मुंशी प्रेमचंद की स्मृति
प्रोफ़ेसर राम लखन मीना
अध्यक्ष, हिंदीविभाग, राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर
प्रेमचंद जी के साहित्य को पढ़ते वक्त
अजीब टीस सी उठती है। कमजोर पात्रों के दुःख दर्द को जिस
सहजता से उन्होंने बयान किया है वह दुनिया के किसी साहित्यकार के बस में नहीं !
जीवन के दुखों को झेलते इन पात्रों से एक जुड़ाव सा हो जाता है।
हारे हुए आदमी को जिस तरीके से वे पेश करते हैं वो अद्भुत है।
गुलज़ार साहब की नज़्म प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को बहुत खूबसूरती से बयाँ
करती है। प्रेमचंद हिंदी के युग प्रवर्तक रचनाकार हैं। प्रेमचंद को गरीबी विरासत में मिली ।
प्रेमचंद सच्चे देशभक्त थे । वे अंग्रेजी शासन के सामने कभी नहीं
झुके । मुंशी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया ।
अंग्रेजी सरकार ने उनकी एक किताब ‘सोज ए वतन’ इसलिए जब्त कर
ली क्योंकि उसमें देशभक्ति की कहानियां थी ।
शुरू में वे धनपतराय के नाम से उर्दू में लिखते थे, बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम
से लिखना शुरू किया । प्रेमचंद को कैसे रखें, यही भूल गए सब के सब। प्रेमचंद हामिद के चिमटा वाले प्रेमचंद, गोबर और धनिया वाले
प्रेमचंद, दो बैलों वाले प्रेमचंद, गुल्ली
डंडा वाले प्रेमचंद। ऐसे कई पात्र हैं, जो लोगों की दिलों
में बसे हैं। अरसा गुज़र गया मगर अब भी प्रेमचंद
के हामिद, बदलू चौधरी, निर्मला, होरी, माधो, घीसू, धनिया सब-के-सब दिलो-दिमाग पर छाए से रहते हैं। कुछ पात्र जेहन
से कभी अलग नहीं हो पाते... एक राबता सा कायम हो जाता है उनके साथ।
सौ वर्ष गुज़र गए मगर प्रेमचंद के लेखन से आगे निकलना तो दूर कोई उनके
आस पास भी नहीं पहुँच पाया। उनकी कालजयी कहानियों का आलम है कि
पीढियां बदल गयीं मगर उनकी कहानियाँ आज भी जीवित हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे असली भारतीय लेखक थे जिसने
बगैर लाग लपेट के तत्कालीन देशिक परिस्थितयों को अपने लेखन का
आधार बनाया। धर्म निरपेक्षता, हिंदू-मुसलमान का
साझा कल्चर ग़रीबी, किसान-मजदूरों की समस्या, अशिक्षा, राष्ट्रीय आन्दोलन, महाजनी व्यवस्था, दहेज, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित-नारी
चेतना सब कुछ उनके लेखन में दिखता है। यद्दपि वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए
थे मगर उनकी प्रगतिशीलता का आलम यह था कि उनके 'हंस' के संपादन मंडल में
छह भाषाओं के बड़े लोग थे जो हंस को एक अखिल भारतीय पत्रिका के रूप में और स्वयं
प्रेमचंद को अखिल भारतीय व्यक्तित्व के रूप में
स्थापित करते थे।
महान कहानीकार उपन्यास सम्राट
प्रेमचंद के पात्र इस बात को और भी मजबूती प्रदान करते हैं! मुद्दत गुज़र गयी मगर चौथी पांचवी दर्जे में पढ़ी हुयी कहानियों के पात्र जेहन में आज भी जस के तस कैद
हैं. आज प्रेमचंद के जन्मदिन
पर उनकी याद आना लाजिमी है! उन्होंने प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य
रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न
साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की
सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15
उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ,03 नाटक,
10 अनुवाद, 07 बाल-पुस्तकें तथा हजारों
पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण,
भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और
प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह
अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान
रूप से दिखायी देती है, प्रेमाश्रम, रंगभूमि,
कर्मभूमि, निर्मला और गोदान उनके प्रमुख
उपन्यास हैं । गोदान उनका सबसे महान उपन्यास था ।
उनकी रचनाओं में
तत्कालीन इतिहास बोलता है। वे सर्वप्रथम उपन्यासकार थे जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी और ऐयारी से बाहर निकाल कर उसे
वास्तविक भूमि पर ला खड़ा किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का
मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की
कृतियाँ हैं।
प्रेमचंद की रचनाओं को देश में ही नहीं विदेशों में भी आदर
प्राप्त हैं। प्रेमचंद और उनकी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय महत्व है। आज उन पर और
उनके साहित्य पर विश्व के उस विशाल जन समूह को गर्व है जो साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और सामंतवाद के साथ संघर्ष में जुटा
हुआ है। प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन की विविध
समस्याओं का चित्रण हुआ है। उन्होंने मील मालिक और मजदूरों, ज़मीदारों और किसानों तथा नवीनता और प्राचीनता का संघर्ष दिखाया है। प्रेमचंद
के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डा. नगेन्द्र लिखते हैं, "प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को 'मनोरंजन'
के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया.
