स्त्री-विमर्श
के अनछुए पहलू : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
भारतीय
परंपरा में प्राचीन काल से पुरुषों और महिलाओं को जीवन के सभी पहलुओं में बराबर का
दर्ज़ा देकर सम्मानित किया गया है। इस सम्मान को ईश्वर के अर्धनारीश्वर रूप में आधा
पुरुष व आधा महिला दिखा कर निरूपित किया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि दोनों
सृष्टि के संरक्षण व पोषण में बराबर के भागीदार हैं। यहां तक कि हमारे शरीर में
कोशिकाओं के स्तर पर भी प्रत्येक जीन में पिता व मां दोनों की भागीदारी है।
प्रत्येक व्यक्ति में उन दोनों ऊर्जाओं का संतुलन है। यह वही सिद्धांत है जिसे
पुरुष और प्रकृति (यिन और यांग) के द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया है। एक स्वस्थ
प्रगतिशील समाज के लिए प्रत्येक व्यक्ति के भीतर इनका संतुलन भली भांति से बना
रहना चाहिये। हमें महिलाओं का और उनकी भूमिका का सम्मान अवश्य ही करना चाहिए।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुद्दा सिर्फ भारत केंद्रित नहीं है। यह पूरे विश्व की
समस्या है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दे को केवल महिलाओं के अधिकारों के
मुद्दे रुप में देखा जाता है जबकि ऐसा नहीं देखना चाहिए। यदि महिलाएं अपने को
सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं तो कहीं समाज का ताना बाना टूट चुका है। यह एक
मानवाधिकार का मुद्दा है,
और पुरुषों एवं महिलाओं को इस अन्याय के खिलाफ लड़ना चाहिए और इसका
समाधान ढूंढने के लिए एक साथ खड़े होना चाहिए। हमें विश्व स्तर पर हाथ मिलाकर
मानवीय मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और
दुर्व्यवहार को रोकने के लिए मिलकर आवाज उठाने की आवश्यकता है।
हमारी
संस्कृति का आध्यात्मिक ज्ञान हमें शांति का ऐसा वातावरण प्रदान कर सकता है। हमें
ऐसे आध्यात्मिक गुरुओं के दिखाए हुए मार्ग का अनुसरण करना चाहिये जिन्होंने समाज
में मानवीय मूल्यों को संरक्षित व पोषित करने के लिए, एवं
प्राचीन ज्ञान और परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए, स्वयं
को समर्पित कर दिया हो। हमें सभी पुरुषों और महिलाओं में करुणा की भावना जागृत
करने की आवश्यकता है। यहीं पर ध्यान, प्राणायाम और साधना की
विधियाँ मदद करती हैं। वे हमें संचित तनाव से मुक्त करके मन को फिर से ताज़ा और पुनर
ऊर्जित कर के उचित निर्णय लेने के लिए सक्षम बना देती हैं। यह दुख की बात है कि
दुनिया भर के समाज में यह बीमारी फैली हुई है। जहां इन घटनाओं के बारे में
जागरूकता पैदा करने में मीडिया की एक महत्वपूर्ण भूमिका है, वहीं
मीडिया इस चर्चे को समाधान की ओर भी मोड़ सकती है। महानगरों में बढ़ती घटनाओं की
संख्या एक चिंता का विषय है। यह हमें महिलाओं के प्रति हो रहे अन्याय व हिंसा के
प्रति सजग कर रही है। हम पूर्णतः उन लोगों का समर्थन करते हैं जिन्होंने इसके
विरोध में कदम उठाया है। यह उनकी अन्तर्शक्ति को दर्शाता है। वह लड़ना चाहते हैं और
उनकी न्याय की मांग को सुना जाना चाहिये और उन्हें पूरा समर्थन मिलना चाहिए।
हालांकि समाधान के लिए अधिक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हमें यह भी समझने की
ज़रूरत है कि चिंता और आक्रामकता के द्वारा कोई समाधान नहीं निकल सकता। हमें एक
शांत मन की जरूरत है और ऐसे ही स्पष्ट मनोस्थिति से यह निर्णय लेना है कि हमें किस
के लिए लड़ना है और वह कैसे होगा? हम शांति व स्पष्टता से ही
इन मुद्दों से निपटने के लिए दीर्घकालीन स्थायी समाधान निकाल सकते हैं।
अक्सर, केवल
नकारात्मक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने से भय और चिंता का एक दुष्चक्र पैदा हो
जाता है। इसके बजाय यदि मानवीय मूल्यों और जीवन में आध्यात्मिकता की भूमिका पर
अधिक ध्यान केंद्रित करें तो हम मित्रता और दया का वातावरण बनाने में मदद कर सकते
