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Sunday, 20 August 2017

भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है! : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना



भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है! : प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
देश अधिकाँश आम लोग मान चुके हैं कि भारत में भ्रष्टाचार एक लाइलाज बीमारी है क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीति से ही निकलती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकसभा के आम चुनावों से पहले अपने भ्रष्टाचार विरोधी एजेण्डे के महत्वपूर्ण बिन्दुओं में राजनीतिक-चंदे के सवाल को सबसे ऊपर रखा था । उनका मानना था कि देश को काले धन के जंजाल से मुक्त करने के लिए राजनीतिक-चंदे को नियोजित और नियंत्रित करना जरूरी है। देश की जनता के लिए मृग-मरीचिका बने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिनों की तरह उनका चुनाव-सुधार का वादा भी गफलतों में उलझता जा रहा है। मोदी सरकार ने उल्टा काम करके राजनीतिक फंडिंग को अत्यधिक गैर-पारदर्शी, गोपनीय और संदिग्ध बना दिया है। ऐसे प्रावधान किये गये हैं, जिससे राजनीतिक फंडिंग की पूरी व्यवस्था लोगों की नजरों से ओझल रहे।
जनता से पाई-पाई का हिसाब लेने और राजनीतिक दलों की कमाई पर पर्दा डालने की नीतियों का आगाज हो रहा है क्योंकि उनके चंदे में पारदर्शिता नहीं चलेगी, पारदर्शी चंदा मुसीबत का धंधा है । इलेक्टोरल-बॉण्ड के नाम पर चुनाव-सुधार के रंगमंच पर मोदी-सरकार के राजनीतिक-एकांकी का कमजोर कथानक बिखरने लगा है। कुल मिलाकर इन तमाम संशोधनों का असर यह होगा कि राजनीतिक दल अब चुनावी चंदे या आर्थिक योगदान के खुलासे के लिए बिल्कुल बाध्य नहीं होंगे, जब तक कि यह योगदान इलेक्ट्रॉनिक मोड या चेक से नहीं किया जाए और न ही दानदाता इस बात का खुलासा करेंगे की उन्होंने कौनसी-पार्टी को कितना दान दिया है ।
फिलहाल दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13(ए) के अंतर्गत आता है ।
औधोगिक घरानों के पक्ष में जाते फैसले और कानून की अवहेलना की घटनाएं जिस तरह से बढ़ रही हैं, उस तारतम्य में जरूरी हो जाता है कि राजनीति दल पारदर्शिता की खातिर आरटीआई के दायरे में आएं, जिससे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का आचरण मर्यादित रहे। ब्रिटेन में परिपाटी है कि संसद का नया कार्यकाल शुरू होने पर सरकार मंत्री और सांसदों की सम्पत्ति की जानकारी और उनके व्यावसायिक हितों को पूर्ण ईमानदारी से सार्वजानिक करती है। अमेरिका में तो राजनेता हरेक तरह के प्रलोभन से दूर रहें, इस दृष्टि से और मजबूत कानून है। वहां सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपना व्यावसायिक हित छोड़ना बाध्यकारी होता है। जबकि भारत में यह परिपाटी उलटबांसी के रूप में देखने में आती है। यहां सांसद और विधायक बनने के बाद उनके द्वारा दी गयी परिसंपत्तियों की जानकारी वास्तविकताओं से कोसों दूर होती है । उस पर कोई भी चेक एंड बैलेंस नहीं होता है । राजनीति धंधे में तब्दील होने लगती है।
