशियारी और आत्मलोभ का कच्चा चिठ्ठा खुलने लगता है।
कौन नहीं जनता कि संपत्ति में बंटवारे को लेकर समाज
कितना पुरुषवादी है। बेटियों को हिस्सा देने के नाम पर क़ानूनी बारीकियों के जरिये
ख़ुद को फायदे में रखने की ख़ातिर कितने वकीलों-जजों को रोजगार मुहैया कराया जा
रहा है और बेटी का ‘हिस्सा’ तिल-तिल कर दबाया जा रहा है। इसके बरक्स अगर
आप पुरुषों के विमर्श और साहित्य की दुनिया पर नज़र डालें तो शायद ही कोई हो जो यह
न मानता हो कि महिलाओं को सशक्तिकरण की ज़रूरत है। जो महिलावादी विमर्श-लेखन में
नहीं हैं वे भी और जो बाज़ाब्ता झंडा उठाये हैं वे तो ख़ैर मानते ही हैं कि समाज
में औरतों की हालत पतली है। आजकल तो पुरुषों द्वारा कविता-कहानी के ज़रिये भी
स्त्रियों की दयनीयता को महसूसने की कवायद शुरू हो चुकी है। ऐसे में ज़रूरी हो
जाता है कि इनसे कहा जाय कि ज़रा आत्मावलोकन करें।अब इस लेखन और स्त्री आन्दोलन
में पुरुष सहयोग की भागीदारी उस स्तर पर है कि जिम्मेदारी भी डाली जाय। पिछले
तीन-चार सालों से जब से महिला विषयक लेखन से जुड़ी हूँ, तब
से ही कुछ ख़ास तरह के साहित्य और विमर्श से दो-चार हूँ। अक्सर तो लेखक-प्रकाशक
टिप्पड़ी-समीक्षा के लिए किताबें भेज देते हैं। कुछ इन्टरनेट लिंक और साफ्ट कापी
आदि भी आती रही है, जिनमें अक्सर कविताएँ मिलीं जो स्त्री और
स्त्री-चरित्रों का आह्वान करती हैं। पिछले लगभग एक साल से ऐसे निजी और सामुदायिक
ब्लॉगों की भी भरमार हैजिनमें स्त्री-केन्द्रित कविता-कहानी-विमर्श छाया हुआ है।
कुछ कविताएँ अपपनी माँ, नानी, दादी
वगैरह को मुखातिब हैं उनकी ज़िन्दगी के उन पहलुओं और हादसों को याद करती हैं जब
उन्हें सिर्फ़ बेटी, बहू, माँ, बहन समझा गया, लेकिन इन्सान नहीं। जो ख़ानदान में
तयशुदा किरदारों में ढल गयीं और भूल गयीं कि वे अपने आप में एक इन्सान भी हैं।
जिनके होने से परिवार-खानदान की कई जिंदगियां तो संवर गईं लेकिन खुद उनका वज़ूद
मिट गया। कुछ और इसी तरह के स्त्री-विमर्श पर नज़र डालूं तो,पुरुष-लेखकों
का एक और वर्ग है जो अनुभूति के स्तर पर ‘स्त्री-मन’ में प्रवेश कर, वहाँ उतर जाता है जहाँ से वे खुद औरत
बनकर दुनिया देख रहे हैं। उनके भीतर की स्त्री के नजरियों को लेखनी में उतरना और
फिर उन बारीकियों को आत्मसात करना।
आज समाज में जिन स्रोतों से ताकत, सम्मान, आत्मविश्वास हासिल किया जाता है,स्त्री को भी ज़रूरत उन्हीं की है न कि दैहिक चिंतन के चक्रव्यूह में फंसकर असली मुद्दों
से भटकने की। जो पुरुष-समाज स्त्री-मुक्ति-विमर्श में शामिल है, उनसे दो टूक सवाल है कि पिता-भाई के रूप में क्या आपने अपनी बेटी और बहन
को परिवार की जायदाद में हिस्सा दिया या कन्नी काट गए? अगर
पिता-भाई के रूप में पुरुष ईमानदार और न्यायप्रिय नहीं है तो उनकी बेटियां-बहनें
अबलायें ही बनी रहेंगीं। पति-ससुराल और समाज में हैसियत-हीन बनने की प्रक्रिया
मायके से ही शुरू होती है जब– (1) विवेकशील होने के लिए
शिक्षा नहीं मिलती। (2) आत्मविश्वासी होने के लिए आज़ादी
