|| D.Litt.in Media, Ph-D.in Linguistics, M.Phil in Linguistics(Gold Medal), Post Graduation in Linguistics (Gold Medal) || Area of Interest: Language, Linguistics, Applied Linguistics, Transformational Generative Grammar, Dialect-geography, Translation Studies, Machine Translation, Functional Hindi, Media Studies and Literary Analysis || DEAN & PROFESSOR, CENTRAL UNIVERSITY OF RAJASTHAN, NH-8, KISHANGARH, AJMER, RAJASTHAN, INDIA ||
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Saturday, 16 January 2016
Professor Ram Lakhan Meena: देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी ब...
Professor Ram Lakhan Meena: देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी ब...: देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर ...
देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है : प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
देश में उच्च शिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है
प्रोफ़ेसर डॉ. राम लखन मीना, राजस्थान केंद्रीय
विश्वविद्यालय, अजमेर
उच्च शिक्षा की व्यवस्था में ऐसे बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है
शिक्षा का सही उपयोग हम अपने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में
प्रभावी ढंग से कर सकें। रिपोर्ट के अनुसार हायर एजुकेशन देश का अगला पॉपुलर
सेक्टर होने जा रहा है। अर्नेस्ट ऐंड यंग की ताजा रिपोर्ट (ईडीजीई 2011) के मुताबिक, भारत
में उच्चशिक्षा खर्च 46, 200 करोड़ रुपये का आंकड़ा छू चुका
है। 2020 तक इसमें सालाना 18 प्रतिशत
की बढ़ोतरी का अनुमान है। 10 साल बाद यह खर्च 2,32,500
करोड़ रु के आसपास होगा। देश में फिलहाल 27,478 उच्चशिक्षा
संस्थान हैं (एक दशक पहले 11,146 थे) जो दुनिया में सर्वाधिक
है। यह संख्या चीन से 7 गुना और अमेरिका से 4 गुना अधिक है । 2009-10 के सत्र में देसी संस्थानों
में 1.6 करोड़ युवा पढ़ाई कर रहे थे। ग्रॉस एनरोलमेंट के
लिहाज से यह 12 प्रतिशत है जो ग्लोबल एवरेज से काफी कम है। देश
में उच्चशिक्षा में राजस्थान की स्थिति ओर भी बदतर है, राज्य के 34 जिलों में से
29 ग्रॉस एनरोलमेंट(12%) से भी नीचे है। केंद्र ने 2020 तक
30 प्रतिशत एनरोलमेंट का लक्ष्य रखा है।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार उच्चशिक्षा पर जीडीपी का महज 0.6
प्रतिशत खर्च करती है, जबकि फिनलैंड और स्वीडन
क्रमश: 1.6 और 1.4 प्रतिशत खर्च कर रहे
हैं। इस मामले में हम अमेरिका, रूस और ब्राजील से भी पीछे
हैं। देश में प्राइवेट कॉलेजों की तादाद तेजी से बढ़ी है और उच्च शिक्षा खर्च में
प्राइवेट संस्थानों का हिस्सा दो तिहाई पहुंच गया है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत
में कुल 26,470 उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में चीन में
महज 4,000 और अमेरिका में 6,707 संस्थान
ही हैं। इसी तरह भारत में केंद्रीय विश्वविद्यालय 42,
डीम्ड विश्वविद्यालय 230, राष्ट्रीय महत्व के
संस्थान 53,निजी विश्वविद्यालय 443 और
स्वायत्त संस्थान 25,957, कॉलेज -26 हजार हैं। काँग्रेस
अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गाँधीजी की पहल पर सप्रग सरकार ने उच्च शिक्षा के विस्तार पर बहुत
जोर दिया गया था ।
