गुजरात-मॉडल स्कूल शिक्षा के लिए बना नासूर
Gujarat-model made ulcerate for school education in India
Gujarat-model made ulcerate for school education in India
(यूएन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूरा
करने में इसकी वजह से अभी 126 साल लगेंगे)
प्रोफेसर राम लखन मीना, राजस्थान
केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर, संपर्क : 9413300222
‘भारतीय
संविधान की उद्देशिका के अनुसार इंडिया एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष,
लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना
धर्म नहीं होगा । उसके विपरीत संविधान इंडिया के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति,
विश्वास, स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा
और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है।’ मानव
इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त
देशों की नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना और शोषण-विहीन समाज की स्थापना
करने का प्रयत्न करना हो । शिक्षा केवल मानसिक विकास की ओर ही ध्यान नहीं देती
बल्कि शारीरिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए भी उपयोगी
है।
सच्चा और सार्थक
ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण
संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं
दरबारों में सुनायी देती हैं से एक शांत मस्तिष्क बेहतर है । 1948 में तिरंगे को पैरों तले रौंदने और 2002 तक
राष्ट्रीय झंडे को सलाम नहीं करने, अंग्रेजों की मुखबरी करने,
स्वतंत्रता आंदोलन की मुखालफत करने वाले आरएसएस के लोग राष्ट्रवाद
का सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं । आज गरीब
लोगों के दर्द को समझने वाले लोग कम हैं लेकिन आजादी के समय बहुत से ऐसे नेता हुए
जिन्होंने गरीबी को समझा भी और असहाय लोगों को समान अधिकार के साथ जीने के अनेक मौके
भी दिलवाये ।
गुजरात-मॉडल ने
प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था का हाल ‘गिनती और
पहाड़े’ जैसा बना दिया है। स्कूलों में शिक्षकों की संख्या
गिनती मात्र की है और समस्या पहाड़े की तरह । हर साल चंद शिक्षक नियुक्त होते हैं
और दोगुने सेवानिवृत हो जाते हैं, सच कहे तो देशभर का
शिक्षक-समुदाय अनाथ जैसे हैं उनका परवरदिगार कोई नहीं हैं, उन्हें
सत्ता के चाबुक से सदैव दबाने के लिए छोड़ा हुआ है, उनसे
भेड़-बकरियाँ और बिल्ली-कुत्तों की गिनती तक करवायी जाती है और व्यवस्था के आगे कोई
चूं तक नहीं बोल पाता । व्यवस्था एक-एक जोड़ दो बनती है तो समस्या दो दुना चार की
रफ्तार से बढ़ती है। नतीजतन दावे भले ही आरटीई के तहत हर बच्चे को शिक्षा के दायरे
में लाने के हो रहे हों लेकिन यह सपना हकीकत की शक्ल नहीं ले पा रहा है। यूएन
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि इंडिया यदि इसी धीमी रफ्तार से शिक्षा में सुधार
करता रहा, तो यूएन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने
में 126 साल लगेंगे।
कारण कारोबारी नजरिए
से स्कूलों की श्रृंखला भले तेजी से बढ़ रही हो लेकिन आम परिवार और बच्चे की तालीम
बुनियाद डालने वाले सरकारी प्राइमरी स्कूल उस तादाद में नहीं बढ़ रहे जितनी आबादी
और जरूरत,
बल्कि जो स्कूल हैं उन्हें भी बंद किया जा रहा है । कहीं स्कूल भवन
का अभाव तो कहीं शिक्षकों का टोटा शिक्षा के विस्तार और संतुलन में अवरोधक बना है।
ज्ञान अर्थव्यवस्था बनने के लिए शिक्षा क्षेत्र की दुर्दशा खत्म करना बहुत जरूरी
है। शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए
समस्त देश को एक इकायी समझकर ही शिक्षा का प्रबन्धन किया जाना चाहिये। मानव की
जाति एक होनी चाहिये, पर इंडिया में तो जात-पात के भस्मासुर
ने सबको लील लिया है । अब समय आ गया है कि शिक्षा को समवर्ती सूची से निकल कर
केंद्रीय सूची में डाल देना चाहिए ।
देश में सिर्फ राजीव
गाँधी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि उन्होंने घोरतम आलोचनाओं के बावजूद 1986 में आजादी के बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से समग्र शिक्षा नीति
देश भर में बिना किसी पूर्वाग्रह के लागू की जिसका एक मात्र उद्देश्य राष्ट्र की
प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को
सुदृढ़ करना था। इसी शिक्षा-नीति का कमाल है कि भारतीय मेधा से अमरीका और ब्रिटेन
की रूह काँप रही है, ओबामा को कहना पड़ रहा है कि अमरीकनों
पढ़ो वरना इंडियन आपको दबा लेंगे। राजीव जी द्वारा शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण
पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया
था। साथ ही, उस शिक्षा नीति में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर
नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर तथा शिक्षा और जीवन में गहरा रिश्ता कायम करने पर
भी ध्यान दिया गया था। यही कारण है कि देश-दुनिया में आज कंप्यूटर एवं
सूचना-प्रौद्योगिकी में युवाओं का डंका बज रहा है।
भाजपा और संघ दोनों
को पेशवायी-मानसिक रोग है जो भगवाकरण की आड़ में सांप्रदायिक-उन्माद फैलाने की जुगत
में है जिसका रोगी चाहे वह व्यक्ति हो या विचारधारा अपनी वास्तविकता और अंतरबोध से
कट जाता है और ऐसी दुनिया में पहुंच जाता है जहां उसके लिए सब कुछ प्रसन्न करने
वाला होता है,जिसके लक्षण समाज की संरचना पर निर्भर करते
हैं। इंडिया में इसके अधिकांश लक्षणों में शोषणकारी-धार्मिक अंतर्वस्तु मिलती है
जो गाय, गोबर और गोमूत्रं की मानसिकताओं से बाहर नहीं निकल
पा रही है । आज सत्ता का चरित्र है वह एक सीमा के आगे अपने विरोध को सहती नहीं है
और जब भी मौका लगता है विरोधियों को दबाने से बाज नहीं आती है।
शिक्षकों और सरकारी
कर्मचारियों से तो संविधान नहीं बल्कि भाजपा की नीतियों और आरएसएस व उसके नेताओं
के प्रति समर्पित अंध समपर्ण की बाध्यता है, अन्यथा
परिणाम भुगतो । अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो इतिहास बदलने की तैयारी है और सांप्रदायिक
तनाव को चरम पर ले जाने के लिए शिक्षा और शिक्षण संस्थानों का सहारा लिया जा रहा
है । कुल मिलाकर शिक्षण संस्थान बर्बादी के कगार पर खड़े कर दिए गए हैं । उन्हें
बंद किया जा रहा है, उनकी ग्रांट्स रोकी जा रही है । इसका
तत्काल और हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए । इससे भी बड़ी बात यह है कि
प्रगतिशील ताकतों की वस्तुनिष्ठता, तार्किकता और वैज्ञानिकता
में विश्वास रखने वाले संगठनों को एकजुट होकर उन बातों का विरोध करना होगा जिनसे
वे सहमत नहीं हैं और कैसे उन बातों को जनता तक पहुंचाया जाए।
बीजेपी और आरएसएस
मिलकर संविधान के साथ ही शिक्षा-व्यवस्था को भी खत्म करने की साजिश कर रहे
हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के आम
बजट में स्कूली शिक्षा के लिए आवंटन में लगातार कटौती देखने को मिल रही है। सबसे
बड़ा सवाल यह है कि संसाधनों की कमी में स्कूली शिक्षा कैसे बेहतर होगी.? स्कूली शिक्षा पर मोदी सरकार की कंजूसी से आखिर कैसे पढ़ेगा इंडिया.?