चारों और फैले हुए जीवन और अनेक सामयिक समस्याओं ने उन्हें उपन्यास लेखन के लिए
प्रेरित किया।" प्रेमचंद ने अपने
पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया है, किंतु
उनकी दृष्टि समाज से उपेक्षित वर्ग की ओर अधिक रहा है। प्रेमचंद जी ने आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद को अपनाया है। उनके पात्र प्रायः वर्ग के प्रतिनिधि रूप में सामने आते
हैं। घटनाओं ने विकास के साथ-साथ उनकी रचनाओं में पात्रों के चरित्र का भी विकास
होता चलता है। उनके कथोपकथन मनोवैज्ञानिक होते हैं। प्रेमचंद जी एक सच्चे समाज
सुधारक और क्रांतिकारी लेखक थे। उन्होंने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर दहेज,
बेमेल विवाह आदि का सबल विरोध किया है। नारी के प्रति उनके मन में
स्वाभाविक श्रद्धा थी। समाज में उपेक्षिता, अपमानिता और
पतिता स्त्रियों के प्रति उनका ह्रदय सहानुभूति से परिपूर्ण रहा है।
प्रेमचंद
ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की
हैरत-अंगेज़ कल्पना की। वे ईमानदारी के साथ
वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा की ये बंधन भीतर का है, बाहर
का नहीं। एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोइ भी शक्ति
उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे। सच्चा प्रेम सेवा ओर त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है। प्रेमचंद का पात्र जब प्रेम करने लगता
है तो सेवा की ओर अग्रसर होता है और अपना सर्वस्व परित्याग कर देता है। भाषा के सटीक, सार्थक एवं व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे
अपने समकालीन ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़
जाते हैं. शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी प्रेमचंद ने
हिन्दी उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। ...चित्रणीय विषय के अनुरूप
शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहले प्रेमचंद ने ही किया।
उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए दृश्य अत्यंत सजीव गतिमान और
नाटकीय हैं। प्रेमचंद ने सहज सामान्य मानवीय व्यापारों को
मनोवैज्ञानिक स्थितियों से जोड़कर उनमें एक सहज-तीव्र मानवीय रुचि पैदा कर दी।
धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने
पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली -- महराज,
घर में न गाय है, न बिछया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है और पछाड़
खाकर गिर पडी। भारतीय समाज में स्त्री की स्त्री की स्थिति का अति गंभीरता से
चिंतन हुआ है।
प्रेमचंद एवं प्रेमचंदोत्तर साहित्य में नारी की स्थिति का
विस्तार से वर्णन हुआ। प्रेमचंद के सभी उपन्यासों के नारी पात्र सामाजिक
विसंगतियों से जूझते मिलेगें। बड़े घर की बेटी, अलगोझ्या, कफ़न, जैसी प्रेमचंद
की कहानियों में नारी की वेदनामय स्थिति का चित्रण हुआ है। प्रेमचंद के समकालीन
प्रसाद की आकाशदीप, मधुलिका जैसी कहानियों में नारी के त्याग,
उदात्त रूप का चित्रण मिलता है। प्रेमचंद ने कहा है कि
जब पुरुष में स्त्री के गुण आ जाते हैं, तब वह देवता बन जाता है। ऐसे देवता-स्वरूप पुरुषों की समानांतर चर्चा चलती
रहती, तो स्त्री विमर्श इस संभावना को भी देख पाता कि पुरुष
संस्कृति में भी महत्वपूर्ण अंतर्विरोध हैं, जिसकी कोख से वह
सज्जन पुरुष निकल सकता है जिसकी स्त्री विमर्शकारों को प्रतीक्षा है। ऐसा कोई
आदर्शवाद नहीं है जिसमें जीवन के यथार्थ की अनुगूंज नहीं सुनाई पड़ती हो। इसी तरह,
ऐसा कोई यथार्थवाद नहीं है जिसमें आदर्शवाद के कुछ तत्व न हों। इसी
द्वंद्वात्मकता के माध्यम से ही वर्तमान कलुषित संस्कृति के बीच से एक बेहतर
संस्कृति की पीठिका खोजी जा सकती है और उसमें नए रंग-रूप भरे जा सकते हैं। प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में तो नारी के विविध रूपों एवं
स्थितियों के अनेक पहलू उजागर हुए हैं। असल में स्त्री की करुण दशा से उसे मुक्ति
दिलवाते वैचारिक एवं सामाजिक प्रयासों का आरंभ तो, जैसे कहा जा चुका है, राजा राममोहन राय से हो ही
चुका था। वास्तविक सेवा-सदनों तथा विधवा- आश्रमों की स्थापना भी हो चुकी थी। उसके
बाद लिखा भारतीय साहित्य कहीं न कहीं उन बातों को अपने साहित्य में स्थान देता रहा
था ।
प्रेमचन्द का प्रयास भी उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखा जा
सकता है। संपादकीयों में भी वही नज़रिया इस बात की पुष्टि करता है कि प्रेमचन्द
जन-संचार माध्यमों के द्वारा भी वही स्टेंड ले रहें हैं जो रचनात्मक साहित्य में
लेते रहे हैं। नारी-विषयक उनके सम्पादकीय में प्रकट उनके विचार उनकी रचनात्मक
अभिव्यक्ति से मेल खाते दिखते हैं- अर्थात् कहीं कोई फांक नहीं है। अलबत्ता, इस बात की पूरी तरह से पड़ताल करने की भी
आवश्यकता है कि उनके वास्तविक जीवन के साथ उनके वैचारिक और सर्जनात्मक चिन्तन कहाँ
तक जोड़ कर देखा जाना उचित है और देखने पर क्या परिणाम निकलते हैं। अपने
संपादकीयों में प्रेमचन्द उन स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं जो वास्तविक
रूप में अभावग्रस्त या शोषित है। जो अनपढ़, शोषित आदि है,
उनकी बेहतर स्थिति के लिए वे प्रयत्नशील दिखते हैं, किन्तु जो वहाँ पहुंच चुकी हैं उनके प्रति प्रेमचन्द के पास अतिरिक्त