इस दौरान 30 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय, 8 नए आईआईटी, 7 नए आईआईएम, 37 अन्य तकनीकी संस्थान और जिला स्तर पर 373
नए कॉलेज स्थापित (राजस्थान
में अभी तक एक माडल कॉलेज स्थापित नहीं ) करने का प्रावधान किया गया था,
जिसके लिए 80,000 करोड़ रुपये की राशि भी
आबंटित की गई। इनमें से ज्यादातर संस्थान औपचारिक रूप से शुरू कर दिए गए हैं,
लेकिन अब भी उनमें पर्याप्त भवन, शिक्षक और
विद्यार्थियों का अभाव है। नए संस्थानों के लिए आबंटित 80,000 करोड़ रुपये में से मात्र 30,000 करोड़ रुपये का अभी
तक उपयोग हो पाया है।
विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं को लें तो वहां प्रश्नपत्रों के निर्माण से लेकर उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच तक का काम एक ऐसी यांत्रिक प्रक्रिया में कसा-बंधा है कि जिसे ढर्रा कह देने का मन करता है। यह यांत्रिकता विद्यार्थी के उचित एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन अथवा प्रोत्साहन के प्रति कितनी सजग और संवेदनशील है? यह प्रश्न विविध स्तरों पर व्यवस्था की पोल खोलता है। और उत्तर की खोज नये प्रश्न उत्पन्न करती है। वर्ष में 365 दिन होते हैं, विश्वविद्यालयों में 180 दिन पढ़ाई की मांग आये दिन होती है। पढ़ाई के दिन सैकड़े के आंकड़े को मुश्किल से छू पाते हैं। मगर ये पढ़ाई के दिन भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाते हैं। छात्र कक्षाओं में नहीं जाते हैं और शिक्षक कक्षाओं में नहीं आते हैं- जैसी शिकायतें अब सामान्य होती जा रही हैं। इसलिए, महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे चार या पांच सप्ताह जिनमें परीक्षाओं की तिथियां होती हैं और धीरे-धीरे वे पांच या सात दिन महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनमें परीक्षाएं होती हैं। फिर महत्वपूर्ण हो जाते हैं सिर्फ वे पांच प्रश्न जिनके हल करने से अधिकतम अंक मिल जाते हैं। इन प्रश्नों को हल करने के सारे रास्ते बाजार ने आसान कर दिए हैं- चैम्पियन, गाइड, गेस पेपर्स, सिलेक्टिव क्वेश्चन्स इत्यादि। और अंतत: ये सभी चक्र महत्वहीन हो जाते हैं और महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे पांच या सात मिनट जिसमें परीक्षक अपने मूड, मन और कार्याधिक्य आदि का दबाव, प्रभाव लेकर मूल्यांकन करता है। निश्चित ही इस मूल्यांकन प्रक्रिया की वैज्ञानिकता संदेह के घेरे में है।
सच यह है कि विद्यार्थी परीक्षार्थी बनता जा रहा है। कहते हैं शिक्षा व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देती है, उसे टाइप बना देती है। इस बात को सही मानते हुए यदि कारण खोजे जायें तो स्पष्ट होता है कि शिक्षा में परीक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है जिसका उद्देश्य प्रतिभा-प्रोत्साहन और गुणावलोकन है, किन्तु व्यवहारत: यह विद्यार्थी के वैशिष्टय को नकार कर उसे टाइप मान लेने का खुल्लमखुल्ला उदाहरण है। बड़े-बड़े शहरों में तो 80-90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे भी अपमानित होते हैं, क्योंकि अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलने के लिए इतने अंक भी पर्याप्त नहीं ठहरते हैं। नव-जीवन के साथ यह व्यवहार अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और परीक्षा की पूरकता को नये सिरे से, नये विकल्पों एवं आयामों के परिप्रेक्ष्य में सोचने-समझने के प्रयास तेज किये जाएं। वास्तव में पूरी शिक्षा-प्रणाली