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Saturday, 21 March 2015

मनमोहन बनाम मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना



मनमोहन बनाम मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल
 प्रोफ़ेसर राम लखन मीना 

 भूमि अधिग्रहण को सरकार की एक ऐसी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा यह भूमि के स्‍वामियों से भूमि का अधिग्रहण करती है, ताकि किसी सार्वजनिक प्रयोजन या किसी कंपनी के लिए इसका उपयोग किया जा सके। यह अधिग्रहण स्‍वामियों को मुआवज़े के भुगतान या भूमि में रुचि रखने वाले व्‍यक्तियों के भुगतान के अधीन होता है। आम तौर पर सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण अनिवार्य प्रकार का नहीं होता है, ना ही भूमि के बंटवारे के अनिच्‍छुक स्‍वामी पर ध्‍यान दिए बिना ऐसा किया जाता है। संपत्ति की मांग और अधिग्रहण समवर्ती सूची में आता है, जिसका अर्थ है केन्‍द्र और राज्‍य सरकारें इस मामले में कानून बना सकती हैं। ऐसे अनेक स्‍थानीय और विशिष्‍ट कानून है जो अपने अधीन भूमि के अधिग्रहण प्रदान करते हैं किन्‍तु भूमि के अधिग्रहण से संबंधित मुख्‍य कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 है। यह अधिनियम सरकार को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि के अधिग्रहण का प्राधिकरण प्रदान करता है जैसे कि योजनाबद्ध विकास, शहर या ग्रामीण योजना के लिए प्रावधान, गरीबों या भूमि हीनों के लिए आवासीय प्रयोजन हेतु प्रावधान या किसी शिक्षा, आवास या स्‍वास्‍थ्‍य योजना के लिए सरकार को भूमि की आवश्‍यकता। इससे उपयुक्‍त मूल्‍य पर भूमि के अधिग्रहण में रूकावट आती है, जिससे लागत में विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसे सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए शहरी भूमि के पर्याप्‍त भण्‍डार के निर्माण हेतु लागू किया गया था, जैसे कि कम आय वाले आवास, सड़कों को चौड़ा बनाना, उद्यानों तथा अन्‍य सुविधाओं का विकास। इस भूमि को प्रारूपिक तौर पर सरकार द्वारा बाजार मूल्‍य के अनुसार भूमि के स्‍वामियों को मुआवज़े के भुगतान के माध्‍यम से अधिग्रहण किया जाता है।
आज विश्व में करीब 56 करोड़ आदि देशज अर्थात आदिवासी हैं। इनमें से अनेकों का निरंतर हाशियाकरण, विस्थापन और नागरिकता मतवंचनीकरण किया जा रहा है लेकिन अब इनकी आवाज कोखामोश नहीं किया जा सकता।’’ क्योंकि संप्रभुता आत्मनिर्णय की आकांक्षाओं ने इनकी राजनीतिक चेतना को जगाए रखा है। आदि देशज समाजों के परंपरागत मीमांसात्मक सिद्धांतों को केंद्र में रखकर संभाव्य सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास ढांचे पर विचार करना चाहिए। यह एक नव परिस्थितिमानवतावाद को जन्म देगा, जिसमें अस्तित्व की आध्यात्मिक वास्तविकता की चेतना निहित है। विश्व भर के आदिवासियों की भोली-भाली उदारमना प्रकृति / स्वभाव ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन रही है, उसी का नाजायज फायदा उठाकर शातिर लोग उठा रहे हैं।  