प्राथमिक शिक्षा वजट में 2015 में 68,963 और 2016 में 72,394 करोड़ रूपए
का आवंटन किया गया है। बजट के बारे में एक ख़ास बात है कि यह बजट 2014-15 के बजट से 12.5 प्रतिशत कम है, यूपीए शासन में स्कूल
शिक्षा बजट में जो निरंतर बढ़ोतरी हो रही थी उसको मोदीसरकार ने ग्रहण लगा दिया ।
साल 2014-15 में 82,771 करोड़ रूपए का
आवंटन किया गया था। जबकि पिछले सालों में
एजुकेशन सेस (शिक्षा उपकर) के नाम पर जमा किए गए प्रतिवर्ष 1.54 लाख करोड़ कहां गए..?
प्राथमिक शिक्षा उपकर
को ‘‘मध्यान्न भोजन योजना’’ में बदला जाना भी धोखा
है। 2014-15 के
प्राथमिक शिक्षा उपकर का मूल्य 1,54,818 करोड़ था इनमें से 13,298 करोड़ रूपये निष्क्रिय पड़े हैं। कैग की रिपोर्ट में पता चला है कि
माध्यमिक और उच्च शिक्षा उपकर (एसएचइसी) के तहत 2015 के
दौरान एकत्रित किये गये धन में से 64,288 करोड़ रूपये
अनप्रयुक्त पड़े हुए हैं। सभी करदाताओं पर एसएचयीसी 1 प्रतिशत
की दर पर लागू है। 2015-16 के लिए योजना परिव्यय कहते हैं ‘‘शिक्षा (प्राथमिक) उपकर से प्राप्त 27,575 करोड़ की
अनुमानित राशि प्रधानमंत्री शिक्षा कोष में जमा की गयी । अगर कुल बजट के आधार पर
बात करें तो साल 2017 में कुल बजट का 3.711 हिस्सा शिक्षा क्षेत्र को दिया गया था, जबकि कोठारी
कमीशन की संस्तुतियों के अनुसार जीडीपी का कम-से-कम 6% होना
चाहिए ।
इंडिया में कुल 28.7 करोड़ वयस्क पढ़ना लिखना नहीं जानते हैं, जो कि
दुनिया भर की निरक्षर आबादी का 37 फीसदी है कह सकते हैं कि
पाक से दोगुनी ग्रामीण आबादी इंडिया में अनपढ़ है । यूनेस्को में केंद्र सरकार
द्वारा प्रस्तुत किए गए एफिडेविट के अनुसार सरकार का लक्ष्य है कि 2022 तक हर पांच किलोमीटर के दायरे में एक सीनियर सैकेंडरी स्कूल होगा,
80 हजार मिडिल स्कूल और 75 हजार प्राथमिक
स्कूलों को अपग्रेड करना है। दूसरी तरफ सबसे बड़े दुख की बात है कि प्रशासनिक
लापरवाही कहे या शिक्षा के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता, देशभर में हजारों स्कूल बंद हो रहे हैं । आरटीयी की दुर्दशा की शुरुआत
सबसे पहले गुजरात-मॉडल से हुयी जहॉ प्राथमिक शिक्षा की कमियों को छुपाने के लिए
खुद मोदीजी के नेतृत्व में गुजरातसरकार ने दलित-आदिवासी गॉवों और बस्तियों की 13,450 स्कूलों पर ताला लगा दिया गया था ।
यह गुजराती मॉडल
स्कूल शिक्षा के लिए नासूर बन गया और देखते-ही-देखते राजस्थान में 17 हजार 129, महाराष्ट्र में 13
हजार 905, कर्नाटक में 6000, आंध्र
प्रदेश में 5503, तेलंगाना में 4000, उड़ीसा
में 5000, मध्य प्रदेश में
3500 , उत्तराखंड में 1200
स्कूलों के बंद किए गए, अब आँकड़े और भी बढ़ चुके है । गुजरात- मॉडल
की ही देन है कि देश भर में लगभग 1.5 लाख से अधिक सरकारी स्कूल या तो बंद किए जा चुके हैं या बंद होने की
प्रक्रिया में हैं । यह सब सामाजिक न्याय की भावनाओं को कुचलने के कुत्सित