चुनाव आयोग के मुताबिक हमारे देश में 6 राष्ट्रीय दल हैं और 46 मान्यता प्राप्त बड़े तथा 1112 मान्यता प्राप्त छोटे दल हैं। इन्हें 20 हजार रुपए तक का चंदा लेने पर हिसाब-किताब रखने के पचड़े में पडऩे की ज्यादा जरूरत नहीं होती और ये चाहें तो अपनी पूरी आमदनी इसी दायरे में दिखा सकते हैं। आरटीआई में मिली सूचना के अनुसार चुनाव आयोग में एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करते हैं । यही कारण है कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो तब हो गयी जब मोदी-सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया, जो राजनीति और कॉर्पोरेट्स के संदिग्ध रिश्तों की रहस्यमयी कहानियों की पराकाष्ठा के उद्धरण हैं ।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के कल आये ताजातरीन आंकड़े के अनुसार  राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की अघोषित आय 2004-05 में 274.13 करोड़ थी, जो 2014-15 में 313 फीसदी बढ़कर 1130.92 करोड़ हो चुकी है । वहीं, क्षेत्रीय पार्टियों की कमाई की बात करें, तो इनकी भी कुल आय 652% बढ़ी है। 2014-16 में बीजेपी को सबसे ज्यादा 705 करोड़ रुपये दान मिला। कांग्रेस को 198 करोड़ का दान मिला। इन चार सालों में बीजेपी का कुल 92% और कांग्रेस 85% चंदा कॉर्पोरेट से मिला। आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। सर्वे के मुताबिक 46 फ़ीसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं।
अधिकाँश बोग़स राजनीतिक दल राजनीति की आड़ में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या बड़े दलों को पर्दे के पीछे छिपकर चंदा इक्कठा करने जैसे किन्हीं विशेष उद्देश्यों को लेकर बनाए जाते हैं। ये दल वे हैं जो कभी चुनाव नहीं लड़ते बल्कि चुनाव के समय ऐसी अदृश्य भूमिका निभाते हैं जिससे योग्य उम्मीदवार हारने की स्थिति में आ सकता है और समाज विरोधी काम करने वाले, अपराध जगत के सरगना तथा धनकुबेर राजनीति में वह मुकाम हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं जो जीवन भर की सेवा, तपस्या, कर्मठता और राष्ट्रहित के बारे में सोचने  और काम करने के पश्चात ही हासिल हो सकता है।
हाल ही में संसद के मानसून सत्र में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने माना कि पिछले 70 साल के दौरान राजनीतिक तंत्र में आने वाले अदृश्य धन का पता लगाने में हम असफल रहे हैं। राजनीतिक दलों को चंदा देने की पूरी प्रक्रिया को साफ सुथरा बनाने के लिये बजट में घोषित 'चुनाव बांड' प्रणाली को लेकर सरकार पूरी सक्रियता के साथ काम कर रही है। पिछले 70 साल के दौरान भारत के लोकतंत्र में अदृश्य स्रोतों से धन आता रहा है तथा निर्वाचित प्रतिनिधि, सरकारें, राजनीतिक दल, संसद और यहां तक कि चुनाव आयोग भी इसका पता लगाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ चुनाव बांड प्रक्रिया को पेचीदा और अतार्किक बना दिया है के तहत ये बांड एक प्रकार के वचन पूरा करने वाले बांड होंगे। इन बांड में किसी तरह का ब्याज नहीं दिया है। 
चूँकि अब राजनीति भी सोने की खनक पर मुजरा करने के लिए मजबूर हो चली है। इस प्रक्रिया में बांड में उसके दानदाता का नाम नहीं होगा। बस फर्क केवल इतना होगा कि यह धन बैंकिंग तंत्र के जरिये राजनीतिक दलों को पहुंचेगा। जेटली के नए प्रस्तावों ने पारदर्शिता के इस सवाल को गोपनीयता की कैद में जकड़ दिया है। मोदी-सरकार यह व्यवस्था भी कर रही है कि राजनीतिक दल चुनाव आयोग को इलेक्टोरल-बॉण्ड की जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं होंगे और राजनीतिक दल चंदा देने वाले कार्पोरेट-घराने का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं होंगे। चुनावी बांडों को जरिये राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के बारे में हर साल इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को जानकारी देने की बाध्यता खत्म हो जाएगी और उन्हें इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट जारी रहेगी। नोटबंदी के समय बताया गया था कि इससे देश के कोने-कोने से कालेधन को खोज लिया जाएगा। लेकिन इस देश में कुछ पते ऐसे हैं, जहां पर जाकर इन खोज वाली गाड़ियों में जबरदस्त ब्रेक लग जाता है। ये पते राजनीतिक दलों के दफ्तरों के पते हैं। राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि वह हर तरह की पारदर्शिता के पक्ष में हैं, लेकिन चुनावी चंदे के मुद्दे पर वो आनाकानी करती हैं।

Saturday, 12 August 2017

मूलवासी पुराणों से भी पुराने हैं : प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना

मूलवासी पुराणों से भी पुराने हैं : प्रोफ़ेसर डॉ राम लखन मीना
 

(गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में दिनांकः 11.08.2017 को विश्व आदिवासी दिवस पर कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए दिये उद्बोधन का सारांश) 
 संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 9 अगस्त को विश्व आदिवासी (Indigenous) दिवस घोषित किया है किंतु ऐबोरिजिनल, इंडिजिनस दोनों शब्दों के पीछे सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ हैं। चूँकि, भारत दुनिया में जातिवादी-व्यवस्थाओं का पुरौधा एकमात्र देश है, जहाँ आज भी मनुस्मृति की व्यवस्थाओं का बोलबाला है। 
 अत: भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन शब्दों का अर्थ मूलवासी मानना पड़ेगा जिसमें संयुक्त रूप से दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम (भारत के मुसलमान भारतीय मूलवासी समुदायों से ही कन्वर्जित लोग हैं, जिन्होंने अरबी-फारसी आक्रांताओं के समय विशेष परिस्थितियों में धर्मांतरण किया) शामिल हैं। 
 भारत और विश्व के कई रिसर्च संस्थानों में हुए शोधों से अब सिद्ध हो चूका है कि ब्राह्मणों का डीएनए 99.99% विदेशी है और असवर्ण गैरब्राह्मणों के जिनिटेकेली मूलनिवासियों-आदिवासियों के साथ कहीं घनिष्ठतापूर्ण रक्त संबंध है।
 ‘जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों में भी सबसे खराब है’ प्रकृति से उनका जो रिश्ता है वह भावात्मक है, अपनी जमीन और अपने जंगलों पर वे अपना आधिपत्य नहीं मानते, वे स्वयं को उसका अंश-वंश मानते हैं । 
 पिछले 6000 वर्षों से इनकी उपेक्षा की जा रही है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हो रहा है। पहले उन्हें यहां आए अतिक्रमणकारियों ने सिंधु घाटी के जंगलों में खदेड़ दिया था । फिर 1871 में अंग्रेजों ने अनेक खुद्दार मूलवासी-समुदायों को क्रीमिनल ट्राइबल एक्ट द्वारा ‘आपराधिक जनजाति’ की श्रेणी में रखा । 1931 के वादे के अनुसार नेहरूजी ने 1951 में उन्हें ‘डी-नोटिफाई’ किया गया, किंतु आज भी हालात नहीं बदले हैं। 
 रही-सही कसर आजादी के बाद हिन्दुस्तानी अंग्रेजों ने कर दी और उन्हें नक्सली बना दिया क्योंकि कॉर्पोरेट्स-मित्रता निभाने के लिए आदिवासियों की जमीन ज़रूरी थी और जर, जोरू, जमीन के संकटों के चक्रव्यूह में डाल दिया । खावला, पीवला और नाचुला (खाने, पीने और नाचने) के प्रिय ये आदिवासी आख़िरकार इन साजिशों से कैसे बाहर निकले ..? यक्ष प्रश्न है ..! 
 समूची मानवता को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने की क्षमता रखते हैं। आदिवासियों को एक ही झटके में अपनी मूल जमीन से बेदखल कर देना कितना पीड़ादायी है? 