भाववादी प्रतीक ,प्रकृति के साथ  आध्यात्मिकता, आध्यात्मिक मूल्यों और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के बीच अंतर्संबंधों की पड़ताल कर उन्हें न्याय दिलाना हम बुद्धिजीवियों का दायित्व है। आर्थिक सिद्धांतों का आधार आध्यात्मिक मूल्यों में निहित होना चाहिए क्योंकि वे निरंतर भौतिक संरचनाओं के प्रभावों का जटिल विश्लेषण करती हैं। यह प्रवृति उन तमाम सांस्कृतिक, आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक शक्तियों की मानव विरोधी कारगुजारियों की निर्मम पड़ताल भी करती हैं जो कि नरसंहारों, महायुद्धों, शीतयुद्ध, खाड़ीअफगान युद्ध आदि की पटकथा रच रही हैं। वे उद्गम सापेक्षता और स्थिति निरपेक्षता के बीच झूलने लगते हैं। भूमंडलीकरण का प्रतिउत्तर एक प्रकार से, ‘सहभागिता रूपांतरण का अदम्य आलोक उल्लास हैहर्ट नेग्री के लिए यह हस्तक्षेप ‘अदम्य आलोक और कम्युनिस्ट होने का उल्लास मानते है।जिसे आदिवासियों की पीड़ाओं, आकांक्षाओं और प्रतिरोधों के आख्यान के रूप में देखा जा सकता है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 को प्रशासित करने वाली नोडल संघ सरकार होने के नाते समय समय पर कथित अधिनियम के विभिन्‍न प्रावधानों के संशोधन हेतु प्रस्‍तावों का प्रसंसाधन करता है। पुन: इस अधिनियम में सार्वजनिक प्रस्‍तावों को भी विनिर्दिष्‍ट किया जाता है जो राज्‍य की ओर से भूमि के इस अधिग्रहण के लिए प्राधिकृत हैं। इसमें कलेक्‍टर, उपायुक्‍त तथा अन्‍य कोई अधिकारी शामिल हैं, जिन्‍हें कानून के प्राधिकार के तहत उपयुक्‍त सरकार द्वारा विशेष रूप से नियुक्‍त किया जाता है। कलेक्‍टर द्वारा घोषणा तैयार की जाती है और इसकी प्रतियां प्रशासनिक विभागों तथा अन्‍य सभी संबंधित पक्षकारों को भेजी जाती है। तब इस घोषणा की आवश्‍यकता इसी रूप में जारी अधिसूचना के मामले में प्रकाशित की जाती है। कलेक्‍टर द्वारा अधिनिर्णय जारी किए जाते हैं, जिसमें कोई आपत्ति दर्ज कराने के लिए कम से कम 15 दिन का समय दिया जाता है। सभी राज्‍य विधायी प्रस्‍तावों में संपत्ति के अधिग्रहण या मांग के विषय पर कोई अधिनियम या अन्‍य कोई राज्‍य विधान, जिसका प्रभाव भूमि के अधिग्रहण और मांग पर है, में शामिल हैं, इनकी जांच राष्‍ट्रपति की स्‍वीकृति पाने के प्रयोजन हेतु धारा 200 (विधयेक के मामले में) या संविधान की धारा 213 (1) के प्रावधान के तहत भूमि संसाधन विभाग द्वारा की जाती है। इस प्रभाग द्वारा समवर्ती होने के प्रयोजन हेतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में संशोधन के लिए राज्‍य सरकारों के सभी प्रस्‍तावों की जांच भी की जाती है, जैसा कि संविधान की धारा 254 की उपधारा (2) के अधीन आवश्‍यक है।
भारत को आजादी 1947 में मिली, किंतु देश के मूल आदिवासी समाजों को असली आजादी भूमि-अधिग्रहण में पारदर्शिता बरतने, उचित मुआवज़ा और पुनर्वास अधिकार अधिनियम-2013 के माध्यम से 2013 में मिली और मात्र एक-डेढ़ साल ही रही, देश का आदिवासी, गरीब, सीमांत किसान 120 साल पुराने अंग्रेजों के ज़माने में पँहुच गया जब मोदी- सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 के अधिनियम के मौलिक प्रावधान बदल दिये। अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 है, जिसे जंगल और अवैध अधिग्रहणों से निवासी जनजातीय लोगों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसका नियमित तौर पर उल्लंघन हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय शोध का हवाला देते हुए अरविंद खरे कहते हैं कि भारत सरकार और भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियों ने अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में खेती के मकसद से भूमि का अधिग्रहण किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि हाल ही में भूमि अधिग्रहण, अदालती मामलों और समाचार रिपोर्टों की जांच से पता चलता है कि भारत में भूमि हड़पे जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में बढ़ोत्तरी देश में विकास की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक के रूप में उभर रहा है। समाचार, रिपोर्टों और अदालत में मुकदमों के आधार पर पता चलता है कि देश हर राज्य और क्षेत्र में आदिवासी इन ज़मीन संबंधी विवादों में उलझे है, और तमाम विवाद अभी भी अनसुलझे हैं।