परीक्षा-केन्द्रित हो गई है और परीक्षा ‘वमन क्रिया’ जैसी रटने पर आधारित परिपाटी बनती जा रही है। ऐसे में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में इस प्रणाली से कुछ भिन्न और उदार, शायद थोड़े व्यावहारिक प्रयोग भी मौजूद हैं, जो सुधार का आह्वान करते हैं। कोठारी आयोग (1964-66) और माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-92) में कहा गया था कि मूल्यांकन संस्थागत होना चाहिए तथा उन्हीं के द्वारा होना चाहिए जो शिक्षक पढ़ा रहे हैं। इसमें परीक्षाओं पर निर्भरता कम करने की बात भी कही गयी थी। अंको की जगह ग्रेडिंग प्रणाली लाने के सुझाव भी समय-समय पर आये हैं। जानकारों का कहना है कि ग्रेडिंग प्रणाली से टयूशन जैसी व्यवस्था कमजोर पड़ेगी और परीक्षा में सफलता की गारण्टी का धन्धा करने वाले बाजार की विकृत भूमिका भी समाप्त होगी।
शिक्षक-मूल्यांकन का सवाल भी इन दिनों बड़ी शिद्दत से उभरा है। शिक्षा को सीखने पर आधारित बनाने और सिखाने पर जोर कम करने की बात भी एक आशापूर्ण आलोक है। प्रख्यात चिंतक एवं साहित्यकार रोमां रोला ने कहा था कि ”सत्य उनके लिए है, जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।” शिक्षा-जगत को इस शक्ति का सृजन करना होगा तथा शिक्षा और परीक्षा के संदर्भ से शुरू कर शिक्षा के व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार होना होगा। परीक्षा-प्रणाली में बदलाव या उसके विकल्प तलाशने के मुद्दे का समाज-शास्त्रीय पहलू भी है। किसी भी समाज में किसी भी वर्ग के लिए असहजता आरोपित करने वाले आयोजन उसे दुर्बल एवं असमर्थ बनाते हैं। स्वत: ही इस प्रकार के आरोपण झेलने वाला समाज या उसका विशेष-वर्ग जाने-अनजाने कुंठा या कमजोरी का शिकार हो जाता है। उसका सर्वांगीण नैसर्गिक विकास बाधित होता है। परीक्षाओं का ‘आपातकाल’ सामाजिक रूप से हमारे आत्मविश्वास, आत्मबल को आशंकाग्रस्त एवं भययुक्त वातावरण की ओर ले जाता है। छात्र और अभिभावक दोनों इस यंत्रणा को झेलते हुए शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का अनुभव करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए अस्वस्थता का वार्षिक आयोजन कोई अच्छा लक्षण नहीं है। परीक्षाओं में नकल माफियाओं के हाईटेक तरीके से नकल कराकर फर्जी अभ्यर्थियों को रोकने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा।
भारत सरकार की सांविधिक निकाय विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग (यूजीसी) संसद के अधिनियम के द्वारा भारत में विश्वविद्यालय/उच्च शिक्षा के समन्वयन
निर्धारण और स्तर के रख-रखाव करने के लिए
दिये गये आदेश के बावजूद राज्य
सरकार द्वारा उच्च शिक्षा परिषद की स्थापना अब तक भी नहीं की गयी है । उच्च शिक्षा परिषद की स्थापना के विभिन्न
उद्देश्यों में विश्वविद्यालयी शिक्षा
का संवर्धन और समन्वयन करना,विश्वविद्यालयों में शिक्षण, परीक्षा
और अनुसंधान का मानक निर्धारित करना,शिक्षा के न्यूनतम स्तर संबंधी विनियम
बनाना,महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में विकास की निगरानी
करना,संघ और राज्य सरकारों और उच्च शिक्षण संस्थाओं आदि के बीच महत्वपूर्ण
कड़ी का कार्य करना शामिल हैं । मानव संसाधन विकास राज्य
मंत्री शशि थरूर छात्रों को परीक्षा हॉल में किताब देखकर परीक्षा ( परीक्षा की ओपन बुक प्रणाली शुरू
करने का प्रस्ताव) देने की अनुमति एवं शिक्षकों को भी बहुपद्धतियों