 आदिवासियों में तो खरीदने बेचने की संस्कृति ही नहीं होती, वे तो आज भी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वस्तु विनिमय का सहारा लेते हैं ।
 मूलवासी हिंदू नहीं है, इनके धर्म का स्वरुप (1) टोटम (गणचिह्न, कुलचिह्न) (2) जीव पूजा (3) बहु प्रकृति पूजक, धराड़ी, टोटमवादी संस्कृति, पुरखौती व्यवस्थाएँ अंधविश्वासी हिंदुत्व से कहीं अधिक वैज्ञानिक और तार्किकतापूर्ण है, यही उनकी धार्मिकता के प्रमुख स्तंभ है। फिर भी धर्मांधता के बल पर इनकी भाषा और संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है । 
 हिंदुत्ववादी लोग उन्हें मूलधारा यानी हिंदुत्व की विकृतियों और संकीर्णताओं से जोड़ने पर तुले हैं और उनको रोजी-रोटी के मुद्दे से ध्यान हटा कर अलगाव की ओर धकेला जा रहा है।
 मूलवासियों के युगपुरुषों को राक्षस बताकर ब्राह्मणवादियों का स्वयं को श्रेष्ठता बनाये रखने का षडयंत्र है! कभी कभी आपसे क्या मन यह सवाल नहीं करता ? राक्षस प्रजाति का क्या हुआ क्योंकि उनके विलुप्त होने की या समाप्त होने की बातके कहीं कोई प्रमाण नहीं मिले हैं जबकि डायनासोर तक के जीवाश्म मिल चुके हैं । जबकि राक्षसों के प्रमाण ब्राहमणवादी व्यवस्था को संरक्षण प्रदान करने वाले पुराणों और धर्म शास्त्रों में नहीं है, तो कहाँ है उस प्रजाति के लोग। 
 वस्तुतः मूलवासियों के नायकों द्वारा उनके आत्मसम्मान की रक्षा और आर्यों के अत्याचारों का प्रतिरोध उनकी मनगढ़ंत ‘राक्षस-संस्कृति’ है । राक्षस-टैग देकर उसके सिर पर दो सींग उगाकर या नक्सली के रूप में अमानवीय घोषित कर उसको मारने का लाइसेंस दे दिया और पुण्य से जोड़ दिया । किंतु, प्रश्न है कि जब डायनासोर के अवशेष मिलते हैं तो दो पैर वाले राक्षस के अवशेष क्यों नहीं मिल सके ..! कलयुग का यक्ष प्रश्न है ..! 
 मनुवादियों को बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की मूर्तियों से खतरा कम, उनकी लिखी हुई किताबों से ज्यादा है और हमारे लोगों को बाबा साहेब की लिखी हुई किताबों से लगाव कम मूर्तियों से ज्यादा है..! यही दलितों / आदिवासियों वंचितों / हाशिए के लोगों की दुर्दशा / गुलामी का असली कारण है। हिन्दुत्ववादी मूर्तियों को पूजने से नहीं बाबा साहेब को आत्मसात करने / मानने से सुधार होगा इसलिए बाबा साहेब को जानो पढ़ो समझो..! तुम्हारे बहुत से ऐतिहासिक महापुरुषों के संघर्ष और विचारधारा का खात्मा करके उनके स्थान पर इनके काल्पनिक क्षत्रपों की मूर्ति / देवता बना कर पूजा जा रहा है, इस पूजन से तुम्हारा नहीं पुजारियों का भला होता है..!
 बिडम्बना देखिए ..! एक ब्राहमण पत्थर की प्राण प्रतिष्ठा का ढ़ोंग रचता है जबकि वहीं ब्राहमण वैसी ही प्राण-प्रतिष्ठा अपने मरे हुए पुत्रें में नहीं कर सकता है .. यदि मंत्रों द्वारा पत्थर में प्राण-प्रतिष्ठा हो सकती है तो फिर मानव में क्यों नहीं ..! जो धन आप / हम मंदिरों में दान-दक्षिणा में देते हो वही आपके आरक्षण को खत्म करने वाले आन्दोलनों में काम आता है ..!