उद्देश्यों का हिस्सा है क्योंकि इन लाखों स्कूलों को बंद इसलिए किया गया कि इनमें
खाली पड़े शिक्षकों में अधिकांश पद आरक्षित पदों के बैकलाग से भरे जाने थे। अतरू
सरकार ने एक तीर से कयी निशाने साधे हैं ।
सर्व शिक्षा अभियान
के तहत देश में अब तक कितना रुपया खर्चा किया गया इस बात का हिसाब- किताब जरूर
लगाया जाना चाहिए, ताकि इस बात को ठीक-ठीक समझा
जा सके कि देश में इस कानून के आने के बाद प्रायमरी शिक्षा व्यवस्था में कितना
सुधार हुआ । देश भर में अभी भी लगभग 40000 से अधिक स्कूल
टेंट और पेड़ों के नीचे चल रहे हैं। 34 हजार स्कूलों में
पक्के भवन नहीं हैं। 01 लाख से भी अधिक स्कूलों में पीने के पानी का प्रबंध नहीं है तथा 45 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं
का अभाव है। छात्र शिक्षक अनुपात 50 प्रतिशत, कक्षा-शिक्षक अनुपात 73 फीसदी है वही 60 फीसदी स्कूलों में चार दीवारी तक नहीं है और 66
फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान नहीं है जहां मैदान है वह ताकतवर लोगों ने कब्जा
किया हुआ है स्थानीय प्रशासन आँख मूंदकर बैठा है।
वर्ष 2016 में सरकार द्वारा पेश किए गए आकड़ों के अनुसार वर्तमान में देश में 13.62 लाख प्राथमिक स्कूल हैं जिनमें 51,81,791 स्वीकृत
पदों में से केवल 42,74,206 पद ही भरे गए हैं और प्राथमिक
विद्यालयों में आज भी देश में 12 लाख से भी ज्यादा (लगभग 18.86%) शिक्षकों के पद आज भी खाली पड़े हैं तथा जो शिक्षक हैं भी उनमें 8.6 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। इंडिया से संबंधी संयुक्त राष्ट्र की
रिपोर्ट के मुताबिक हालात इसी तरह बने रहे तो सबको प्राथमिक शिक्षा 2050 तक, सेकेंडरी शिक्षा 2060 तक
और अपर सेकेंडरी शिक्षा 2085 से पहले मिलना कठिन है। हाल ही
में ‘एसोचौम’ द्वारा जारी किए गए एक
रिसर्च पेपर में कहा गया था कि इंडिया में फिलहाल स्कूल स्तर पर करीब 14 लाख शिक्षकों की कमी है। जबकि जो शिक्षक कार्यरत हैं, उनमें से 20 फीसदी ऐसे हैं, जो
नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं।
आरटीयी के आँकड़े कहते
हैं कि अकेले उत्तरप्रदेश में 2 लाख 48 हजार 782, बिहार में 1 लाख 5 हजार 476, मध्यप्रदेश में विद्यालय के अनुपात में
कुल 1 लाख 95 हजार 878, राजस्थान में 2 लाख 29 हजार 878,
गुजरात में 1 लाख 73
हजार 456, छत्तीसगढ़ में 83 हजार 963,
झारखंड में 83 हजार 94
तथा महाराष्ट्र में 1 लाख 27 हजार 935 शिक्षकों की कमी है। आरटीयी के नियमों की रोशनी में नेशनल स्कूल ऑफ
पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी रिपोर्ट्स में छात्र-शिक्षक अनुपात देखें तो राजस्थान
में विद्यालय के 30:1 अनुपात में कुल 2 लाख 29 हजार 878 शिक्षकों की
कमी है, इनमें 1 लाख 60 हजार 973 शिक्षक प्राथमिक शालाओं और उच्च प्राथमिक
शालाओं में 68 हजार 905 शिक्षक कम हैं,