निर्माण को विकास का विकल्प बताकर जो देशव्यापी एजेंडा सरकारें, कॉरपोरेट और उनके दलाल चला रहे हैं उसने संस्कृति, भूगोल और समाज सबकुछ उलटपुलट दिया है। यह तब है जब विश्व बैंक और आईएमएफ पोषित कई एनजीओ सक्रिय हैं उन इलाकों में जिन्हें वलनरेबल कहा जाता है। इसी वलनरेबिलिटी के नाम पर एनजीओ की फंडिंग का निर्बाध प्रवाह जारी है। किसान खेती किसानी छोड़ कर मैदानों का रुख कर रहे हैं। मैदानों में उनके लिए जगहें नहीं हैं धक्के हैं। एक विराट आलस्य पूरी कौम पर पसर गया है। जैसा चल रहा है चलने दो का भाव यथास्थिति, निराशा और ऊब के साथ बना हुआ है। कोई भी राजनैतिक मूवमेंट कोई भी सामाजिक आंदोलन इस समय इस गतिरोध को तोडऩे के लिए आगे नहीं आया है। शायद है ही नहीं। जो दिखता है वह छिटपुट प्रतिरोध है। बेशक वह दमदार है लेकिन उससे हवाला लेकर आगे बढ़ाने वाली शक्तियां कुंद पड़ चुकी हैं। क्योंकि आगे बढ़ाने का दावा करने वाली शक्तियां किसी और ही विमर्श पर दो-चार हैं। यह सत्ता का विमर्श है। वे ऐसे कैसे हो गईं इसकी छानबीन भी की जा रही है लेकिन यह छानबीन भी चंद पन्ने भरकर और चंद आंकड़े इकट्ठा कर सोने चली जाती है। सोना इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है इस देश में। या तो टीवी देखेंगे या सोएंगे। या सोने की हास्यास्पद खोज करेंगे।
आदिवासी और अनुसूचित इलाकों में तो जमीन अधिग्रहण अव्वल तो किया ही नहीं जा सकेगा और अगर होगा भी तो इसके लिए वहां जो भी स्थानीय जन प्रतिनिधित्व ढांचा सक्रिय होगा मिसाल के लिए ग्राम सभा तो उसके अनुमोदन के बाद ही जमीन ली जा सकेगी अन्यथा नहीं। लेकिन कानून में एक बड़ी खामी आदिवासियों के उचित चिह्निकरण की है। पांचवे शेड्यूल से बाहर भी देश में आदिवासी समुदाय है जिसकी संख्या जानकारों के मुताबिक कुल आदिवासी आबादी की कोई 50 फीसदी से ज्यादा बैठती है, उनकी जमीनों का क्या होगा। एक आकलन के मुताबिक देश का 90 फीसदी कोयला आदिवासी इलाकों में है। 50 प्रतिशत के करीब प्रमुख खनिजों के स्रोत वहीं हैं और कई हजार लाख मेगावाट की ऊर्जा संभावनाएं भी वहीं बिखरी हुई हैं। तो निशाने पर सबसे ज्यादा यही समुदाय है जो पूरे देश में बिखरा हुआ है। तो क्या यह बिल आर्थिक उदारवाद के ताजा चरण की आंधी में इन इलाकों को बचाएगा या उन्हें खोदने के लिए इस कानून की ढाल लेकर जाएगा क्योंकि आदिवासियों के पास अंतत अपने जल जंगल जमीन के बाद जो बचता है वह संघर्ष और प्रतिरोध ही है। इस प्रतिरोध से टकराना सरकारों और निगमों के लिए आसान नहीं है सो यह कानून प्रतिरोध की दीवार में कुछ छेद कर सके, क्या असली मंतव्य यह तो नहीं। क्योंकि आखिरकार नेशनल इंटरेस्टभी तो एक तर्क रहा है, विकास के इस मॉडल का।