 वंचित (दलित-आदिवासी-पिछड़े) एक दिन के लिए हिन्दू माने जाते हैं जिस चुनाव में वोट पड़ते हैं या फिर बहका / उत्तेजित कर हिंदुत्व के नाम पर मुस्लिमों से लड़ाया जाता है ..! और लड़ाने वाले मूक दर्शक तमाशाई बने रहते हैं । जनहानि, धनहानि और चित्त हानि इन्हें ही उठानी होती है और पूर्व-दंश से उभरने से पहले हिन्दुत्ववादियों का लड़ाने-भिड़ाने का दूसरा षडयंत्र / चक्रव्यूह तैयार ..! अब तो एक नया खेल भी शुरू हो चुका है तथाकथित हिन्दुत्ववादियों को ही जातियों / संप्रदाय / वर्गों को आपस में लड़ाना..!
 मूलवासियों के साथ हो रहे घिनोने खेल को समझने के लिए राममनोहर लोहिया किताब, ‘हिंदू बनाम हिंदू’ का अध्ययन ज़रूरी है वे कहते हैं भारतीय इतिहास के पांच हजार सालों में एक भी विद्वान शूद्रों में न हो सका, जबकि अँग्रेजों के लगभग 200 साल के गुलामी काल में नारायणगुरु, स्वामी पेरियार, ज्योतिबा एवं सावित्रीबाई फूले, अम्बेडकर, कांशीराम, मेघनाथ साहा, राधा विनोद पाल, सुरेन्द्र नाथ शील, गोविंद गुरु, सिध्दो-कान्हू , बिरसा मुंडा पैदा हुए , पर उससे पूर्व 5000 सालों में कोई नहीं ।
 बाबासाहब की द्वारा हमें सौंपी गई मानसिक विरासत ‘आरक्षण’ से एक ब्राह्मण चपरासी बना तथा शूद्र एक कलेक्टर और यही बातें ब्राह्मणों को काटे की तरह चुभने लगी थी और आज भी चुभती है! इस देश का मूल शासक ब्राह्मण ये खूब जानता था कि अंग्रेज और 50 साल रह गये तो शूद्र (SC, ST, OBC) सत्ता में और मनुवादी सत्ता के बाहर हो जायेंगे क्योंकि इनकी आबादी लगभग देश में 85% परसेंट है और हम ब्राह्मणों की केवल 3.5 % परसेंट इसलिए ब्राह्मणों ने अंग्रेज को भगाने का आंदोलन राष्ट्रवाद की आड़ में चलाया था और अब फिर छद्म राष्ट्रवाद के झाँसे में देश के मूलवासियों को जाती धर्म के नाम पर लड़वाकर उनको आपस में एक नहीं होने दिया ।
 ‘एजुकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट’ आरटीई की दुर्दशा की शुरुआत सबसे पहले गुजरात-मॉडल के तहत दलित-आदिवासियों की बस्तियों के लगभग 13,450 स्कूलों पर ताला लगा दिया गया । इसका अनुसरण करके देश भर में एक लाख सरकारी स्कूल या तो बंद किए जा चुके हैं या बंद होने की प्रक्रिया में हैं जिनमें राजस्थान में 17 हजार 129 (4 वर्ष में), महाराष्ट्र में 13 हजार 905 (3 वर्ष में), कर्नाटक में 6000, आंध्र प्रदेश में 5503, तेलंगाना में 4000, उड़ीसा में 5000, मध्य प्रदेश में 3500 (4 वर्ष में) स्कूल के बंद कर दिये गये । 
 भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिंदू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता । मनुवाद की पैरोकार पार्टियों ने यह फार्मूला पा लिया कि बाबासाहब आंबेडकर की फोटो लगाकर उनका इस्तेमाल ‘ वोट कैचर” की तरह कर सकते हैं और कर भी रहे हैं । इसका नुकसान यूपी जैसे बड़े राज्य में नॉन-जाटव और नॉन-यादव की फूट से बाबासाहब के मिशन को उठाना पड़ा है। 
 परिणामस्वरूप सहारनपुर के दंगे से ऊना और डांगावास की पुनरावृत्ति हुई । अब ऐसे ही प्रयोग राजस्थान, गुजरात आदि देश के अन्य हिस्सों में देखने को अवश्य मिलेंगे ..! क्या हम इस को खारिज कर देंगे, यह बड़ी पहेली है । प्रधानमंत्री मोदी जी दलितों पर अत्याचार करने के बदले उन्हें खुद को गोली मारने की अपील करते हैं और दूसरे अगले ही दिन रोहित वेमूला के गुनाहगारों को सार्वजानिक मंच पर सम्मानित ... ये कैसी संवेदनशीलता है ..!