का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित करने के बारे में सोच रहें है। वे छात्रों पर दबाव ब़ढाने की बजाय, एक ऐसी परीक्षा जिसमें रट कर याद करने की जरूरत नहीं है और उन पर मौजूदा दबाव
के स्तर को कम करने की वकालत करते नहीं थकते हैं । शहर के मुकाबले यदि हम गांव की बात
करें तो वहां शिक्षा का स्तर और भी नीचे है। हाईस्कूलों में पढ़ाई नाममात्र को होती
है। योग्य शिक्षकों का भी भारी अकाल है। जब तक शिक्षा विभाग में व्याप्त खामियों को
दूर करने के लिए कठोर कदम उठाना और राज्यों में शिक्षा के स्तर में सुधार उनकी प्राथमिकताओं
में शुमार नहीं है ।
भारत में उच्च शिक्षा की व्यवस्था काफी पुरानी हो
चुकी है। आज की स्थितियों से उसका कोई तालमेल नहीं रह गया है। अब उसमें ऐसे
बुनियादी बदलाव लाने की जरूरत है,
ताकि इस शिक्षा का सही उपयोग हम अपने आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय
के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से कर सकें। हमारे सभी उद्योग धंधों के लिए मानव पूंजी
की जरूरत है। इस पूंजी का निर्माण शिक्षा के माध्यम से ही हो सकता है। लेकिन आज
यहां सिर्फ पागल बनाने वाली ऐसी डिग्रियों की भीड़ है, जो
उपयोगिता की दृष्टि से बहुत काम की नहीं साबित हो रही हैं । दिल्ली विश्वविद्यालय की तर्ज पर
शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को उद्योग जगत के साथ बैठकर उनकी जरूरतो के मुताबिक बनाने की
दरकार है। भारत में शिक्षा, उच्च
शिक्षा और अनुसंधान के रास्ते में एक बड़ी बाधा है धन की कमी । यदि कोई केंद्रीय
वित्त मंत्री उच्च शिक्षा के लिए बजट का 24 प्रतिशत हिस्सा
इस मद में आवंटित कर दे, तो यहां का पूरा परिदृश्य ही बदल
जाएगा । यदि ऐसा हो, तो शायद भारतीय छात्रों को विदेशी
संस्थानों में नहीं भागना पड़े । शिक्षा में अनुसंधान का पाठ्यक्रम काफी पुराना है और अब वह अनुपयोगी हो
चुका है । हम नए अनुसंधानों को अपने पाठ्यक्रमों में तुरंत शामिल करने का प्रयास
नहीं करते । यहाँ तक कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में किये गये शोधों की सूची तक
प्रकाशित नहीं की जाती है । किसी भी बदलाव को लंबी औपचारिकताओं से गुजरना पड़ता है। शिक्षक अपने आप को
नवीनतम जानकारियों से लैस नहीं करते इससे जो छात्र डिग्री लेकर बाहर निकलते हैं,
उनकी जानकारी का कोई उपयोग हमारे उद्योग धंधों, व्यापार और सामाजिक विकास के क्षेत्र में नहीं हो पाता। पुराने
पाठ्यक्रमों को पढ़ने से वर्तमान शिक्षा का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।
हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कोई भी छात्र अपनी
रचनात्मकता को मारता है और भाग्य को साथी मानकर परिस्थितियों को सहन करना सीखता है
। इससे ऊर्जा व समय-दोनों का अपव्यय होता है । हमारा वर्तमान उच्च शिक्षा
पाठ्यक्रम एक जैसा कार्य करने के लिए तो ठीक है,क्योंकि उसमें बहुत समय से कोई बदलाव नहीं आया
है । जैसे
ऑफिसों में होने वाला कामकाज। लेकिन उद्योग क्षेत्र में काम करने के लिए ऐसी पढ़ाई
को लगातार अपग्रेड करने, उसे अनुसंधानपरक बनाने और उसे
प्रैक्टिल ट्रेनिंग पर आधारित बनाने की आवश्यकता है। यहां सिफारिश के आधार पर
नियुक्तियां होती हैं । घटिया किताबों को पाठ्यक्रमों में लगाने की सिफारिश की
जाती है । उपस्थिति और काम के बारे में सख्त नियम नहीं लागू किए जाते, न ही उनकी मॉनिटरिंग की जाती है । राज्य में दिल्ली विश्वविद्यालय की तर्ज