हैं। जब अपने आसपास के लोगों के साथ हम अपनापन महसूस करते हैं तो अन्याय को रोकने
के लिए हम अधिक तत्पर रहेंगे। समाज में महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने में
एक अन्य महत्वपूर्ण कारक सरकार की प्रभावशीलता है। इसके अलावा अपराधियों के
विरुद्ध सख्त कार्यवाही का क़ानून लागू होना आवश्यक है। हमें समाज में शराब के सेवन
से उत्पन्न खतरे के सम्बन्ध में बोलने की भी जरूरत है। शराब पीना अक्सर एक फैशन या
स्टाइल स्टेटमेंट के रूप में दर्शाया जाता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि नशे के
प्रभाव में एक शिक्षित सुसंस्कृत व्यक्ति भी असभ्य व्यवहार करने लगता है। विकसित
देशों में भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा की कई घटनाओं की जड़ शराब का सेवन है। तथापि
हमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह समझना है कि सामाजिक बुराइयों का मूल कारण मानवीय
मूल्यों का पतन है। हम में से हरेक को आगे आना है और अपनेपन की भावना, मिल कर रहने के मनोभाव व सेवा के लिए प्रतिबद्ध रहने के आध्यात्मिक मूल्यों
को पोषित करना है जो कि एक स्वस्थ, खुशहाल और सामंजस्यपूर्ण
समाज बनाने का मूलभूत आधार है।
2009 से 2015 तक छ: वर्षों में महिलाओं
के खिलाफ अपराध के 16 लाख 26 हजार
मामले दर्ज किए गए हैं। इस अवधि में केवल 4 लाख 24 हजार
मामलों की सुनवाई हुई और आधे से भी कम का निपटारा किया गया है। स्त्री विमर्श आज अपनी ऊचाईयां छू रहा है और समाज को एक नारी के प्रति नये
दृष्टि कोण से देखने के लिए प्रेरित कर रहा है, साथ ही समाज
की जमीनी सच्चाईयों से भी इनकार नही किया जा सकता कि नारी आज भी प्रताड़ित है।
दरअसल उसकी इस प्रताड़ना के पीछे की वास्तविक कारणों की पड़ताल की आवश्यकता है। वह
किससे प्रताड़ीत है तथा किसकी प्रताड़ना के विरूध लामबंद हुए है यह भी गौर करने
योग्य है। यदि कुछ भौतिक असामनताओं को नजर-अंदाज कर दे, तो
वास्तव में प्रकृति ने नर-नारी को एक जैसा ही बनाया है। इन असमानताओं को आधुनिक
युग के अविष्कारों ने बहुत हद तक कम कर दिया है। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि आदिम
काल में पुरूष एवं स्त्री में कोई भेद(आश्य ऊंच-नीच से है) नहीं था। बल्कि शिकार
के महत्व कम होने एवं कृषि की खोज के पहले तक मानव समाज में स्त्रियों का ही
बोल-बाला था। इस बारे में श्री देवी प्रसाद चटोपाध्याय जी अपनी किताब लोकायत में
लिखते है-''कृषि के प्रारंभिक चरण में देव स्तर पर स्त्री और
पुरूष की प्रधानता उलटी हो गई। स्त्री आगे बढ़ गई और पुरूष को या तो पृष्ठभूमि में
पीछे धकेल दिया गया या कम से कम इतना हुआ कि उसे स्त्री की नकल करने के लिए बाध्य
होना पड़ा। ये सब बातें तर्क संगत थी।
कृषि के प्रारंभिक चरण में
स्त्री का सामाजिक महत्व बढ़ गया था क्योकि कृषि की खोज स्त्रियों ने ही की थी।`` जे.डी. बरनाला का मानना है -''चूकि खाद्य सामग्री
इकट्ठा करना स्त्रियों का काम था इसलिए संभवत: उन्होने ही कृषि की खोज की। जो भी
हो यह कृषि कार्य कम से कम तब तक स्त्रियां ही करती रही जब तक बैल व्दारा हल चलाने
या जुताई करने की विधि का अविष्कार नही हुआ। जुताई एक प्रकार के हल से की जाती थी
जो पाषाण-काल में खुदाई के काम में लाई जाने वाली लकड़ी के आधार पर बना था और
जिसका प्रयो स्त्रियां जमीन से कंद-मूल निकालने के लिए करती थी। जहां जहां शिकार
से अधिक महत्व खाद्य सामग्री जुटाने के लिए कृषि को मिला वहां स्त्रियों का स्तर
उचा उठा और मातृ कुल के अनुसार वंशानुक्रम चलाने की बजाय पितृ कुल के अनुसार
वंशानुक्रम चलाने की प्रवृत्ति रूकी और इसे उलट दिया गया। पितृ कुल के अनुसार
वंशानुक्रम चलाने की प्रवृत्ति सबसे पहले शिकार वाले चरण में आरंभ हुई थी। केवल
उन्ही स्थानों पर जहां पशुपालन ही प्रमुख व्यवसाय था, जैसे
कृषि प्रधान बस्तियों के आस-पास के क्षेत्र में पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था