 बाबासाहब आंबेडकर ने अपनी किताब ‘ स्माल होल्डिग्स इन इंडिया ” में दलितों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है । साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र ने ‘पाप के चार हथियार’ विषयक निबंध में इस सवाल पर काफ़ी रोचक ढंग से विचार किया है कि संसार में अब तक इतने सुधारक और संत हो चुके, इसके बावजूद यहाँ की स्थितियाँ बहुत क्यों नहीं बदली ।
 शायद इसलिए क्योंकि धरती पर मौजूद ब्राह्मणवादी ‘पाप’ रूपी प्रतिगामी शक्ति ने इन सभी प्रतिभाशाली शख्सियतों के समाज-परिवर्तनकामी और क्रांतिकारी विचारों को अपने हथियारों क्रमश: ‘उपेक्षा’, ‘निंदा’, ‘हत्या’ और ‘श्रद्धा’ के उपयोग से खत्म कर दिया और न केवल अपनी सत्ता बनाए रखी बल्कि उसे और मजबूत किया..! लेकिन अब बेहद सतर्क हो जाने की जरूरत है, ‘पाप’ के कार्यकलापों के साथ अपने ‘आत्मलोचन’ की भी जरूरत है कि कहीं जाने-अनजाने हम ही तो ‘पाप’ को उसके मंसूबों में सफ़ल नहीं होने दे रहे हैं या खुद ही ‘पाप’ की ओर हो गए हैं.. हमें किसी भी हालत में ‘पाप’ के इस ब्रह्मास्त्र का विजयरथ रोकना ही होगा..! आदिवासी आयकोन वाहरू सोनवने की कविता याद आ रही है..
"हमें स्टेज पर कभी बुलाया ही नहीं गया....
उंगली के इशारे से हमारी जगह हमें दिखा दी गई 
हम वहीं बैठ गए
हमें खूब शाबाशी मिली 
और वे स्टेज पर खड़े होकर
हमारा दुख हमें ही बताते रहे 
हमारा दुख अपना ही रहा 
जो कभी उनका हुआ नहीं."
 "अगर हमने अपना संघठन दृढ़तापूर्वक मजबूत पैरों पर खड़ा नहीं किया तो मनुस्मृति का राज स्वीकार करने का दुर्भाग्य हम पर आएगा, और आने वाली पीढि़या हमें कायर एवं नपुंसक करार देगी।" डॉ. बाबासाहब आंबेडकर (27 अक्टूबर 1951 को जालंधर पंजाब में दिया हुआ भाषण ) सोच बदलो .. देश बदलो और छुपे दुश्मनों को पहचानो और आगे बढ़ो..! अंत में, लोहिया जी की काव्यपंक्ति ...अगर सड़क खामोश हो जाएगी तो ये संसद आवारा हो जाएगी ... हूल जोहार .. जय मूलवासी