नहीं मिलती। (3) आत्मनिर्भर होने के लिए परिवार-पिता की जायदाद
में हक़ बराबर हिस्सा नहीं मिलता। ये तीनों धन बेटियों को पीहर में मिलने चाहिए।
अगर औरत इनसे लैस है तो ससुराल-पति क्या पूरे समाज के आगे ससम्मान ज़िन्दगी तय है
लेकिन अगर पिता ही ने उसे इनके अभाव में अपाहिज बना दिया है तो क्या मायका,
क्या ससुराल और क्या बाहर की दुनिया- सभी जगह उसे समझौते ही करने
हैं और आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता
पर कितने ही प्रवचन उसका कोई भला नहीं कर सकते। साहित्य-जगत में स्त्री-सबलीकरण पर
आप अगली बार जब भी सोचें, कृपया यहीं से सोचें कि खुद आपने
अपनी बेटी-बहन-पत्नी को परिवार की संपत्ति में ‘हक़ बराबर’
हिस्सा दिया क्या? क्योंकि मध्यवर्ग में
स्त्री-शिक्षा पर चेतना तो कमोबेश आ गयी है, दूसरी तरफ
सरकारी नीतियों की वजह से भी लड़कियों की शिक्षा आगे बढ़ी है लेकिन मर्द की जहाँ
अपनी ताक़त-हैसियत में निजी स्तर पर भागीदारी की बात आती है, वह सरासर मुजरिम की भूमिका में है। तब वह दहेज़,भात,
नेग आदि कुरीतियों की आड़ में छुपकर मिमियाता है कि हम बहन-बेटी को
ज़िन्दगी भर देते ही हैं। बेटी को दहेज़-भात-नेग में टरकाने वाले यह सब खुद रख लें
अपने लिए और जो अपने लिए जायदाद दबा रखी है वह बेटियों-बहनों को दे दें तो चलेगा?
स्री-विमर्श पर साहित्य सृजन की प्रवृत्ति व्यापक
होने लगी। स्त्री-विमर्श पर चर्चा करने से पहले हमें देखना होगा कि साहित्य का
उद्देश्य क्या होना चाहिए। स्त्री लेखन या स्त्री के लिए साहित्य लेखन। यदि स्त्री
की स्थिति को गंभीर चिंता का विषय मानकर साहित्य सृजन को स्त्री लेखन का नाम दिया
जाए तो यह केवल साहित्य के एकांगी पक्ष को ही प्रतिफलित करेगा। अगर हम नारी उत्थान
एवं मुक्ति की बात करें तो हमारा वांग्मय स्री-लेखन स भरा हुआ है। उपनिषद, कथा सरित सागर,
पंचतंत्र से लेकर रामायण, महाभारत में स्त्री
जाति के उत्थान को प्रेरित करने वाले साहित्य से भरा हुआ है। भारतीय समाज में
स्त्री की स्त्री की स्थिति का अति गंभीरता से चिंतन हुआ है। प्रेमचंद एवं
प्रेमचंदोत्तर साहित्य में नारी की स्थिति का विस्तार से वर्णन हुआ। प्रेमचंद के
सभी उपन्यासों के नारी पात्र सामाजिक विसंगतियों से जूझते मिलेगें। बड़े घर की
बेटी, अलगोझ्या, कफ़न, जैसी प्रेमचंद की कहानियों में नारी की वेदनामय स्थिति का चित्रण हुआ है।
प्रेमचंद के समकालीन प्रसाद की आकाशदीप, मधुलिका जैसी कहानियों
में नारी के त्याग, उदात्त रूप का चित्रण मिलता है। प्रेमचंदोत्तर
साहित्यकारों में जैनेन्द्र कुमार, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, शिवपूजन सहाय की रचनाओं में नारी की
वेदनामय स्थिति का चित्रण मिलता है। मैं यहां यशपाल की दिव्या, भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा का जिक्र कर देना जरुरी समझता हूं। नारी
वेदना से जुड़े सवालों का जवाब समय रहते
नहीं मिला तो आने वाला समय किसी को माफ़ नहीं करेगा ।
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