राज्य और बहुराष्ट्रीय पूंजी की गिद्ध दृष्टि इस संपदा पर गढ़ी हुई है। इन समाजों में फैली बेचैनी, उथल-पुथल अकारण नहीं हैं। विगत दो-ढाई दशकों में इन्हीं समाज के सदस्य ही सबसे अधिक विस्थापन, प्रवासन, अमानवीयकरण, अर्ध-सर्वहाराकरण, विपन्नीकरण और भुखमरी के शिकार हुए हैं। पहले पूर्व साम्राज्यों ने हिंसात्मक ढंग से इन समाजों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था; स्वतंत्र राष्ट्र राज्यों ने इन्हेंफालतू, पिछड़े निरीह, असभ्यआदि के रूप में देखा; और आज नवसाम्राज्यवादी; बहुराष्ट्रीय पूंजीपति, निगमवादी, सांस्कृतिक वर्चस्ववादी, मुक्त अर्थव्यवस्थावादी, निरंकुश उपभोक्तावादी बाजारवादी, वैश्विक पूंजीवादी, सैन्य युद्धवादी आदि स्थानीय राज्य नियंत्रकों एवं पूंजीपतियों के साथ विभिन्नरूपी गठजोड़ों के माध्यम से इनका सर्वस्व हड़पने पर आमादा हैं। इनका अभियान है विश्व में एक नई साम्राज्यिक व्यवस्था कायम करना। इसलिए इन समाजों की त्रासदी-गाथा को ताजा परिपे्रक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। नए कानून में जमीन अधिग्रहण बेशक आसान नहीं होगा लेकिन इसके दूसरे पहलू भी देखें। ऐसा तो है नहीं कि सरकार उदारवाद से पीछे हट गई है और मुक्त बाजार से उसका मोह टूट गया है। वह तो और मुक्तगामी हुई जा रही है। जो भी सरकार आएगी वह भला पीछे क्यों रहेगी। निर्माण परियोजनाएं लाइए लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता कि लोगों को कह दो तुम जाओ, ये पहाड़ जल जंगल जमीन आज से हमारे। तो बिल इस खुराफात को रोकेगा। लेकिन कब तक रोकेगा। क्या उसमें किसी भी हद तक जाकर या ऐसा कड़ा से कड़ा प्रावधान है जो राष्ट्रहित के नाम पर लोगों को बरगलाता जान पड़े तो फौरन कार्रवाई हो सके। क्या लोगों को अच्छीखासी नगद राशि या बड़े मुआवजे के झांसे में फंसाना कठिन होगा। क्या ग्राम सभाओं को मैनेजकरने की कुटिलता नहीं होगी। नया कानून कॉरपोरेट, निगमों और कंपनियों की संभावित अधमताओंपर खामोश है और यही इसकी एक बुनियादी कमजोरी भी है। सीधे तौर पर अच्छे दिन आने का झांसा देने वाली मोदी सरकार दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की 4 लाख करोड़ हेक्टेयर जमीन औने-पौने दामों में कार्पोरेट्स को बेचने की पुरजोर तैयारियों में लगी है
इसीलिए आनन-फानन में नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव पर अध्यादेश जारी किया है। इसके तहत 2013 में भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव को मंज़ूरी दी गई है। इसमें और पुराने क़ानून में क्या-क्या अलग है मोटे तौर पर? भारत में 2013 क़ानून के पास होने तक भूमि अधिग्रहण का काम मुख्यत: 1894 में बने क़ानून के दायरे में होता था। मनमोहन सरकार ने मोटे तौर पर कई प्रावधानों में बदलाव कर दिए थे जिनमें भूमि अधिग्रहण की सूरत में समाज पर इसके असर, लोगों की सहमति और मुआवज़े से संबंधित मसले, जबरन ज़मीन लिए जाने की स्थिति को रोकने में मददगार हिने के साथ-ही-साथ अंग्रेजों के शासनकाल में 120 वर्ष पूर्व बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के बदले आजादी के 66 वर्ष बाद जनवरी 2014 से लागू उक्त कानून में चार महत्वपूर्ण प्रावधान हैं- (1) जबरन भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना, (2) पीपीपी योजनाओं के लिए सरकार की अनुमति और प्रभावित होने वाले तबके पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन कर प्रभावित तबके को पुनर्वास का लाभ देने की अनिवार्यता, (3), खाद्यान्न संकट से देश को बचाए रखने के लिए बहुफसली और सिंचित भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना और (4), किसानों की जमीन का जरूरत से पहले अधिग्रहण पर रोक लगाने के लिए अवार्ड हो जाने वाली जमीन का अनिवार्य रूप से पांच वर्ष की अवधि में मुआवजा वितरण