जिनको सामान्यीकरण और मर्जर तकनीक से मटियामेट किया जा रहा है ।
आरटीयी फोरम की
रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 29, राजस्थान 45, मणिपुर 33, असम 57 मध्यप्रदेश 40 फीसदी शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। आज भी करोड़ों बच्चे स्कूल की दहलीज तक
नहीं पहुंच पा रहे हैं और मौलिक शिक्षा के अधिकार से वंचित है, हमारी नीतियों की स्थिति ‘ढाक के तीन पात’ जैसी है । 12 राज्यों की ऐसी सालाना रिपोर्ट्स पर
आधारित नेशनल स्कूल ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के एक अध्ययन के मुताबिक
राजस्थान में प्रति छात्र सरकार को 25582 रुपये खर्च करने
चाहिए, जबकि खर्च सिर्फ 15135 रुपये ही
हो पा रहे हैं। शिक्षकों संघों को एकजुट होकर तदर्थ विनियमित शिक्षकों को पूर्व
सेवा का लाभ देने, सातवें वेतनमान को केंद्र के समरूप लागू
करने, वरिष्ठ-कनिष्ठ पदों की वेतन विसंगति को सही करने,
स्कूलों में वेतन को समय पर देने, प्राथमिक से
समायोजित शिक्षकों को पूर्व सेवा का लाभ देने, शिक्षकों के
लिए विशेषरूप पुरानी पेंशन-स्कीम यथावत रखने, खेल-कूद और
व्यायाम को विषय के रूप में लागू करने के साथ ही मासिक परीक्षाओं का शैक्षिक पंचाग,
अध्यापक संवर्ग से जुड़ी समयबद्ध क्रमोन्नति-पदोन्नति की
प्रकिया को व्यापकता और संतुलनयुक्त
पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त ट्रासंफर नीति बनाने की जरूरत है।
कल्पना ज्ञान से अधिक
शक्तिशाली है। निजी शिक्षण संस्थान अध्ययन की पाठशाला की अपेक्षा रटने के केन्द्र
बने है विषय को रटने की अपेक्षा समझने की अब कोशिश न शिक्षक कर रहे है न
शिक्षार्थी परिणाम स्वरूप कल्पना शक्ति का ह्यस हो रहा है, मानसिक संस्पर्श की संकल्पना बाधित हो रही है । प्राथमिक शिक्षा सिर्फ
माध्यमिक विद्यालय के लिए बच्चों की तैयारी के बारे में नहीं होना चाहिए। बालकों
के मन मस्तिष्क को क्रिया शील बनाने में शिक्षक नाकामयाब हो रहे हैं । मस्तिष्क
अनुसंधान में नोवेल पुरस्कार प्राप्त स्पेरी के अनुसार बायॉ मस्तिष्क भाषा शब्द,
भाषण तथा तार्किक शक्ति को वहीं दायॉ मस्तिष्क सृजनात्मक क्षमता,
रंग-चित्र तथा कल्पना शक्ति को संचालित करता है । 6-14 वर्ष के बालक मस्तिष्क के दोनों भागों का बराबर उपयोग करते है लेकिन
हमारी शिक्षा व्यवस्था ध् प्रक्रिया के दौरान ऐसे कार्य करवाये जाते हैं जिससे
सिर्फ बाएँ मस्तिष्क का उपयोग ही हो पाता है । अतरू हमें ऐसे सार्थक प्रयास करने
होंगे जिससे मानसिक क्षमता के पूर्ण उपयोग के लिए दोनों मस्तिष्क को समान रूप से
क्रियाशील हो ।
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक हालमैन के शब्दों में कहें तो बच्चों में चित्रों की संकल्पना की
क्रियाशीलता क्षीण हो रही है। शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाकर कल्पना
चित्रों से धारित सामग्री मस्तिष्क में संगठित, पुर्नगठित