अनुकंपा नहीं है। अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली स्त्रियों के प्रति,
या वे, जिनके पास किसी भी तरह की सत्ता है,
चाहे वह रचनात्मक क्यों न हो, उनके प्रति
प्रेमचन्द बहुत सहृदय नहीं दिखते। प्रेमचन्द के इस रवैये को आजकल के महिला-आरक्षण
मुद्दे के संदर्भ में देखा जाए तो मालूम होगा कि समान या लगभग समान स्तर प्राप्त
कर लेने पर शोषित समाज के प्रति समान भूमिका पर ही निर्णय लिया जाना चाहिए,
ऐसा आज एक पक्ष का मत उभरता दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचन्द कहीं ऐसा
मानते होंगे कि बौद्धिक तथा कला के क्षेत्रों में बराबरी की बात होनी चाहिए,
वहाँ पक्षपात की बात नहीं होनी चाहिए, वहाँ
पक्षपात या विशेषाधिकार के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि
प्रेमचन्द दलितों के पक्षधर तो थे परन्तु दलितों की राजनीति से उनका कोई मतलब नहीं
था। अर्थात दलित-चेतना एवं नारी-चेतना दोनों के वे पक्षधर थे परन्तु दोनों के
वादियों के वे पक्षधर नहीं थे। पश्चिम के नारी–आंदोलन संबंधी
दृष्टिकोण के प्रति प्रेमचन्द बहुत सहमत न भी हों, परन्तु
भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों के अधिकारों के लिए उन्होंने बहुत लिखा इसमें
दो-राय नहीं हो सकती । जहाँ तक केवल विचार प्रकट करने हों, कड़े
से कड़ा और कठोर से कठोर विचार प्रेमचन्द ने बेलौस एवं निर्भीकता से प्रकट किया है।
'स्वराज' उनके लेखन का प्रमुख विषय था बल्कि उन्होंने
1930 में कहा भी कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए
लिख रहे हैं। उन्होंने स्वराज्य का अर्थ
स्पष्ट किया कि महज़ सत्ता परिवर्तन ही स्वराज नहीं है। सामाजिक स्वाधीनता भी ज़रूरी है।
सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य संप्रदायवाद, जातिवाद,
छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था। उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी
कहना चाहिए. उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़
ग़रीब किसानों की लड़ाई है। जाति व्यवस्था
के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है।
प्रेमचंद किसी तरह के जातिवाद, किसी तरह के धर्मोन्माद,
किसी तरह की सांप्रदायिकता से मुक्त एक मानवधर्मी लेखक रहे हैं। उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह
अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के
बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था। वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे। मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे। उन्होंने हीरा-मोती में दो बैलों की जोड़ी,
आत्माराम में तोते को पात्र बनाया।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया।
प्रेमचंद
के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं। उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएँ
हैं तो उनके समाधान भी हैं। प्रेमचंद का
लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि
इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे।
अन्याय,
अत्याचार, दमन, शोषण आदि
का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे। प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिये
परिवर्तन की पैरवी करते हैं. उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिये संतुष्ट
करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और
हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा ऑर खुलापन दिया। कहानी और
उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन पैदा किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता
प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी
समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया।
प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद
ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को
पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी,
गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे।
प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की
कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में
वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज ने अछूत
और घृणित समझा था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को
दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। प्रेमचंद
हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।
प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल
देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम
से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं
उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श
बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार
फ़िल्में बनाईं। 1977 में शतरंज
के खिलाड़ी और 1981 में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के
सुब्रमण्यम ने 1936 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी
ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने
प्रेमचंद की कहानी कफ़नपर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। 8 अक्टूबर 1936 को इस महान लेखक का निधन हो गया,
पर उनकी रचनाएं आज भी अमर हैं ।