करना और भौतिक कब्जा लेना जरूरी है अन्यथा जमीन का अधिग्रहण स्वतः ही रद्द हो जाएगा । साथ ही,  सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की मदद से ये बात सामने आ सकती थी कि किसी क्षेत्र में सरकार के ज़रिये भूमि लिए जाने से समाज पर इसका क्या प्रभाव हो सकता है। ये इसलिए लागू किया गया था कि इससे ये बात सामने आ सकती थी कि इससे लोगों के ज़िंदगी और रहन-सहन पर क्या असर पड़ सकता है। क्योंकि कई बार कई ऐसे लोग होते हैं जो ज़मीन के बड़े हिस्से के मालिक होते हैं लेकिन कई ऐसे होते हैं जिनके पास भूमि के छोटे टुकड़े मौजूद होते हैं। सोशल इंपैक्ट असेसमेंट ये बात सामने ला सकता था कि पूरी अधिग्रहण प्रक्रिया का समाज पर क्या असर पड़ेगा। इसके लिए आम सुनवाई की व्यवस्था पुराने क़ानून में थी। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कुछ क्षेत्रों का नाम लेते हुए कहा कि इनमें सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। 2013 के क़ानून में एक प्रावधान रखा गया था लोगों सहमति का। सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में प्रभावित ज़मीन मालिकों में से 80 फ़ीसद की सहमती ज़रूरी थी। पूरे तौर पर सरकारी परियोजनाओं के लिए ये 70 प्रतिशत था। नए क़ानून में इसे ख़त्म कर दिया गया है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि रक्षा, ग्रामीण बिजली, ग़रीबों के लिए घर और औद्योगिक कॉरीडोर जैसी परियोजनाओं में 80 फ़ीसद लोगों के सहमिति की आवश्यकता नहीं होगी।*
आदिवासियों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए न जाने कितनी योजनाएँ सरकार ने बनाई किंतु आज तक उसका सही प्रतिफल उनको नहीं मिला ,आख़िर क्यो? क्या आदिवासी विकास नहीं चाहते और जैसे है वैसे ही रहना चाहते है ? नहीं! आदिवासी भी विकास चाहते है वे भी चाहते है कि उनके बच्चे पढ़े-लिखे और आगे बढे । आदिवासी विकास की योजना बनाने वाले कौन होते हैं वे लोग जो उनको सुविधा दिए जाने के खिलाफ है जिनको लगता है कि आदिवासियों को आगे बढ़ने से उनका हित प्रभावित होगा, वे लोग जो आदिवासियों को सिर्फ़ वोट बैंक समझते है फिर क्योंकर कोई योजना सफल होगी , आदिवासी बहुल राज्यों में कहने को तो इस वर्ग के लोगो को प्रतिनधित्व के नाम से गाडी घोड़ा दे दिया जाता है पर असलियत यही होती है कि इनको काम के अवसर नहीं दिए जाते इनके हाथ बाँध दिए जाते है और यदि कुछ लोग आदिवासी हित में आवाज उठाये तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, जब इन्हें कोई जिम्मेदारी देता है कठपुतली की तरह काम करते हैं यहाँ तक कि अपनी अस्मिता सम्मान स्वाभिमान को भी भूल जाते हैं, ये लोग । आदिवासियों का जीवन नैसर्गिक है, वह प्रकृति से भिन्न नहीं है। जल, जंगल, जमीन सब कुछ उसका अपना घर है, उनमें स्वामित्व का बोध भी नहीं है। आदिवासी जंगल या खेत में अपनी झोपड़ी बनाकर जरूर रहता है, लेकिन वह अपनी प्रकृति से किसी भी तरह अलग नहीं होता बल्कि यूं कहना चाहिए कि वह प्रकृति में ही समाहित है। उसकी स्वतंत्रता भी नैसर्गिक है। उसका जीवन सत्य पर आधारित है। वह राज्य की अवधारणा की छाया में दी जाने वाली स्वतंत्रता में कभी नहीं जिया। उसकी अपनी ही स्वतंत्रता है। दुनिया में एक मात्र यही ऐसा समाज है जो वर्तमान में जीता है। अपने अतीत या भविष्य में नहीं। इसलिए उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है।





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