और क्रियाशील करने की जरूरत है ताकि हम देश और दुनिया को अच्छे विचारक बुद्धिजीवी
वैज्ञानिक और मनुष्यता की भावना से युक्त इंसान दे सके । हर मोर्चे पर असफल और
आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी केंद्र सरकार द्वारा जनमानस से जुड़े मुद्दों से लोगों का
ध्यान बाँटने के लिए मेक इन इंडिया का झाँसा दिया जा रहा और चोरी-छुपे से पिछले
दरवाजों से शिक्षा के भगवाकरण का एजेंडा लागू किया जा रहा है। संघ जर्मन नाजीवाद
की तरह किसी को अपनी बात रखने और विरोध करने का आजादी नहीं देते हैं। वास्तव में
भगवाकरण संघियों और उनके अनुयायियों के ज्ञान का अज्ञानीकरण है जिसे वे
मंदबुद्धियों में बंटाना चाहते हैं । वे खुद ‘नौ ढोबे के पाव’
हैं और ‘ढ़ाक के तीन पात’ तथाकथित ‘सही विचारों’
वाले लोगों की तलाश में है।
शिक्षण पेशे को
व्यावसायिक कर्तव्यों के निर्वहन में अकादमिक स्वतंत्रता देनी चाहिए । चूंकि
शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों के लिए सबसे उपयुक्त शिक्षण सहायक उपकरण और
विधियों का न्याय करने के लिए विशेष रूप से योग्यता प्राप्त की जाती है, इसलिए उन्हें पसंद सामग्री और शिक्षण सामग्री के अनुकूलन, पाठ्यपुस्तकों का चयन और शिक्षण विधियों के उपयोग के रूप में आवश्यक
भूमिका निभायी जानी चाहिए जिनके अनुमोदित कार्यक्रम और शैक्षणिक विशेषज्ञों की
सहायता लें। शैक्षिक नीति का मौलिक स्वरूप बदलना चाहिए । शिक्षकों के प्रशिक्षण और
सेवानियमों में व्यापक बदलाव लाकर उन्हें स्वायतत्ता दें और राजनीतिक दखलांदाजी से
बाहर लाया जाए तथा विषय-उपयोगी और
पर्सनालिटी डेवलपमेंट कार्यक्रमों में भाग लेकर हर साल ज्ञान और कौशल को अद्यतन
करने की आवश्यकता छुट देनी चाहिए । ये स्कूल के घंटों के भीतर या छुट्टियों के बाद
या उसके बाद हो सकते हैं।
आवश्यक होने पर
प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए शिक्षकों को बाहर यात्रा करने की छूट
हो। सेमिनार, कार्यशालाओं, सम्मेलनों
में भाग लेने के लिए स्कूल से नियुक्त होने पर, कर्मचारी
प्रशिक्षण, कार्यशाला, संगोष्ठी की समग्र या कम-से-कम 50%
लागत का भुगतान हो । स्थानीय या बाहरी प्रशिक्षण यात्रा, बोर्डिंग
और लॉजिंग का भी भुगतान किया जाए। वेतन उनकी योग्यता और अनुभव के अनुसार परिणाम
ओरिएण्टेड हो । अनुभव-भत्ते को हर तीसरे वर्ष सकल वेतन में कार्य अनुभव भत्तों के
रूप में मूल वेतन में जोड़ा जाए । वेतन के अतिरिक्त शिक्षकों को प्रति वर्ष उनकी
योग्यताओं के अनुसार पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक
स्तर पर प्रशिक्षित शिक्षकों के लिए अनुभव भत्ता देय हो।
इन-सर्विस प्रशिक्षण
में शिक्षकों को अपग्रेड करने, उनके ज्ञान को ताजा करने,
कक्षा में आने वाली तत्काल चिंताओं को पढ़ाने या संबोधित करने और नए
दृष्टिकोण सीखने के लिए अल्पकालिक पाठ्यक्रम तैयार हो, किंतु