पूर्ण रूप में स्थापित हुई, जैसा कि हम बाइबल में देखते है (60.60-1)
।`` यदि हम इतिहास में परिवार की आर्थिक व्यवस्था पर गौर
करें तो पाते है कि जब-जब आर्थिक व्यवस्था पूरूष के हाथों गई तब-तब पूरूष की सहचरी
स्त्री हुई (आशय पितृसत्ता से है)। मातृ सत्ता के मामले में ठीक उल्टा हुआ। यह
व्यवस्था भी अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के नियम का उल्लंघन नहीं करती है।
लेकिन इस सत्ता परिवर्तन में कुछ ऐसे भी कारक होते हैं जिन्हें हम अक्सर नजर-अंदाज
कर देते है। वह है पहला- राजनैतिक अस्थिरता दूसरा- सामाजिक बंधन, तीसरा- धार्मिक कट्टरता तथा चौथा है- परिवार का स्तर। लगभग प्रत्येक धर्म
/ समाज ने स्त्री की लज्जा को समाज की लज्जा से जोड़ा है। इसके परिणाम-स्वरूप
स्त्री की लज्जा व्यक्तिगत लज्जा न होकर सार्वजनिक लज्जा हो गई । संकुचित अर्थ में
कहें तो उसकी लज्जा का तालीबानी-करण हो गया । ज्यादातर सक्रिय महिलाओं का भी ऐसा
ही मानना है । बस यही से शुरू होता है स्त्री की स्वतंत्रता का हनन । यानि स्त्री
का प्रत्येक कदम सार्वजनिक लज्जा को ठेस पहुचाता है। परोक्ष या अपरोक्ष रूप से
इसके परिणाम भी स्त्री को ही भुगतने पड़े । हमारे शास्त्रों-पुराणों में ऐसे
हजारों संदर्भ भरे पडे है जिनमें स्त्री को एक वस्तु या सम्पत्ति की तरह पुकारा
गया है। धर्म के ठेकेदारों ने भी ईश्वर के पश्चात पूरा ध्यान स्त्री पर ही
केन्द्रित किया तथा सारे नियम कायदों से स्त्रियों को लाद दिया गया । मेरा मानना
है कि असंयमित वासना प्राप्ति संघर्ष से बचने के लिए पूरूष प्रधान समाज ने ही
विवाह जैसी संस्था का निर्माण किया और उसके यौन मामलों को लज्जा की संज्ञा देकर एक
बेहद कीमती और नाजुक कांच की दीवार बना दिया। इससे स्त्री जाति को एक बड़ी हानि
हुई, वह है- विवाह पश्चात ही स्त्री का सामाजिक मूल्य खत्म
हो गया । वह सिर्फ भोग्या बन गई । विवाह संबंध विच्छेद या विधवापन की सूरत में तो
वह और भी कष्टप्रद था, क्योंकि टूटी कांच की दीवार को कोई घर
में नही सजाता था । हांलाकि वैवाहिक संबंध प्राकृतिक नियमों के अनुरूप है लेकिन
उसके पीछे की रूढ़ियॉ एवं कायदे इस नियम को अप्राकृतिक बनाते है । जो स्त्री की
स्वतंत्रता का हनन करते है- स्वयंवर विवाह, विधवा विवाह,
पुर्नविवाह एवं प्रेम विवाह जैसे कोई अपराध हो । इस पर समाज में
पाबंदी जैसी स्थिति है ।
हम स्वयं अपनी संस्कृति पर
गर्व करते हुए फूले नही समाते है किन्तु हमारी पाणिग्रहण की सारी पद्धतियां स्त्री
को स्त्री नही बल्कि किसी समान का दर्जा देती है। जो किसी दान की वस्तु से कम नही
है। हिन्दू धर्म में सर्व प्रचलित ब्राम्ह विवाह है जो इस प्रकार है:- ब्राम्ह
विवाह- विद्या और आचारऱ्युक्त वर को बुला कर और उत्तम वस्त्रो और अलंकारों से
कन्या तथा वर को भूषित कर वर को जो कन्यादान दिया जाता है उसे ब्रम्ह विवाह कहते
है। इसी प्रकार इस्लाम में प्रचलित विवाह हिन्दुओं के धर्म ग्रथों में वर्णित असुर
विवाह जैसा है:- असुर विवाह- कन्या के पिता आदि को अथवा कन्या को यथा-शक्ति धन
देकर जो अपनी इच्छा से कन्या को लेता है, उसको असुर
विवाह कहते है। दोनों प्रकार के प्रचलित विवाह में कन्या एक वस्तु के रूप में
स्थित है । एक में वह दान की वस्तु है तो दूसरे में विक्रय की । हमारी संस्कृति ने
एैसी ही रीतियों को अपना आदर्श बना डाला और हम इसे ही गर्व की अवस्था मान बैठे ।
यह तथ्य है कि दोनों ही स्थितियों में माता पिता कन्या का विवाह करके अपने बोझ की
इतिश्री कर लेते है। हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते है तथा विश्व की महान सभ्यता
हाने का दावा करते है। ऐसा कहते समय हम भूल जाते है कि कन्या हत्या, सती प्रथा, भू्रण हत्या जैसी घीनौनी प्रथायों भी
हमारी संस्कृति की देन है। जो पूरे मानव समाज को कलंकित करती है।
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