पर आन्तरिक मूल्यांकन की प्रक्रिया लागू होनी ही चाहिए । यहां मौलिक रिसर्च बहुत
कम होता है। सेमिनार, प्रशिक्षण कार्यशालाओं और संबंधित
संकाय द्वारा विकास कार्यक्रमों का अनुपात काफी कम रहता है। मानवीय कोणों से
अध्ययन करने में भी तेजी से गिरावट आ रही है। और हमारे विश्वविद्यालय आज राजनीति
का अखाड़ा बन गए हैं। वहां के चुनाव पार्टी लाइन पर लड़े जा रहे हैं। कुलपतियों की नियुक्ति
राजनीतिक आधार पर होती है । शैक्षिक सत्रों में हड़तालें की जाती हैं । इस स्थिति
को बदलने के लिए विश्वविद्यालयों में मूल्यांकन प्रक्रिया में आमूल-चूल सुधार की
आवश्यकता है । याद रखें कि एक प्रबुद्ध शिक्षक और कुशल छात्र ही हमारी मानव पूंजी
का विकास करता है, अन्यथा वह बोझ बन कर रह जाता है। कॉलेज के
पाठ्यक्रमों और शिक्षकों की गुणवत्ता के मूल्यांकन की तत्काल जरूरत है ।
सप्रग सरकार की योजना राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क (एनकेएन) की
स्थापना का लक्ष्य सशक्त और सुदृढ़ आंतरिक भारतीय नेटवर्क स्थापित करना है, जो सुरक्षित और
विश्वसनीय कनेक्टीविटी में सक्षम होगा जिसमें हाई-स्पीड बैकबोन कनेक्टीविटी की
स्थापना करना, ज्ञान और सूचना के आदान-प्रदान में सक्षम
समान व्यवस्था एवं सहयोगपूर्ण अनुसंधान, विकास और
नवरचना संभव बनाना तथा अभियांत्रिकी, विज्ञान, चिकित्सा आदि जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में उच्च दूरस्थ शिक्षा में सहयोग
करना और ई-गवर्नेंस के लिए अल्ट्रा हाई स्पीड बैकबोन सुगम बनाना है । इसमें
भागीदारी दर्ज करने हेतु उचित समय पर कदम उठाने के लिए राज्य सरकार को तत्पर रहना
होगा अन्यथा माडल कालेज खोलने की
परियोजना
की भाँति राज्य उसमें भी पिछड़ जायेगा । वांछनीय सामाजिक बुराई बन चुकी नौकरशाही
और सरकारी हुक्मरानों की कूपमन्डूकता की भेंट चढी इस योजना में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देखभाल, कृषि और शासन से सम्बद्ध सभी हितधारकों को समान मंच पर लाने और देशभर के वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और छात्रों को महत्वपूर्ण एवं उभरते क्षेत्रों में मानव विकास
को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर काम करने में सक्षम बनाना के सटीक प्रावधान किये गये थे
जिसमें राज्य के महाविद्यालयों को एकमुस्त तीन से पाँच सौ करोड़ रुपयों की धनराशि
मिल सकती थी।
अत: समाज के लिए समर्पित शिक्षा
तंत्र को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी सरकार को ही उठानी होगी । आज आवश्यकता एक ऐसे
केन्द्रीय संस्थान की है जो सम्मिलित प्रयास से चल रही शिक्षा व्यवस्था को उच्चस्तरीय
प्रकाशन सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही आवश्यक विपणन एवं तकनीकी सहयोग भी दे । उनकी
नीतियों में तालमेल बिठाए और उनके लिए वह सब कुछ करे जिससे वे सार्थक सामाजिक बदलाव
के सशक्त माध्यम बन सकें। उनमें इतनी ताकत आ जाए कि वे धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र
में भी मजबूती के साथ स्वयं को स्थापित कर सकें। अधिकतर लोगों के लिए ये बातें कपोलकल्पना
हो सकती हैं । लेकिन, यदि सही लोग सही दिशा में काम करें तो यह
सब संभव है और जब ऐसा होगा तब शिक्षा का अर्थ बदल जाएगा । शिक्षा लोकतंत्र के
विकास छत बन जाएगी, जिसकी छाया में समाज प्रगति की नित नई ऊंचाइयां
छूएगा ।
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