अनपढ़ राजनीतिज्ञ तथा चतुर चालाक नौकरशाही इसमें सबसे बड़ा रोड़ा है। भ्रष्टाचार पर
लगाम लगाये बिना, कारपोरेट घरानों को अंधाधुंध टैक्स छूट,
बैंक कर्ज की लूट पर रोक तथा उनके ऊपर टैक्स बढ़ाये बिना शिक्षा
विकास के लिए पूँजी कहाँ से आएगी, व्यवसायपरक शिक्षा की
कार्ययोजना तैयार किए बिना बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा कैसे होंगे.? इन सब लक्ष्यों को पाने के लिए ब्राह्मणवादी-जातिवादी ताकतों, शोषणकारी-प्रतीकों, पाखंडी-मूल्यबोध पर चोट किये
बिना जाति का विनाश कैसे होगा? मानवीय मूल्यों का विकास कैसे
होगा? चिंतक व भाषाविद नोम चोमस्की की इंडिया के संभावित
राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी को दोहराना भी उचित होगा जिसमें उसने 15 मयी 2014 को बोस्टन में कहा था कि “इंडिया में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है । इंडिया
खतरनाक स्थिति से गुजरेगा ।
आरएसएस और भाजपा के
नेतृत्व में जो बदलाव इंडिया में आने वाला है, ठीक इसी
अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था। नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन
लोकप्रियता का सहारा लिया था । भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है । अब इंडिया के
लोकतंत्र-पसंदा और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना
पड़ेगा ।” अन्यथा 2500 साल मे इंडिया के
24 टुकड़े हो गए, आखरी टूटन 1947 में हुयी । आनुपातिक रूप से देखें तो 100 साल में
इंडिया टूटता है । 2500 वर्षों में ब्राहमणवादी संकीर्ण सोच
की ही वजह से इंडिया के अब तक 24 टुकड़े हो चुके हैं। ‘राइट्स
एंड रिसोर्सेज इनीशिएटिव रिपोर्ट 2012’ और ‘सोसाइटी फॉर
प्रमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2011’ के मुताबिक
आने वाले 15 सालों में बड़ी परियोजनाओं के चलते इंडिया में
संघर्ष और अशांति की आशंका है। बीजेपी, आरएसएस और हिंदू-चरमपंथियों
की कारस्तानियों की वजह से नासा की सैटेलाइट रिपोर्ट के अनुसार इंडिया के 2011 और 2012 के दौरान 602 जिलों
में से 164 में इस तरह के हिंसक संघर्ष की पहचान की गयी है,
जो गृहयुद्ध के कगार पर हैं ।
ऐसे हालत में बेहतर
शिक्षा के अभाव में जीवन में बेहतरी की तमाम संभावनाएं मुरझा जाती हैं । लेकिन इस
तरफ किसी की नजर क्यों नहीं जाती? शिक्षा से जुड़े मुद्दों
पर कोई देशव्यापी सहमति क्यों नहीं बनती है.? शिक्षा के
क्षेत्र में व्याप्त पूर्वाग्रहों को कम करने के लिए लंबा सफर तय करना होगा । हर
क्षेत्र में काम करने के दौरान व्यक्ति ख़ास तरह की मनोवृत्ति, सोच और समझ का जाल बुनता चला जाता है । इसको साफ करने के लिए खुद से कठिन
सवाल पूछने और नए सवालों का समाधान खोजने की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है ।
‘एहसास कोई मर गया तो जिन्दगी कहाँ, जिंदा नहीं जमीर
तो जिन्दादिली कहाँ’